मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

कविता - तो यह भी सही

तो यह भी सही


घरों में दुबके-सहमें लोग
दुख-दर्द बाँटते दहशत में हैं
और, मंदिर की  हे! मूर्तियो
कैसे तुम इतने हृदयहीन हो गये हो
बिना बतियाये पलभर भी रह नहीं सकते हो?
तुम जो भी करते हो
उसे लीला कही जाती है
साजिश में लीला
और लीला में साजिश, सब चलता है
यह कैसी साजिश है तुम्हारी?
यह मत कहो, कि
दहशत के मारों के प्रति
यह हमारी संवेदना है
संवेदना और उपहास का अंतर हमें पता है
मंदिर में प्रगट होनेवाली  हे! देवियो
तुम्हारे आशीर्वाद से बलात्कार कम नहीं होंगे
ये आशीर्वाद बलात्कारियों के लिए बचाकर रखो
कर सको तो
उनके भूखों का शमन पहले करो
तुम्हारे दूध पीने के चमत्कार का चमत्कार
अभी तक हम देख रहे है,
फिर भी,
मंदिर के, हे! देवताओ, हे! देवियो
आसमान नीला है
और धरती हरी-भरी
यदि तुम यह कहते हो
तो यह भी सही।
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