शनिवार, 2 दिसंबर 2017

कविता

दरवाजे केवल दरवाजे नहीं होते 


दरवाजा होने के लिए दीवार का होना जरूरी है
दीवार होने के लिए दरवाजे का होना जरूरी नहीं है

दरवाजों और दीवारों को जितना हमने बनाया होता है 
दरवाजे और दीवारें उससे अधिक हमें बनाते हैं।
दरवाजों और दीवारों को जितना हमने बनाया होता है
दरवाजे और दीवारें उससे बहुत अधिक होते हैं। 

दरवाजे और दीवार 
हमारी दुनिया के अंदर की व्यवस्थाएँ हैं
हमारी दुनिया की व्यवस्थओं के बाहर 
न दरवाजे होते हैं और न दीवारें होती हैं।

दरवाजे और दीवार के अंदर की दुनिया 
सबकी दुनिया नहीं होती है
दरवाजे और दीवार के बाहर की दुनिया सबकी दुनिया होती है।

दरवाजे कमरों को कमरों से जोड़ते हैं
कमरों को घर की तरह बनाते हैं
दरवाजे घरों को घरों से जोड़कर गाँव और शहर बनाते हैं।

दरवाजे, केवल दरवाजे नहीं, दीवार भी होते हैं
दरवाजे खुलकर भी, कभी नहीं खुलते हैं
दरवाजे न कभी किसी को अंदर आने देते हैं
और न कभी किसी को बाहर जाने देते हैं।

दरवाजे से होकर आना-जाना
दुनिया के अंदर आना-जाना नहीं होता है।
000
kuber

सोमवार, 20 नवंबर 2017

कहानी

पक्षी और दीमक 

गजानन माधव मुक्तिबोध

(’मुक्तिबोध की कहानियों में कथानक का अभाव होता है’, समीक्षकों के इस कथन को यह कहानी पूरी तरह खारिज करती है। ’पक्षी और दीमक’ की कहानी मुख्य कथानक के भीतर अवस्थित एक अंतरकथा है, मुख्य कथानक के साथ गुँथा होकर भी स्वयं में पूर्णतः स्वतंत्र। ’पक्षी और दीमक’ के बाहर है कथा नायक की अव्यक्त प्रेमिका - श्यामला और कथा नायक का बाॅस - ’साँवले नाटे कद पर भगवे रंग की खद्दर का बंडीनुमा कुरता, लगभग चैरस मोटा चेहरा, जिसके दाहिने गाल पर एक बड़ा-सा मसा है, और उस मसे में बारीक बाल निकले हुए’, विपात्र के बाॅस की तरह का। और हैं बहुत सारे बिंब, अपने-अपने प्रतीकों के साथ। 
’भारतीय साहित्य के निर्माता मुक्तिबोध’ में नन्दकिशोर नवल लिखते हैं - ’इसी समय (नागपुर में) उनके करीब कुछ स्त्रियाँ आईं, जो उनके भावनाओं का दोहनकर अंततः उन्हें और अकेला बना गईं। पहली बार यहीं उनसे सोवियत शोध छा़़त्रा नातालिया भी मिली थी, जिसके साथ विकसित संबंधों ने उनके दिल को थोड़ा राहत पहुँचाई थी।’ इस कहानी की नायिका श्यामला में कभी इसी नातालिया का प्रक्षेप प्रतिबिंबित होता है तो कभी-कभी उनमें कथानायक के ज्ञानात्मक संवेदना से निमिति उनके अंतर्विवेक की झलक भी मिलती है, जो उन्हें बाॅस से विद्रोह करने की प्रेरणा देता है।
’पक्षी और दीमक’ की कथा वस्तुतः एक काव्यात्मक रूपक है जिसमें मध्यवर्ग के प्रतिनिध के रूप में स्वयं कथानायक नवजवान पक्षी है, कथानायक की (मध्यवर्गीय मन की) कभी संतुष्ट न होनेवाली लिप्साएँ दीमक है और दीमक बेचनेवाला गाड़ीवाला है उसका बास, जो वस्तुतः सपने बेचनेवाले बाजार का प्रतिनिधि है।
’भारतीय साहित्य के निर्माता मुक्तिबोध’ में नन्दकिशोर नवल लिखते हैं - ’उनके मित्रों को आश्चर्य होता, जो व्यक्ति संसार के अत्याचार के प्रति इतना संवेदनशील है, वह अपने साथ हो रहे अत्याचार के प्रति इतना उदासीन है।’ यह कहानी वस्तुतः आश्चर्य में डूबे इन्हीं मित्रों को आश्वस्त करता है कि - ’किंतु प्रकाश के उद्गम के सामने रहना, उसका सामना करना, उसकी चिलचिलाती दोपहर में रास्ता नापते रहना और धूल फाँकते रहना कितना त्रास-दायक है। पसीने से तरबतर कपड़े इस तरह चिपचिपाते हैं और इस कदर गंदे मालूम होते हैं कि लगता है... कि अगर कोई इस हालत में हमें देख ले तो वह बेशक हमें निचले दर्जे का आदमी समझेगा। .... तो इसमें आश्चर्य की ही क्या बात है! लेकिन मैं अब ऐसे कामों की शर्म नहीं करूँगा, क्योंकि जहाँ मेरा हृदय है, वहीं मेरा भाग्य है!’ - कुबेर)

बाहर चिलचिलाती हुई दोपहर है लेकिन इस कमरे में ठंडा मद्धिम उजाला है। यह उजाला इस बंद खिड़की की दरारों से आता है। यह एक चैड़ी मुँडेरवाली बड़ी खिड़की है, जिसके बाहर की तरफ, दीवार से लग कर, काँटेदार बेंत की हरी-घनी झाडि़याँ हैं। इनके ऊपर एक जंगली बेल चढ़ कर फैल गई है और उसने आसमानी रंग के गिलास जैसे अपने फूल प्रदर्शित कर रखे हैं। दूर से देखनेवालों को लगेगा कि वे उस बेल के फूल नहीं, वरन बेंत की झाडि़यों  के अपने फूल हैं।
किंतु इससे भी आश्चर्यजनक बात यह है कि उस लता ने अपनी घुमावदार चाल से न केवल बेंत की डालों को, उनके काँटों से बचते हुए, जकड़ रखा है, वरन उसके कंटक-रोमोंवाले पत्तों  के एक-एक हरे फीते को समेटकर, कसकर, उनकी एक रस्सीर-सी बना डाली है और उस पूरी झाड़ी पर अपने फूल बिखराते-छिटकाते हुए, उन सौंदर्य-प्रतीकों को सूरज और चाँद के सामने कर दिया है।
लेकिन, इस खिड़की को मुझे अकसर बंद रखना पड़ता है। छत्तीासगढ़ के इस इलाके में, मौसम-बेमौसम आँधीनुमा हवाएँ चलती हैं। उन्होंाने मेरी खिड़की के बंद पल्लों को ढीला कर डाला है। खिड़की बंद रखने का एक कारण यह भी है कि बाहर दीवार से लग कर खड़ी हुई हरी-घनी झाडि़यों के भीतर जो छिपे हुए, गहरे, हरे-साँवले अंतराल हैं, उनमें पक्षी रहते हैं और अंडे देते हैं। वहाँ से कभी-कभी उनकी आवाजें, रात-बिरात, एकाएक सुनाई देती हैं। वे तीव्र भय की रोमांचक चीत्कारें हैं क्योंकि वहाँ अपने शिकार की खोज में एक भुजंग आता रहता है। वह, शायद उन तरफ की तमाम झाडि़यों के भीतर रेंगता फिरता है।
एक रात, इसी खिड़की में से एक भुजंग मेरे कमरे में भी आया। वह लगभग तीन-फीट लंबा अजगर था। खूब खा-पीकरके, सुस्त  होकर, वह खिड़की के पास, मेरी साइकिल पर लेटा हुआ था। उसका मुँह ’कैरियर’ पर, जिस्म की लपेट में, छिपा हुआ था और पूँछ चमकदार ’हैंडिल’ से लिपटी हुई थी। ’कैरियर’ से लेकर ’हैंडिल’ तक की सारी लंबाई को उसने अपने देह-वलयों से कस लिया था। उसकी वह काली-लंबी-चिकनी देह आतंक उत्पन्न  करती थी।
हमने बड़ी मुश्किल से उसके मुँह को शिनाख्त किया। और फिर एकाएक ’फिनाइल’ से उस पर हमला करके उसे बेहोश कर डाला। रोमांचपूर्ण थे हमारे वे व्याकुल आक्रमण! गहरे भय की सनसनी में अपनी कायरता का बोध करते हुए, हम लोग, निर्दयतापूर्वक, उसकी छटपटाती देह को लाठियों से मारे जा रहे थे।
उसे मरा हुआ जान, हम उसका अग्नि-संस्कार करने गए। मिट्टी के तेल की पीली-गेरूई ऊँची लपक उठाते हुए, कंडों की आग में पड़ा हुआ वह ढीला नाग-शरीर, अपनी बची-खुची चेतना समेट कर, इतनी जोर-से ऊपर उछला कि घेरा डालकर खड़े हुए हम लोग हैरत में आकर, एक कदम पीछे हट गए। उसके बाद रात-भर, साँप की ही चर्चा होती रही।
इसी खिड़की से लगभग छह गज दूर, बेंत की  झाडि़यों के उस पार, एक तालाब है... बड़ा भारी तालाब, आसमान का लंबा-चैड़ा आईना, जो थरथराते हुए मुस्कराता है। और उसकी थरथराहट पर किरनें नाचती रहती हैं।
मेरे कमरे में जो प्रकाश आता है, वह इन लहरों पर नाचती हुई किरनों का उछल कर आया हुआ प्रकाश है। खिड़की की लंबी दरारों में से गुजर कर वह प्रकाश, सामने की दीवार पर चैड़ी मुँडेर के नीचे सुंदर झलमलाती हुई आकृतियाँ बनाता है।
मेरी दृष्टि उस प्रकाश-कंप की ओर लगी हुई है। एक क्षण में उसकी अनगिनत लहरें नाचे जा रही हैं, नाचे जा रही हैं। कितना उद्दाम, कितना तीव्र वेग है उन झिलमिलाती लहरों में। मैं मुग्ध  हूँ कि बाहर के लहराते तालाब ने किरनों की सहायता से अपने कंपों की प्रतिच्छवि मेरी दीवार पर आँक दी है।
काश, ऐसी भी कोई मशीन होती जो दूसरों के हृदयकंपनों को, उनकी मानसिक हलचलों को, मेरे मन के परदे पर चित्र रूप में उपस्थित कर सकती।
उदाहरणतः, मेरे सामने इसी पलंग पर, वह जो नारी-मूर्ति बैठी है, उसके व्यक्तित्व के रहस्यों को मैं जानना चाहता हूँ, वैसे, उसके बारे में जितनी गहरी जानकारी मुझे है, शायद और किसी को नहीं।
इस धुँधले अँधेरे कमरे में वह मुझे सुंदर दिखाई दे रही है। दीवार पर गिरे हुए प्रत्यावर्तित प्रकाश का पुनः प्रत्यावर्तित प्रकाश, नीली चूडियोंवाले हाथों में थमे हुए उपन्यास के पन्नों पर, ध्यानमग्न कपोलों पर और आसमानी आँचल पर फैला हुआ है। यद्यपि इस समय हम दोनों अलग-अलग दुनिया में (वह उपन्याास के जगत में और मैं अपने खयालों के रास्तों  पर) घूम रहे हैं, फिर भी इस अकेले धुँधले कमरे में गहन साहचर्य के संबंध-सूत्र तड़प रहे हैं और महसूस किए जा रहे हैं।
बावजूद इसके, यह कहना ही होगा कि मुझे इसमें ’रोमांस’ नहीं दीखता। मेरे सिर का दाहिना हिस्सा सफेद हो चुका है। अब तो मैं केवल आश्रय का अभिलाषी हूँ, ऊष्मापूर्ण आश्रय का...
फिर भी मुझे शंका है। यौवन के मोह-स्वप्न उद्दाम आत्मविश्वास अब मुझमें नहीं हो सकता। एक वयस्क पुरुष का अविवाहित वयस्क स्त्री से प्रेम भी अजीब होता है। उसमें उद्बुद्ध इच्छा के आग्रह के सा्थ-साथ जो अनुभवपूर्ण ज्ञान का प्रकाश होता है, वह पल-पल पर शंका और संदेह को उत्पन्न करता है।
श्यामला के बारे में मुझे शंका रहती है। वह ठोस बातों की बारीकियों का बड़ा आदर करती है। वह व्यवहार की कसौटी पर मनुष्य को परखती है। वह मुझे अखरता है। उसमें मुझे एक ठंडा पथरीलापन मालूम होता है। गीले-सपनीले रंगों का श्यामला में सचमुच अभाव है।
ठंडा पथरीलापन उचित है, या अनुचित, यह मैं नहीं जानता। किंतु जब औचित्य के सारे प्रमाण, उनका सारा वस्तु-सत्य पॉलिशदार टीन-सा चमचमा उठता है, तो मुझे लगता है - बुरे फँसे इन फालतू की अच्छांइयों में, दूसरी तरफ मुझे अपने भीतर ही कोई गहरी कमी महसूस होती है और खटकने लगती है।
ऐसी स्थिति में मैं ’हाँ’ और ’ना’ के बीच में रह कर, खामोश, ’जी हाँ’ की सूरत पैदा कर देता हूँ। डरता सिर्फ इस बात से हूँ कि कहीं यह ’जी हाँ’ ’जी हुजूर’ न बन जाए। मैं अतिशय शांति-प्रिय व्यक्ति हूँ। अपनी शांति भंग न हो, इसका बहुत खयाल रखता हूँ। न झगड़ा करना चाहता हूँ, न मैं किसी झगड़े में फँसना चाहता...
उपन्यास फेंक कर श्यामला ने दोनों हाथ ऊँचे करके जरा-सी अँगड़ाई ली। मैं उसकी रूप-मुद्रा पर फिर से मुग्ध होना ही चाहता था कि उसने एक बेतुका प्रस्ताव सामने रख दिया। कहने लगी, ’चलो, बाहर घूमने चलें।’
मेरी आँखों के सामने बाहर की चिलचिलाती सफेदी और भयानक गरमी चमक उठी। खस के परदों के पीछे, छत के पंखों के नीचे, अलसाते लोग याद आए। भद्रता की कल्पना और सुविधा के भाव मुझे मना करने लगे। श्यामला के झक्कीपन का एक प्रमाण और मिला।
उसने मुझे एक क्षण आँखों से तौला और फैसले के ढंग से कहा, ’खैर, मैं तो जाती हूँ। देख कर चली जाऊँगी... बता दूँगी।’
लेकिन चंद मिनटों बाद, मैंने अपने को चुपचाप उसके पीछे चलते हुए पाया। तब दिल में एक अजीब झोल महसूस हो रहा था। दिमाग के भीतर सिकुड़न-सी पड़ गई थी। पतलून भी ढीला-ढाला लग रहा था, कमीज के ’कॉलर’ भी उल्टे-सीधे रहें होंगे। बाल अन-सँवरे थे ही। पैरों को किसी-न-किसी तरह आगे ढकेले जा रहा था।
लेकिन यह सिर्फ दुपहर के गरम तीरों के कारण था, या श्यामला के कारण, यह कहना मुश्किल है।
उसने पीछे मुड़ कर मेरी तरफ देखा और दिलासा देती हुई आवाज में कहा, ’स्कूल का मैदान ज्यादा दूर नहीं है।’
वह मेरे आगे-आगे चल रही थी, लेकिन मेरा ध्यान उसके पैरों और तलुओं के पिछले हिस्से की तरफ ही था। उसकी टाँग, जो बिवाइयों-भरी और धूल-भरी थी, आगे बढ़ने में, उचकती हुई चप्पल पर चटचटाती थी। जाहिर था कि ये पैर धूल-भरी सड़कों पर घूमने के आदी हैं।
यह खयाल आते ही, उसी खयाल से लगे हुए न मालूम किन धागों से हो कर, मैं श्यामला से खुद को कुछ कम, कुछ हीन पाने लगा और इसकी ग्लानि से उबरने के लिए, मैं उस चलती हुई आकृति के साथ, उसके बराबर हो लिया। वह कहने लगी, ’याद है शाम को बैठक है। अभी चल कर न देखते तो कब देखते। और सबके सामने साबित हो जाता कि तुम खुद कुछ करते नहीं। सिर्फ जबान की कैंची चलती है।’
अब श्यामला को कौन बताए कि न मैं इस भरी दोपहर में स्कूल का मैदान देखने जाता और न शाम को बैठक में ही। संभव था कि ’कोरम’ पूरा न होने के कारण बैठक ही स्थगित हो जाती। लेकिन श्यामला को यह कौन बताए कि हमारे आलस्य में भी एक छिपी हुई, जानी-अनजानी योजना रहती है। वर्तमान संचालन का दायित्व जिन पर है, वे खुद संचालन-मंडल की बैठक नहीं होने देना चाहते। अगर श्यामला से कहूँ तो पूछेगी, ’क्यों!’
फिर मैं जवाब दूँगा। मैं उसकी आँखों से गिरना नहीं चाहता, उसकी नजर में और-और चढ़ना चाहता हूँ। प्रेमी जो हूँ अपने व्यक्तित्व का सुंदरतम चित्र उपस्थित करने की लालसा भी तो रहती है।
वैसे भी, धूप इतनी तेज थी कि बात करने या बात बढ़ाने की तबीयत नहीं हो रही थी।
मेरी आँखें सामने के पीपल के पेड़ की तरफ गईं, जिसकी एक डाल तालाब के ऊपर, बहुत ऊँचाई पर, दूर तक चली गई थी। उसके सिरे पर एक बड़ा-सा भूरा पक्षी बैठा हुआ था। उसे मैंने चील समझा। लगता था कि वह मछलियों के शिकार की ताक लगाए बैठा है।
लेकिन उसी शाखा की बिलकुल विरुद्ध दिशा में, जो दूसरी डालें ऊँची हो कर तिरछी और बाँकी-टेढ़ी हो गई हैं, उन पर झुंड के झुंड कौवे काँव-काँव कर रहे हैं, मानो वे चील की शिकायत कर रहे हों और उचकर-उचककर, फुदक-फुदककर, मछली की ताक में बैठे उस पक्षी के विरुद्ध प्रचार किए जा रहे हों। 
- कि इतने में मुझे उस मैदानी-आसमानी चमकीले खुले-खुलेपन में एकाएक, सामने दिखाई देता है - साँवले नाटे कद पर भगवे रंग की खद्दर का बंडीनुमा कुरता, लगभग चैरस मोटा चेहरा, जिसके दाहिने गाल पर एक बड़ा-सा मसा है, और उस मसे में बारीक बाल निकले हुए।
जी धँस जाता है उस सूरत को देख कर। वह मेरा नेता है, संस्था  का सर्वेसर्वा है। उसकी खयाली तस्वीर देखते ही मुझे अचानक दूसरे नेताओं की और सचिवालय के उस अँधेरे गलियारे की याद आती है, जहाँ मैंने इस नाटे-मोटे भगवे खद्दर-कुरतेवाले को पहले-पहले देखा था।
उन अँधेरे गलियारों में से मैं कई-कई बार गुजरा हुँ और वहाँ किसी मोड़ पर किसी कोने में इकट्ठा हुए, ऐसी ही संस्थाओं के संचालकों के उतरे हुए चेहरों को देखा है। बावजूद श्रेष्ठ  पोशाक और ’अपटूडेट’ भेस के सँवलाया हुआ गर्व, बेबस गंभीरता, अधीर उदासी और थकान उनके व्यक्तित्व पर राख-सी मलती है। क्यों?
इसलिए कि माली साल की आखिरी तारीख को अब सिर्फ दो या तीन दिन बचे हैं। सरकारी ’ग्रांट’ अभी मंजूर नहीं हो पा रही है, कागजात अभी वित्त-विभाग में ही अटके पड़े हैं। आफिसों के बाहर, गलियारे के दूर किसी कोने में, पेशाबघर के पास, या होटलों के कोनों में क्लर्कों की मुट्ठियाँ गरम की जा रहीं हैं, ताकि ’ग्रांट’ मंजूर हो और जल्दी मिल जाए।
ऐसी ही किसी जगह पर मैंने इस भगवे-खद्दर कुरतेवाले को जोर-जोर से अंगरेजी बोलते हुए देखा था। और, तभी मैंने उसके तेज मिजाज और फितरती दिमाग का अंदाजा लगाया था।
इधर, भरी दोपहर में श्यामला का पार्शव-संगीत चल ही रहा है, मैं उसका कोई मतलब नहीं निकाल पाता। लेकिन न मालूम कैसे, मेरा मन उसकी बातों से कुछ संकेत ग्रहण कर, अपने ही रास्तों पर चलता रहता है। इसी बीच उसके एक वाक्य से मैं चैंक पड़ा, ’इससे अच्छा है कि तुम इस्तींफा दे दो। अगर काम नहीं कर सकते तो गद्दी क्यों अड़ा रखी है।’
इसी बात को कई बार मैंने अपने से भी पूछा था। लेकिन आज उसके मुँह से ठीक उसी बात को सुन कर मुझे धक्का-सा लगा। और मेरा मन कहाँ का कहाँ चला गया।
एक दिन की बात! मेरा सजा हुआ कमरा! चाय की चुस्कियाँ! कहकहे! एक पीले रंग के तिकोने चेहरेवाला मसखरा, ऊलजलूल शख्स! बगैर यह सोचे कि जिसकी वह निंदा कर रहा है, वह मेरा कृपालु मित्र और सहायक है, वह शख्स बात बढ़ाता जा रहा है।
मैं स्तब्ध! किंतु, कान सुन रहे हैं। हारे हुए आदमी-जैसी मेरी सूरत, और मैं!
वह कहता जा रहा है, ’सूक्ष्मदर्शी यंत्र? सूक्ष्मदर्शी यंत्र कहाँ हैं?’
’हैं तो। ये हैं। देखिए।’ क्लर्क कहता  है। रजिस्टर बताता है। सब कहते हैं - हैं, हैं। ये हैं। लेकिन, कहाँ हैं? यह तो सब लिखित रूप में हैं, वस्तु-रूप में कहाँ हैं।
वे खरीदे ही नहीं गए! झूठी रसीद लिखने का कमीशन विक्रेता को, शेष रकम जेब में। सरकार से पूरी रकम वसूल!
किसी खास जाँच के एन मौके पर किसी दूसरे शहर की...संस्था से उधार ले कर, सूक्ष्मदर्शी यंत्र हाजिर! सब चीजें मौजूद हैं। आइए, देख जाइए। जी हाँ, ये तो हैं सामने। लेकिन जांच खत्म होने पर सब गायब, सब अंतर्धान। कैसा जादू है। खर्चे का आँकडा खूब फुलाकर रखिए। सरकार के पास कागजात भेज दीजिए। खास मौकों पर ऑफिसों के धुँधले गलियारों और होटलों के कोनों में मुट्ठियाँ गरम कीजिए। सरकारी ’ग्रांट’ मंजूर! और उसका न जाने कितना हिस्सा, बड़े ही तरीके से, संचालकों की जेब में! जी!’
भरी दोपहरट में मैं आगे बढ़ा जा रहा हूँ। कानों में ये आवाजों गूँजती जा रही हैं। मैं व्याकुल हो उठता हूँ। श्यामला का पाश्र्व-संगीत चल रहा है। मुझे जबरदस्तं प्यास लगती है! पानी, पानी!
-कि इतने में एकाएक विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की ऊँचे रोमन स्तंभोंवाली इमारत सामने आ जाती है। तीसरा पहर! हलकी धूप! इमारत की पत्थर-सीठि़याँ, लंबी, मोतिया!
सीढि़यों से लग कर, अभरक-मिली लाल मिट्टी के चमचमाते रास्तों पर सुंदर काली ’शेवरलेट’।
भगवे खद्दर-कुरते वाले की ’शेवरलेट’, जिसके जरा पीछे मैं खड़ा हूँ, और देख रहा हूँ - यों ही, कार का नंबर - कि इतने में उसके चिकने काले हिस्से में, जो आईने-सा चमकदार है, सूरत दिखाई देती है।
भयानक है वह सूरत! सारे अनुपात बिगड़ गए हैं। नाक डेढ़ गज लंबी और कितनी मोटी हो गई है। चेहरा बेहद लंबा और सिकुड़ गया है। आँखें खड्डेदार। कान नदारद। भूत-जैसा अप्राकृतिक रूप। मैं अपने चेहरे की उस विद्रूपता को, मुग्धभाव से, कुतूहल से और आश्चर्य से देख रहा हूँ, एकटक।
कि इतने में मैं दो कदम एक ओर हट जाता हूँ और पाता हूँ कि मोटर के उस काले चमकदार आईने में मेरे गाल, ठुड्डी, नाम, कान सब चैड़े हो गए हैं, एकदम चैड़े। लंबाई लगभग नदारद। मैं देखता ही रहता हूँ, देखता ही रहता हूँ कि इतने में दिल के किसी कोने में कई अँधियारी गटर एकदम फूट निकलती है। वह गटर है आत्मालोचन, दुःख और ग्लानि की।
और, सहसा मुँह से हाय निकल पड़ती है। उस भगवे खद्दर-कुरतेवाले से मेरा छुटकारा कब होगा, कब होगा।
और, तब लगता है कि इस सारे जाल में, बुराई की इस अनेक चक्रोंवाली दैत्याकार मशीन में, न जाने कब से मैं फँसा पड़ा हूँ। पैर भिंच गए हैं, पसलियाँ चूर हो गई हैं, चीख निकल नहीं पाती, आवाज हलक में फँस कर रह गई है।
कि इसी बीच अचानक एक नजारा दिखाई देता है। रोमन स्तंभोंवाली विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की ऊँची, लंबी, मोतिया सीठि़यों पर से उतर रही है एक आत्मज-विश्वासपूर्ण गौरवमय नारीमूर्ति।
वह किरणीली मुस्कान मेरी ओर फेंकती-सी दिखाई देती है। मैं इस स्थिति में नहीं हूँ कि उसका स्वागत कर सकूँ। मैं बदहवास हो उठता हूँ।
वह धीमे-धीमे मेरे पास आती है। अभ्यर्थनापूर्ण मुस्कराहट के साथ कहती है, ’पढ़ी है आपने यह पुस्तक।’
काली जिल्द पर सुनहले रोमन अक्षरों में लिखा है, ’आई विल नाट रेस्ट।’
मैं साफ झूठ बोल जाता हूँ, ’हाँ पढ़ी है, बहुत पहले।’
लेकिन मुझे महसूस होता है कि मेरे चेहरे पर से तेलिया पसीना निकल रहा है। मैं बार-बार अपना मुँह पोंछता हूँ रूमाल से। बालों के नीचे ललाट-हाँ, ललाट, (यह शब्द मुझे अच्छा लगता है) को रगड़ कर साफ करता हूँ।
और, फिर दूर एक पेड़ के नीचे, इधर आते हुए, भगवे खद्दर-कुरतेवाले की आकृति को देख कर श्यामला से कहता हूँ, ’अच्छा, मै जरा उधर जा रहा हूँ। फिर भेंट होगी।’ और सभ्यता के तकाजे से मैं उसके लिए नमस्कार के रूप में मुस्कख्राने की चेष्टा करता हूँ।
पेड़।
अजीब पेड़ है, (यहाँ रूका जा सकता है), बहुत पुराना पेड़ है, जिसकी जड़ें उखड़ कर बीच में से टूट गई हैं और साबित है, उनके आस-पास की मिट्टी खिसक गई है। इसलिए वे उभर कर ऐंठी हुई-सी लगती हैं। पेड़ क्या है, लगभग ठूँठ है। उसकी शाखाएँ काट डाली गई हैं।
लेकिन, कटी हुई बाँहोंवाले उस पेड़ में से नई डालें निकल कर हवा में खेल रही हैं! उन डालों में कोमल-कोमल हरी-हरी पत्तियाँ झालर-सी दिखाई देती हैं। पेड़ के मोटे तने में से जगह-जगह ताजा गोंद निकल रहा है। गोंद की साँवली कत्थई गठानें मजे में देखी जा सकती हैं।
अजीब पेड़ है, अजीब! (शायद, यह अच्छाई का पेड़ है) इसलिए कि एक दिन शाम की मोतिया-गुलाबी आभा में मैंने एक युवक-युवती को इस पेड़ के तले ऊँची उठी हुई, उभरी हुई, जड़ पर आराम से बैठे हुए पाया था। संभवतः वे अपने अत्यंत आत्मीय क्षणों में डूबे हुए थे।
मुझे देख कर युवक ने आदरपूर्वक नमस्कार किया। लड़की ने भी मुझे देखा और झेंप गई। हलके झटके से उसने अपना मुँह दूसरी ओर कर लिया। लेकिन उसकी झेंपती हुई ललाई मेरी नजरों से न बच सकी।
इस प्रेम-मुग्ध को देख कर मैं भी एक विचित्र आनंद में डूब गया। उन्हें निरापद करने के लिए जल्दी-जल्दी पैर बढाता हुआ मैं वहाँ से नौ-दो ग्या्रह हो गया।
यह पिछली गर्मियों की मनोहर साँझ की बात है। लेकिन आज इस भरी दोपहरी में श्यामला के साथ पल-भर उस पेड़ के तले बैठने को मेरी भी तबीयत हुई। बहुत ही छोटी और भोली इच्छा है यह।
लेकिन मुझे लगा कि शायद श्यामला मेरे सुझाव को नहीं मानेगी। स्कूल-मैदान पहुँचने की उसे जल्दी जो है। कहने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई।
लेकिन दूसरे क्षण, आप-ही-आप, मेरे पैर उस ओर बढ़ने लगे। और ठीक उसी जगह मैं भी जा कर बैठ गया, जहाँ एक साल पहले वह युग्म  बैठा था। देखता क्या हूँ कि श्यामला भी आ कर बैठ गई है।
तब वह कह रही थी, ’सचमुच बड़ी गरम दोपहर है।’
सामने मैदान-ही-मैदान हैं, भूरे मटमैले! उन पर सिरस और सीसम के छायादार विराम-चिह्न खड़े हैं। मैं लुब्ध और मुग्ध हो कर उनकी घनी-गहरी छायाएँ देखता रहता हूँ...
क्योंकि... क्योंकि मेरा यह पेड़, यह अच्छाई का पेड़ छाया प्रदान नहीं कर सकता, आश्रय प्रदान नहीं कर सकता, (क्योंकि वह जगह-जगह काटा गया है) वह तो कटी शाखाओं की दूरियों और अंतरालों में से केवल तीव्र और कष्टप्रद प्रकाश को ही मार्ग दे सकता है।
लेकिन मैदानों के इस चिलचिलाते अपार विस्तार में एक पेड़ के नीचे, अकेलेपन में, श्यामला के साथ रहने की यह जो मेरी स्थिति है, उसका अचानक मुझे गहरा बोध हुआ। लगा कि श्यामला मेरी है, और वह भी इसी भाँति चिलमिलाते गरम तत्वों से बनी हुई नारी-मूर्ति है। गरम बफती हुई मिट्टी-सा चिलमिलाता हुआ उसमें अपनापन है।
तो क्या आज ही, अगली अनगिनत गरम दोपहरियों के पहले आज ही, अगले कदम उठाए जाने के पहले, इसी समय, हाँ, इसी समय, उसके सामने अपने दिन की गहरी छिपी हुई तहें और सतहें खोल कर रख दूँ... कि जिससे आगे चल कर उसे गलतफहमी में रखने, उसे धोखे में रखने का अपराधी न बनूँ।
कि इतने में मेरी आँखों के सामने, फिर उसी भगवे खद्दर-कुरतेवाले की तस्वीर चमक उठी। मैं व्याकुल हो गया और उससे छुटकारा चाहने लगा।
तो फिर आत्म -स्वीकार कैसे करूँ, कहाँ से शुरू करूँ!
लेकिन क्या वह मेरी बातें समझ सकेगी? किसी तनी हुई रस्सीे पर वजन साधते हुए चलने का, ’हाँ’, और ’ना’ के बीच में रह कर जिंदगी की उलझनों में फँसने का तजुर्बा उसे कहाँ है!
हटाओ, कौन कहे।
लेकिन यह स्त्री शिक्षिता तो है! बहस भी तो करती है! बहस कर बातों का संबंध न उसके स्वार्थ से होता है, न मेरे। उस समय हम लड़ भी तो सकते हैं। और ऐसी लड़ाइयों में कोई स्वार्थ भी तो नहीं होता। सामने अपने दिल की सतहें खोल देने में न मुझे शर्म रही, न मेरे सामने उसे। लेकिन वैसा करने में तकलीफ तो होती ही है, अजीब और पेचीदा, घूमती-घुमाती तकलीफ!
और उस तकलीफ को टालने के लिए हम झूठ भी तो बोल देते हैं, सरासर झूठ, सफेद झूठ! लेकिन झूठ से सचाई और गहरी हो जाती है, अधिक महत्वपूर्ण और अधिक प्राणवान, मानो वह हमारे लिए और सारी मनुष्यता के लिए विशेष सार रखती हो। ऐसी सतह पर हम भावुक हो जाते हैं। और, यह सतह अपने सारे निजीपन में बिलकुल बेनिजी है। साथ ही, मीठी भी! हाँ, उस स्तर की अपनी विचित्र पीड़ाएँ हैं, भयानक संताप है, और इस अत्यंत आत्मीय किंतु निर्वैयक्तिक स्तर पर हम एक हो जाते हैं, और कभी-कभी ठीक उसी स्तर पर बुरी तरह लड़ भी पड़ते हैं।
श्यामला ने कहा, ’उस मैदान को समतल करने में कितना खर्च आएगा?’
’बारह हजार।’
’उनका अंदाज क्या है?’
श्’बीस हजार।’
’तो बैठक में जाकर समझा दोगे और यह बता दोगे कि कुल मिला कर बारह हजार से ज्याादा नामुमकिन है?’
’हाँ, उतना मैं कर दूँगा।’
’उतना का क्या मतलब?’
अब मैं उसे ’उतना’ का क्या मतलब बताऊँ! साफ है कि उस भगवे खद्दर- कुरतेवाले से मैं दुश्मानी मोल नहीं लेना चाहता। मैं उसके प्रति वफादार रहूँगा क्योंकि मैं उसका आदमी हूँ। भले ही वह बुरा हो, भ्रष्टाचारी हो, किंतु उसी के कारण ही मैं विश्वास-योग्य माना गया हूँ। इसीलिए, मैं कई महत्वपूर्ण कमेटियों का सदस्य हूँ।
मैने विरोध-भाव से श्यामला की तरफ देखा। वह मेरा रुख देखकर समझ गई। वह कुछ नहीं बोली। लेकिन मानो मैंने उसकी आवाज सुन ली हो।
श्यामला का चेहरा ’चार जनियों-जैसा’ है। उस पर साँवली मोहक दीप्ति का आकर्षण है। किंतु उसकी आवाज... हाँ... आवाज... वह इतनी सुरीली और मीठी है कि उसे अनसुना करना निहायत मुश्किल है। उस स्वर को सुनकर दुनिया की अच्छी बातें ही याद आ सकती हैं।
पता नहीं किस तरह की परेशान पेचीदगी मेरे चेहरे पर झलक उठी कि जिसे देखकर उसने कहा, ’कहो, क्या कहना चाहते हो।’
यह वाक्य मेरे लिए निर्णायक बन गया। फिर भी अवरोध शेष था। अपने जीवन का सार-सत्य अपना गुप्त-धन है। उसके गुप्त संधर्ष हैं, उसका अपना एक गुप्त नाटक है। वह प्रकट करते नहीं बनता। फिर भी, शायद है कि उसे प्रकट कर देने से उसका मूल्य बढ़ जाए, उसका कोई विशेष उपयोग हो सके।
एक था पक्षी। वह नीले आसमान में खूब ऊँचाई पर उड़ता जा रहा था। उसके साथ उसके पिता और मित्र भी थे।
(श्यामला मेरे चेहरे की तरफ आश्चर्य से देखते लगी)
सब बहुत ऊँचाई पर उड़नेवाले पक्षी थे। उनकी निगाहें भी बड़ी तेज थीं। उन्हें दूर दूर की भनक और दूर-दूर की महक भी मिल जाती।
एक दिन वह नौजवान पक्षी जमीन पर चलती हुई एक बैलगाड़ी को देख लेता है। उसमें बड़े-बड़े बोरे भरे हुए हैं। गाड़ीवाला चिल्ला-चिल्ला  कर कहता है, ’दो दीमकें लो, एक पंख दो।’
उस नौजवान पक्षी को दीमकों का शौक था। वैसे तो ऊँचे उड़नेवाले पक्षियों को हवा में ही बहुत-से कीड़े तैरते हुए मिल जाते, जिन्हें खाकर वे अपनी भूख थोड़ी-बहुत शांत कर लेते।
लेकिन दीमकें सिर्फ जमीन पर मिलती थीं। कभी-कभी पेड़ों पर-जमीन से तने पर चढ़ कर, ऊँची डाल तक, वे अपना मटियाला लंबा घर बना लेतीं। लेकिन वैसे कुछ ही पेड़ होते, और वे सब एक जगह न मिलते।
नौजवान पक्षी को लगा - यह बहुत बड़ी सुविधा है कि एक आदमी दीमकों को बोरों में भरकर बेच रहा है।
वह अपनी ऊँचाइयाँ छोड़ कर मँडराता हुआ नीचे उतरता है और पेड़ की एक डाल पर बैठ जाता है।
दोनों का सौदा तय हो जाता है। अपनी चोंच से एक पर को खींच कर तोड़ने में उसे तकलीफ भी होती है लेकिन उसे वह बरदाश्त, कर लेता है। मुँह में बड़े स्वाद के साथ दो दीमकें दबा कर वह पक्षी फुर्र से उड़ जाता है।
(कहते-कहते मैं थक गया शायद साँस लेने के लिए। श्यामला ने पलकें झपकाईं और कहा, ’हूँ’)
अब उस पक्षी को गाड़ीवाले से दीमकें खरीदने और एक पर देने में बड़ी आसानी मालूम हुई। वह रोज तीसरे पहर नीचे उतरता और गाड़ीवाले को एक पंख दे कर दो दीमकें खरीद लेता।
कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। एक दिन उसके पिता ने देख लिया। उसने समझाने को कोशिश की कि बेटे, दीमकें हमारा स्वाभाविक आहार नहीं हैं, और उसके लिए अपने पंख तो हरगिज नहीं दिए जा सकते।
लेकिन, उस नौजवान पक्षी ने बड़े ही गर्व से अपना मुँह दूसरी ओर कर लिया। उसे जमीन पर उतर कर दीमकें खाने की चट लग गई थी। अब उसे न तो दूसरे कीड़े अच्छेे लगते, न फल, न अनाज के दाने। दीमकों का शौक अब उस पर हावी हो गया था।
(श्यामला अपनी फैली हुई आँखों से मुझे देख रही थी, उसकी ऊपर उठी हुई पलकें और भौंएँ बड़ी ही सुंदर दिखाई दे रही थीं।)
लेकिन ऐसा कितने दिनों तक चलता। उसके पंखों की संख्या लगातार घटती चली गई। अब वह, ऊँचाइयों पर, अपना संतुलन साध नहीं सकता था, न बहुत समय तक पंख उसे सहारा दे सकते थे। आकाश-यात्रा के दौरान उसे जल्दी -जल्दी पहाड़ी चट्टानों गुंबदों और बुर्जों पर हाँफते हुए बैठ जाना पड़ता। उसके परिवारवाले तथा मित्र ऊँचाइयों पर तैरते हुए आगे बढ़ जाते। वह बहुत पिछड़ जाता। फिर भी दीमक खाने का उसका शौक कम नहीं हुआ। दीमकों के लिए गाड़ीवाले को वह अपने पंख तोड़-तोड़ कर देता रहा।
(श्या मला गंभीर हो कर सुन रही थी। अबकी बार उसने श्हूँश् भी नहीं कहा।)
फिर उसने सोचा कि आसमान में उड़ना ही फिजूल है। वह मूर्खों का काम है। उसकी हालत यह थी कि अब वह आसमान में उड़ ही नहीं सकता था, वह सिर्फ एक पेड़ से उड़ कर दूसरे पेड़ तक पहुँच पाता। धीरे-धीरे उसकी यह शक्ति भी कम होती गई। और एक समय वह आया जब वह बड़ी मुश्किल से, पेड़ की एक डाल से लगी हुई दूसरी डाल पर, चल कर, फुदक कर पहुँचता। लेकिन दीमक खाने का शौक नहीं छूटा।
बीच-बीच में गाड़ीवाला बुत्ता दे जाता। वह कहीं नजर में न आता। पक्षी उसके इंतजार में घुलता रहता।
लेकिन दीमकों का शौक जो उसे था। उसने सोचा, ’मैं खुद दीमकें ढूँ ढूँढूँगा।’ इसलिए वह पेड़ पर से उतर कर जमीन पर आ गया और घास के एक लहराते गुच्छे में सिमट कर बैठ गया।
(श्यामला मेरी ओर देखे जा रही थी। उसने अपेक्षापूर्वक कहा, ’हूँ।’)
फिर एक दिन उस पक्षी के जी में न मालूम क्याथ् आया। वह खूब मेहनत से जमीन में से दीमकें चुन-चुन कर, खाने के बजाय उन्हें इकट्टा करने लगा। अब उसके पास दीमकों के ढेर के ढेर हो गए।
फिर एक दिन एकाएक वह गाड़ीवाला दिखाई दिया। पक्षी को बड़ी खुशी हुई। उसने पुकार कर कहा, ’गाड़ीवाले, ओ गाड़ीवाले! मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा था।’
पहचानी आवाज सुन कर गाड़ीवाला रुक गया। तब पक्षी ने कहा, ’देखो, मैंने कितनी सारी दीमकें जमा कर ली है।’
गाड़ीवाले को पक्षी की बात समझ में नहीं आई। उसने सिर्फ इतना कहा, ’तो मैं क्या करूँ।’
’ये मेरी दीमकें ले लो, और मेरे पंख मुझे वापस कर दो।’ पक्षी ने जवाब दिया।
गाड़ीवाला ठठा कर हँस पड़ा। उसने कहा, ’बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूँ, पंख के बदले दीमक नहीं।’
गाड़ीवाले ने ’पंख’ शब्द, पर जोर दिया था।
(श्यामला ध्यान से सुन रही थी। उसने कहा, ’फिर’)
गाड़ीवाला चला गया। पक्षी छटपटा कर रह गया। एक दिन एक काली बिल्ली आई और अपने मुँह में उसे दबा कर चली गई। तब उस पक्षी का खून टपक-टपक कर जमीन पर बूँदों की लकीर बना रहा था।
(श्यामला ध्यान से मुझे देखे जा रही थी और उसकी एकटक निगाहों से बचने के लिए मेरी आँखें तालाब की सिहरती-काँपती, चिलकती-चमचमाती लहरों पर टिकी हुई थीं)
कहानी कह चुकने के बाद, मुझे एक जबरदस्त झटका लगा। एक भयानक प्रतिक्रिया - कोलतार-जैसी काली, गंधक-जैसी पीली-नारंगी!
’नहीं, मुझमें अभी बहुत कुछ शेष है, बहुत कुछ। मैं उस पक्षी-जैसा नहीं मरूँगा। मैं अभी भी उबर सकता हूँ। रोग अभी असाध्यी नहीं हुआ है। ठाठ से रहने के चक्कर से बँधे हुए बुराई के चक्कर तोड़े जा सकते हैं। प्राणशक्ति शेष है, शेष।’
तुरंत ही लगा कि श्यामला के सामने फिजूल अपना रहस्य  खोल दिया, व्यर्थ ही आत्मि-स्वीकार कर डाला। कोई भी व्यक्ति इतना परम प्रिय नहीं हो सकता कि भीतर का नंगा। बालदार, रीछ उसे बताया जाए। मैं असीम दु’ख के खारे मृत सागर में डूब गया।
श्यामला अपनी जगह से धीरे से उठी, साड़ी का पल्ला ठीक किया, उसकी सलवटें बराबर जमाईं, बालों पर से हाथ फेरा। और फिर (अंगरेजी में) कहा, ’सुंदर कथा है, बहुत सुंदर!’
फिर वह क्षण-भर खोई-सी खड़ी रही, और फिर बोली, ’तुमने कहाँ पढ़ी?’
मैं अपने ही शून्य में खोया हुआ था। उसी शून्य के बीच में से मैंने कहा, ’पता नहीं... किसी ने सुनाई या मैंने कहीं पढ़ी।’
और वह श्यामला अचानक मेरे सामने आ गई, कुछ कहना चाहने लगी, मानो उस कहानी में उसकी किसी बात की ताईद होती हो।
उसके चेहरे पर धूप पड़ी हुई थी। मुखमंडल सुंदर और प्रदीप्त दिखाई दे रहा था। कि इसी बीच हमारी आँखें सामने के रास्ते  पर जम गईं।
घुटनों तक मैली धोती और काली, सफेद या लाल बंडी पहने कुछ देहाती भाई, समूह में चले आ रहे थे। एक के हाथ में एक बड़ा-सा डंडा था, जिसे वह अपने आगे, सामने किए हुए था। उस डंडे पर एक लंबा मरा हुआ साँप झूल रहा था। काला भुजंग, जिसके पेट की हलकी सफेदी भी झलक रही थी।
श्यामला ने देखते ही पूछा, ’कौन-सा साँप है यह?’ वह ग्रामीण मुख छत्ती सगढ़ी लहजे में चिल्लाया, ’करेट है बाई, करेट।’
श्यामला के मुँह से निकल पडा, ’ओफ्फो! करेट तो बड़ा जहरीला साँप होता है।’ फिर मेरी ओर देख कर कहा, ’नाग की तो दवा भी निकली है, करेट की तो कोई दवा नहीं है। अच्छा किया, मार डाला। जहाँ साँप देखो, मार डालो, फिर वह पनियल साँप ही क्यों न हो।’
और फिर न जाने क्यों, मेरे मन में उसका यह वाक्य  गूँज उठा, ’जहाँ साँप देखो, मार डालो।’ और ये शब्द मेरे मन में गूँजते ही चले गए।
कि इसी बीच... रजिस्टर में चढ़े हुए आँकड़ों की एक लंबी मीजान मेरे सामने झूल उठी और गलियारे के अँधेरे कोनों में गरम होनेवाली मुट्ठियों का चोर हाथ ।
श्यामला ने पलट कर कहा, ’तुम्हारे कमरे में भी तो साँप घुस आया था, कहाँ से आया था वह?’
फिर उसने खुद ही जबाब दे लिया, ’हाँ, वह पास की खिड़की में से आया होगा।’
खिड़की की बात सुनते ही मेरे सामने, बाहर की काँटेदार झाडि़याँ, बेंत की झाडि़याँ आ गईं, जिसे जंगली बेल ने लपेट रखा था । मेरे खुद के तीखे काँटों के बावजूद, क्या श्यामला मुझे इसी तरह लपेट सकेगी। बड़ा ही ’रोमांटिक’ खयाल है, लेकिन कितना भयानक।
... क्योंकि श्यामला के साथ अगर मुझे जिंदगी बसर करनी है तो न मालूम कितने ही भगवे खद्दर कुरतेवालों से मुझे लड़ना पड़ेगा, जी कड़ा करके लड़ाइयाँ मोल लेनी पड़ेगी और अपनी आमदनी के जरिए खत्म कर देने होंगे। श्यामला का क्या है! वह तो एक गाँधीवादी कार्यकर्ता की लड़की है, आदिवासियों की उस कुल्हाड़ी-जैसी है जो जंगल में अपने बेईमान और बेवफा साथी का सिर धड़ से अलग कर देती है। बारीक बेईमानियों का सूफियाना अंदाज उसमें कहाँ!
किंतु फिर भी आदिवासियों जैसे उस अमिश्रित आदर्शवाद में मुझे आत्मा  का गौरव दिखाई देता है, मनुष्य की महिमा दिखाई देती है, पैने तर्क की अपनी अंतिम प्रभावोत्पादक परिणति का उल्लास दिखाई देता है - और ये सब बाते मेरे हृदय का स्पर्श कर जाती हैं। तो, अब मैं इसके लिए क्या करूँ, क्या करूँ!
और अब मुझे सज्जायुक्त भद्रता के मनोहर वातावरण वाला अपना कमरा याद आता है... अपना अकेला धुँधला-धुँधला कमरा। उसके एकांत में प्रत्यावर्तित और पुनः प्रत्याावर्तित प्रकाश कोमल वातावरण में मूल-रश्मियाँ और उनके उद्गम स्त्रोतों पर सोचते रहना, खयालों की लहरों में बहते रहना कितना सरल, सुंदर और भद्रतापूर्ण है। उससे न कभी गरमी लगती है, न पसीना आता है, न कभी कपड़े मैले होते हैं। किंतु प्रकाश के उद्गम के सामने रहना, उसका सामना करना, उसकी चिलचिलाती दोपहर में रास्ता नापते रहना और धूल फाँकते रहना कितना त्रास-दायक है। पसीने से तरबतर कपड़े इस तरह चिपचिपाते हैं और इस कदर गंदे मालूम होते हैं कि लगता है... कि अगर कोई इस हालत में हमें देख ले तो वह बेशक हमें निचले दर्जे का आदमी समझेगा। सजे हुए टेबल पर रखे कीमत फाउंटेनपेन-जैसे नीरव-शब्दांकन-वादी हमारे व्यक्तित्व जो बहुत बड़े ही खुशनुमा मालूम होते हैं - किन्हीं महत्वपूर्ण परिवर्तनों के कारण - जब वे आँगन में और घर-बाहर चलती हुई झाड़ू जैसे काम करनेवाले दिखाई दें, तो इस हालत में यदि सड़क-छाप समझे जाएँ तो इसमें आश्चर्य की ही क्या बात है!
लेकिन मैं अब ऐसे कामों की शर्म नहीं करूँगा, क्योंकि जहाँ मेरा हृदय है, वहीं मेरा भाग्य है!
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शनिवार, 18 नवंबर 2017

कहानी

जंक्शन 

गजानन माधव मुक्तिबोध
(मुक्तिबोध अन्वेषक कवि हैं। उनकी कहानियों में भी उनकी कविताओं के विस्तार का अनुभव किया जा सकता है। अंतर केवल इतना है कि कविताओं में उनके मानस पर सर्वहारा उपस्थित है तो कहानियों में मध्यवर्ग। उन्होंने कहानियाँ कम लिखी है परंतु यह कम ही अधिकतम पर भारी है। मुक्तिबोध की यात्रा वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्न, अंधेरे से त्रस्त, चिंतक की यात्रा है; और अंधेरे की यात्रा का साहस वही कर सकता है जिसका अंतर दिव्य प्रकाश से दीप्त हो। अंधेरा उन्हें हर क्षण परेशान करता होगा, त्रस्त और भयभीत करता होगा। वे उम्रभर अपने अंतर के प्रकाश से बाहर के अंधेरे को उजाले में बदलने के नुस्खे के अन्वेषण में लगे रहे। अपने अन्वेषण में वे सफल रहे। वे हमें अंधेरे पर विजय प्राप्त करने का नुस्खा दे गये हैं। इस नुस्खे को समझना और इसका उपयोग करना हम पर निर्भर है। इसका उपयोग हम कैसे करें, यह हमें सोचना है। अब अंधेरा उनसे परेशान, त्रस्त और भयभीत है। 

अपने विनिबंध ’कालजयी मुक्तिबोध’ में प्रमोद वर्मा ने लिखा है - ’’मुक्तिबोध ने सचमुच अपने लिखे अनुसार जीवन में आचरण किया। अंधेरे में रहकर पूरी जिंदगी काट दी। फटीचरों से इतना प्यार किया कि कि खुद फटीचर बन गये।’’
’जंक्शन’ कहानी उनके लिखे अनुसार आचरण का अकाट्य प्रमाण है। ’भारतीय साहित्य के निर्माता मुक्तिबोध’ में नन्दकिशोर नवल ने लिखा है - ’’स्थिति उनकी ऐसी थी कि ओवरकोट जैसी चीज उन्हें कभी नसीब नहीं हुई और एक बार जाड़ों में उन्हें एक साहित्यिक समारोह में जबलपुर जाना हुआ, तो वे अपने मित्र और कालेज के उपप्राचार्य मेघनाथ कन्नौजे का ओवरकोट उनसे उधार मांगकर ले गये। इस घटना का भी जिक्र प्रसंगवश उनकी ’जंक्शन’ नामक कहानी में आया है।’’
जहिर है, इस कहानी के तानेबाने का संबंध जिस रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म से है, उसका संबंध राजनांदगाँव से ही है। - कुबेर)

रेलवे स्टेशन, लंबा और सूना! कड़ाके की सर्दी! मैं ओवरकोट पहने हुए इत्मीनान से सिगरेट पीता हुआ घूम रहा हूँ।
मुझे इस स्टे‍शन पर अभी पाँच घंटे रुकना है। गाड़ी रात के साढ़े बारह बजे आएगी।
रुकना, रुकना, रुकना! रुकते-रुकते चलना! अजीब मनहूसियत है!
प्लेाटफॉर्म के पास से गुजरनेवाली लोहे की पटरियाँ सूनी हैं। शंटिंग भी नहीं है। पटरियों के उस पार, थोड़ी ही दूरी पर रेलवे का अहाता है, अहाता के उस पार सड़क है! शाम को छह बजे ही सड़क पर और उससे लगे हुए नए मकानों में बिजलियाँ झिलमिलाने लगी हैं!
उदास और मटमैली शाम! एक बार टी-स्टॉल पर चाय पी आया हूँ। फिर कहाँ जाऊँ! शहर में जा कर भोजन कर आऊँ? लेकिन यहाँ सामान कौन देखेगा। आस-पास बैठे हुए मुसाफिर फटी चादरों और धोतियों को ओढ़े हुए, सिमटे-सिमटे, ठिठुरे-ठिठुरे चुपचाप बैठे हैं। इनके भरोसे सामान कैसे लगाया जाए! कोई भी उसमें से कुछ उठा कर चंपत हो सकता है।
टी-स्टॉ।ल की तरफ नजर डालता हूँ। इक्कें-दुक्के मुसाफिर घुटने छाती से चिपकाए बैठे हुए दिखाई दे रहे हैं। गरम ओवरकोट पहन कर चलनेवाला सिर्फ मैं हूँ, मैं।
अगर कोई भी मुझे उस वक्त देखता तो पाता कि मैं कितने इत्मीुनान और आत्म-विश्वास के साथ कदम बढ़ा रहा हूँ। इतनी शान मुझे पहले कभी महसूस नहीं हुई थी। यह बात अलग है कि गरम ओवरकोट उधार लिया हुआ है। राजनाँदगाँव से जबलपुर जाते समय एक मित्र ने कृपापूर्वक उसे प्रदान किया था। इसमें संदेह नहीं कि समाज में अगर अच्छे आदमी न रहें, तो वह एक क्षण न चले।
सिगरेट पीते हुए मैं मुसाफिरखाने की तरफ देखता हूँ। वहाँ आदमी नहीं, आदमीनुमा गंदा सामान इधर-उधर बिखेर दिया गया है। उनकी तुलना में सचमुच मैं कितना शानदार हूँ।
अनजाने ही मैं अकड़ कर चलने लगता हूँ; और किसी को ताव बताने की, किसी पर रौब झाड़ने की तबीयत होती हैं इन सब टूटे हुए अक्षर (प्रेस टाइप) - जैसे लोगों के बीच गुजर कर अपने को काफी ऊँचा और प्रभावशाली समझने लगता हूँ। सच कहता हूँ, इस समय मेरे पास पैसे भी हैं। अगर कोई भिखारी इस समय आता तो मैं अवश्ये ही उसे कुछ प्रदान करता। लेकिन भिखारी बेवकूफ थोड़े ही था, जो वहाँ आए; वहाँ तो सभी लगभग भिखारी थे।
सोचा कि ट्रंक खोल कर सामान निकाल कर कुछ जरूरी चिट्ठियाँ लिख डालूँ। मैंने एक सम्माननीय नेता को इसी प्रकार समय सदुपयोग करते हुए देखा था। अभी उजाला काफी था। दो-चार चिट्ठियाँ रगड़ी जा सकती थीं। ट्रंक के पास मैं गया भी। उसे खोल भी दिया। लेकिन कलम उठाने के बजाय, मैंने पीतल का एक डिब्बा उठा लिया। ढक्कान खोल कर मैंने उसमें से एक 'गाकर लड्डू' निकाला और मुँह में भर लिया। बहुत स्वाबदिष्ट था वह। उसमें गुड़ और डालडा घी मिला हुआ था। इसी बीच मुझे घर के बच्चों की याद आई। और मैंने दूसरा लड्डू मुँह में डालने की प्रवृत्ति पर पाबंदी लगा दी।
तभी मुझे गांधीजी की याद आई। क्या सिखाया उन्हों ने? पर दु:ख कातरता। इंद्रिय-संयम। यह मैं क्या कर रहा हूँ। यद्यपि लड्डू मेरे ही लिए दिए गए हैं और मैं पूर्णतया उन्हें खाने का नैतिक अधिकार भी रखता हूँ। लेकिन क्या। यह सच नहीं है कि बच्चों को सिर्फ आधा-आधा ही दिया गया है। फिर मैं तो एक खा चुका हूँ।
पानी पीने के लिए निकालता हूँ। मुसाफिर वैसे ही ठिठुरे-ठिठुरे, सिमटे-सिमटे बैठे हैं। उनके पास गरम कोट तो क्या‍, साधारण कपड़े भी नहीं हैं। उनमें से कुछ बीड़ी पी रहे हैं। किसी के पास गरम कोट नहीं है, सिवा मेरे। मैं अकड़ता हुआ स्टॉल पर पानी की तलाश में जाता हूँ।
मैं पूर्ण आत्मं-संतोष का आनंद-लाभ करता हुआ वापस लौटता हूँ कि अब इस कार्यक्रम के बाद कौन-सा महान कार्य करूँ।
दूर से देखता हूँ कि सामान सुरक्षित है। शाम डूब रही है। अँधेरा छा गया है। अभी कम से कम चार घंटे यहीं पड़े रहना है। एक पोर्टर से बात करते हुए कुछ समय और गुजार देता हूँ।
और फिर होल्डाल निकाल कर बिस्तर बिछा देता हूँ। सुंदर, गुलाबी अलवान और खुशनुमा कंबल निकल पड़ता है। मैं अपने को वाकई भला आदमी समझने लगता हूँ। यद्यपि यह सच है कि दोनों चीजों में से एक भी मेरी अपनी नहीं है।
ओवरकोट समेत मैं बिस्तर पर ढेर हो जाता हूँ। टूटी हुई चप्पलें बिस्तंर के नीचे सिर के पास इस तरह जमा कर देता हूँ कि मानो वह धन हो। धन तो वह हई है। कोई उसे मार ले तो! तब पता चलेगा!
गुलाबी अलवान ओढ़ कर पड़ रहता हूँ। अभी तक स्टेशन पर कपड़ों के मामले में मुझे चुनौती देनेवाला कोई नहीं आया (शायद यह इलाका बहुत गरीब हैं)। कहीं भी, एक भी खुशहाल, सुंदर, परिपुष्ट आकृति नहीं दिखाई दी।
कैसा मनहूस प्लेटफॉर्म है?
मेरे बिस्तर के पास एक सीमेंट की बेंच है। वहाँ गठरियाँ रखी हुई हैं। सोचता हूँ, उस पर अपना ट्रंक क्यों न रख दूँ। गठरियाँ नीचे भी डल सकती हैं। ट्रंक उनसे उम्दा चीज है; उसे साफ-सुथरी बेंच पर होना चाहिए।
लेकिन उठने की हिम्मत नहीं होती। कड़ाके का जाड़ा है। अलवान के बाहर मुँह निकालने की तबीयत नहीं हो रही हैं। लेकिन नींद भी तो आँखों से दूर है।
विचित्र समस्या है। खुद ही अकेले में, अपने को अकेले ही शानदार समझते रहो। इसमें क्या धरा है। शान का संबंध अपने से ज्यादा दूसरों से है। यह अब मालूम हुआ। लेकिन किस मुश्किल में।
उसी बीच एकाएक न मालूम कहाँ से चार फीट का एक गोरा चिट्ठा लड़का सामने आ जाता है। वह टेरोलिन का कुरता पहने हुए है। खाकी चड्ढी है। चेहरा लगभग गोल है। गोरे चेहरे पर भौंओं की धुँधली लकीर दिखाई देती है। या उनका रंग भी गोरा है।
वह‍ सामने खड़े-ही-खड़े एक चमड़े के छोटे-से बैग की ओर इशारा करते हुए कहता है, 'सा'ब, जरा ध्यासन रखिएगा। मैं अभी आया।' एकाएक इस तरह किसी का आ कर कुछ कहना मुझे अच्छा लगा! उसकी आवाज कमजोर है। लेकिन उस आवाज में भले घर की झलक है। उसके साफ-सुथरे कपड़ों से भी यही बात झलकती है।
मैं 'हाँ' कह ही रहा था कि उसके पहले लड़का चला गया। मैं उसके बारे में सोचता रहा, न जाने क्या ।
आधे घंटे बाद वह फिर आया। और चुपचाप चमड़े के बैग के पास जा कर बैठ गया। सर्दी के मारे उसने अपनी हथेलियाँ खाकी चड्ढी की जेब में डाल रखी थीं। मैंने गुलाबी अलवान के नीचे से मुँह उठा कर उसे देखा।
भले ही वह टेरीलीन का बुश्शर्ट पहने हो, वह खूब ठिठुर रहा था। बुश्शर्ट के नीचे एक अंडरवीयर था। बस! उसके पास ओढ़ने-बिछाने के भी कपड़े नहीं थे।
कुछ कुतूहल और कुछ चिंता से मैंने पूछा, 'तुम ओढ़ने के कपड़े ले कर क्यों नहीं आए। कितना जाड़ा है। ऐसे कैसे निकल आए।'
उसने जो उत्तर दिया उसका आशय यह था कि यहाँ से करीब पचास मील दूर शहर बालाघाट में एक बारात उतरी थी। उसमें वह, उसके घरवाले और दूसरे रिश्तेदार भी थे। एक रिश्तेदार वहाँ से आज ही नागपुर चल दिया, लेकिन अपना चमड़े का बैग भूल गया। चूँकि वहाँवालों को मालूम था कि गाड़ी नागपुरवाली उस स्टेरशन से बहुत देर से छूटती है, इसलिए उन्होंने इस लड़के के साथ यह बैग भेज दिया।
लेकिन अब यह‍ लड़का कह रहा है कि रिश्तेेदार कहीं दिखाईं नहीं दे रहे हैं। वह दो बार प्लेेटफॉर्म के चक्कर काट आया है। शायद वे संबंधी महोदय बस से नागपुर रवाना हो गए। और अब चमड़े का बैग सँभाले हुए यह लड़का सर्दी में ठिठुरता हुआ यहाँ बैठा है। वह भी मेरी साढ़े बारह बजेवाली गाड़ी से बालाघाट पहुँच जाएगा। यह गाड़ी वहाँ रात के डेढ़ बजे पहुँचती है।
कड़ाके का जाड़ा और रात के डेढ़। मैंने कल्पना की कि इसकी माँ फूहड़ है, या वह उसकी सौतेली माँ है। आखिर उसने क्याे सोच कर अपने लड़के को इस भयानक सर्दी में, बिना किसी खास इंतजाम के एक जिम्मेदारी दे कर रवाना कर दिया।
मैंने फिर लड़के की तरफ देखा। वह मारे सर्दी के बुरी तरह ठिठुर रहा था। और मैं अपने अलवान और कंबल का गरम सुख प्राप्त करते हुए आनंद अनुभव कर रहा था।
मैं बिस्तर से उठ पड़ा। ट्रंक खोला। उसमें से डबलरोटी के दो टुकड़े निकाले। फिर सोचा, एक लड्डू भी निकाल लूँ। किंतु यह विचार आया की लड़का टेरीलीन का बुश्शर्ट पहने है। फिर लड्डू गुड़ के हैं। वह उसका अनादर कर सकता है।
उसके हाथ में डबलरोटी के दो टुकड़े और चायवाले से लिया हुआ एक चाय का कप देते हुए कहा, 'तुमने अभी तक कुछ नहीं खाया है। लो, इसे लो।'
'नहीं-नहीं, मैंने अभी भजिये खाए हैं।' और लड़के के नन्हे हाथों ने तुरंत ही लपक कर उसे ले लिया। उसको खाते-पीते देख कर मेरी आत्‍मा तृप्त हो रही थी।
मैंने पूछा, 'बालाघाट से कब चले थे?'
'तीन बजे।'
'तीन बजे से तुमने कुछ नहीं खाया?'
'नहीं तो, दो आने के भजिये खाए थे। चाय पी थी।'
मेरा ध्यान फिर उसके माता-पिता की ओर गया और मैं मन-ही-मन उन्हें गाली देने लगा।
मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैंने लड़के से कहा, 'आओ, बिस्तर पर चले आओ। साढ़े दस बजे उठा दूँगा।'
लड़के ने तुरंत ही चमड़े के अपने कीमती जूते के बंद खोले, मोजे निकाले। सिरहाने रख दिया। और बिस्तेर के भीतर पड़ गया।
मैं ट्रंक के पास बैठा हुआ था। लड़का मेरे बिस्तरे पर। मैं खुद जाड़े में। वह गरमी महसूस करता हुआ।
किंतु मेरा ध्यान उस लड़के की तरफ था। कितना भोला विश्वास है उसके चेहरे पर।
और मैं सोचने लगा कि मनुष्यता इसी भोले विश्वास पर चलती है। और इस भोले विश्वास के वातावरण में ही कपट और छल करने वाले पनपने हैं।
मेरे बदन पर ओवरकोट था, लेकिन अब वह कोई गरमी नहीं दे रहा था।
मैं फिर से टी-स्टॉल पर गया। फिर एक कप चाय पी और मनुष्य के भाग्य् के बारे में सोचने लगा। मान लीजिए, इस लड़के के पिता ने दूसरी शादी कर ली है। इस लड़के की माँ मर गई है, और जो है, वह सौतेली है। अगर अभी से वह लड़के की इतनी उपेक्षा करती है तो हो चुकी अच्छी तालीम। क्या पता, इस लड़के का भाग्य क्या हो!
लड़के ने मेरी दी हुई हर चीच लपक कर ली थी। मुझ पर खूब गहरा विश्वास कर लिया था। क्या यह इसका सबूत नहीं है कि लड़के के दिल में कहीं कोई जगह है जो कुछ माँगती है, कुछ चाहती है। ईश्वर करे, उसका भविष्य अच्छाे बने।
इन्हीे खयालों में डूबता-उतराता मैं अपने बच्चों को देखने लगा जो घर में दरवाजे बंद करके भी तेज सर्दी महसूस कर रहे होंगे। उनके पास रजाई भी नहीं है। तरह-तरह के कपड़े जोड़-जाड़ कर जाड़ा निकालते हैं। इस समय, घर सूना होगा और वे मेरी याद करते बैठे होंगे। बच्चे! बच्चे और उनकी वह माँ, जो सिर्फ भात खा कर मोटी हुई जा रही है, लेकिन चेहरा पर पीलापन है।
मैंने बच्चों को सिखा दिया है कि बेटे कभी इच्छा मय दृष्टि से दुनिया को मत देखना। वह मामूली इच्छा भी पूरी नहीं कर सकती। और चाहे जो करो, मौका पड़ने पर झूठ बोल सकते हो, लेकिन यह मत भूलना कि तुम्हारे गरीब माँ-बाप थे। तुम्हारी जन्मभूमि जमीन और धूर और पत्थर से बनी यह भारत की धरती ही नहीं है। वह है - गरीबी। तुम कटे-पिटे दागदार चेहरेवालों की संतान हो। उनसे द्रोह मत करो। अपने इन लोगों को मत त्यागना। प्रगतिवाद तो मैंने अपने घर से ही शुरू कर दिया था। मेरे बड़े बच्चे को यह कविता रटा दी थी -
जिंदगी की कोख में जन्मा
नया इस्पात
दिल के खून में रँग कर!
तुम्हारे शब्द मेरे शब्द
मानव-देह धारण कर
अरे चक्क-र लगा घर-घर, सभी से कह रहे हैं
... सामना करना मुसीबत का,
बहुत तनकर
खुद को हाथ में रखकर।
उपेक्षित काल - पीड़ित सत्यश-गो के यूथ
उदासी से भरे गंभीर
मटमैले गऊ चेहरे।
उन्हीं को देख कर जीना
कि करुणा करनी की माँ है।
बाकी सब कुहासा है, धुआँ-सा है।
लेकिन, यह थोड़े ही है कि लड़का मेरी बात मान ही जाएगा। मनुष्य में कैसे परिवर्तन होते हैं। संभव है, वह थानेदार बन जाए और डंडे चलाए। कौन जानता है।
मैं अपनी ही कविता का मजा लेता हुआ और भीतर झूमता हुआ वापस लौटता हूँ। उस वक्त सर्दी मुझे कम महसूस होने लगती है। बिस्तर के पास जाकर खड़ा हो जाता हूँ। और गुलाबी अलवान और नरम कंबल के नीचे सोए हुए उस बालक की शांति निद्रित मुद्रा को मग्न अवस्था में देखने लगता हूँ। और मेरे हृदय में प्रसन्न ज्योति जलने लगती है।
कि इसी बीच मुझे बैठ जाने की तबीयत होती है। पासवाली सीमेंट की बेंच पर जरा टिक जाता हूँ। और बाईं ओर रेलवे अहाते के पार देखने लगता हूँ।
बाईं ओर बेंच पर रखी गठरियों के पास बैठे हुए एक-दूसरी आकृति की ओर ध्यान जाता है।
हरी धारीवाला एक सफेद शर्ट पहने वह बालक है, जो घुटनों को छाती से चिपकाए बैठा है। बाँहों से उसने अपने घुटनों को छाती से जकड़ लिया है, और ऊपरवाली बीच की पोली जगह में उसने अपना मुँह फँसा लिया है। मुझे उसका मुँह नहीं दी‍खता, सिर्फ उसका सिर और बाल दिखते हैं। वह न मालूम कब से वैसा बैठा है। और ठिठुरा-ठिठुरा (गठरियों के बीच) वह खुद गठरी बनकर लुप्त -सा हो गया है।
अगर मैं अपने लड़के को आज रात को सफर कराता तो शायद वह भी इसी तरह बैठता। क्यों बैठता! मैं तो उसका इंतजाम करके भेजता, किसी भी तरह, क्योंकि मेरे कनेक्शंस (संबंध) अच्छे हैं। इस बेचारे गरीब देहाती के लड़के के संबंध क्या हो सकते हैं।
मैं उस लड़के को पुन: एकाग्रचित से देखने लगता हूँ। उसका मुँह अभी तक घुटनों के बीच फँसा है। अपने अस्तित्व का नगण्य और शून्य बना कर वह किसी नि:संग अंधकार में वि‍लीन होना चाह रहा है।
मैं उसके पास जा कर खड़ा हो जाता हूँ, ताकि उसकी हलचल, अगर है, तो दिखाई दे। लेकिन नहीं, उसने तो अपने और मेरे बीच एक फासला मुख्य कर लिया है। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि मैं उसे उठा सकता हूँ, मैं उसे कुछ-न-कुछ दे सकता हूँ। मैं उसे भी डबलरोटी का एक टुकड़ा और एक कप चाय देकर उसके भीतर गरमी पैदा कर सकता हूँ।
मैं उसके पास खड़ा हूँ। और एक क्षण में नवीन कार्य-श्रृंखला गतिमान कर सकता हूँ। काम तो यांत्रिक रूप से चलते हैं। एक के बाद एक ।
लेकिन मैं वहाँ से हट जाता हूँ। फिर बेंच के किनारे पर बैठ जाता हूँ और फिर प्लेतटफॉर्म की सूनी बत्तियों को देखने लगता हूँ। मेरा मन एकाएक स्तब्ध हो जाता है।
मेरे बिस्तर पर सोनेवाला बालक ठीक समय पर अपने-आप ही जाग उठा। तुरंत मोजे पहने, चमड़े का कीमती जूता पहना, बंद बाँधे। अपने टेरीलीन के बुश्शर्ट को ठीक किया। नेकर की जेब में से कंघी निकाल कर बालों को सँवारा।
और बिस्तर से बाहर आ कर खड़ा हो गया, चुस्त और मुस्तैद। और फिर अपनी उसी कमजोर पतली आवाज में कहा, 'टिकिट-घर खुल गया होगा।'
मैंने पूछा, 'टिकिट के लिए पैसे हैं, या दूँ?'
'नहीं, नहीं, वह सब मेरे पास हैं।' यह उसने इस तरह कहा जैसे वह अपनी देखभाल अच्छी तरह कर सकता हो।
वह चला गया। मुझे लगा कि टेरीलीन के बुश्शर्टवाले इस बालक को दूसरों की सहायता का अच्छा अनुभव है। और वह स्वयं एक सीमा तक छल और निश्छलता का विवेक कर सकता है।
मेरा बिस्तर खाली हो गया और अब मैं चाहूँ तो बेंच के दूसरे छोर पर घुटनों में मुँह ढाँपे इस दूसरे बालक को आराम की सुविधा दे सकता हूँ।
और मैं अपने मन मे नि:संग अंधकार में कहता जाता हूँ, 'उठो, उठो, उस बालक को बिस्तर दो।'
लेकिन मैं जड़ हो गया हूँ। और मेरे अँधेरे के भीतर एक नाराज और सख्त आवाज सुनाई देती है, 'मेरा बिस्तर क्या इसलिए है कि वह सार्वजनिक संपत्ति बने। शी:। ऐसे न मालूम कितने ही बालक हैं जो सड़कों पर घूमते रहते हैं।'
मैं बेंच के किनारे पर से उठ पड़ता हूँ और टी-स्टॉहल पर जाकर एक कप चाय पीता हूँ। सर्दी मेरे बदन में कुछ कम होती है। और फिर मैं अपने सामान की तरफ रवाना होता हूँ।
सीमेंट की ठंडी बेंच के किनारे पर घुटनों में मुँह ढाँपे हुए उस बालक की आकृति मुझे दूर ही से दिखाई देती है। क्याे वह सर्दी में ठिठुर कर मर तो नहीं गया।
लेकिन पास पहुँचकर भी मैं उसे हिलाता-‍डुलाता नहीं, उसे जगाने की कोशिश नहीं करता, न उसके चारों ओर, चुपचाप, अलवान डालने की कोशिश करता। सोचता हूँ करना चाहिए; लेकिन नहीं करता।
आश्चर्य है कि मैं भीतर से इतना जड़ हो गया हूँ, कौन-सी वह भीतरी पकड़ है जो मुझे वैसा करने से रोकती है।
मैं टिकिट खरीदने गए टेरीलीनवाले लड़के की राह देखता हूँ। वह अब तक क्यों नहीं आया?
कि एकाएक यह ख्याल पूरे जोर के साथ कौंध उठता है - अगर मैं ठंड से सिकुड़ते इस लड़के को बिस्तर दूँ तो मेरी (दूसरों की ली हुई ही क्यों न सही) यह कीमती अलवान और यह नरम कंबल, और यह दूधिया चादर खराब हो जाएगी। मैली हो जाएगी। क्योंकि जैसा कि साफ दिखाई देता है यह लड़का अच्छे खासे साफ-सुथरे बढ़िया कपड़े पहने हुए थोड़े है। मुद्दा यह है। हाँ मुद्दा यह है कि वह दूसरे ओर निचले किस्म के, निचले तबके के लोगों की पैदावार है।
मैं अपने भीतर ही नंगा हो जाता हूँ। और अपने नंगेपन को ढाँपने की कोशिश भी नहीं करता।
उस वक्त घड़ी ठीक बारह बजा रही थी और गाड़ी आने में अभी आधा घंटा की देर थी।

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बुधवार, 15 नवंबर 2017

व्यंग्य

मित्रों के बोल-नमूने

नमूना - 9
सचमुच का अंधा

बंशीराम अंधा और गंगाराम लंगड़ा, दोनों मेला देखने जा रहे थे। परंपरा के अनुसार गंगाराम लगड़ा बंशीराम अंधे की कंधे पर सवार हो रास्ता बताता जाता था। मेले के निकट पहुँचने पर बंशीराम अंधे ने गंगाराम से कहा - 
’’वाह! मित्र, ताजे माल की कितनी बढि़या महक आ रही है।’’

गंगाराम लंगड़े ने आश्चर्य से कहा - ’’खुशबू? ताजा माल? कैसी बातें करते हो मित्र। मेला अभी दूर है।’’

बंशीराम अंधे ने कहा - ’’हाँ मित्र, जवान लड़कियों की ताजा महक। क्या लड़कियाँ नहीं जा रही है?’’

गंगाराम लंगड़े ने पीछे मुड़कर देखा। कुछ दूरी पर जवान लड़कियाँ आती हुई दिखीं। उन्होंने कहा - ’’मित्र! अभी तक मुझे तुम्हारे अंधे होने पर संदेह था। पर अब वह दूर हो गया है। तुम सचमुच अंधे हो।’’
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गुरुवार, 9 नवंबर 2017

कहानी

क्लाॅड ईथरली 

क्लाॅड ईथरली मुक्तिबोध की बहुचर्चित कहानी है। क्लाॅड ईथरली के जीवनवृत्त को केन्द्रित करके इस कहानी की रचना की गई है। क्लाॅड ईथरली अमरिकी वायुसेना का पायलट था। द्वितीस विश्वयुद्ध में उन्हीं के विमान से जापान के हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराया गया था। परमाणु बम की विभीषिका को देखने के लिए उन्होंने हिरोशिमा की यात्रा की थी। वहाँ की विभीषिका को देखकर उनका हृदय अपराधबोध से भर गया। वे स्वयं को अपराधी मानने लगे। वह चाहता था कि इस अपराध के लिए उसे दंड मिले। परंतु अमरिकी सरकार ने उन्हें वार हीरो की उपाधि प्रदान की। वे अमरिका के राष्ट्रीय नायक बन गये। अंत में वे विक्षिप्त हो गये। 
क्लाॅड ईथरली के बहाने लेखक ने भारतीय मध्यवर्ग के चरित्र की गुत्थियों को विश्लेषित करने का प्रयास किया है। मुक्तिबोध मध्यवर्ग के कहानीकार हैं।

क्लाॅड ईथरली 

मुक्तिबोध

मैं सड़क पार कर लेता हूँ। जंगली, बेमहक लेकिन खूबसूरत विदेशी फूलों के नीचे ठहर-सा जाता हूँ कि जो फूल, भीत के पासवाले अहाते की आदमकद दीवार के ऊपर फैले, सड़क के बाजू पर बाँहें बिछा कर झुक गए हैं। पता नहीं कैसे, किस साहस से व क्‍यों उसी अहाते के पास बिजली का ऊँचा खंभा - जो पाँच-छह दिशाओं में जानेवाली सूनी सड़कों पर तारों की सीधी लकीरें भेज रहा है - मुझे दीखता है और एकाएक खयाल आता है कि दुमंजिला मकानों पर चढ़ने की एक ऊँची निसैनी उसी से टिकी हुई है। शायद, ऐसे मकानों की लंब-तड़ंग भीतों की रचना अभी भी पुराने ढंग से होती है।
सहज, जिज्ञासावश देखें, कहाँ, क्‍या होता है। दृश्‍य कौन-से, कौन-से दिखाई देते हैं! मैं उस निसैनी पर चढ़ जाता हूँ और सामनेवाली पीली ऊँची भीत के नीली फ्रेमवाले रोशनदान में से मेरी निगाहें पार निकल जाती हैं।
और, मैं स्‍तब्‍ध हो उठता हूँ।
छत से टँगे ढिलाई से गोल-गोल घूमते पंखे के नीचे, दो पीली स्‍फटिक-सी तेज आँखे और लंबी शलवटों-भरा तंग मोतिया चेहरा है जो ठीक उन्‍हीं ऊँचे रोशनदानों में से, भीतर से बाहर, पार जाने के लिए ही मानो अपनी दृष्टि केंद्रित कर रहा है। आँखों से आँखे लड़ पड़ती हैं। ध्‍यान से एक-दूसरे की ओर देखती है। स्‍तब्‍ध, एकाग्र!
आश्‍चर्य?
साँस के साथ शब्‍द निकले! ऐसी ही कोई आवाज उसने भी की होगी!
चेहरा बहुत बुरा नहीं है, अच्‍छा है, भला आदमी मालूम होता है। पैंट पर शर्ट ढीली पड़ गई है। लेकिन यह क्‍या!
मैं नीचे उतर पड़ता हूँ। चुपचाप रास्‍ता चलने लगता हूँ। कम-से-कम दो फर्लांग दूरी पर एक आदमी मिलता है। सिर्फ एक आदमी! इतनी बड़ी सड़क होने पर भी लोग नहीं! क्‍यों नहीं?
पूछने पर वह शख्‍स कहता है, शहर तो इस पार है, उस ओर है; वहीं कहीं इस सड़क पर बिल्डिंग का पिछवाड़ा पड़ता है। देखते नहीं हो!
मैंने उसका चेहरा देखा ध्‍यान से। बाईं और दाहिनी भौंहें नाक के शुरू पर मिल गई थीं। खुरदुरा चेहरा, पंजाबी कहला सकता था। वह नि:संदेह जनाना आदमी होने की संभावना रखता है! नारी तुल्‍य पुरुष, जिनका विकास किशोर काव्‍य में विशेषज्ञों का विषय है।
इतने में मैंने उससे स्‍वाभाविक रूप से, अति सहज बन कर पूछा, 'यह पीली बिल्डिंग कौन-सी है।' उसने मुझ पर अविश्‍वास करते हुए कहा, 'जानते नहीं हो? यह पागलखाना है - प्रसिद्ध पागलखाना!'
'अच्‍छा...!' का एक लहरदार डैश लगा कर मैं चुप हो गया और नीची निगाह किए चलने लगा।
और फिर हम दोनों के बीच दूरियाँ चौड़ी हो कर गोल होने लगीं। हमारे साथ हमारे सिफर भी चलने लगे।
अपने-अपने शून्‍यों की खिड़कियाँ खोल कर मैंने - हम दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा कि आपस में बात कर सकते हैं या नहीं! कि इतने में उसने मुझसे पूछा, 'आप क्‍या काम करते हैं?'
मैंने झेंप कर कहा, 'मैं? उठाईगिरा समझिए।'
'समझें क्‍यों? जो हैं सो बताइए।'
'पता नहीं क्‍यों, मैं बहुत ईमानदारी की जिंदगी जीता हूँ; झूठ नहीं बोला करता, पर-स्‍त्री को नहीं देखता; रिश्‍वत नहीं लेता; भ्रष्‍टाचारी नहीं हूँ; दगा या फरेब नहीं करता; अलबत्‍ता कर्ज मुझ पर जरूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूँ कि बुनियादी तौर से बेईमान हूँ। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूँ। अब बताइए, आप क्‍या हैं?'
वह सिर्फ हँस दिया। कहा कुछ नहीं। जरा देर से उसका मुँह खुला। उसने कहा, 'मैं भी आप ही हूँ।'
एकदम दब कर मैंने उससे शेकहैंड किया (दिल में भीतर से किसी ने कचोट लिया। हाल ही में निसैनी पर चढ़ कर मैंने उस रोशनदान में से एक आदमी की सूरत देखी थी; वह चोरी नहीं तो क्‍या था। संदिग्‍धावस्‍था में उस साले ने मुझे देख लिया!)
'बड़ी अच्‍छी बात है। मुझे भी इस धंधे में दिलचस्‍पी है, हम लेखकों का पेशा इससे कुछ मिलता-जुलता है।'
इतने में भीमाकार पत्‍थरों की विक्‍टोरियन बिल्डिंग के दृश्‍य दूर से झलक रहे थे। हम खड़े हो गए हैं। एक बड़े-से पेड़ के नीचे पान की दुकान थी वहाँ। वहाँ एक सिलेटी रंग की औरत मिस्‍सी और काजल लगाए हुए बैठी हुई थी।
मेरे मुँह से अचानक निकल पड़ा, 'तो यहाँ भी पान की दुकान है?'
उसने सिर्फ इतना ही कहा, 'हाँ, यहाँ भी।'
और मैं उन अध-विलायती नंगी औरतों की तस्‍वीरें देखने लगा जो उस दुकान की शौकत को बढ़ा रही थीं।
दुकान में आईना लगा था। लहर थीं धुँधली, पीछे के मसाले के दोष से। ज्‍यों ही उसमें मैं अपना मुँह देखता, बिगड़ा नजर आता। कभी मोटा, लंबा, तो कभी चौड़ा। कभी नाक एकदम छोटी, तो एकदम लंबी और मोटी! मन में वितृष्‍णा भर उठी। रास्‍ता लंबा था, सूनी दुपहर। कपड़े पसीने से भीतर चिपचिपा रहे थे। ऐसे मौके पर दो बातें करने वाला आदमी मिल जाना समय और रास्‍‍ता कटने का साधन होता है।
उससे वह औरत कुछ मजाक करती रही। इतने में चार-पाँच आदमी और आ गए। वे सब घेरे खड़े रहे। चुपचाप कुछ बातें हुईं।
मैंने गौर नहीं किया। मैं इन सब बातों से दूर रहता हूँ। जो सुनाई दिया उससे यह जा‍हिर हुआ कि वे या तो निचले तबके में पुलिस के इनफॉर्मर्स हैं या ऐसे ही कुछ!
हम दोनों ने अपने-अपने और एक-दूसरे के चेहरे देखे! दोनों खराब नजर आए। दोनों रूप बदलने लगे! दोनों हँस पड़े और यही मजाक चलता रहा।
पान खा कर हम लोग आगे बढ़े। पता नहीं क्‍यों मुझे अपने अजनबी साथी के जनानेपन में कोई ईश्‍वरीय अर्थ दिखाई दिया। जो आदमी आत्‍मा की आवाज दाब देता है, विवेक-चेतना को घुटाले में डाल देता है, उसे क्‍या कहा जाए! वैसे, वह शख्‍स भला मालूम होता था। फिर, क्‍या कारण है कि उसने यह पेशा अख्तियार किया! साहसी, हाँ, कुछ साहसिक लोग पत्रकार या गुप्‍तचर या ऐसे ही कुछ हो जाते हैं, अपनी आँखों में महत्‍वपूर्ण बनने के लिए, अस्तित्‍व की तीखी संवेदनाएँ अनुभव करने और करते रहने के लिए!
लेकिन, प्रश्‍न यह है कि वे वैसा क्‍यों करते हैं! किसी भीतरी न्‍यूनता के भाव पर विजय प्राप्‍त करने का यह एक तरीका भी हो सकता है। फिर भी, उसके दूसरे रास्‍ते भी हो सकते हैं! यही पेशा क्‍यों? इसलिए, उसमें पेट और प्रवृत्ति का समन्‍वय है! जो हो, इस शख्‍स का जनानापन ख़ास मानी रखता है!
हमने वह रास्‍ता पार कर लिया और अब हम फिर से फैशनेबल रास्‍ते पर आ गए, जिसके दोनों ओर युकलिप्‍टस के पेड़ कतार बाँधे खड़े थे। मैंने पूछा, 'यह रास्‍ता कहाँ जाता है?' उसने कहा, 'पागलखाने की ओर ।' मैं जाने क्‍यों सन्‍नाटे में आ गया।
विषय बदलने के लिए मैंने कहा, 'तुम यह धंधा कब से कर रहे हो?'
उसने मेरी तरफ इस तरह देखा मानो यह सवाल उसे नागवार गुजरा हो।
मैं कुछ नहीं बोला। चुपचाप चला, चलता रहा। लगभग पाँच मिनट बाद जब हम उस भैरों के गेरूए, सुनहले, पन्‍नी जड़े पत्‍थर तक पहुँच गए, जो इस अत्‍या‍धुनिक युग में एक तार के खंभे के पास श्रद्धापूर्वक स्‍थापित किया गया था, उसने कहा, 'मेरा किस्‍सा मुख्‍तसर है। लाज-शरम दिखावे की चीजें हैं। तुम मेरे दोस्‍त हो, इसलिए कह रहा हूँ। मैं एक बहुत बड़े करोड़पति सेठ का लड़का हूँ। उनके घर में जो काम करनेवालियाँ हुआ करती थीं, उनमें-से एक मेरी माँ है, जो अभी भी वहीं हैं। मैं, घर से दूर पाला-पोसा गया, मेरे पिता के खर्चे से! माँ पिलाने आती। उसी के कहने से मैंने बमुश्किल तमाम मैट्रिक किया। फिर, किसी सिफारिश से सी.आई.डी. की ट्रेनिंग में चला गया। तबसे यही काम कर रहा हूँ। बाद में पता चला कि वहाँ का खर्च भी वही सेठ देता है। उसका हाथ मुझ पर अभी तक है। तुम उठाईगिरे हो, इसलिए कहा! अरे! वैसे तो तुम लेखक-वेखक भी हो। बहुत-से लेखक और पत्रकार इनफॉर्मर हैं! तो, इसलिए, मैंने सोचा, चलो अच्‍छा हुआ। एक साथी मिल गया।'
उस आदमी में मेरी दिलचस्‍पी बहुत बढ़ गई। डर भी लगा। घृणा भी हुई। किस आदमी से पाला पड़ा। फिर भी, उस अहाते पर चढ़ कर मैं झाँक चुका था। इसलिए एक अनदिखती जंजीर से बँध तो गया ही था।
उस जनाने ने कहना जारी रखा, 'उस पागलखाने में कई ऐसे लोग डाल दिए गए हैं जो सचमुच आज की निगाह से बड़े पागल हैं। लेकिन उन्‍हें पागल कहने की इच्‍छा रखने के लिए आज की निगाह होना जरूरी है।'
मैंने उकसाते हुए कहा, 'आज की निगाह से क्‍या मतलब?'
उसने भौंहें समेट लीं। मेरी आँखों में आँखे डाल कर उसने कहना शुरू किया, 'जो आदमी आत्‍मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। आत्‍मा की आवाज को लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्‍यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्‍वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्‍मा की आवाज जरूरत से ज्‍यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्‍म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।'
मुझे शक हुआ कि मैं किसी फैंटेसी में रह रहा हूँ। यह कोई ऐसा-वैसा कोई गुप्‍तचर नहीं है। या तो यह खुद पागल है या कोई पहुँचा हुआ आदमी है! लेकिन वह पागल भी नहीं है न पहुँचा हुआ है। वह तो सिर्फ जनाना आदमी है या वैज्ञानिक शब्‍दावली प्रयोग करूँ तो यह कहना होगा कि वह है तो जवान-पट्ठा लेकिन उसमें जो लचक है वह औरत के चलने की याद दिलाती है!
मैंने उससे पूछा, 'तुमने कहीं ट्रेनिंग पाई है?'
'सिर्फ तजुर्बे से सीखा है! मुझे इनाम भी मिला है।'
मैंने कहा, 'अच्‍छा!'
और मैं जिज्ञासा और कुतूहल से प्रेरित हो कर उसकी अंधकारपूर्ण थाहों में डूबने का प्रयत्‍न करने लगा।
किंतु उसने सिर्फ मुस्‍करा दिया! तब मुझे वह ऐसा लगा मानो वह अज्ञात साइंस के गणितिक सूत्र की अंक-राशि हो, जिसका मतलब तो कुछ जरूर होता है लेकिन समझ में नहीं आता।
मन में विचारों की पंक्तियों की पंक्तियाँ बनती गईं। पंक्तियों पर पंक्तियाँ। शायद उसे भी महसूस हुआ होगा! और जब दोनों के मन में चार-चार पंक्तियाँ बन गईं कि इस बीच उसने कहा, 'तुम क्‍यों नहीं यह धंधा करते?'
मैं हतप्रभ हो गया। यह एक विलक्षण विचार था! मुझे मालूम था कि धंधा पैसों के लिए किया जाता है। आजकल बड़े-बड़े शहरों के मामूली होटलों में जहाँ दस-पाँच आदमी तरह-तरह की गप लड़ाते हुए बैठते हैं, उनकी बातें सुन कर, अपना अंदाज जमाने के लिए, कई भीतरी सूची-भेदक-प्रवेशक आँखे भी सुनती बैठती रहती हैं। यह मैं सब जानता हूँ। खुद के तजुर्बे से बता सकता हूँ। लेकिन, फिर भी, उस आदमी की हिम्‍मत तो देखिए कि उसने कैसा पेचीदा सवाल किया!
आज तक किसी आदमी ने मुझसे इस तरह का सवाल न किया था। जरूर मुझमें ऐसा कुछ है कि जिसे मैं विशेष योग्‍यता कह सकता हूँ। मैंने अपने जीवन में जो शिक्षा और अशिक्षा प्राप्‍त की, स्‍कूलों-कॉलेजों में में जो विद्या और अविद्या उपलब्‍ध की, जो कौशल और अकौशल प्राप्‍त की, उसने - मैं मानूँ या न मानूँ - भद्रवर्ग का ही अंग बना दिया है। हाँ, मैं उस भद्रवर्ग का अंग हूँ कि जिसे अपनी भद्रता के निर्वाह के लिए अब आर्थिक कष्‍ट का सामना करना पड़ता है, और यह भाव मन में जमा रहता है कि नाश सन्निकट है। संक्षेप में, मैं सचेत व्‍यक्ति हूँ, अति-शिक्षित हूँ, अति-सं‍स्‍कृत हूँ। लेकिन चूँकि अपनी इस अतिशिक्षा और अतिसं‍स्‍‍कृति के सौष्‍ठव को उद्घाटित करते रहने के लिए, जो स्निग्‍ध प्रसन्‍नमुख चाहिए, वह न होने से मैं उठाईगिरा भी लगता हूँ - अपने-आप को!
तो मेरी इस महक को पहचान उस अद्भुत व्‍यक्ति ने मेरे सामने जो प्रस्‍ताव रखा, उससे मैं अपने-आप से एकदम सचेत हो उठा! क्‍या हर्ज है? इनकम का एक ख़ासा जरिया यह भी तो हो सकता है।
मैंने बात पलट कर उससे पूछा, 'तो हाँ, तुम उस पागलखाने की बात कह रहे थे। उसका क्‍या?'
मैंने गरदन नीचे डाल ली। कानों में अविराम शब्‍द-प्रवाह गतिमान हुआ। मैं सुनता गया। शायद वह उसके वक्‍तव्‍य की भूमिका रही होगी। इस बीच मैंने उससे टोक कर पूछा, 'तो उसका नाम क्‍या है?
'क्‍लॉड ईथरली!'
'क्‍या वह रोमन कैथलिक है - आदिवासी इसाई है?'
उसने नाराज हो कर कहा, 'तो अब तक तुम मेरी बात ही नहीं सुन रहे थे?'
मैंने उसे विश्‍वास दिलाया कि उसकी एक-एक बात दिल में उतर रही थी। फिर भी उसके चेहरे के भाव से पता चला कि उसे मेरी बात पर यकीन नहीं हुआ। उसने कहा, 'क्‍लॉड ईथरली वह अमरीकी विमान चालक है, जिसने हिरोशिमा पर बम गिराया था।'
मुझे आश्‍चर्य का एक धक्‍का लगा। या तो वह पागल है, या मैं! मैंने उससे पूछा, 'तो उससे क्‍या होता है?'
अब उसने बहुत ही नाराज हो कर कहा, 'अबे बेवकूफ! नेस्‍तनाबूद हुए हिरोशिमा की बदरंग और बदसूरत, उदास और गमगीन जिंदगी की सरदारत करनेवाले मेयर को वह हर माह चेक भेजता रहा जिससे कि उन पैसों से दीन-हीनों को सहायता तो पहुँचे ही; उसने जो भयानक पाप किया है वह भी कुछ कम हो!'
मैंने उसके चेहरे का अध्ययन करना शुरू किया। उसकी वे खुरदुरी घनी मोटी भौंहें नाक के पास आ मिलती थीं। कड़े बालों की तेज रेजर से हजामत किया हुआ उसका वह हरा-गोरा चेहरा, सीधी-मोटी नाक और मजाकिया होठ और गमगीन आँखे, जिस्‍म की जनाना लचक, डबल ठुड्डी, जिसके बीच में हलका-सा गड्ढा!
यह कौन शख्‍स है, जो मुझसे इस तरह बात कर रहा है। लगा कि मैं सचमुच इस दुनिया में नहीं रह रहा हूँ, उससे कोई दो सौ मील ऊपर आ गया हूँ, जहाँ आकाश, चाँद-तारे, सूरज सभी दिखाई देते हैं। रॉकेट उड़ रहे हैं। आते हैं, जाते हैं और पृथ्‍वी एक चौड़े-नीले गोल जगत-सी दिखाई दे रही है, जहाँ हम किसी एक देश के नहीं हैं, सभी देशों के हैं। मन में एक भयानक उद्वेगपूर्ण भावहीन चंचलता है! कुल मिला कर, पल-भर यही हालत रही। लेकिन वह पल बहुत ही घनघोर था। भयावह और संदिग्‍ध! और उसी पल से अभिभूत हो कर मैंने उससे पूछा, 'तो क्‍या हिरोशिमा वाला क्‍लॉड ईथरली इस पागलखाने में है।'
वह हाथ फैला कर उँगलियों से उस पीली बिल्डिंग की तरफ इशारा कर रहा था, जिसके अहाते की दीवार पर चढ़ कर मेरी आँखों ने रोशनदान पार करके उन तेज आँखों को देखा था, जो उसी रोशनदान में से गुजर कर बाहर जाना चाहती हैं। तो, अगर मैं जस जनाने लचकदार शख्‍स पर यकीन करूँ तो इसका मतलब यह हुआ कि मेरी देखी वे आँखे और किसी की नहीं, ख़ास क्‍लॉड ईथरली की ही थीं। लेकिन यह कैसे हो सकता है!
उसने मेरी बात ताड़ कर कहा, 'हाँ, वह क्‍लॉड ईथरली ही था।'
मैंने चिढ़ कर कहा, 'तो क्‍या यह हिंदुस्‍तान नहीं है। हम अमेरिका में ही रह रहे हैं?'
उसने मानो मेरी बेवकूफी पर हँसी का ठहाका मारा, कहा, 'भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमेरिका है! तुमने लाल ओठवाली चमकदार, गोरी-सुनहली औरतें नहीं देखी, उनके कीमती कपड़े नहीं देखे! शानदार मोटरों में घूमने वाले अशिक्षित लोग नहीं देखे! नफीस किस्‍म की वेश्‍यावृत्ति नहीं देखी! सेमिनार नहीं देखे! एक जमाने में हम लंदन जाते थे और इंग्‍लैंड‍ रिर्टन कहलाते थे और आज वाशिंगटन जाते हैं। अगर हमारा बस चले और आज हम सचमुच उतने ही धनी हों और हमारे पास उतने ही एटम बम और हाइड्रोजन बम हों और रॉकेट हों तो फिर क्‍या पूछना! अखबार पढ़ते हो कि नहीं?'
मैंने कहा, 'हाँ।'
तो तुमने मैकमिलन की वह तकरीर भी पढ़ी होगी जो उसने... को दी थी। उसने क्‍या कहा था? यह देश, हमारे सैनिक गुट में तो नहीं है, किंतु संस्‍कृति और आत्‍मा से हमारे साथ है। क्‍या मैकमिलन सफेद झूठ कह रहा था? कतई नहीं। वह एक महत्‍वपूर्ण तथ्‍य पर प्रकाश डाल रहा था।
और अगर यह सच है तो यह भी सही है कि उनकी संस्‍कृति और आत्‍मा का संकट हमारी संस्‍कृति और आत्‍मा का संकट है! यही कारण है कि आजकल के लेखक और कवि अमरीकी, ब्रिटिश तथा पश्चिम यूरोपीय साहित्‍य तथा विचारधाराओं में गोते लगाते हैं और वहाँ से अपनी आत्‍मा को शिक्षा और संस्‍कृति प्रदान करते हैं! क्‍या यह झूठ है। और हमारे तथाकथित राष्‍ट्रीय अखबार और प्रकाशन-केंद्र! वे अपनी विचारधारा और दृष्टिकोण कहाँ से लेते हैं?'
यह कह कर वह जोर से हँस पड़ा और हँसी की लहरों में उसका जिस्‍म लचकने लगा।
उसने कहना जारी रखा, 'क्‍या हमने इंडो‍नेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्‍य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्‍य से? छि: छि:! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्‍य है! और रूस का? अरे! यह तो स्‍वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।'
'छोड़ो! तो मतलब यह है कि अगर उनकी संस्‍कृति हमारी संस्‍कृति है, उनकी आत्‍मा हमारी आत्‍मा और उनका संकट हमारा संकट है - जैसा कि सिद्ध है - जरा पढ़ो अखबार, करो बातचीत अंगरेजीदाँ फर्राटेबाज लोगों से - तो हमारे यहाँ भी हिरोशिमा पर बम गिरानेवाला विमान चालक क्‍यों नहीं हो सकता और हमारे यहाँ भी संप्रदायवादी, युद्धवादी लोग क्‍यों नहीं हो सकते! मुख्‍तसर किस्‍सा यह है कि हिंदुस्‍तान भी अमेरिका ही है।'
मुझे पसीना छूटने लगा। फिर भी मन यह स्‍वीकार करने के लिए तैयार नहीं था कि भारत अमेरिका ही है और यह कि क्‍लॉड ईथरली उसी पागलखाने में रहते हैं - उसी पागलखाने में रहता है! मेरी आँखों में संदेह, अविश्‍वास, भय और आशंका की मिली-जुली चमक जरूर रही होगी, जिसको देख कर वह बुरी तरह हँस पड़ा। और उसने मुझे एक सिगरेट दी।
एक पेड़ के नीचे खड़े हो कर हम दोनों बात करते हुए नीचे एक पत्‍थर पर बैठ गए। उसने कहा, 'देखा नहीं! ब्रिटिश-अमरीकी या फ्रांसीसी कविता में जो मूड्स, जो मनःस्थितियाँ रहती हैं - बस वे ही हमारे यहाँ भी हैं, लाई जाती हैं। सुरुचि और आधुनिक भावबोध का तकाजा है कि उन्‍हें लाया जाया क्‍यों? इसलिए कि वहाँ औद्योगिक सभ्‍यता है, हमारे यहाँ भी। मानो कि कल-कारखाने खोले जाने से आदर्श ओर कर्तव्‍य बदल जाते हों।'
मैंने नाराज हो कर सिगरेट फेंक दी। उसके सामने हो लिया। शायद, उस समय मैं उसे मारना चाहता था। हाथापाई करना चाहता था। लेकिन वह व्‍यंग्‍य-भरे चेहरे से हँस पड़ा और उसकी आँखे ज्‍यादा गमगीन हो गईं।'
उसने कहा, 'क्‍लॉड ईथरली एक विमान चालक था! उसके एटमबम से हिरोशिमा नष्‍ट हुआ। वह अपनी कारगुजारी देखने उस शहर गया। उस भयानक, बदरंग, बदसूरत कटी लोथों के शहर को देख कर उसका दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया। उसको पता नहीं था कि उसके पास ऐसा हथियार है और उस हथियार का यह अंजाम होगा। उसके दिल में निरपराध जनों के प्रेतों, शवों, लोथों, लाशों के कटे-पिटे चेहरे तैरने लगे। उसके हृदय में करुणा उमड़ आई। उधर, अमरीकी सरकार ने उसे इनाम दिया। वह 'वॉर हीरो' हो गया। लेकिन उसकी आत्‍मा कहती थी कि उसने पाप किया, जघन्‍य पाप किया है। उसे दंड मिलना ही चाहिए। नहीं। लेकिन उसका देश तो उसे हीरो मानता था। अब क्‍या किया जाय। उसने सरकारी नौकरी छोड़ दी। मामूली से मामूली काम किया। लेकिन, फिर भी वह 'वॉर हीरो' था, महान् था। क्‍लॉड ईथरली महानता नहीं, दंड चाहता था, दंड!'
'उसने वारदातें शुरू कीं जिससे कि वह गिरफ्तार हो सके और जेल में डाला जा सके। किंतु प्रमाण के अभाव में वह हर बार छोड़ दिया गया। उसने घोषित किया कि वह पापी है, पापी है, उसे दंड मिलना चाहिए, उसने निरपराध जनों की हत्‍या की है, उसे दंड दो। हे ईश्‍वर! लेकिन अमरीकी व्‍यवस्‍था उसे पाप नहीं, महान् कार्य मानती थी। देश-भक्ति मानती थी। जब उसने ईथरली की ये हरकतें देखीं तो उसे पागलखाने में डाल दिया। टेक्‍सॉस प्रांत में वायो नाम की एक जगह है - वहाँ उसका दिमाग दुरुस्त करने के लिए उसे डाल दिया गया। वहाँ वह चार साल तक रहा, लेकिन उसका पागलपन दुरुस्त नहीं हो सका।'
'चार साल बाद वह वहाँ से छूटा तो उसे राय.एल. मैनटूथ नाम का एक गुंडा मिला। उसकी मदद से उसने डाकघरों पर धावा मारा। आखिर मय साथी के वह पकड़ लिया गया। मुकदमा चला। कोई फायदा नहीं। जब यह मालूम हुआ कि वह कौन है और क्‍या चाहता है तो उसे तुरंत छोड़ दिया गया। उसके बाद, उसने डल्‍लॉस नाम की एक जगह के कैशियर पर सशस्‍त्र आक्रमण किया। परिणाम कुछ नहीं निकला, क्‍योंकि बड़े सैनिक अधिकारियों को यह महसूस हुआ कि ऐसे 'प्रख्‍यात युद्ध वीर' को मामूली उचक्‍का और चोर कह कर उसकी बदनामी न हो। इसलिए उसके उस प्राप्‍त पद की रक्षा करने के लिए, उसे फिर से पागलखाने में डाल दिया गया।'
'यह है क्‍लॉड ईथरली! ईथरली की ईमानदारी पर अविश्‍वास करने की किसी को शंका ही नहीं रही। उसकी जीवन-कथा की फिल्‍म बनाने का अधिकार ख़रीदने के लिए कंपनी ने उसे एक लाख रुपए देने का प्रस्‍ताव रखा। उसने कतई इनकार कर दिया। उसके इस अस्‍वीकार से सबके सामने यह जाहिर हो गया कि वह झूठा और फरेबी नहीं है। वह बन नहीं रहा।'
'कौन नहीं जानता कि क्‍लॉड ईथरली अणु युद्ध का विरोध करने वाली आत्‍मा की आवाज का दूसरा नाम है। हाँ! ईथरली मानसिक रोगी नहीं है। आध्‍या‍त्मिक अशांति का, आध्‍यात्मिक उद्विग्‍नता का ज्‍वलंत प्रतीक है। क्‍या इससे तुम इनकार करते हो?'
उसके हाथ की सिगरेट कभी की नीचे गिर चुकी थी। वह जनाना आदमी तमतमा उठा था। चेहरे पर बेचैनी की मलिनता छाई थी।
वह कहता गया, 'इस आध्‍यात्मिक अशांति, इस आध्‍यात्मिक उद्विग्‍नता को समझने वाले लोग कितने हैं! उन्‍हें विचित्र, विलक्षण, विक्षिप्‍त कह कर पागलखाने में डालने की इच्‍छा रखने वाले लोग न जाने कितने हैं! इसलिए पुराने जमाने में हमारे बहुतेरे विद्रोही संतों को भी पागल कहा गया। आज भी बहुतों को पागल कहा जाता है। अगर वह बहुत तुच्‍छ हुए तो सिर्फ उनकी उपेक्षा की जाती है, जिससे कि उनकी बात प्रकट न हो और फैल न जाए।'
'हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्‍क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम उन उच्‍च पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं, जिससे कि धीरे-धीरे या तो वह खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्‍य भद्र हो जाए यानी दुरुस्त हो जाए या उसी पागलखाने में पड़ा रहे!'
मैं हतप्रभ तो हो ही गया! साथ-ही-साथ, उसकी इस कहानी पर मुग्‍ध भी। उस जीवन-कथा से अत्‍यधिक प्रभावित हो कर मैंने पूछा, 'तो क्‍या यह कहानी सच्‍ची है?'
उसने जवाब दिया, भई वाह! अमरीकी साहित्‍य पढ़ते हो कि नहीं? ब्रिटिश भी नहीं! तो क्‍या पढ़ते हो खाक!... अरे भाई रूस पर तो अनेक भाषाओं में कई पुस्‍तकें निकल गई हैं। तो क्‍या पत्‍थर जानकारी रखते हो। विश्‍वास न हो, तो खंडन करो, जाओ टटोलो। और, इस बीच में इसी पागलखाने की सैर करवा लाता हूँ।'
मैंने हाथ हिला कर इनकार करते हुए कहा, 'नहीं मुझे नहीं जाना।'
क्‍यों नहीं? उसने झिड़क कर कहा, 'आजकल हमारे अवचेतन में हमारी आत्‍मा आ गई है, चेतन में स्‍व-हित और अधिचेतन में समाज से सामंजस्‍य का आदर्श भले ही वह बुरा समाज क्‍यों न हो? यही आज के जीवन-विवेक का रहस्‍य है।...'
'तुमको वहाँ की सैर करनी होगी। मैं तुम्‍हें पागलखाने ले चल रहा हूँ, लेकिन पिछले दरवाजे से नहीं, खुले अगले से।'
रास्‍ते में मैंने उससे कहा, 'मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ कि भारत अमेरिका है! तुम कुछ भी कहो! न वह कभी हो सकता है, न वह कभी होगा ही।'
इस बात को उसने उड़ा दिया। उसे चाहिए था कि वह उस बात का जवाब देता । उसने सिर्फ इतना कहा, 'मुश्किल यह है कि तुम मेरी बात नहीं समझते।' मैंने कहा, 'कैसे?'
'क्‍लॉड ईथरली हमारे यहाँ भले ही देह-रूप में न रहे, लेकिन आत्‍मा की वैसी बेचैनी रखने वाले लोग तो यहाँ रह ही सकते हैं।'
मैंने अविश्‍वास प्रकट करके उसके प्रति घृणा भाव व्‍यक्‍त करते हुए कहा, 'यह भी ठीक नहीं मालूम होता।'
उसने कहा, 'क्‍यों नहीं? देश के प्रति ईमानदारी रखनेवाले लोगों के मन में, व्‍यापक पापाचारों के प्रति कोई व्‍यक्तिगत भावना नहीं रहती क्‍या?'
'समझा नहीं।'
'मतलब यह कि ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो पापाचार रूपी, शोषण रूपी डाकुओं को अपनी छाती पर बैठा समझते हैं। वह डाकू न केवल बाहर का व्‍यक्ति है, वह उनके घर का आदमी भी है। समझने की कोशिश करो!'
मैंने भौंहें उठा कर कहा, 'तो क्‍या हुआ?'
'यह कि उस व्‍यापक अन्‍याय को अनुभव करनेवाले किंतु उसका विरोध करनेवाले लोगों के अंत:करण में व्‍यक्तिगत पाप-भावना रहती ही है, रहनी चाहिए। ईथरली में और उनमें यह बुनियादी एकता और अभेद है।'
'इससे सिद्ध क्‍या हुआ?'
'इससे यह सिद्ध हुआ कि तुम-सरीखे सचेत जागरुक संवेदनशील जन क्‍लॉड ईथरली हैं।'
उसने मेरे दिल में खंजर मार दिया। हाँ, यह सच था! बिलकुल सच! अवचेतन के अँधेरे तहखाने में पड़ी हुई आत्‍मा का विद्रोह करती है। आत्‍मा पापाचारों के लिए, अपने-आपको जिम्‍मेदार समझती है। हाय रे! यह मेरा भी तो रोग रहा है।
मैंने अपने चेहरे को सख्‍त बना लिया। गंभीर हो कर कहा, 'लेकिन ये सब बातें तुम मुझसे क्‍यों कह रहे हो?'
'इसलिए कि मैं सी.आई.डी. हूँ और मैं तुम्‍हारी स्‍क्रीनिंग कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे विभाग से संबद्ध रहो। तुम इनकार क्‍यों करते हो। कहो कि यह तुम्‍हारी अंतरात्‍मा के अनुकूल है।'
'तो क्‍या तुम मुझे टटोलने के लिए ये बातें कर रहे थे। और, तुम्‍हारी ये सब बातें बनावटी थीं! मेरे दिल का भेद लेने के लिए थीं? बदमाश!'
'मैं तो सिर्फ तुम्‍हारे अनुकूल प्रसंगों की जो हो सकती थी, वही कर रहा था।'

सोमवार, 6 नवंबर 2017

व्यंग्य

मित्रों के बोल-नमूने

नमूना - 8
मोहल्ला मीडिया

रोज सुबह-शाम मिलने-जुलनेवाले एक मित्र हैं। जब भी मिलते हैं चेहरे पर कोई न कोई दुख और तनाव लेकर ही मिलते हैं। हमेशा दुखी दिखनेवाले इस मित्र को लोगों ने एक निकनेम दिया है - शोकशोगान। स्थानीय भाषा में शोकशोगान  का अर्थ होता है - शोक में डूबा हुआ। शोकशोगान की अनुपस्थिति में उसका चरित्र मित्रमंडली में आनंद और मनोरंजन का प्रमुख श्रोत होता है। 

आज की बात है। सुबह की हवाखोरी के समय शोकशोगानजी से मुलाकात हो गई। बड़े प्रसन्न और तनावरहित दिख रहे थे। उसकी इस छबि को देखकर मुझे भी प्रसन्नता हुई। जिज्ञासा भी हुई। औपचारिक अभिवादन के पश्चात् मैंने पूछा - ’’आज तो गजब ढा रहे हो मित्र! कारण क्या है?’’

मित्र ने कहा - ’’भाई साहब! महीनों बाद आज पेट पूरी तरह साफ हुआ है।’’

शोकशोगानजी को उसकी इस उपलब्धि पर मैंने बधाई दी। 

शोकशोगानजी जल्दी में थे। बधाई लेकर आगे बढ़ गये। 

घंटेभर बाद घर लौटने पर पत्नी ने कहा - ’’सुनते हो! पड़ोसन बता रही थी, शोकशोगानजी आज बड़े खुश हैं। महीनों बाद उन्हें खुलकर दस्त हुआ है।’’

मोहल्ले में खबरें सोशल मीडिया से भी अधिक तेजी से वायरल होती हैं।
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