सोमवार, 30 जनवरी 2017

कविता

फिल्म - पूरब और पश्चिम


जब जीरो दिया मेरे भारत ने
भारत ने, मेरे भारत ने,
दुनिया को तब गिनती आई।
तारों की भाषा भारत ने,
दुनिया को पहले सिखलाई।

देता न दशमलव भारत तो,
यूँ चांद पे जाना मुश्किल था।
धरती और चांद की दूरी का,
अंदाज़ा लगाना मुश्किल था।

सभ्यता जहाँ पहले आई,
पहले जन्मी है जहाँ पे कला।
अपना भारत वो भारत है
जिसके पीछे संसार चला।

संसार चला और आगे बढ़ा,
यूँ आगे बढ़ा बढ़ता ही गया।
भगवान करे ये और बढ़े,
बढ़ता ही रहे और फूले-फले।

है प्रीत जहाँ की रीत, सदा-
मैं गीत वहाँ के गाता हूँ।
भारत का रहनेवाला हूँ,
भारत की बात सुनाता हूँ।

काले गोरे का भेद नहीं,
हर दिल से हमारा नाता है।
कुछ और न आता हो हमको,
हमें प्यार निभाना आता है।
जिसे मान चुकी सारी दुनिया,
मैं बात वही दोराता हूँ।
भारत का रहनेवाला हूँ
भारत की बात सुनाता हूँ।

जीते हों किसी ने देश तो क्या,
हमने तो दिलों को जीता है।
जहाँ राम अभी तक है नर में,
नारी में अभी तक सीता है।
इतने पावन हैं लोग जहाँ,
मैं नित-नित शीश झुकाता हूँ।
भारत का रहनेवाला हूँ
भारत की बात सुनाता हूँ।

इतनी ममता नदियों को भी,
जहाँ माता कहके बुलाते हैं।
इतना आदर इन्सान तो क्या
पत्थर भी पूजे जाते है।
उस धरती पे मैंने जनम लिया,
ये सोच के मैं इतराता हूँ
भारत का रहनेवाला हूँ
भारत की बात सुनाता हूँ।
000
kuber

बुधवार, 18 जनवरी 2017

कविता

पृथ्वी का भार ढोते हैं श्रमशील मनुष्य


समुद्र मंथन करनेवाले
और अमृत की प्रतीक्षा में कतार में बैठे
देवताओं में से कोई देवता नहीं हैं -
चन्द्रमा और सूर्य
धड़विहीन कोई दैत्य नहीं हैं -
राहु-केतु
चन्द्रमा ग्रहण और सूर्य ग्रहण का
कहीं कोई दूर-दूर का संबंध नहीं है इनसे

पृथ्वी किसी शेषनाग के फन पर नहीं टिकी है
और न ही टिकी है
एटलस नामक किसी देवता के कंधे पर
धरती का भार ढोते हैं, श्रमशील मनुष्य
धरती शस्यश्यामला कहलती है
श्रमसीकरों से

विश्वास करना आपका निजी मामला है
चाहे जितना विश्वास कर लें
मिथकों से भरे हुए शास्त्रों पर
पर आपका कोई अधिकार नहीं बनता
श्रम और श्रमशीलों की अवहेलना करने का
उनके महत्व को नकारने का।
000kuber000

सोमवार, 16 जनवरी 2017

कविता

आदमी की कोटियाँ


दो कोटियाँ प्रचलित हैं आदमी की -
नमक हलाल और नमक हराम
नमक और आदमी का संबंध
कोटियों का संबंध है
आदमी की कोटियाँ तय करता है नमक

नमक चाहता है खून बन जाना
खून चाहता है पसीना बन जाना
और
श्रमशीलों के माथे से
बह जाना
शिव के सिर से बहती है - जैसे गंगा

पसीना बनकर बहता हुआ नमक
आदमी को आदमी बनाता है
पसीना बनकर बहता हुआ नमक
आदमी को शिव बनाता है

पसीना बनकर बह जाना
नमक की सार्थकता है
और
पसीना बहाना आदमी की।
000     kuber

रविवार, 15 जनवरी 2017

कविता


भक्त या गुलाम

हे! क्षीरसागरी, शेषशायी
सचमुच अगम्य है तुम्हारी  दुनिया
अनिर्वचनीय हैं तुम्हारे कार्य
लोग जिसे तुम्हारी लीलाएँ कहते हैं।

ऐसा कहनेवाले तुम्हारी दुनिया देख आये हैं,?
तुम्हें लीलाएँ करते देख पाये है?

वस्त्र, रत्न, आभूषण और सारे आयुध
जिसे तुम धारण करते हो
इसी दुनिया के हैं
लक्ष्मी जहाँ से आयी है
वह भी इसी दुनिया में है
ऐश्वर्य तो लिया इस दुनिया से
गरीबी और बेबसी क्यों नहीं ली?
तुम्हारा स्वर्ग, क्षीरसागर और शेषशैया 
जहाँ तुम छिपे हुए हो
किस दुनिया के हैं?
इसका मर्म समझानेवाले सारे
इसे देख आये हैं?
मर्म समझानेवाले 
इसका मर्म समझा पायेंगे?

इस समाज की रचना करनेवाले
हे! समाजविहीन
ऋषि कहतें हैं तो
समाज की समझ तुम्हें जरूर होगी

तुमने अर्जुन से कहा है -
’’चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धîकर्तारमव्ययम्।।’’
बताओगे, कैसे?
यह सच है?

गाँव-गाँव, गली-
गली और मुहल्ले-मुहल्ले में तैनात
तुम्हारे बारे में तरह-तरह की जानकारियाँ देनेवाले
धनसागर और ज्ञानसागर में अवगाहन करनेवाले
मुक्ति का मार्ग बतानेवाले, तुमसे बंधे, अमुक्त लोग
बताओगे
तुम्हारे भक्त हैं,
या तुम्हारे गुलाम?
000                                              KUBER

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

कविता

गोल-गोल घानी, ठाँय-ठाँय पानी।


गोल-गोल घानी, देखो मेरा पानी।
गोल-गोल घानी, कित्ता तेरा पानी?

गोल-गोल घानी, माड़ी-माड़ी पानी।
गोल-गोल घानी, जिद्दु, मित्तु अबानी।

गोल-गोल घानी, कनिहा-कनिहा पानी।
गोल-गोल घानी, जिद्दु, मित्तु अदानी।

गोल-गोल घानी, अरब, परब, घाटी।
गोल-गोल घानी, हम इलुमिनाटी।

इधर से जाऊँगा। आतंकी बिठाऊँगा।
इधर से जाऊँगा। नक्सली बिठाऊँगा।
इधर से जाऊँगा। पुलिस बिठाऊँगा।
इधर से जाऊँगा। फौजी बिठाऊँगा।

गोल-गोल घानी, दे दो मालिक पानी।
गोल-गोल घानी, कहाँ है तेरा पानी?

गोल-गोल घानी, दे दो साहब पानी।
गोल-गोल घानी, ठाँय-ठाँय पानी।
000

रविवार, 8 जनवरी 2017

कविता

सरकार ताप से डरती है


बेजान शरीर ठंडा हो जाता है
ठंडा हो जाना, ताप का गिर जाना है,
ठंडा हो जाना, मर जाना है

ताप को बनाये रखना, जिंदा रहना है
गरमाए रहना, जिंदा रहना है
जानदार शरीर गरम रहता है

सरकार ताप से डरती है
ताप से आग भड़कने का खतरा होता है
सरकार को ठंडा देश चाहिए
सरकार को ठंडी जनता चाहिए
सरकार को मुर्दों की भीड़ चाहिए

सरकार की व्यवस्था हमेशा
पर्याप्त और दुरुस्त रहती है
देश में ठंडकता बनाये रखने के लिए
जनता को ठंडा बनाये रखने के लिए

मुआवजे और सस्ते अनाज 
अग्निशमन यंत्र हैं, सरकार के
आग को यह काबू में रखता है
देश को यह ठंडा बनाये रखता है
जनता इससे ठंडी बनी रहती है

सरकार हमेशा सुरक्षित दूरी बनाकर रखती है
आग और चीजों के बीच में
सरकार हमेशा अग्निशमन यंत्र लगाकर रखती है
आग और लोगों के बीच में

आग को कोई देख न ले
आग को कोई पहचान न ले
आग को कोई पा न ले
इसलिए आग को
और आग की पहचान को
सरकार हमेशा छिपाकर रखती है

सरकार हमेशा
विचार करनेवालों को पटाकर
धमकाकर, गरियाकर, ललचाकर 
या फिर अंत में, अपने रास्ते से हटाकर रखती है

सरकार हमेशा
विचारों को दबाकर रखती है।
000

मंगलवार, 3 जनवरी 2017

कविता

1. इसी शहर में

 

अब,
अड़सठ साल बाद
भीखमंगों की हैसियत बढ़ गई है
या,
भीख देनेवालों की,
पता नहीं

भीख में अब वे खुल्मखुल्ला
दस मांगने लगे हैं

पता नहीं
कौन सी दुआएँ देते होंगे - दस
देने पर वे
पर नहीं देने पर
सुनने को जरूर मिलती हैं -
’’चोदरो के हो!
दस रूपिया घला नई हे, तुँहर तीर?’’
(यह मेरा अनुभव है।)

तब की बात,
विनोद कुमार शुक्ल बताते हैं -
भात पसाते ही
’’भीख मांगनेवाले आना शुरू कर देते।
पुकारते - ’बाई! पसिया-पेज दे दे।’
पसिया-पेज की भीख दी जाती।’’

कुछ भी हो
भूखे
खाने की गंध दूर से सूँघ लेते हैं -
कुत्ते-बिल्लियों की तरह

कुछ भी हो
भूख
आदमी को कुत्ता बना देता है

और,
कुछ हो, या न हो
यह देश आज
कुत्तों का देश बनता जा रहा है।
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2. विचार

 

विचार खुशबू की तरह होते हैं
’सु’ के साथ

’कु’ के साथ
बदहजमी की हवा से गंधाए
कमरे की हवा की तरह हो जाते है
सारे विचार

और
बदहजमी पालनेवालों की कमी नहीं है
आज, इस देश में।

’विचार खुशबू की तरह होते हैं’
यह कथन
अशुद्ध और अपूर्ण कथन है।
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