मंगलवार, 3 जनवरी 2017

कविता

1. इसी शहर में

 

अब,
अड़सठ साल बाद
भीखमंगों की हैसियत बढ़ गई है
या,
भीख देनेवालों की,
पता नहीं

भीख में अब वे खुल्मखुल्ला
दस मांगने लगे हैं

पता नहीं
कौन सी दुआएँ देते होंगे - दस
देने पर वे
पर नहीं देने पर
सुनने को जरूर मिलती हैं -
’’चोदरो के हो!
दस रूपिया घला नई हे, तुँहर तीर?’’
(यह मेरा अनुभव है।)

तब की बात,
विनोद कुमार शुक्ल बताते हैं -
भात पसाते ही
’’भीख मांगनेवाले आना शुरू कर देते।
पुकारते - ’बाई! पसिया-पेज दे दे।’
पसिया-पेज की भीख दी जाती।’’

कुछ भी हो
भूखे
खाने की गंध दूर से सूँघ लेते हैं -
कुत्ते-बिल्लियों की तरह

कुछ भी हो
भूख
आदमी को कुत्ता बना देता है

और,
कुछ हो, या न हो
यह देश आज
कुत्तों का देश बनता जा रहा है।
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2. विचार

 

विचार खुशबू की तरह होते हैं
’सु’ के साथ

’कु’ के साथ
बदहजमी की हवा से गंधाए
कमरे की हवा की तरह हो जाते है
सारे विचार

और
बदहजमी पालनेवालों की कमी नहीं है
आज, इस देश में।

’विचार खुशबू की तरह होते हैं’
यह कथन
अशुद्ध और अपूर्ण कथन है।
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