परंपराएँ
जनजातीय क्षेत्रों में मुर्गे की लड़ाई आपने देखी होगी। ग्लेडिएटर्स की लड़ाई भी ऐसी ही होती थी। पहले रोम के सामंत वर्ग मनोरंजन के लिए दासों को एक दूसरे से लड़वाते थे। ऐसे दासों को ग्लेडिएटर कहा जाता था। दर्शक इनकी हार.जीत पर दांव लगाते थे। ग्लेडिएटर अपने.अपने हथियारों के साथ लड़ते थे। लड़ाई तब तक जारी रहतीए, जब तक कोई एक मर न जाय या घायल होकर अचेत न हो जाय। कभी.कभी दोनें ग्लेडिएटर मर जाते थे। इनके मरने पर सामंत खुश होते थे। गुलामों की जिंदगी पशुओं से भी बदतर होती थी।
आज के संदर्भ में मुझे गोविंदा पर्व पर दही लूट का प्रसंग स्मरण हो आता है। आजकल सार्वजनिक चैक.चैराहों पर दही लूट की हंडियाँ बांधी जाती हैं। हंडियों की ऊँचाई पचास फीट तक हो सकती है। हजारों.लाखों रूपयों के ईनाम रखे जाते हैं।
परंपराएँ वही हैं। रूप में परिवर्तन जरूर हुआ है।
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