शनिवार, 20 अगस्त 2016

व्यंग्य

 व्यंग्य

विभूति प्रसाद 'भसेड़ूजी'


हमारे संस्कारधानी में एक साहित्य विभूति हैं; नाम है - हमारे संस्कारधानी में एक साहित्य विभूति हैं; नाम ही है - विभूति प्रसाद भसेड़ू। इस विभूतिमय नाम में भसेड़ू उनका साहित्यिक उपनाम है। अपने विरोधियों को भसेड़ने में वे बड़े माहिर हैं।  उनके द्वारा भसेड़ा हुआ व्यक्ति कम से कम छः महीने के लिए कोमा में चला जाता है। जब वे अपने किसी विरोधी को भसेड़ रहे होते हैं तो उनके भक्तों में हर्ष की लहर दौड़ जाती है, जो उन्हें कम से कम छः महीने तक हर्षाती रहती है। परमात्मा का अंश धारण करनेवाले इस शहर में वे अकेले हैं। हम जैसे परमात्मेत्तर मनुष्यों के बीच धर्म, संगीत और साहित्य का प्रचार-प्रसार करने के लिए ही परमात्मा ने उसे यहाँ अवतरित किया है। इस शहर में माई का वह लाल अब तक पैदा नहीं हो सका है जिसने उसकी भसेड़ू-कृपा प्राप्त किये बिना संगीत का ’स’ तथा कहानी और कविता का ’क’ लिख पाया हो। उनके पैदा होने के पहले इस शहर में जितने महान साहित्यकार हुए हैं यदि उन पर भी कृपा बरसती होगी तो वह भसेड़ूजी की ही भसेड़-कृपा होती थी। तब वे स्वर्ग में बैठकर यह चमत्कार किया करते थे। धर्म के ’ध’ की बहुआयामी व्याख्या जिस तरह वे करते हैं, वह तीनों लोकों में दुर्लभ है। भसेड़ूजी यहाँ के धर्मप्रेमियों, संगीतकारों और साहित्यकारों के स्वयंभू गाॅडफादर और धर्म प्रशिक्षक हैं। 
 
भसेड़ूजी मुझे भी अक्सर भसेड़ते रहते हैं। कई बार कोमा में जा चुका हूँ। पहली बार उसने मुझे कुछ इस प्रकार भसेड़ा था -

हिन्दी दिवस पर कार्यक्रम था। नगर के नामचीन साहित्यकार हिन्दी की दशा-दुर्दशा पर आँसू बहाने के लिए जुटे हुए थे। हिन्दी की मान-प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए भसेड़ूजी को ही कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाया गया था। चर्चा का विषय था - ’’हिन्दी लेखन में वर्तनियों की अशुद्धियाँ’’। विषय पर बोलने के लिए मुझे माइक थमाया गया। मैंने बोलना शुरू किया - ’’भाषा का निर्माण समाज ने किया है ... ’’

भसेड़ूजी को मेरा यह वाक्य हजम नहीं हुआ। बीच में ही मुझे जबरदस्त तरीके से भसेड़ते हुए उन्होंने कहा - ’’ओय, हेलो! भाषा का निर्माण समाज ने किया है? भाषा से आपका मतलब क्या है?’’   
’’भाषा, जिसे हम सब बोलते हैं, ......।’’
’’हम सब बोलते हैं मतलब?’’
’’मनुष्य अपने विचारों, आवश्यकताओं आदि को अभिव्यक्त करने के लिए जो भी बोलता है, वह भाषा है .....।’’
’’विचार मतलब?’’
’’जो हमारे मन-मस्तिष्क में पैदा होते हैं, ....।’’
’’मन-मस्तिष्क मतलब?’’
’’मस्तिष्क के सोचने और कल्पना करने की प्रकृति मन है, ....।’’
’’प्रकृति मतलब?’’
’’मनुष्य का स्वभाव, जो उसके संस्कारों से ....... ।’’
’’संस्कार मतलब?’’

अब तक भसेड़ूजी के इस मतलब-बेमतलब नामक दिव्यास्त्र केे प्राश्निक हमले से मैं बुरी तरह आहत हो चुका था। मैंने देखा, उपस्थित मूर्धन्य लोगों को इस मतलब-बेमतलब नामक दिव्यास्त्र के प्राश्निक हमले से बड़ा रस मिल रहा था। मुझे लगा, अकेले भसेड़ूजी की ही आँखों से नहीं, बल्कि उपस्थित सभी मूर्धन्यों की आँखों से भसेड़ूजी की ही तरह अनेक मतलब-बेमतलब नामक सवालरूपी ब्रह्मास्त्र मेरी ओर उछाल रहे हैं। अब तो मेरे आस-पास हवा की जगह केवल मतलब-बेमतलब नामक सवालरूपी ब्रह्मास्त्र के प्रश्न ही प्रश्न तैर रहे थे। मेरा दम घुटने लगा। ’संस्कार’ का कुछ मतलब बता पाता, इसके पूर्व ही हाल तालियों
की गड़गड़ाहट की ऊर्जा से भरने लगा। भसेड़ूजी के चेहरे पर विजयी आभा पैदा करनेवाली एल. ई. डी. प्रदीप्त हो चुकी थी। वे कह रहे थे - ’’संस्कार का संबंध संस्कृत से है। संस्कृत देवताओं की भाषा है। संस्कृत ही हमारी बोलचाल की भाषा हिन्दी की जननी है। अतः हिन्दी भाषा भी देवों की ही भाषा सिद्ध होती है। शब्द को ब्रह्म कहा गया है। अक्षर का मतलब - जिसका क्षर अर्थात नाश न हो। अक्षर अविनाशी  ....... ’’

अब मैं मूढ़मति आगे की अमृतवाणी ग्रहण करने की स्थिति में नहीं रहा, कोमा की स्थिति में चला गया।

अरसे बाद जब मैं कोमा से वापस आया तो चारों ओर एक ही महावाक्य गूँज रहा था - ’’भसेड़ूजी ने साले को अच्छा भसेड़ा। दिन-रात भाषा की रट लगाये रहता है। साला! बड़ा भाषाविज्ञानी बनता है।’’
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लगे हाथ वह घटना भी सुन लीजिए, जब मैं भसेड़ूजी द्वारा दूसरी बार भसेड़ा गया था। पहली घटना के कुछ दिन बाद नगर में फिर एक साहित्यिक गोष्ठी हुई। नगर की किसी साहित्यिक गोष्ठी में भसेड़ूजी उपस्थित न हों, यह असंभव है। कहने की अपनी बारी आने पर मैं कह रहा था - अविनाशी परमपिता परमेश्वर कहते हैं कि ’’ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।

चातुर्वण्र्यं मया सष्ष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धîकर्तारमव्ययम्।।

मानव समाज को वर्णों में बाँटने का काम अविनाशी परमपिता परमेश्वर कैसे कर सकते हैं? यह कैसे हो सकता है? वर्णविभाजन संपूर्ण सृष्टि में कहीं और है भी या नहीं, कोई नहीं जानता। परन्तु सभी जानते हैं कि इस प्रकार का वर्णविभाजन भारत के अलावा इस पृथ्वी में और कहीं नहीं है। तो क्या ’अविनाशी परमेश्वर’ की
दष्टि में संपूर्ण सृष्टि का अर्थ केवल भारत ही है? ...... ’’

भसेड़ूजी ऐसी बातें कैसे सुन सकते थे, तुरंत उनकी दहाड़ गूँज उठी - ’’ओय, हेलो! वर्ण का मतलब रंग भी तो होता है। चार वर्ण मतलब चार रंग - गोरा, काला, लाल और पीला। दुनिया में इतने ही रंग के लोग पाये जाते हैं। पाये जाते हैं कि नहीं?’’

लोगों ने हर्षातिरेक में जबरदस्त तालियाँ बजाकर भसेड़ूजी का संमर्थन किया और मेरी मजम्मत।

मैंने कहा - ’’वर्ण का लक्ष्यार्थ ग्रहण करें तो दुनिया में और बहुत से चार वर्ण के लोग होते हैं - कामी, क्रोधी, मदी (अहंकारी) और लोभी। बच्चे, जवान, प्रौढ़ और बूढे। ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी और सन्यासी। अर्थी, धर्मी, कामी और मोक्षी। ये सब कर्म के आधार पर हो सकते है पर गोरा, काला, लाल और पीले वर्ण वाले लोग कर्म के आधार पर कैसे ......... ।’’

भसेड़ूजी का काला रंग अब लाल रंग में बदल चुका था। उनके चेहरे पर भसेड़ू दिव्यता का अवतरण हो चुका था। अपने स्टाइल में आते हुए उन्होंने कहा - ’’लक्ष्यार्थ मतलब।’’
’’शब्द की एक शक्ति।’’
’’शब्द मतलब?’’
’’वाक्य की इकाई’’
’’वाक्य मतलब?’’
’’वाक्य, जिससे भाषा बनती है।’’
’’भाषा मतलब?’’

भसेड़ूजी की भसेड़ू दिव्यता का तेज अब पूर्णता में चमकने लगा था। इसके पहले कि मैं भाषा के बारे में कुछ कह पाता भसेड़ूजी के संमर्थन में हाल एक बार फिर तालियों के तुमुलनाद से गूँज उठा। भसेड़ूजी कह रहे थे -’’भाषा का संबंध संस्कृत से है। संस्कृत देवताओं की भाषा है। संस्कृत ही हमारी बोलचाल की भाषा हिन्दी की जननी है। अतः हिन्दी भाषा भी देवों की ही भाषा सिद्ध होती है। शब्द को ब्रह्म कहा गया है। अक्षर का मतलब - जिसका क्षर अर्थात नाश न हो। अक्षर अविनाशी  ....... ’’

मैं मूढ़मति, एक बार फिर भसेड़ूजी के श्रीमुख से निःसृत आगे की अमृतवाणी ग्रहण करने की स्थिति में नहीं रहा, कोमा में चला गया। 

अरसे बाद जब मैं कोमा से वापस आया तो पुनः चारों ओर एक ही महावाक्य गूँज रहा था - ’’भसेड़ूजी ने साले को अच्छा भसेड़ा। दिन-रात धर्म की निंदा करते फिरता है। बड़ा साहित्यकार बनता है, साला! अधर्मी कहीं का।’’
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