गुरुवार, 18 अगस्त 2016

कविता

प्रेम और ईश्वर


प्रेम ही ईश्वर है
और (अथवा/या)
ईश्वर ही प्रेम है
हमारे इतिहास ने इस कथन को सबसे बेहूदा
और सर्वाधिक असत्य कथन बना दिया है

ईश्वर सबका एक नहीं होता
सबके पास ईश्वर नहीं होता

ईश्वर सबके अलग-अलग होते हैं
बहुसंख्यक गरीबों-दलितों के तो होते ही नहीं
नहीं झांकता कोई ईश्वर कभी
इनके जीवन-झरोखे में से
पर प्रेम तो होता है इनके पास?

पशुओं और कीट-पतंगों का ईश्वर होता होगा?
उन्हीं से पूछो,
शायद होता हो
उन्हें हमारे ईश्वर का हुलिया भी दिखाओ
और यह भी पूछो उनसे
इसे पहचानते हो क्या?

पर प्रेम तो इनके पास भी होता है।

जिसके पास ईश्वर होता है
उसके पास प्रेम कम
और घृणा अधिक होती है।

मेरा प्रेम ठीक वैसा ही नहीं है
जैसा आपका प्रेम है
और आपका प्रेम भी ठीक वैसा ही नहीं है
जैसा इनका प्रेम है
हम सबके प्रेम अलग-अलग हैं
जैसे
हम सबके ईश्वर अलग-अलग हैं

हमने प्रेम को बाँट लिया है
हमने ईश्वर को बाँट लिया है।
और घृणा का सुंदर मखमली फ्रेम बनाकर
उसमें उसे टाँक लिया है।

बँटा हुआ प्रेम, प्रेम नहीं होता
बँटा हुआ ईश्वर, ईश्वर नहीं होता

प्रेम ही ईश्वर है
और (अथवा/या)
ईश्वर ही प्रेम है
इस कथन को आज हमने
इतिहास का सबसे बेहूदा
और सर्वाधिक असत्य कथन बना दिया है।
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