छत्तीसगढ़ी लोक-संगीत के महान् साधक: खुमान साव
नीचे चित्र में बाएँ से - सुरेश सर्वेद (संपादक -विचार वीथी) खुमान साव तथा कुबेर
भारतवर्ष में नदियों को माँ कहा जाता है। ब्रह्मपुत्र को छोड़कर यहाँ सभी नदियों के नाम स्त्रीलिंग-बोधक हैं। ब्रह्मपुत्र की तरह छत्तीसगढ़ में भी एक नदी है - शिवनाथ। शिवनाथ महानदी की प्रमुख सहायक नदी है। महानदी में मिलने से पहले यह राजनांदगाँव, दुर्ग, बिलासपुर और जांजगीर-चांपा जिले के एक बड़े भू-भाग को ऊवर्रा बनाता जाता है। अं. चैकी, राजनांदगाँव, दुर्ग-भिलाई, तथा धमधा इसी के तट पर बसे हुए हैं। संस्कारधानी के नाम से विख्यात राजनांदगाँव के दक्षिण-पश्चिम में लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर इसी नदी के तट पर एक गाँव बसा है - जंगलेशर। जमींदारी प्रथा के जमाने में इसी गाँव में सिद्धनाथ साव नामक गौंटिया हुए थे। राजनांदगाँव रियासत के राजा बलराम दास के साथ सिद्धनाथ साव के मधुर और आत्मीय संबंध थे। सिद्धनाथ साव की दो पुत्रियाँ थी - बड़ी रेवती और छोटी कमला। रियासत के काम से जब भी वे राजनांदगाँव जाते, कमला को साथ ले जाना नहीं भूलते। राजा बलराम दास निःसंतान थे और संभवतः संतान-सुख की चाह में नन्हीं कमला को वे अपनी गोद में लेकर बैठते, उनसे खेलते, बतियाते। और इस तरह कमला का बचपन जमींदारी और रियासत के वैभवपूर्ण माहौल के संस्कारों से संस्कारित होता रहा। इस बालिका की अवस्था जब माँ-बाप की गोद में समाने लायक नहीं रही, इनका विवाह डोंगरगाँव से सात किलोमीटर दूर ग्राम खुर्सीटिकुल के जमीदार कन्हैया लाल साव जिन्हें लोग सम्मानपूर्वक बड़े गौंटिया के नाम से संबोधित करते थे; के सुपुत्र टीकम नाथ साव से कर दिया गया। टीकम नाथ साव को लोग टिकइत गौंटिया के नाम से जानते थे। अपनी नफासतपूर्ण जीवनशैली के कारण ये चिकनू दाऊ के नाम से अधिक विख्यात हुए। यहाँ कमला ने तीन यशस्वी पुत्रों और पाँच पुत्रियों को जन्म दिया। आज समूचे छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढी लोकसंगीत के क्षेत्र में जीते-जी किंवदंती बन चुके खुमान साव इन्हीं आठ संतानों में से पाँचवीं संतान हैं।
खुमान साव का जन्म 5 सितंबार 1929 को हुआ था। अपने जन्मतिथि के संबंध में खुमान साव कहते हैं - ’’जब मंय ह स्कूल जाय के लाइक होयेंव, मोर पिताजी ह रामचरण कोतवाल ल बुला के किहिस, ’अरे कोतवाल! तंय ये लइका ल धर के स्कूल जा, येकर नाम ल लिखवा देबे। बड़े गुरूजी ह जनम तारीख पूछही तब सन उन्नीस सौ उन्तीस बता देबे।.........अउ सुन, येला रेंगावत झन लेग, खांद म बइठार ले।’
कोतवाल ह मोला अपन खांद म बइठार के स्कूल लेगिस। मोर नाम ल लिखवाइस। लहुटेन तब पिताजी हा कोतवाल ल पूछिस - ’जनम तारीख ल बने लिखायेस कि नहीं?’
कोतवाल ह किहिस - ’तंय ह बताय रेहेस वइसनेच् लिखवाय हंव मालिक।’
’का?’
’तीस।’
’मंय ह तो उनतीस केहे रेहेंव रे।’
कोतवाल ह चेथी डहर ल खजवाय लगिस, किहिस - ’उन ह भुलागिस।’
पिताजी ह किहिस - ’ले, कुछू नइ होय। हमला कोनों सरकारी नउकरी थोड़े करवाना हे।’
ये तरीका ले, कोतवाल ह उनतीस के उन ल भुला गिस अउ मोर जनम तारीख ह उनतीस ले तीस हो गे।’’
भाइयों में अपना क्रम बताने का भी खुमान साव का अपना ही तरीका है, वे कहते हैं - ’’हमर ममा गाँव हरे जंगलेशर। माँ मन दू बहिनी होवंय। दुलार सिंह साव! जानथस न? मंदराजी दाऊ? वो ह बड़े बहिनी के बड़े बेटा; अउ मंय ह छोटे बहिनी के छोटे बेटा।’’
संक्षिप्त परन्तु किसी काव्यात्मक-पहेली के समान इस विवरण पर गौर कीजिए। कितनी सारी जानकारियाँ समायी हुई है इसमें? वाह! इसे कहते हैं - गागर में सागर भरना। दोनों बड़े भाई उम्र के हिसाब से खुमान साव से काफी बड़े थे। खुमान साव का आकर्षक और प्रभावशाली व्यक्तित्व हम सब के सामने है। माँ कमला ने जमींदारी और रियासत के वैभवपूर्ण माहौल से जो संस्कार अर्जित किया था शायद वही संस्कार होंगे, जो विरासत के रूप में इन्हें मिला है। शेष दोनों भाइयों का व्यक्तित्व भी इन्हीं के समान ही था। मंझले भाई का नाम था, कामता प्रसाद साव, जिन्हें आज भी हम, श्रद्धा और सम्मान के साथ, के. पी. साव सर के नाम से स्मरण करते हैं। गणित विषय के विद्वान शिक्षक तथा मयुनिसिपल स्कूल के प्राचार्य होने के नाते एक कुशल प्रशासक के रूप में उनकी छवि यहाँ के लोगों के दिलो-दिमाग में आज भी रची-बसी है। बड़े भाई का नाम चन्द्रशेखर साव था। आमतौर पर वे रणछोर दाऊ के नाम से जाने जाते थे। इनका चेहरा अशोक कुमार से मिलता था। इन्हें हिन्दी फिल्मों में काम करने का बड़ा शौक था। अपने इस शौक के चलते वे मुंबई पहुँच गये। वहाँ उस समय की सुप्रसिद्ध नायिका लीला चिटनिस के यहाँ उन्होंने चाकरी भी की; परन्तु उनके स्वभाव में मालगुजारी का जो अक्खड़पन और स्वाभिमान के संस्कार थे, उसने उन्हें वहाँ टिकने नहीं दिया और असफल होकर वे लौट आये। बाद में कुछ ऐसा ही शौक खुमान साव को भी हुआ। फिल्मी दुनिया में संगीतकार बनने के लिए ये भी, बड़े भाई के पदचिह्नों का अनुशरण करते हुए मुंबई जा पहुँचे, और उन्हीं के पदचिह्नों का अनुशरण करते हुए, उसी तरह लौट भी आये। बाद में राजनांदगाँव में उन्होंने ’खुमान एण्ड आर्केस्टाª’ नाम से आर्केस्ट्रा बनाया। राजनांदगाँव के इतिहास में यह पहला आर्केस्ट्रा था। संगीत के प्रति लगाव और दीवानगी की अपनी कहानी खुमान साव कुछ इस तरह बयाँ करते हैं -
’’हमर घर म एक ठन हारमोनियम रिहिस हे, पिताजी हा येला कलकत्ता ले खरीद के लाने रिहिस। येकरो एक ठन कहानी हे। वो समय इहाँ हारमोनियम नइ मिलय। हमर पिताजी, मंदराजी, अउ हमर ममा (जंगलेशर वाले वीरेन्द्र साव के दादा जी), तीनों झन गिन कलकत्ता, हारमोनियम खरीदे बर। तीनों झन अपन-अपन बर हारमोनियम खरीदिन। मंदराजी ह गांजा के शौकीन रिहिस हे, कलाकार मन ल कोनों न कोनों नशा घेरेच् रहिथे। उहाँ कोनों दुकान म चोरी-लुका चरस बेचावत रिहिस होही। येमन एक-दू रूपिया के खरीद लिन अउ हारमोनियम म लुका के रख लिन। लहुटती म पुलिस ल पता चल गे। टाटानगर के एक स्टेशन पहिलिच पुलिसवालेमन येमन ल पकड़ लिन। अलकरहा होगे। .... वो समय हमर गाँव के परऊ राम साहू नाम के आदमी उहाँ, कंपनी म काम करय। हमर पिताजी ल वोकरे सुरता आ गिस। पुलिस वाले मन ल बोलबुला के, दुनों झन ल थाना म छोड़ के वो ह विही आदमी तिर गिस। वोला धर के लानिस अउ जमानत कराइस। हफ्ता-दस दिन ले वोमन ल उहाँ रुके बर पड़गे। इही बीच वोमन ल उहाँ एक आदमी के पता मिलिस, जउन ह हारमोनियम सिखाय के काम करय। उहाँ जा के, ये मन हारमोनियम बजाय बर सीख गें। हारमोनियम बजाय बर सीखे के खुशी म येमन ल पुलिस लफड़ा के दुख ह घला भुला गें।’’
खुमान साव ने हारमोनियम बजाना कैसे सीखा और नाचा में वे कैसे आये, इसकी भी एक कहानी है; खुमान साव बताते हैं - ’’एक घांव मातेखेड़ा म मुक्तानंद के भागवत होइस। (मातेखेड़ा गाँव जंगलपुर के आगे पड़ता है। जंलपुर में इनका दुघेरा है।) सब झन सुने बर गिन। मंय ह नइ गेंव। नौकर चाकर मन रांध के खवांय। रात म सकला जांय। कहंय - चल न जी हारमोनियम ल निकाल, गाना गाबोन। वो मन गावंय अउ मंय ह पीं-पां, पीं-पां, करत रहंव। कोनों तो नइ रहंय घर म, काकर डर। तीन-चार दिन म बजाय बर सीख गेंव। बनेच् सीख गेंव नौ-दस दिन म। अब तो रमायन होय तिहां बजाय लगेंव।
विही समय सीताकसा म नाचा होइस, मंदराजी मन के। मंदराजी ह मोसी घर बइठे बर आय रहय। (मां के साथ खुमान साव भी वहाँ गये हुए थे।) मां ह मंदराजी ल किहिस - यहू ह तो पीं-पां बजाथे रे! मंदीरजी, बजवा न। तोरनकटा वाले पंचराम ह गाना गाइस, मंय ह हारमोनियम बजायेंव, पास हो गेंव।
वो समय हमर एक झन कका रिहिस, रामरतन, मटिया वाले। वो ह चिकारा के गजब नचकरहिन रिहिस। सात ठन लोटा ल बोहि के नाचे। वइसनेच् एक झन नचकरहिन अउ रिहिस, माटेकसा म राजाराम नाम के। बसंतपुर म तीन झन सियान रिहिन, नाचा के बड़ नामी कलाकार - रामभरोसा अउ सीताराम गम्मत करंय अउ सुखराम ह नचकरहिन के काम करय। खुर्सीटिकुल तीर झिटिया नाम के गाँव हे। उहाँ के मालगुजार सुखूराम दाऊ, तबला बजावय। वो ह अपन गाँव म नाचा कराइस। बसंतपुर के ये तीनों सियान मन पहुँचे रहंय। मोहड़ म जगतराम देवंगन नाव के आदमी रिहिस जउन ह चिकारा बजावय। नाचा के दिन वोकर तबीयत हो गे खराब। मोर घर आ गें। किहिन - हारमोनियम बजाय बर चल। 13-14 साल के उमर रिहिस होही मोर। खांद म हारामोनियम ल अरो के रातभर बजाना रहय। हमर गाँव म नाचा के एक झन शौकीन रहय, सुंदरलाल नाम के। वो ह मोर माँ ल दीदी कहय, किहिस - चल न भांचा, तंय काबर फिकर करथस।
पहुँच गेन झिटिया। मेकप होवत रहय। राजा राम ह सुखू ल पूछिस - तबला ल तो तंय ह बजाबे, चिकारा ल कोन ह बजाही?
’ चिकारा नइ बाजे, हारमोनियम बाजही।’
’कोन बजाही?’
सुखूराम हा मोर कोती इशारा कर दिस।
राजाराम ह किहिस - ये! मेचका ह?
मोला गुस्सा आ गे, केहेव - बबा! रात भर तंय ह जउन-जउन गाना ल गाबे तउन ल बता।
वो ह दस-बारा ठन गाना गा के बताइस। मंय ह केहेंव, बजा लेहूँ। अउ बजा के बता देंव।
स्टेज म गेन। सुंदर ह हारमोनियम ल गमझा म बांध के मोर खांद म अरो दिस। कोकर गेंव - ’दाई, दाई ....।’ सुंदर ह पीछू डहर खड़े हो के गमछा मन के छोर ल धर के हारमोनियम ल उठा लिस। पूछिस मोला - ’अब बजा सकबे कि नहीं भांचा? ’
मंय केहेंव - ’अइसन म बजा लेहूं।’
रातभर हारमोनियम बजायेंव। बसंतपुर के वो कलाकार मन संग इही ह मोर पहिली अउ आखरी नाचा होइस।’’
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राजनांदगाँव के म्युनिसिपल स्कूल, जहाँ बड़े भाई के. पी. साव शिक्षक थे, वहाँ के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में छात्रों को रिहर्सल करवाने के लिए खुमान साव को अक्सर बुलाया जाता था। बाद में इन्हें यहाँ की पूर्व माध्यमिक शाला में शिक्षक पद पर नियुक्ति दी गई। यहाँ ये ’खुमान सर’ के नाम से प्रसिद्ध हुए और सेवानिव्त्त होते तक कक्षा सातवीं ’अ’ के कक्षा शिक्षक बने रहे; गणित तथा अंग्रेजी जैसे महत्वपूर्ण विषय का अध्यापन करते रहे। बाईं बगल में उपस्थिति पंजी लेकर ठीक सवा सात बजे स्टाफ रूम से निकलने और अपनी कक्षा में प्रवेश करने के दौरान इनका रौबीला व्यक्तित्व और अनुशासन प्रिय शिक्षक स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत हो जाता। 60 और 80 के दशक तक म्यूनिसिपल स्कूल के तीन दिवसीय वार्षिकोत्सव की धुरी खुमान साव ही होते। शहर में यह समारोह लोकप्रियता के चरम तक पहुँच गया। इसी समारोह के माध्यम से खुमान साव ने शहर के अनेक प्रतिभाओं को सामने लाया, उन्हें तराशा, निखारा और जो आज स्थापित कलाकरों की श्रोणी में गिने जाते हैं। कविता वासनिक, प्रकाश देवांगन, मिलिंद साव, राजा बेनर्जी, लता खापर्डे, कृष्ण कुमार सिन्हा, सुदेश यादव और ललित हेड़ऊ आदि के नाम अल्प स्मरण में सामने आते हैं।
अनुशासनप्रिय कक्षाशिक्षक, समय के पाबंद और कुशल प्रबंधक के अद्भुत कौशल से समाहित उनका व्यक्तित्व आज भी एक विराट सांस्कृतिक संस्था के संचालक के तौर पर स्पष्ट उभरता है। अवगत हो, ’चंदैनी गोंदा’ के सभी कलाकार उन्हें ’खुमान सर’ ही संबोधित करते हैं।
अविभाजित मध्य प्रदेश में 14 नवंबर को प्रतिवर्ष राज्य स्तरीय ’बालमेला’ आयोजित होता था। इसमें स्कूल स्तर पर सम्पूर्ण प्रदेश के जिला स्तर पर चयनित छात्र-छात्राओं के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुती होती थी। इस समारोह में म्युनिसिपल स्कूल राजनांदगाँव ने सतत रूप से प्रथम स्थान प्राप्त कर इतिहास रच दिया। इस इतिहास के लेखक खुमान साव ही हैं। खुमान साव बताते हैं - ’’पहिली हर साल राज्य स्तर के प्रतियोगिता होवय; अब होथे कि नहीं, पता नहीं। 79 से लेकर 88 तक हर प्रतियोगिता म हम प्रथम आय रेहेन।’’ होशंगाबाद, उज्जैन, भोपाल, दुर्ग जैसे स्थनों में आयोजित हुई। इन प्रतियोगिताओं के माध्यम से प्रदेश में छत्तीसगढ़ी लोक संगीत और लोकनृत्यों की धूम मची और छत्तीसगढ़ की सुव्यवस्थित सांस्कृतिक पहचान बनी।
1971 ई. में बघेरा के दाऊ रामचन्द्र देशमुख ने छत्तीसगढ़ के प्रथम परिष्कृत लोकमंच ’’चंदैनी गोंदा’’ की स्थापना की, तब खुमान साव चंदैनी गोंदा में संगीत निर्देशक के रूप में जुड़ गए। चंदैनी गोंदा की प्रसिद्धि में उसके संगीत पक्ष का योगदान किसी से छिपा नहीं है। रामचंद्र देश्मुख के बाद 1980 इ. से आज तक खुमान साव चंदैनी गोंदा को गरिमापूर्ण ढंग से संचालित करते आ रहे हैं। खुमान साव के ही मार्गदर्शन में मंदराजी के जन्म गाँव रवेली में विगत तेईस सालों से निरंतर, प्रतिवर्ष 01 अप्रेल को मदराजी महोत्सव आयोजित हो रहा है।
छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत अथवा चंदैनीगोंदा का नाम आते ही खुमानलाल साव का व्यक्तित्व प्रकाशित होने लगता है। जयंती यादव, कविता हिरकने (अब कविता वासनिक), सुनील तिवारी जैसे लोकगीत और लोककला के साधकों, तथा अन्य अनेकों कलाकारों को मैंने उनके सामने श्रद्धा से शीश झुकाते हुए देखा है। आज की तिथि में ग्राम ठेकवा स्थित उनका आवास इन कलाकारों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है। लोककलाकार उनका सम्मान करके खुद को धन्य मानते हैं। छत्तीसगढ़ी लोककला-लोकसंगीत को खुमान साव का अवदान तथा खुमान साव की प्रतिभा आज किसी से छिपी नहीं है। छत्तीसगढ़ का कोई भी व्यक्ति इससे अनजान नहीं है।
खुमान साव के संदर्भ में कहें तो 85 वर्ष की अवस्था में यद्यपि वे आज भी ऊर्जावान बने हुए हैं, कला की आभा उनके मुखमण्डल पर देखी जा सेकती है, परन्तु उनके अवदानों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो ऊर्जा प्रवाह के संतुलन को बनाये रखने के लिए अब समय आ गया है कि उनके अवदानों के लिए राज्य सरकार भी उनका समुचित सम्मान करे, योग्य अलंकरण से उन्हें अलंकृत करे। खुमान साव उत्कट स्वाभिमानी प्रकृति के इन्सान हैं। किसी सम्मान अथवा अलंकरण के लिए वे अपनी योग्यताओं का विज्ञापन हरगिज नहीं करेंगे। अपने अवदानों के लिए वे कभी भी, किसी भी प्रकार के सम्मान अथवा पुरस्कार की मांग नहीं करेंगे। शासन से अपेक्षा है कि श्री खुमान साव को अलंकृत करने की दिशा में विचार करे।
साकेत साहित्य परिषद् के इस मंच पर खुमान साव के रूप में आज नाचा और लोकसंगीत की एक पूरी परंपरा ही उपस्थित है। साकेत साहित्य परिषद् के रचनाकारों के प्रति उनके हृदय में निश्चित ही वात्सल्य का भाव समाया हुआ है। यह उपस्थिति इसी का सुपरिणाम है, जो हमारे लिए सबसे बड़ा आशीर्वाद है। हम उन्हें शत-शत नमन करते हैं।
(टीप:- यह लेख श्री खुमान साव से साक्षातकार तथा उनके पारिवारिक सूत्रों से उपलब्ध जानकरियों के आधार पर तैयार किया गया है।)
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कुबेर
संरक्षक, साकेत साहित्य परिषद्
मो. - 9407685557
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