सोमवार, 29 अगस्त 2016

व्यंग्य

न्यूनतम अर्हताएँ


दरवाजे के बाहर खड़े उस आदमी जैसी विचित्र आकृति को देखकर मैं चैंका। घबराहट भी हुई। विचित्र रंग-रूप और वेशभूषा थी उनकी। देखने में खतरनाक दिख रहा था। थोड़ी दूर पर एक विचित्र वाहन खड़ी थी। अनुमान लगाने में दिक्कत नहीं हुई, यह उन्हीं की वाहन थी। दिन का समय था। गली में चहन-पहल थी। इधर-उधर से कुछ हिम्मत बटोरा। इस आसन्न खतरे से डरकर भागने में मूर्खता दिखी। सोचा, कोई विदेशी होगा, भारत भ्रमण पर आया होगा। पूछा - ’’कहिए, किससे मिलना है?’’

उनके पास एक यंत्र थी। यंत्र सक्रिय था। उसमें से विचित्र भाषा में कुछ आवाजें निकली। फिर उसने कुछ कहा, बिलकुल उस यंत्र से निकलनेवाली भाषा की तरह की भाषा में। फिर यंत्र कहने लगी - ’’मुझे मि. कुबेर से मिलना है। आप ही हैं न मि. कुबेर?’’

मुझे समझते देर न लगी। दरअसल वह यंत्र अनुवादक यंत्र थी। मेरी भाषा, जिसे मैं हिन्दी कहता हूँ, का उनकी भाषा में और उनकी भाषा का मेरी भाषा में अनुवाद कर रही थी। वाह! क्या चमत्कार था।

पर सबसे बड़ा चमत्कार तो वह आदमी खुद था, जिसे मेरा नाम-पता, सबकुछ मालूम था। मैं बुरी तरह घबरा गया - कहीं आतंकवादी या माओवादी न हो। देशी-विदेशी कोई जसूस न हो। उलझन में था, इसे भीतर बुलाया जाय या नहीं। भीतर से किसी दूसरे कुबेर ने कहा - अबे भोकू! यदि यह अंदर आने की ठान ही ले तो रोक सकेगा तू?

किसमत अच्छी थी, इसे देखकर डरनेवाला इस समय घर में मेरे सिवा और कोई नहीं था। फिर भी, अपहरण, चोरी-डकैती आदि का खतरा तो था ही। और दुर्भाग्य से यदि ऐसा हुआ तो पुलिस मुझे ही दोष देगी। मन ने ईश्वर को याद किया - हे! ईश्वर-अल्ला तेरो नाम, कैसा संकट लायो राम।

उसका अनुवादक यंत्र कहने लगी - ’’मि. कुबेर, इस समय आप जैसा सोच रहे हैं, वैसी कोई बात नहीं है। मेरी ओर से आपको कोई खतरा नहीं है। मैं हूँ शकाप्र, चाहें तो आप मुझे अपनी भाषा में प्रकाश कह सकते हैं। दरअसल मैं जहाँ से आया हूँ वहाँ हर चीज आपके यहाँ से उल्टी है। पर मैं आप ही की तरह एक अच्छा आदमी हूँ। मुझे आपसे कुछ मदद चाहिए।’’

मैं, और अच्छा आदमी? वाह! यह तो खुशामद करना भी जानता है। मन ही मन कहा - पता नहीं यह साला विचित्र आदमी मदद के नाम पर पैसा मंगनेवाला है कि किरायादार बननेवाला है। अच्छी चालाकी है। कहते है, मेरी ओर से कोई खतरा नहीं है। और मदद भी चाहिए। अरे, तुम क्या जानो, आज मदद करना ही यहाँ सबसे बड़ा खतरा होता है।

वह यंत्र फिर कहने लगी - ’’मि. कुबेरजी, आप जैसा सोच रहे हैं, वैसी कोई बात नहीं है। मदद में न तो मुझे धन चाहिए और न ही आपका मकान किराये पर। कुछ सलाह आपसे चाहिए। अंदर चलकर बैठने के लिए नहीं कहोगे?’’

’’पर मि. जी शकाप्र! आपने अपना परिचय तो बताया नहीं।’’

’’ओह! क्षमा करें कुबेरजी, आप इतना तो समझ ही चुके होंगे, मेरे हाथ की यह मशीन ’मल्टीफंक्शनल डिवाइस’ अर्थात कई काम एक साथ कर सकने में सक्षम मशीन है। इस समय यह ’ब्रह्माण्डीय भाषा अनुवादक’ अर्थात  ’युनिवर्सल नरेटर’ मशीन की तरह काम कर रही है। यह मशीन इस ब्रह्माण्ड की किसी भी भाषा का आपस में अनुवाद कर सकती है। यह ’यू थाटनेट’ का काम भी करती है। मतलब यह कि यह मशीन ब्रह्माण्ड में किसी के भी हृदय के भाव या मन के विचारों को पकड़कर उससे संपर्क स्थापित कर सकती है। बाहर खड़ी यह वाहन मेरा ’हाइपरफोटाॅनिक स्पेस शटल’ अर्थात फोटाॅन मतलब प्रकाश की गति से दसगुनी गति से उड़ने वाली अंतरिक्ष यान है। इससे कुछ ही पल में आपके सूर्य तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ से ’फाइव थाॅट सेकंड’ दूर ’तीरध’ नामक ग्रह से मैं आया हूँ। उल्टा देखने पर यह धरती जैसी ही है। ’थाॅट सेकंड’ का मतलब होता है - मन की गति से चलने पर एक सेकंड में तय की गई दूरी। मन की गति से चलने पर हमारे ग्रह तक पहुँचने में पाँच सेकंड का समय लगता है। अपना नाम तो मैंने आपको पहले ही बता दिया है।’’

मैंने उसे अंदर आने के लिए आमंत्रित किया। बैठने के लिए सोफे की ओर इशारा किया। परंतु वह सोफे पर नहीं बैठा। उसने अपने ’मल्टीफंक्शनल डिवाइस’ का एक बटन दबाया। जाने कहाँ से कुर्सीनुमा एक यंत्र प्रगट हो गया जिस पर वह मजे से बैठ गया। मैंने उसे चाय-पान के लिए पूछा, परंतु उसने धन्यवाद कहकर शिष्टतापूर्वक मना कर दिया। जान बची लाखों पाय। मैंने हिम्मत करके पूछा - ’’पर यहाँ किसलिए आये हो, मि. जी शकाप्र?’’

उसने कहा - ’’मि. कुबेर, मैं एक रिसर्चर हूँ। ब्रहमाण्ड के रहस्यों पर रिसर्च कर रहा हूँ। यहाँ से गुजरते समय ’मल्टीफंक्शनल डिवाइस’ पर यहाँ के बारे में अजीब-अजीब सूचनाएँ आने लगी, जैसे - यहाँ के लोगों को स्वर्ग-नर्क के बारे में जानकारी है। यहाँ के लोग ईश्वर नामक किसी सुपर पावर के बारे में जानते हैं। यहाँ पर तरह-तरह के धर्म पाये जाते हैं, आदि, आदि  ....। ये बातें हमारे लिए नई हैं। अब मुझे इनके बारे में रिसर्च करना है। फिलहाल, मुझे तो आपकी यह धरती ही स्वर्ग जैसा लगी। इसलिए मुझे यहाँ लैंड करना पड़ा।’’

’’अरे! प्रभु, तब तो आप गलत जगह पर लैण्ड कर गये हैं। और वह भी मेरे घर में। इसके लिए तो आपको अमेरिका या इंगलैण्ड में लैंड करना था। आपको बड़े-बड़े युनिवर्सिटी और विद्वान वहाँ मिल सकते थे। यहाँ क्या खाक मिलेगा।’’

’’मि. कुबेर! हमारी यह ’मल्टीफंक्शनल डिवाइस’ कभी गलत सूचाएँ नहीं देती। इसमें हमने तुम्हारी धरती की सबसे अच्छी जगह और सबसे अच्छे व्यक्ति के बारे में सर्च किया है। इसने इसी जगह की और आपकी जानकारी दी है। इसीलिए हमने यहाँ लैण्ड किया है।’’

’’मि. जी शकाप्र! अभी आपने कहा, आपकी ग्रह में हर चीज यहाँ से उल्टी है। मुझे लगता है, आपकी यह मशीन जो सूचनाएँ दे रही है, वे सब उल्टी हैं। उसे सीधा करके देखिए - यह जगह दुनिया की सबसे खराब जगह है और मैं दुनिया का सबसे खराब आदमी हूँ।’’

’’नहीं, नहीं मि. कुबेर, यह मशीन इस तरह की गलती कभी नहीं करती। आपके कहने से पहले हमने इसे चेक करके देख लिया है। यह बिलकुल ठीकठाक है।’’

’’मि. जी शकाप्र! आप नहीं जानते; यही यहाँ की विशेषता है। चाहे कोई मशीन हो या आदमी का दिमाग, यहाँ आते ही खराब हो जाती है। यहाँ आते ही हर चीज खराब हो जाती है। अभी-अभी मेडिकल काॅलेज और अस्पतालों में करोड़ों रूपये की आधुनिकतम मशीनें आई हैं। चालू करते ही खराब हो गईं। करोड़ों की जान बचानेवाली दवाइयाँ खराब होकर जान लेने लगी हैं। डाॅ. बनते ही डाॅक्टरों का दिमाग खराब हो जाता है। भूख से मरा हुआ गरीब उन्हें आँतों के केंसर का मरीज दिखई देने लगता है। सामूहिक बलात्कार की शिकार मसूमों के जख्म डिस्को डांस के स्टेप्स के कारण बनी दिखाई देने लगती हैं। इंजीनियर बनते ही इंजीनियरों का, अधिकारी बनते ही अधिकारियों का, अध्यापक बनते ही अध्यापकों और मंत्री बनते ही नेताओं के, दिमाग खराब हो जाते हैं। इमारतें, पुल और सड़कें बनते-बनते ही खराब हो जाती हैं। फिर भी, मि. जी शकाप्र! मजे की बात यह कि यहाँ कोई भी मशीन और कोई भी दिमाग अपनी खराबी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।’’

उन्होंने अपने ’मल्टीफंक्शनल डिवाइस’ की कुछ बटनें फिर दबाई और आश्वस्त होने के बाद कहा - ’’मि. कुबेर, यह मशीन ’आटो रिपेयरेबल’ है। अपनी खराबियाँ और गलतियाँ खुद ही ठीक कर लेती है और अभी यह एकदम ठीकठाक काम कर रही है। यह आपकी बातों का समर्थन तो कर रही है। पर अपने पहले की सूचनाओं की पुष्टि भी कर रही है कि आप सही आदमी हैं।’’

मुझे क्रोध आया। कहा - ’’क्या खाक सही आदमी यार? आपको पता है - अहंकारी, बेईमान, नीयतखोर, नीच, कुत्ता, कमीना, ढेंचू, घोंचू, भोंकू, बांगड़ू, ये तमाम तमगे अपने कंधे पर चिपके हुए हैं।’’

उसने मंद-मंद मुस्काया, कहा - ’’कोई बात नहीं मि. कुबेर! हमने आपके बारे में और आपको ऐसे तमगे देनेवालों के बार में रिसर्च कर लिया है। हकीकत का हमें पता चल चुका है। सब ठीक है, हमारा डिवाइस आपके ग्रह के बारे में और भी बहुत सारी आश्चर्यजनक तथ्यों की जानकारी दे रही है। मसलन - यहाँ जब-जब पाप और अधर्म बढ़ते हैं, ईश्वर यहाँ अवतरित होकर उसका निवारण करते हैं। यहाँ ईश्वर के कई अवतार हो चुके हैं। मन की गति से उड़नेवाली विमान का विकास आपके यहाँ हमसे पहले ही हो चुका है। आपके यहाँ की मन की गति से उड़नेवाली विमान की टेक्नालाॅजी के बारे में हमें जानना है। सारे अवतारों की सच्चाई जानना है। गीता के उपदेशों के तरंगों को भी पकड़ना है। और भी बहुत सी बातों के बारे में हमें रिसर्च करना है। मैंने सोच लिया है कि इसके लिए मुझे यहाँ कुछ दिन रुकना होगा।’’

’’रुकना होगा? क्या आपने यहाँ की सरकार से इसके लिए अनुमतिपत्र लिया है? और ठहरिए, आपने अभी क्या कहा - ’आपने सोच लिया है।’ आप सोचते भी है?’’

’’क्यों, सोचना-विचारना भला कोई कैसे छोड़ सकता है?’’

’’छोड़ना ही पड़ेगा। यहाँ रहना है तो सोचना-विचारना छोड़ना ही पड़ेगा, मि. जी शकाप्र। वरना आपको यहाँ जीने नहीं दिया जायेगा। हत्या हो जायेगी आपकी। हमें देख लो, हमने तो कान पकड़कर सोचना-विचारना छोड़ दिया है। यहाँ सोचने-विचारने का काम यहाँ की सरकार करती है। हमें तो चुनाव में केवल वोट देना होता है, वह भी बिना सोचे-विचारे।’’

’’तो क्या आप लोग यहाँ बिना सोचे-विचारे ही काम करते हैं, मि. कुबेर।’’

’’सही अनुमान लगया आपने, मि. जी शकाप्र, हमारे यहाँ अब सोच-विचारकर बोलना और काम करना अघोषित रूप से प्रतिबंधित है।’’ मेरी बातें सुनकर वह कुछ परेशान दिखने लगा। मैंने उससे फिर पूछा - ’’अच्छा, आपको यहाँ के ट्रैफिक रूल के बारे में पता है?’’

उसने अपने यंत्र पर कुछ पढ़ा और कहा - ’’आपके यहाँ का ट्रैफिक रूल हमारे यहाँ के रूल से बिलकुल उल्टा है। लेकिन अब हमने वह सीख लिया है।’’

’’न, न, मि.जी शकाप्र! आप यहाँ की ट्रैफिक रूल सीखकर बहुत बड़ी गलती करेंगे। यह भूल आप कदापि न करें। यहाँ की सड़कों पर चलने के लिए आपको सारे ट्रफिक रूल भूलने पड़ेंगे। बस एक ही रूल आपको याद रखना होगा। जिधर भी, जहाँ भी थोड़ी जगह दिखे, आपको वहीं अपना सींग धुसा देना होगा। और हाँ, आप पान, खैनी-गुटखा खाते हैं कि नहीं?’’

’’पान, खैनी-गुटखा?’’

’’नहीं खाते? दुख की बात है, मि.जी शकाप्र! यहाँ की सड़कों पर चलते हुए पान, खैनी-गुटखा खाना और दायें-बायें थूकना यहाँ का जरूरी धार्मिक कृत्य है। इस परंपरा को यहाँ थूँक-दान कहा जाता है। अगल-बगल चलनेवालों के चेहरों पर थूँक के छींटे पड़ने से बड़ा पुण्य मिलता है। अच्छा, एक बात और बताएँ; आपको सड़क किनारे या किसी सार्वजनिक स्थल पर खड़े होकर मूतना आता है?’’

’’खुले में मूतना? क्या यहाँ मूत्रालय नहीं होते?’’

’’सवाल मूत्रालय के होने, न होने का नहीं है, मि. जी शकाप्र! महत्वपूर्ण है परंपरा और उसको निभाना। यह यहाँ की बड़ी प्राचीन परंपरा है। इस परंपरा को यहाँ मूत्रदान परंपरा कहा जाता है। ऐसा करने से बड़ा पुण्य लाभ होता है। इस पर रोक लगाने का मतलब होगा, यहाँ की परंपरा प्रेमी, श्रद्धान्ध जनता को बहुत बड़े पुण्य लाभ से वंचित करना। यहाँ की जनता इसे कतई बरदास्त नहीं करेगी। हिंसात्मक आंदोलन हो जायेगी।’’

मेरी बातें सुनकर मि. शकाप्र की चिंताएँ और बढ़ गई। गर्म लोहे पर हथौड़ा मारते हुए मैंने कहा - ’’मि. जी शकाप्र! आप देश की कानून का सम्मान तो करते होंगे, उससे डरते भी होंगे, है न?’’

’’क्यों, देश की कानून का सम्मान नहीं करना चाहिए क्या?’’
’’बिलकुल नहीं, मि. जी शकाप्र?’’
’’यह तो अपराध है।’’
’’आपके यहाँ होगा। यहाँ इसे स्टेटस सिंबल कहा जाता है।’’
’’अद्भुत, मि. कुबेर! तब तो अपराध करने से यहाँ कोई डरात नहीं होगा?’’

’’अपराध से डरना? अरे, क्या कहते हो मि. जी शकाप्र! एक यही काम तो है, जिसे यहाँ के लोग पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करते हैं। निष्ठा और ईमानदारी को बचाने लिए अपराधकर्म को कायम रखना जरूरी है। समझे?’’

मेरी बातें सुनकर वह सचमुच ही घबराने लगा। मैंने फिर हथौड़ा चलाया - ’’मि. जी शकाप्र! यहाँ रहने के लिए जो न्यूनतम अर्हताएँ चाहिए, वह भी आपके पास नहीं है। कैसे रह सकेंगे आप यहाँ?’’

उसने बुझे मन से कहा - ’’आप ठीक ही कहते हैं मि. कुबेर। यह तो मुझे अर्जित करना ही पड़ेगा। जल्द ही लौटकर आऊँगा। तब तक के लिए अलविदा।’’

उसे बिदा करते हुए मैंने मन ही मन कहा - वह दिन कभी नहीं आयेगा मि. जी शकाप्र। अलविदा।
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रविवार, 28 अगस्त 2016

आलेख

परंपराएँ 


जनजातीय क्षेत्रों में मुर्गे की लड़ाई आपने देखी होगी। ग्लेडिएटर्स की लड़ाई भी ऐसी ही होती थी। पहले रोम के सामंत वर्ग मनोरंजन के लिए दासों को एक दूसरे से लड़वाते थे। ऐसे दासों को ग्लेडिएटर कहा जाता था। दर्शक इनकी हार.जीत पर दांव लगाते थे। ग्लेडिएटर अपने.अपने हथियारों के साथ लड़ते थे। लड़ाई तब तक जारी रहतीए, जब तक कोई एक मर न जाय या घायल होकर अचेत न हो जाय। कभी.कभी दोनें ग्लेडिएटर मर जाते थे। इनके मरने पर सामंत खुश होते थे। गुलामों की जिंदगी पशुओं से भी बदतर होती थी।

आज के संदर्भ में मुझे गोविंदा पर्व पर दही लूट का प्रसंग स्मरण हो आता है। आजकल सार्वजनिक चैक.चैराहों पर दही लूट की हंडियाँ बांधी जाती हैं। हंडियों की ऊँचाई पचास फीट तक हो सकती है। हजारों.लाखों रूपयों के ईनाम रखे जाते हैं।

परंपराएँ वही हैं। रूप में परिवर्तन जरूर हुआ है।


शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

कविता

है सबका ख़ुदा सब तुझ पे फ़िदा
अल्लाहो ग़नी अल्लाहो ग़नी
हे कृष्ण कन्हैया, नंद लला
अल्लाहो ग़नी अल्लाहो ग़नी

मुट्ठी भर चावल के बदले
दुख दर्द सुदामा के दूर किए
पल भर में बना क़तरा दरिया
ऐ सल्ले अला
अल्लाहो ग़नी अल्लाहो ग़नी

दिलदार ग्वालों बालों का
और सारे दुनियांदारों का
सूरत में नबी सीरत में ख़ुदा
ऐ सल्ले अला
अल्लाहो ग़नी अल्लाहो ग़नी

मन मोहिनी सूरत वाला था
न गोरा था न काला था
जिस रंग में चाहा देख लिया
ऐ सल्ले अला
अल्लाहो ग़नी अल्लाहो ग़नी

तालिब है तेरी रहमत का
बंदए नाचीज़ नज़ीर तेरा
तू बहरे करम है नंद लला
ऐ सल्ले अला
अल्लाहो ग़नी अल्लाहो ग़नी

नज़ीर अकबराबादी

शनिवार, 20 अगस्त 2016

व्यंग्य

 व्यंग्य

विभूति प्रसाद 'भसेड़ूजी'


हमारे संस्कारधानी में एक साहित्य विभूति हैं; नाम है - हमारे संस्कारधानी में एक साहित्य विभूति हैं; नाम ही है - विभूति प्रसाद भसेड़ू। इस विभूतिमय नाम में भसेड़ू उनका साहित्यिक उपनाम है। अपने विरोधियों को भसेड़ने में वे बड़े माहिर हैं।  उनके द्वारा भसेड़ा हुआ व्यक्ति कम से कम छः महीने के लिए कोमा में चला जाता है। जब वे अपने किसी विरोधी को भसेड़ रहे होते हैं तो उनके भक्तों में हर्ष की लहर दौड़ जाती है, जो उन्हें कम से कम छः महीने तक हर्षाती रहती है। परमात्मा का अंश धारण करनेवाले इस शहर में वे अकेले हैं। हम जैसे परमात्मेत्तर मनुष्यों के बीच धर्म, संगीत और साहित्य का प्रचार-प्रसार करने के लिए ही परमात्मा ने उसे यहाँ अवतरित किया है। इस शहर में माई का वह लाल अब तक पैदा नहीं हो सका है जिसने उसकी भसेड़ू-कृपा प्राप्त किये बिना संगीत का ’स’ तथा कहानी और कविता का ’क’ लिख पाया हो। उनके पैदा होने के पहले इस शहर में जितने महान साहित्यकार हुए हैं यदि उन पर भी कृपा बरसती होगी तो वह भसेड़ूजी की ही भसेड़-कृपा होती थी। तब वे स्वर्ग में बैठकर यह चमत्कार किया करते थे। धर्म के ’ध’ की बहुआयामी व्याख्या जिस तरह वे करते हैं, वह तीनों लोकों में दुर्लभ है। भसेड़ूजी यहाँ के धर्मप्रेमियों, संगीतकारों और साहित्यकारों के स्वयंभू गाॅडफादर और धर्म प्रशिक्षक हैं। 
 
भसेड़ूजी मुझे भी अक्सर भसेड़ते रहते हैं। कई बार कोमा में जा चुका हूँ। पहली बार उसने मुझे कुछ इस प्रकार भसेड़ा था -

हिन्दी दिवस पर कार्यक्रम था। नगर के नामचीन साहित्यकार हिन्दी की दशा-दुर्दशा पर आँसू बहाने के लिए जुटे हुए थे। हिन्दी की मान-प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए भसेड़ूजी को ही कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाया गया था। चर्चा का विषय था - ’’हिन्दी लेखन में वर्तनियों की अशुद्धियाँ’’। विषय पर बोलने के लिए मुझे माइक थमाया गया। मैंने बोलना शुरू किया - ’’भाषा का निर्माण समाज ने किया है ... ’’

भसेड़ूजी को मेरा यह वाक्य हजम नहीं हुआ। बीच में ही मुझे जबरदस्त तरीके से भसेड़ते हुए उन्होंने कहा - ’’ओय, हेलो! भाषा का निर्माण समाज ने किया है? भाषा से आपका मतलब क्या है?’’   
’’भाषा, जिसे हम सब बोलते हैं, ......।’’
’’हम सब बोलते हैं मतलब?’’
’’मनुष्य अपने विचारों, आवश्यकताओं आदि को अभिव्यक्त करने के लिए जो भी बोलता है, वह भाषा है .....।’’
’’विचार मतलब?’’
’’जो हमारे मन-मस्तिष्क में पैदा होते हैं, ....।’’
’’मन-मस्तिष्क मतलब?’’
’’मस्तिष्क के सोचने और कल्पना करने की प्रकृति मन है, ....।’’
’’प्रकृति मतलब?’’
’’मनुष्य का स्वभाव, जो उसके संस्कारों से ....... ।’’
’’संस्कार मतलब?’’

अब तक भसेड़ूजी के इस मतलब-बेमतलब नामक दिव्यास्त्र केे प्राश्निक हमले से मैं बुरी तरह आहत हो चुका था। मैंने देखा, उपस्थित मूर्धन्य लोगों को इस मतलब-बेमतलब नामक दिव्यास्त्र के प्राश्निक हमले से बड़ा रस मिल रहा था। मुझे लगा, अकेले भसेड़ूजी की ही आँखों से नहीं, बल्कि उपस्थित सभी मूर्धन्यों की आँखों से भसेड़ूजी की ही तरह अनेक मतलब-बेमतलब नामक सवालरूपी ब्रह्मास्त्र मेरी ओर उछाल रहे हैं। अब तो मेरे आस-पास हवा की जगह केवल मतलब-बेमतलब नामक सवालरूपी ब्रह्मास्त्र के प्रश्न ही प्रश्न तैर रहे थे। मेरा दम घुटने लगा। ’संस्कार’ का कुछ मतलब बता पाता, इसके पूर्व ही हाल तालियों
की गड़गड़ाहट की ऊर्जा से भरने लगा। भसेड़ूजी के चेहरे पर विजयी आभा पैदा करनेवाली एल. ई. डी. प्रदीप्त हो चुकी थी। वे कह रहे थे - ’’संस्कार का संबंध संस्कृत से है। संस्कृत देवताओं की भाषा है। संस्कृत ही हमारी बोलचाल की भाषा हिन्दी की जननी है। अतः हिन्दी भाषा भी देवों की ही भाषा सिद्ध होती है। शब्द को ब्रह्म कहा गया है। अक्षर का मतलब - जिसका क्षर अर्थात नाश न हो। अक्षर अविनाशी  ....... ’’

अब मैं मूढ़मति आगे की अमृतवाणी ग्रहण करने की स्थिति में नहीं रहा, कोमा की स्थिति में चला गया।

अरसे बाद जब मैं कोमा से वापस आया तो चारों ओर एक ही महावाक्य गूँज रहा था - ’’भसेड़ूजी ने साले को अच्छा भसेड़ा। दिन-रात भाषा की रट लगाये रहता है। साला! बड़ा भाषाविज्ञानी बनता है।’’
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लगे हाथ वह घटना भी सुन लीजिए, जब मैं भसेड़ूजी द्वारा दूसरी बार भसेड़ा गया था। पहली घटना के कुछ दिन बाद नगर में फिर एक साहित्यिक गोष्ठी हुई। नगर की किसी साहित्यिक गोष्ठी में भसेड़ूजी उपस्थित न हों, यह असंभव है। कहने की अपनी बारी आने पर मैं कह रहा था - अविनाशी परमपिता परमेश्वर कहते हैं कि ’’ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।

चातुर्वण्र्यं मया सष्ष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धîकर्तारमव्ययम्।।

मानव समाज को वर्णों में बाँटने का काम अविनाशी परमपिता परमेश्वर कैसे कर सकते हैं? यह कैसे हो सकता है? वर्णविभाजन संपूर्ण सृष्टि में कहीं और है भी या नहीं, कोई नहीं जानता। परन्तु सभी जानते हैं कि इस प्रकार का वर्णविभाजन भारत के अलावा इस पृथ्वी में और कहीं नहीं है। तो क्या ’अविनाशी परमेश्वर’ की
दष्टि में संपूर्ण सृष्टि का अर्थ केवल भारत ही है? ...... ’’

भसेड़ूजी ऐसी बातें कैसे सुन सकते थे, तुरंत उनकी दहाड़ गूँज उठी - ’’ओय, हेलो! वर्ण का मतलब रंग भी तो होता है। चार वर्ण मतलब चार रंग - गोरा, काला, लाल और पीला। दुनिया में इतने ही रंग के लोग पाये जाते हैं। पाये जाते हैं कि नहीं?’’

लोगों ने हर्षातिरेक में जबरदस्त तालियाँ बजाकर भसेड़ूजी का संमर्थन किया और मेरी मजम्मत।

मैंने कहा - ’’वर्ण का लक्ष्यार्थ ग्रहण करें तो दुनिया में और बहुत से चार वर्ण के लोग होते हैं - कामी, क्रोधी, मदी (अहंकारी) और लोभी। बच्चे, जवान, प्रौढ़ और बूढे। ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी और सन्यासी। अर्थी, धर्मी, कामी और मोक्षी। ये सब कर्म के आधार पर हो सकते है पर गोरा, काला, लाल और पीले वर्ण वाले लोग कर्म के आधार पर कैसे ......... ।’’

भसेड़ूजी का काला रंग अब लाल रंग में बदल चुका था। उनके चेहरे पर भसेड़ू दिव्यता का अवतरण हो चुका था। अपने स्टाइल में आते हुए उन्होंने कहा - ’’लक्ष्यार्थ मतलब।’’
’’शब्द की एक शक्ति।’’
’’शब्द मतलब?’’
’’वाक्य की इकाई’’
’’वाक्य मतलब?’’
’’वाक्य, जिससे भाषा बनती है।’’
’’भाषा मतलब?’’

भसेड़ूजी की भसेड़ू दिव्यता का तेज अब पूर्णता में चमकने लगा था। इसके पहले कि मैं भाषा के बारे में कुछ कह पाता भसेड़ूजी के संमर्थन में हाल एक बार फिर तालियों के तुमुलनाद से गूँज उठा। भसेड़ूजी कह रहे थे -’’भाषा का संबंध संस्कृत से है। संस्कृत देवताओं की भाषा है। संस्कृत ही हमारी बोलचाल की भाषा हिन्दी की जननी है। अतः हिन्दी भाषा भी देवों की ही भाषा सिद्ध होती है। शब्द को ब्रह्म कहा गया है। अक्षर का मतलब - जिसका क्षर अर्थात नाश न हो। अक्षर अविनाशी  ....... ’’

मैं मूढ़मति, एक बार फिर भसेड़ूजी के श्रीमुख से निःसृत आगे की अमृतवाणी ग्रहण करने की स्थिति में नहीं रहा, कोमा में चला गया। 

अरसे बाद जब मैं कोमा से वापस आया तो पुनः चारों ओर एक ही महावाक्य गूँज रहा था - ’’भसेड़ूजी ने साले को अच्छा भसेड़ा। दिन-रात धर्म की निंदा करते फिरता है। बड़ा साहित्यकार बनता है, साला! अधर्मी कहीं का।’’
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गुरुवार, 18 अगस्त 2016

कविता

प्रेम और ईश्वर


प्रेम ही ईश्वर है
और (अथवा/या)
ईश्वर ही प्रेम है
हमारे इतिहास ने इस कथन को सबसे बेहूदा
और सर्वाधिक असत्य कथन बना दिया है

ईश्वर सबका एक नहीं होता
सबके पास ईश्वर नहीं होता

ईश्वर सबके अलग-अलग होते हैं
बहुसंख्यक गरीबों-दलितों के तो होते ही नहीं
नहीं झांकता कोई ईश्वर कभी
इनके जीवन-झरोखे में से
पर प्रेम तो होता है इनके पास?

पशुओं और कीट-पतंगों का ईश्वर होता होगा?
उन्हीं से पूछो,
शायद होता हो
उन्हें हमारे ईश्वर का हुलिया भी दिखाओ
और यह भी पूछो उनसे
इसे पहचानते हो क्या?

पर प्रेम तो इनके पास भी होता है।

जिसके पास ईश्वर होता है
उसके पास प्रेम कम
और घृणा अधिक होती है।

मेरा प्रेम ठीक वैसा ही नहीं है
जैसा आपका प्रेम है
और आपका प्रेम भी ठीक वैसा ही नहीं है
जैसा इनका प्रेम है
हम सबके प्रेम अलग-अलग हैं
जैसे
हम सबके ईश्वर अलग-अलग हैं

हमने प्रेम को बाँट लिया है
हमने ईश्वर को बाँट लिया है।
और घृणा का सुंदर मखमली फ्रेम बनाकर
उसमें उसे टाँक लिया है।

बँटा हुआ प्रेम, प्रेम नहीं होता
बँटा हुआ ईश्वर, ईश्वर नहीं होता

प्रेम ही ईश्वर है
और (अथवा/या)
ईश्वर ही प्रेम है
इस कथन को आज हमने
इतिहास का सबसे बेहूदा
और सर्वाधिक असत्य कथन बना दिया है।
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बुधवार, 10 अगस्त 2016

व्यंग्य

नई शिक्षानीति का प्रारूप


आजकल अजूबावत्र्त नामक देश की सरकार देश की शिक्षानीति में बदलाव को लेकर अत्यंत उत्साहित है। इस पुण्यकार्य को संपन्न करने के लिए वह अत्यंत उतावली हो रही है। वह कह रही है - मंहगाई, भष्टाचार, व्यभिचार, बेरोजगारी, भूखमरी, नक्सलवाद, आतंकवाद, आरक्षणवाद और क्षेत्रियतावाद, ये हमारे राष्ट्रीय नौग्रह हैं। आजकल हमारे ये सभी राष्ट्रीय नौग्रह क्षुब्ध और कुपित हो गए हैं। इन राष्ट्रीय नौग्रहों के क्षुब्ध और कुपित होने का ही दुष्परिणाम है कि देश में आज बड़े पैमाने पर खाने-पीने की चीजों की कीमतें आसमान छू रही हैं और इससे त्रस्त, भूख से बिलबिलाते राजनेता देश को खाने पर तुले हुए हैं। देश के वातावरण में सर्वत्र ’यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ....’ पवित्र महामंत्र की जगह अब सातों दिन चैबीसों घंटे  ’यत्र नार्यस्तु भोग्यन्ते ....’ का विकृत मंत्र गूँजने लगी है।

न तो मास्टरों की रूचि पढ़ाने में है और न ही बच्चों की रूचि पढ़ने में। शिक्षक और बच्चे स्कूल जाने से कतराने लगे हैं। परीक्षा में अधिकांश बच्चे फेल हो जाते हैं। बच्चों के सांस्कृतिक, नैतिक, पारंपरिक और धार्मिक चरित्र में गिरावट आई हुई है। राष्ट्रविरोधी ताकतें सिर उठाने लगी है। क्षेत्रियतावाद मुखर होने लगी है।

और इन सबका कारण एक ही है - देश की त्रुटिपूर्ण, धर्मविरोधी, राष्ट्रविरोधी और नैतिकताविरोधी, मौजूदा शिक्षानीति। अतः इसमें यथाशीघ्र बदलाव की जरूरत है। इस अतिमहत्वपूर्ण जनहितैशी कार्य के लिए देशभर के अतिप्रभावशाली, दिव्य व्यक्तित्व के धनी धर्माचार्यों, नैतिकताचार्यों, धनाचार्यों, और राष्ट्राचार्यों की रहनुमाई में ’राष्ट्रीय शिक्षा संचालन कंपनी’ का गठन किया गया। इस कंपनी की सहायता और निगरानी के लिए देश की सबसे बड़ी एन. जी. ओ. ’राष्ट्रीय सहयोग एवं सेवा कंपनी’ को कहा गया है। कंपनी ने तुरंत अपना काम शुरू कर दिया है।

कंपनी को अपना रिपोर्ट बनाने और पेश करने में साल-दो साल या कई सालों का वक्त लग सकता है; अधिक भी लग सकता है। यह हमारे माननीय शिक्षामंत्री को पसंद नहीं है। हमारे माननीय शिक्षामंत्री दूरबाहिर, दूरदेशी और दूरगति प्रकृतिवाले विराट और विचित्र व्यक्ति हैं। ईंट का जवाब पत्थर से देना उनकी आदत है। समय की बर्बादी उन्हें कतई पसंद नहीं है। नई शिक्षानीति के संदर्भ में उन्होंने भी अपनी एक नीति बनायी हुई है। माननीय शिक्षामंत्री महोदय ने अपनी बनाई हुई शिक्षानीति को पंचपदीय शिक्षानीति का नाम दिया है। उन्होंने अपने इस पंचपदीय शिक्षानीति को इसी सत्र से लागू करने का फररमान भी जारी कर दिया है। नई शिक्षानीति बनानेवाली कंपनी को उन्होंने इस तथ्य से अवगत करा दिया है। इस पंचपदीय शिक्षानीति के पाँचों पद एवं इनके कुछ महत्वपूर्ण उपपद इस प्रकार हैं -
1. भक्तिपद:-
2. वर्गपद:-
3. जातिपद:-
4. राजनीतिपद:-
5. सत्तापद:-

भक्तिपद के उपपदों में कहा गया है कि शिक्षासत्र की शुरुआत पूर्णतः भक्तिभाव के साथ होना चाहिए। इससे शाला का वातावरण सत्रांत तक भक्तिमय बनी रहेगी। सावन का महीना इस कार्य में हमारी मदद करेगा। इस कार्यक्रम के तहत हर साल सावन के महीने में, सभी स्कूलों के शिक्षकों और छात्रों का विशेष कांवड़िया जत्था बनाया जयेगा। इनके लिये हाईटेक लिबास और कांवड़ की व्यवस्था सरकारी खजाने से की जायेगी। इन दलों को  इनकी इच्छा और सुविधा के अनुसार शासकीय खर्च पर जलाभिषेक के लिए भेजा जायेगा। बजट में इसके लिए विशेष प्रावधान किये जायेंगे। इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए देश में राष्ट्रीय स्तर पर देश के शिक्षामंत्री खुद राष्ट्रीय कांवड़िया दल का नेतृत्व करेंगे। इसी क्रम में राज्य स्तर के कांवड़िया दल का नेतृत्व राज्य के शिक्षामंत्री, नगर स्तर पर महापौर, वार्ड स्तर पर वार्ड पार्षद, और पंचायत स्तर पर सरपंच करेंगे। सावन महीने में वंचित शिक्षकों और छात्रों के दल को नवरात्रि पर्वों पर पदयात्रा पर भेजा जायेगा। इस महत्वाकांक्षी योजना के क्रियान्वयन के लिए देशभर में जिला स्तर पर जिला बोलबम और जय मातादी विभाग खोले जायेंगे। इसका विभागप्रमुख जिला बोलबम अधिकारी के नाम से जाना जायेगा। जिला बोलबम अधिकारी हेतु नियुक्ति की न्यूनतम योग्यता पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन आदि नैतिक-धार्मिक कार्यों में 10 वर्षों की संलिप्तता और भोग-चढ़ावे की वसूली का अनुभव होगा।

कांवड़ यात्रा से छात्र और शिक्षक देश की भाषायी और सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नता को अपने स्वयं के अनुभवों से समझ सकेंगे। इससे राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी।

भक्तिपद के एक अन्य उपपद में कहा गया है कि सत्तारूढ़ दल के प्रति विशेष भक्तिभाव रखनेवाले, मंत्रियों, नेताओं तथा अधिकारियों के प्रति निष्ठा व समर्पण का भाव रखनेवाले शिक्षकों को विशेष सुविधाएँ प्रदान करते हुए उन्हें उनके ईष्टों की सेवा का भरपूर अवसर दिया जायेगा। ऐसे शिक्षकों को राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार में प्राथमिकता प्रदान किया जायेगा।

वर्गपद के प्रावधानों में कहा गया है कि बहुत सारे शिक्षक अत्यंत प्रभावशाली वर्ग-समूहों से संबंधित होते हैं। इन शिक्षकों की पदस्थापनाएँ तथा स्थानांतरण सरकार के लिए अत्यंत सिरदर्द का सबब बनती हैं। इससे सरकारी कामकाज बाधित होते हैं। अधिकारियों को मानसिक दबावों से दो-चार होना पड़ता है। अध्यापन कार्य प्रभावित होते हैं। इन सारी मुसीबतों से बचने के लिए ऐसे सभी शिक्षकों को उनके अपने ही घरों में कक्षा लगाने का विकल्प दिया जायेगा।

इससे शाला भवनों की कमी की समस्या दूर होगी। अप-डाउन करने से होनेवाले धन और समय का अपव्यय रुकेगा। अपडाडन से होनवाले स्वास्थ्यक्षति से बचा जा सकेगा। शिक्षाविभाग की समस्याएँ दूर होगी। बच्चों को ट्यूशन का आनंद मिलेगा। शिक्षक सुरूचिपूर्वक तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षणकार्य कर सकेंगे। भारत की गुरूकुल की प्राचीन परंपरा जीवित हो जायेंगी। गुरूओं का सम्मान बढ़ेगा।

घर पर ही शाला लगानेवाले ऐसे सभी शिक्षकों को क्षतिपूर्ति के रूप में विशेष मानदेय भी जायेगा। व्यवस्था के प्रति आस्था रखनेवाले ऐसे शिक्षक ही राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कारों के असली वारिस होंगे। इन शिक्षकों को इसमें सर्वोच्च वरीयता दी जायेगी।

विपक्ष ने इस पर जोरदार हंगामा करते हुए कहा कि माननीय शिक्षामंत्री द्वारा लायी जा रही यह पंचपदीय शिक्षानीति वास्तव में प्रपंचपदीय शिक्षानीति है। इससे देश की शिक्षा व्यवस्था रसातल में चली जायेगी।

सरकार ने जवाब में कहा - इतिहास साक्षी है, और अब तक के सारे स्थापित मूल्य और उनके सत्य इस बात के सजीव व प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि हर शुभ और नये कार्य का विरोध होता ही है। विरोध होना महान शुभ लक्षण है।
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नई शिक्षानीति बनानेवाली कंपनी ने शंकाओं-कुशंकाओं के विपरीत और देश की समस्त आयोग-नियोग-परंपराओं का अतिक्रमण करते हुए, अतिसुयोग का परिचय दिया और कुछ ही दिनों में नई शिक्षानीति का प्रारूप शिक्षा मंत्रालय को सौंप दिया। विपक्ष ने हंगामा किया कि यह असंभव है। सरकार ने सारी बातें जरूर पहले से तय करके रखी होंगी। केवल औपचारिकता निभाया गया है।

खैर! कुछ भी हो, हमें क्या लेना-देना। सरकार जाने और विपक्ष जाने। नई शिक्षानीति के प्रारूप में दिये गये प्रावधानों का अध्ययन करके शिक्षा मंत्रालय का हृदय-कमल, कमलगंध से महकने लगा। इन प्रावधानों के कुछ अतिमहत्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं -

- नई शिक्षानीति बनानेवाली कंपनी ने इसमें शिक्षामंत्री के उपर्युक्त पंचपदीय सिद्धांतों को बिना किसी प्रूफ संशोधन के अक्षरशः शामिल कर लिया गया है।

- नई शिक्षानीति बनानेवाली कंपनी ने छात्रों के अनुत्तीर्ण होने के कारणों का अत्यंत सूक्ष्मतापूर्वक व गहनतापूर्वक अध्ययन करने के बाद कहा है कि इस देश के डी. एन. ए. में केवल धर्म और अध्यात्म के ही जीन पाये जाते हैं। गणित, विज्ञान और विदेशी भाषा सीखनेवाले जीनों का सर्वथा अभाव होता है। फलतः छात्र इन्हीं विषयों में अनुत्तीर्ण होते हैं और परीक्षाफल प्रभावित होता है। अतः उचित होगा कि इन विषयों को पाठ्यक्रमों से हटा लिया जाये। इसके स्थान पर देश में पाये जानेवाले समस्त धार्मग्रंथों, अध्यात्मग्रंथों को शामिल कर लिया जाय। देवभाषा को सर्वोच्च स्थान दिया जाय।

- जिन गिने-चुने विद्याथियों के जिनों में गणित, विज्ञान और विदेशी भाषा सीखनेवाले जीनों के लक्षण पाये जायेंगे अथवा पाये जाने की संभावना होगी उन्हें निजी शिक्षण संस्थानों के हवाले कर दिया जायेगा। घोर आश्चर्य पैदा करनेवाली ऐसी घटना कैसे संभव हुई, इसका रहस्य जानने के लिए इनके जीनों को शोध और परीक्षण के लिए विदेशी प्रयोगशालाओं में भेजा जायेगा।

- शासकीय शालाओं में भीड़ पैदा करनेवाले जिन असंख्य विद्याथियों के जिनों में गणित, विज्ञान और विदेशी भाषा सीखनेवाले जीनों का अभाव होता है उनके जीनों को भी शोध और परीक्षण के लिए विदेशी प्रयोगशालाओं में भेजा जायेगा। आधुनिक जिनेटिक इन्जीनियरिेग के द्वारा इनके गुणसूत्रों में गणित, विज्ञान और विदेशी भाषा सीखनेवाले वाली जीनों को प्रत्यारोपित करने का प्रयास किया जायेगा ताकि इनकी आनेवाली नस्लों में वांक्षित सुधार हो सके।

- इस देश के लोगों के गुणसूत्रों में हरामीपन, बेशर्मीपन, बेईमानी, भ्रष्टाचार, कर्तव्यहीनता और दायित्वहीनता आदि के जीन बहुतायत में क्यों पाये जाते हैं? ये कहाँ से आते हैं? जैसे कि आशंका हो रही है, अन्य आनुवांशिक रोगों की तरह क्या यह भी कोई आनुवांशिक रोग तो नहीे है? अथवा क्या यह हमारे देश में आतंकवाद परोसनेवाले विदेशियों की कोई नयी आतंकवादी साजिश तो नहीं है? इन समस्त पहलुओं की जांच करने के लिए प्रतिवर्ष सभी विद्याार्थियों के गुणसूत्रों की अनिवार्य रूप से जांच कराई जायेगी।

- इन अतिमहत्वाकांक्षी परियोजनाओं को सफल बनाने के लिए विश्वप्रसिद्ध विदेशी प्रयोगशालाओं, विशेषज्ञ दलों, जिनेटिक्स इन्जीनियरों को इसका टेंडर दिया जायेगा। पृथ्वी नामक इस पवित्र ग्रह में ऐसी कोई प्रयोगशाला और कोई विशेषज्ञ उपलब्ध न होने की दशा में आऊटसोर्सिंग नीति के तहत स्वर्गलोक से ऐसे विशेषज्ञों को बुलाया जायेगा। इस स्थिति में स्वर्गाधिपति से संपर्क कायम करने के लिए देश के शर्कराचार्यों की सेवाये लेना सर्वथा उचित होगा।

- ये सभी कार्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ तय समयसीमा में संपन्न हो सकें इसके लिए निष्ठावान और ईमानदार लोगों की टीम का होना जरूरी है अतः इसका जिम्मा किसी बड़े राजनेता समर्थित एनजीओ को सौपा जायेगा।

- मनुस्मृति की उपेक्षा के कारण ही देश में जाति-वर्ग का बखेड़ा खड़ा हुआ है। अतः भारत की महानतम व प्राचीन संस्कृति को जीवन देनेवाली इस पवित्र ग्रंथ को पाठ्यक्रमों में शामिल कर लिया जाय।

- गोरक्षा इस देश की दुर्लभ संस्कृति की पहचान है अतः इसे प्राथ्मिकता के आधार पर पाठ्यक्रमों में शामिल कर लिया जाय। प्रत्येक स्कूल में समुन्नत व हाईटेक गोठानों की स्थापना किया जाय। दुग्धउत्पादन से संबंधित विभागों को इसमें मर्ज कर दिया जाय। इससे देश में ग्वाल-बालों की एक स्वस्थ और बलिष्ठ पीढ़ी का उदय होगा। इससे बेरोजगारी की समस्या का भी समाधान होगा।

- मध्याह्न भोजन में दाल-भात-चटनी परंपरा को तुरंत बंद कर दिया जायेगा। इस योजना को और अधिक स्वादपूर्ण, सुरूचिपूर्ण, सुपाच्य व स्वास्थ्यवर्धक बनाने के लिए सप्ताह के सातों दिन के मेनू में क्रमशः पिज्जा, बर्गर, नूडल, चाऊमिन, चाट, छोले-भटूरे, तथा आइसक्रीम को शामिल कर लिया जाय। कुद मीठा हो जाये, नीति के तहत चाॅकलेट प्रतिदिन दिये जायेंगे। बच्चों को पानी की जगह साफ्टड्रिंक्स दिये जायेंगे। 

इन खाद्य सामग्रियों के निर्माण के लिए महिला स्व-सहायता समूह की माताओं-बहनों को विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। सरकार को चाहिए कि वह इस पुण्य कार्य को प्राथमिकता दे। महिला स्व-सहायता समूह की माताएँ-बहनें जब तक इस काम में दक्ष न हो जाय, इस योजना को इससे जुड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौप देना चाहिए।
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रविवार, 7 अगस्त 2016

व्यंग्य

चुनावीवर्ष


अजूबावर्त नामक देश के राजनीतिज्ञ अपने देश के लोकतंत्र को सृष्टि का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानते हैं। इसे वे एक बड़ी और अतिमहत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में प्रचारित करते हैं। यदि उनकी भाषा में कहें तो इसे वे अपनी और राष्ट्र की एक महान राजनीतिक उपलब्धि मानते हैं। मेरी मूढ़मति कहती है - इस महान् उपलब्धि का श्रेय तो यहाँ की एक अरब से अधिक भूखी-नंगी जनता को मिलना चाहिए जिन्हें चाहे और कुछ आता-जाता न हो, बच्चा पैदा करना जरूर आता है। इस काम में इनकी यह विशेषज्ञता असंदिग्ध और जगजाहिर है।

चुनाव दर चुनाव विश्व के इस अजूबे लोकतंत्र के आमचुनावों की मान और प्रतिष्ठा में वृद्धि होती रही है। अब यह यहाँ की परंपरा बन चुकी है। अब की बार राजनीतिक पार्टियों के रणनीतिकार इस परंपरा को और अधिक मजबूती देना चाहते हैं, ताकि लोकतंत्र की इस परंपरा को लोकतत्र के दुश्मन हिला न सकें। लोकतांत्रिक परंपरा के अनुरूप यहाँ पर प्रचलित आमचुनाव नामक यज्ञ पौराणिक राजसूय यज्ञ से भी बड़ा और श्रेष्ठ माना जाता है। हर बार इस आमचुनाव नामक यज्ञ को और अधिक महत्वपूर्ण, अधिक जनहितैषी और अधिक उत्सवधर्मी बनाने के लिए यहाँ नित नये उद्यम किये जाते हैं। इस महान नीतिसापेक्ष-धर्मसापेक्ष कार्य के लिए यहाँ अर्थबल और बाहुबल की कोई कमी नहीं है। जनबल के लिए तो जरा भी हायतौबा करने की जरूरत नहीं होती, यह यहाँ हर मौसम में, चैबीस गुणा सात सूत्र के अनुरूप उपलब्धता रहती है।

यहाँ लालचबल और लिप्साधर्म की भी कोई कमी नहीं है।

यज्ञ के आयोजन में अभी दो वर्ष से अधिक का समय शेष है। यहाँ के राजनीतिक दलों के राजनीतिक वैज्ञानिक इस समयावधि के महत्व को जानते हैं। अब की बार उन्होंने इसके राजनतिक-वैज्ञानिक महत्व को समझते हुए इसे वैज्ञानिक रूप से परिभाषित किया है। परिभाषा में इसे नया नाम मिला है - चुनाववर्ष। उनके कुछ राजनीतिक वैज्ञानिक इस नाम का बड़ा विरोध कर रहे थे। उनका तर्क था - इन सालों को प्रकाशवर्ष की तरह ही महत्वपूर्ण समझा जाना तो ठीक है, परन्तु इसे प्रकाशवर्ष का प्रतिगामी समझा जाना चाहिए तथा इसी के अनुरूप इसका नाम अंधकारवर्ष अथवा अँधेरवर्ष रखा जाना चाहिए। इस विवाद में कई राजनीतिक वैज्ञानिकों के सिर लहूलुहान हुए। फिर भी, अंततः यही नाम तय हुआ - चुनाववर्ष।

अब, जो बात मैं कह रहा था, उसे इस तरह कहना पड़ेगा - अगले आम चुनाव में अभी दो चुनाववर्ष से अधिक का समय शेष है। वर्तमान सत्ताकाबिज राजनीतिक दल आगामी आमचुनावों के लिए अभी से चिंतित हैं। वह इसे विगत से अधिक गद्फद् बनाना चाहती है। अधिक गद्फद् अर्थात् अधिक गतिवान, अधिक जनहितैषी, अधिक उत्सवधर्मी और अधिक नीतिसापेक्ष-धर्मसापेक्ष। इस महती काम के लिए नये उद्यमों और नये तौर-तरीकों की संभावनाएँ तलाशना जरूरी है। अपने कार्यसूूची में इसे उन्होंने सबसे ऊपर रखा हुआ है। इस काम में बड़ी मात्रा में धनबल और बाहुबल की आवश्यकता पड़नेवाली है अतः देशभर के चुनिंदा धनयोगियों और बाहुयोगियों से संपर्क किया गया है। इस प्रकार पूरी तैयारी के साथ उनके रणनीतिकार अभी से इस काम में जुट चुके हैं।

श्रीराम जाने; वर्तमान सत्ताकाबिज राजनीतिक दल की इस योजना का पता विपक्षी दल को कैसे चल गया। विपक्ष अपने आक्सीजनरहित वातावरण के बंद कमरे में कई महीनों से अकबकाते हुए पड़ा था। इस शुभ समचार ने उसे ताजगी दी। उसने अपने पंख फड़फड़ाये, बाहर की ताजी हवा में आक्सीजन मिलने की उम्मीद थी, इस प्रत्याशा में उन्होंने अपने थूथने खिड़कियों से बाहर निकाला। पर यह क्या! चेहरा नोच खाने के लिए खिड़की के बाहर असंख्य शिकारी पक्षियाँ, मच्छरों की तरह भिनभिना रहे थे। विपक्ष को समझते देर न लगी - साले! सब सत्तापांखी मुखौटेधारी मच्छर हैं। वह इस खतरे के प्रति सचेत था। बचने के लिए पर्याप्त उपाय किये गये थे। उन्होंने फौरन अपना मुखौटा लगा लिया।

खैर, जानेमाने राजनीतिक वैज्ञानिकों-रणनीतिकारों के कई दिनों के माथाफुटौव्वल, कपड़ेफटौव्व्ल और चेहरानुचैव्वल विचारमंथन के बाद प्रस्ताव पर मुहर लग गई। आम चुनाव की तैयारियाँ और प्रचार-प्रसार अब सतत् चलनेवाली प्रक्रिया अर्थात 365 ग 5 दिन चलनेवाली प्रक्रिया स्वीकार कर ली गई। पर तय हुआ कि लोकतंत्र की मर्यादा को भी ध्यान में रखना चहिए। राजधर्म और लोकधर्म का भी पालन होना चाहिए। इस तरह की नयी परंपरा शुरू करने से पहले देश की सजग जनता की इच्छा भी जान लेना चाहिए। लिहाजा, सोशल मीडिया में तुरंत इस आशय की अपील जारी की गई। उम्मीद के अनुरूप यह अपील देखते ही देखते वायरल हो गई। कुछ ही समय बाद लोगों के सुझाव मिलने लगे। देखते ही देखते संदेशों की मात्रा इतनी अधिक हो गई कि कंप्यूटर देवता के दिमाग की नसें फटने लगी और वह कोमा में चला गया। कंप्यूटर के विशेष साफ्टवेयर के द्वारा सोशल मिडिया से प्राप्त इन संदेशों, सुझावों और आंकड़ों के विश्लेषण का काम तुरंत शुरू हो गया। परिणाम देखकर राजनीतिक वैज्ञानिकों-रणनीतिकारों के चेहरे खिल गए। प्रस्ताव के समर्थन में 99.999% मत प्राप्त हुए थे। उदाहरण के तौर पर प्राप्त लोकमत के कुछ तर्क यहाँ दिये जा रहे हैं -

इस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए देश की बुद्धिमान आम जनता ने कहा कि चुनाव से संबंधित ऐसे कार्यक्रम देश में रोज और लगातार होते रहना चाहिए। इस उत्सवधर्मी आयोजन से देश की मूल समस्याओं - बलात्कार, मंहगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद आदि से ध्यान बँटेगा और इससे उत्पन्न क्षोभ का निवारण होगा। प्रचार सामग्री के रूप में प्राप्त वस्त्रों, नगदी और नकली आभूषणों से देश की गरीब जनता को हमेशा राहत मिलती रहेगी। देश की गरीबी का निवारण होता रहेगा।

देश के बेरोजगारों ने कहा - राजनीतिक दलों द्वारा प्रस्तावित यह चुनावी कार्यक्रम बेरोजगारों के हित में है। इस बारहमासी कार्यक्रम में हम सदैव व्यस्त रहेंगे। हम बेरोजगारों के लिए यह किसी रोजगार से कम नहीं होगा। बेरोजगारी की पीड़ा पल भर में जाती रहेगी। हमारी व्यस्तता देखकर हमारे माता-पिता को हमारे कामकाजी होने का भ्रम बना रहेगा। देश की बेरोजगारी की समस्या पलभर में हल हो जायेगी।

मद्यप्रेमयों के संगठन ने कहा - यह योजना सचमुच हम मद्यपे्रमियों के लिए किसी वरदान से कम नहीं होगी। राजनीतिक पार्टियों की कृपा से हमें घर बैठे मद्य मिला करेगी। मद्य के लिए हमें अपने खेत, घर के सामन, बीवी के गहने आदि बेचने नहीं पड़ेंगे। पति-पत्नी के बीच झगड़े नहीं होंगे। पारिवारिक वातावरण कलहमुक्त और सुखी हो सकेगा। हमें आश्चर्य है कि ऐसी जनहितैशी योजना पर पूर्ववर्ती सरकारों की निगाह कैसे नहीं पड़ी। इस योजना को लागू करने से निश्चित ही अच्छे दिन आ जायेंगे। इस अच्छी योजना के लिए मौजूदा सरकार के दीर्घायु की अनंत शुभकामनाएँ।

मजदूर संगठनों की ओर से कहा गया - आपके द्वारा लायी जा रही यह योजना हम मजदूरों के लिए अतिकल्याणकारी है। एक बात हम निवेदित करना चाहेंगे कि देश में कब-कब, कहाँ-कहाँ और किस-किस समय आमसभा होंगी, कब-कब रैलियाँ निकाली जायेंगी, इसका वार्षिक कैलेण्डर बनाकर हमें उपलब्ध करा दिया जाये ताकि हम अपना काम सही ढंग से कर सकें। अब अपनी मांगें मनवाने के लिए हमें किसी तरह की हड़ताल करने की जरूरत नहीं होगी; अगर करना ही हुआ तो आपका यही मंच पर्याप्त होगी। पर आशा है, इसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हम अपनी पूरी निष्ठा, शक्ति और ईमानदारी से अपना काम कर सकें, इसके लिए पूरी पारदर्शिता के साथ लेनदेन की बात भी तय हो जाना चाहिए। अच्छे दिन की शुभकामनाओं के साथ - इंकलाब जिंदाबाद।

देशभर के किसान भी अपनी प्रतिक्रियाएँ प्रेषित करना चाहते थे कि इस प्रकार की योजना लागू होने से उन्हें भी आत्महत्या का मार्ग दिखानेवाली खेती के हानिकारक, और हिंसावृत्ति से मुक्ति मिल जायेगी। सतत् चलनेवाली इस चुनावी प्रक्रिया से जुड़कर उनका जीवन आत्महत्याप्रूफ हो सकेगा; परंतु दुर्भाग्य कि उनमें से किसी को पढ़ना-लिखना नहीं आता था। किसी को बोलना और चिल्लाना भी नहीं आता था। उनका कोई संगठन और नेता भी नहीं था। अतः वे अपनी बात राजनीतिक पार्टियों तक नहीं पहुँचा सके।

इस प्रस्ताव के विरोध में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी संगठनों की ओर से भी पत्र आये। पर इसकी मात्रा अत्यंत नगण्य थी। इनके पत्र कूड़े में फेंक दिये गये। ऐसे संस्कृतिभ्रष्ट, धर्मभ्रष्ट और राष्ट्रद्रोहियों की बातों पर ध्यान देना स्वयं राष्ट्रद्रोह से कम नहीं होता? और फिर प्रजातंत्र में बहुमत का महत्व है।

देश की सभी राजनीतिक पार्टियाँ अब अपनी इस योजना को कार्यरूप देने में लगी हुई हैं। कुछ ने तो इसे लागू भी कर दिया है। 

हमें क्या! हमें तो कुछ समझ-वमझ है नहीं, अच्छे दिन आने वाले हैं; इसी उम्मीद में। बस्स।
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मंगलवार, 2 अगस्त 2016

कविता

कुछ समय की कुछ घटनाएँ


इस समय जो कुछ घट रहा है
उसके पहले भी
बहुत कुछ घटित होता रहा है
पता नहीं, कितना और क्या-क्या?

घटना कुछ बदलने की तरह होना चाहिए
या जलाकर राख कर जाने की तरह?

जाहिर है -
इस समय जो कुछ कहा और सुना जा रहा है
उसके पहले तक बहुत कुछ कहा और सुना जा चुका है
इस समय जो कुछ लिखा और पढ़ा जा रहा है
उसके पहले तक बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जा चुका है
इस समय जो कुछ किया और कराया जा रहा है
उसके पहले तक
बहुत कुछ किया और कराया जा चुका है -

जो जरूरी था वह भी,
जो जरूरी नहीं था वह भी
जो उचित था वह भी,
जो अनुचित था वह भी
सत्य भी, असत्य भी,
सद्कृत्य भी, दुष्कृत्य भी
पाप और पुण्य भी,
गण्य और नगण्य भी
अंतर और बाह्य भी,
ग्राह्य और अग्राह्य भी
नैतिक भी, अनैतिक भी,
लौकिक भी, अलौकिक भी
इस समय कुछ घटने के लिए कुछ शेष है,
जो इस यकीन के लिए पर्याप्त है, कि -
अतीत की घटनाएँ बदलने की तरह हुई होंगी
जलाने की तरह तो बिलकुल नहीं।

और इस तरह
इस समय के लिए बहुत कुछ बचाया गया।

इस समय का कहना और सुनना
इस समय का लिखना और पढ़ना
इस समय का किया और कराया जाना
इस समय का कुछ भी घटना
जलने जलाने की तरह नहीं हो रहा है?
000 KUBER