शनिवार, 29 मार्च 2014

लघु कथाएँ

लधु कथा

 महान सभ्यता और संस्कृति के लक्षण

सभ्यताओं और संस्कृतियों के संरक्षण के लिए ईश्वर ने विश्व निबंध प्रतियोगिता की योजना बनाई। योजना के प्रमुख बिन्दु इस प्रकार थे -

प्रतियोगिता का नाम - विश्व निबंध प्रतियोगिता
निबंध का विषय - महान सभ्यता और संस्कृति के लक्षण
प्रतियोगिता का क्षेत्र - संपूर्ण विश्व
प्रतिभागियों की अवस्था - हाई और हायर सेकण्डरी स्तर के सभी विद्यार्थी

प्रतियोगिता के उद्देश्य -

1. विश्व की विलुप्त हो रही महान सभ्यताओं और संस्कृतियों का संरक्षण करना।
2. प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थी के निबंध को पाठयक्रम में शामिल करना। 
3 प्रावीण्य सूची में स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थी को पुरस्कृत करना।

इस महान लक्ष्य की प्राप्ति हेतु देवताओं की एक परीक्षा आयोजन समिति बनाई गई। समिति का अध्यक्ष पद ईश्वर के लिए आरक्षित था।

धरती के समस्त सरकारों, उनके मानव संसाधन विभागों और शिक्षा विभाग के प्राचार्यों से पत्र व्यवहार किया गया। समिति के देवदूतों ने विद्यालयों में जा-जाकर शिक्षकों को योजना के उद्देश्यों के बारे में समझाया। इतना सब कुछ करते-करते पाँच वर्ष कब निकल गये, पता ही नहीं चला। ईश्वर ने सोचा था, परीक्षा और परिणामों की घोषणा के लिए छः महीने का समय पर्याप्त होगा।

इन पाँच सालों में ईश्वर का उत्साह ठंडा पड़ चुका था। उन्हें काफी निराशा हुई। अनमने भाव से उन्होंने मेरिट में प्रथम आने वाले विद्यार्थी की काॅपी देखी। पढ़कर उनके दिमाग की बत्ती फिर जलने लगी। निबंध में महान् सभ्यता और संस्कृति के जो लक्षण उस विद्यार्थी ने लिखा था, उसके कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु इस प्रकार हैं -

1. इस पृथ्वी पर पाई जाने वाली महान् सभ्यता और संस्कृति ईश्वर की अनुपम और श्रेष्ठ रचनाओं में से एक है। ईश्वर की इस अनुपम और श्रेष्ठ रचना का स्रोत स्वयं ईश्वर के ही द्वारा लिखी गई उनकी कुछ पुस्तकें हैं। (पढ़कर ईश्वर का माथा ठनका, इस प्रकार बेकार की रचना उन्होंने कब की थी, बहुत प्रयास करने पर भी उनकी स्मरण शक्ति ने उनका साथ नहीं दिया।)

2. महान् सभ्यता और संस्कृति में मुफ्तखोरी और भिक्षावृत्ति को श्रेष्ठ माना जाता है। इस वृत्ति को अनेक तरह से महिमा-मंडित किया जाता है। मुफ्तखोरों और भिखारियों को समाज में श्रेष्ठ स्थान दिया जाता है, इन्हें ईश्वर का दर्जा दिया जाता है।

3. महान् सभ्यता और संस्कृति में मेहनमकश लोगों को, जिनके परिश्रम से उत्पन्न अन्न से दुनिया का पोषण होता है, निकृष्ट, हीन, अछूत और पशुओं से भी बदतर समझे जाते हैं।

4. महान् सभ्यता और संस्कृति में ईश्वर रचित तथाकथित पुस्तकों में वर्णित बातों को ही परम ज्ञान और इसके आधार पर शब्दों का प्रपंच रचने वालों को परम ज्ञानी माना जाता है। मेहनतकश किसानों और दस्तकारों के पास भी उनके काम से संबंधित, प्रकृति और प्रकृति की गोद में पलने वाले जीवों के क्रियाकलापों से संबंधित ज्ञान का खजाना पाया जाता है फिर भी इन्हें निपट अज्ञानी और मूर्ख ही समझा जाता है।

निबंध में आगे और भी अनमोल बातें लिखी हुई थी परन्तु इतना ही पढ़कर ईश्वर गश खाकर सिंहासन पर लुड़क गए।

परन्तु ईश्वर के देवदूतों के अनुसार निबंध प्रतियोगिता के परिणामों से अति प्रसन्न होकर ईश्वर योगनिद्रा में चले गये हैं।
000
कुबेर
Mo 9407685557

गुरुवार, 27 मार्च 2014

लघु कथाएँ

 लघु व्यंग्य कथाएँ

1. माता पार्वती का देवभूमि की सैर

सब्र की एक सीमा होती है। आखिर कोई कब तक धीरज रखे? या फिर इस तरह की इच्छा जाहिर करने वाली दुनिया की वह पहली पत्नी है? देवी पार्वती ने मन ही मन सोचा; और किसी अज्ञात संकल्प के साथ उसके दोनों गाल कुप्पे की तरह फूल गये।

पत्नी हठ के सामने भोलेनाथ को आत्म समर्पण करना ही पड़ा। उसने अपने स्वचलित नंदी विमान को पृथ्वी भ्रमण पर जाने के लिए तैयारी करने का आदेश दिया। नंदी, देवी पार्वती का चहेता, पहले ही तैयार बैठा था। उसने देवी माता पार्वती को फौरन यह शुभ समाचार सुनाया। देवी पार्वती की खुशी का ठिकाना न रहा। वह तैयारी में जुट गई।

यह सुबह-सुबह की बात थी।

सूरज ढलने वाला था, जब भोले बाबा और देवी पार्वती का नंदी विमान कैलाश से उड़ान भरा।

विमान की दिशा देखकर देवी को आश्चर्य हुआ। उसने भोलेनाथ से पूछा - ’’भगवन! हम किस द्वीप की ओर जा रहे हैं?’’

भोलेनाथ ने उत्तर दिया - ’’देवी! आज हम आपको पाश्चात्य देशों की यात्रा पर लेकर जा रहे हैं। आपको प्रसन्नता नहीं हुई?’’

देवी पार्वती ने रूठने का अभिनय करते हुए कहा - ’’भगवन! आप कब से भोगवादी बन गए? मैंने तो तपस्वियों, योगियों और त्यगियों की भूमि आर्यावर्त की सैर पर जाने के लिये कहा था, भोगियों के देश की नहीं।’’

भोलेनाथ - ’’देवी! आप उसी आर्यावर्त की बात कर रहीं है न जिसे आजकल कुछ लोग हिन्दुस्तान, पुरातनपंथी लोग भारत और पढ़े-लिखे लोग इंडिया कहते हैं?’’

देवी पार्वती - ’’हाँ देव! वही देवभूमि, जिसे लोग भारत वर्ष भी कहते हैं।’’

भोलेनाथ - ’’ठीक कहती हो देवी! पर वहाँ जाने का हठ न करो। ’’

देवी पार्वती - ’’क्यो देव?’’

भोलेनाथ - ’’इसी में हमारी भलाई है।’’

देवी पार्वती - ’’आखिर कैसे, देव?’’

भोलेनाथ - ’’देवी! अब आप मुझे इतना भी भोलाभाला न समझो। आप जैसी रूपवान और सोलहों श्रृँगार युक्त पत्नी साथ में हो तो ऐसी मूर्खता कोई कर सकता है? इस स्थिति में मूर्ख से मूर्ख आदमी भी वहाँ जाने का खतरा मोल नहीं लेगा जिसे आप देवभूमि कह रही हैं, समझीं देवी।’’
000

2. नेता जे. पी. बी. की आत्मा


सुधी पाठकों से विनम्र अनुरोध -
1. इस कहानी में नेता जे. पी. बी. का अर्थविस्तार नेता जनता प्रसाद भारतीय है।
2. जे. पी. बी., इन अक्षरों को पढ़ते वक्त कृपया इनके क्रम में परिवर्तन करने का दुःसाहस कदापि न करें।
कहानी इस प्रकार है -
खाली हाथ लौटे कालिया नामक यमदूत को डाटते हुए यमराज ने कहा - ’’क्यों? खाली हाथ लौट आये? नेता जे. पी. बी. की तुच्छ आत्मा को भी पकड़ नहीं पाये? इसकी सजा तुझे जरूर मिलेगी। जरूर मिलेगी इसकी सजा तुझे।’’

यमदूत ने भय से काँपते हुए कहा  - ’’क्षमा करें भगवन! मैं मजबूर था। नेता जे. पी. बी. की आत्मा को ढूँढने में मैंने अपनी पूरी ताकत लगा दी, धरती, आकाश और पाताल एक कर दी, पर वह कहीं नहीं मिली। भगवन! मुझे पता था, आप मुझ पर विश्वास नहीं करेंगे इसीलिये मैंने उसे सशरीर पकड़ लाया है। आप स्वयं देख लीजिये, प्रभु।’’

मृत्युलोक से किसी आदमी को सशरीर पकड़ लाना यहाँ के नियमों के विरुद्ध है। यमदूत के इस अपराध पर यमराज को बहुत क्रोध आया, परंतु घटना आश्चर्यजनक थी। यमराज को भी कौतुहल हुआ। उसने सोचा, देखा जाय आखिर माजरा क्या है। आदेश दिया - ’’नेता जे. पी. बी. के शरीर को उपस्थित किया जाय।’’

नेता जे. पी. बी. का शरीर यमराज के सामने अपनी विशेष भाव-भंगिमा के साथ खड़ा था। देखते ही यमराज के पसीने छूटने लगे। उसकी विशेष भाव-भंगिमा को देखकर उसने अनुमान लगाना चाहा कि इस व्यक्ति के चेहरे पर आखिर कौन सा भाव है। उसने रस सिद्धांत को याद किया। दस में से किसी भी रस का भाव उसके चेहरे पर नहीं मिला। उसे यमदूत की बात याद आई कि यह शरीर तो आत्माविहीन है। उसने अपने विशेष दिव्य परीक्षण यंत्रों की सहायता से नेता जे. पी. बी. के शरीर में आत्मा को ढूँढने का प्रयास किया। अपनी दिव्य दृष्टि का उपयोग किया। उसने दशों दिशाओं और समस्त लोकों को देखा, पर उसे नेता जे. पी. बी. की आत्मा का कोई अता-पता नहीं मिला। अब तो उसे सिहरन होने लगी। उसने सोचा - ईश्वर की कलाकारी का भी कोई जवाब नहीं। माजरा क्या है, अब तो वे ही बतायेंगे।

यमराज ने ईश्वर से पूछा - ’’प्रभु! यह कैसा विचित्र आत्माविहीन प्राणी बनाया है आपने, समझ में नहीं आया। इसकी आत्मा को ढूँढ-ढूँढकर हम सब थक गये प्रभु, अब आप ही हमारी सहायता कर सकते हैं।’’

ईश्वर ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा - ’’ढूँढकर भी कोई फायदा नहीं होगी यमराज। इसकी आत्मा को वापिस लाने में मैं भी तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर पाऊँगा।’’

यमराज - ’’आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है प्रभु?’’

ईश्वर - ’’इन्होंने अपनी आत्मा को स्वीसबैंक के लाॅकर में जमा कर रखा हैं।’’

ईश्वर का यह रहस्योद्घाटन सुनते ही यमराज गश खाकर गिर पड़ा।
000

3. विलुप्त प्रजाति का भारतीय मानव


उस दिन यमराज के पास और एक विचित्र केस आया। केस स्टडी करने के बाद यमराज को बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ। उन्हें लगा कि इस केस को ईश्वर की जानकारी में लाना जरूरी है। केस को लेकर वह दौड़ा-दौड़ा ईश्वर के पास गया। कहा - ’’प्रभु! आज बेहद शुभ समाचार लेकर आया हूँ; सुनकर आपको भी सुखद आश्चर्य होगा।’’

ईश्वर ने मुस्कुराकर कहा - ’’तब तो बिलकुल भी विलंब न करो यमराज जी, सुना ही डालो।’’

यमराज ने कहा - ’’प्रभु! जिस भारतीय प्रजाति के मनुष्य को हम विलुप्त समझ लिये थे, वह अभी विलुप्त नहीं हुआ है। देखिये, सामने खड़े इस मनुष्य को। साथ ही साथ इसके बहीखाते को भी देखते चलिये।’’

पहले तो ईश्वर ने उस अजूबे मनुष्य को निगाह भर कर देखा, फिर जल्दी-जल्दी उसके खाते के पन्नों को पलटने लगा। खाते में उस मनुष्य के सम्बंध में निम्न विवरण दर्ज थे 

नाम - दीनानाथ
पिता का नाम - गरीबदास
माता का नाम - मुरहिन बाई
(ईश्वर की बहीखता में मनुष्य की जाति, वर्ग, वर्ण, देश आदि का उल्लेख नहीं होता।)
पता ठिकाना - जम्बूखण्ड उर्फ आर्यावर्त उर्फ भारतवर्ष उर्फ भारत उर्फ हिन्दुस्तान उर्फ इंडिया।
(एक ही स्थान के इतने सारे नामों को पढ़कर ईश्वर की बुद्धि चकराने लगी।) हिम्मत करके उसने आगे की प्रविष्टियाँ पढ़ी। बही खाते के बाईं ओर के (आवक अर्थात पुण्य वाले) सारे पन्ने भरे पड़े थे परन्तु दाईं ओर के (जावक अर्थात पाप वाले) सारे पन्ने बिलकुल कोरे थे। ईश्वर को बड़ी हैरत हुई। अंत में बने गोशवारे को उन्होंने देखा जिसमें संक्षेप में निम्न लिखित बातें लिखी हुई थी -

झूठ बोलने की संख्या - शून्य

चोरी, धोखेबाजी अथवा ठगी करने की संख्या - शून्य

आजीविका के लिये भीख मांगने की संख्या - शून्य

अपने स्वार्थ, सुख अथवा स्वाद के लिए दूसरे प्राणियों को दुख देने, पीड़ित करने अथवा हत्या करने की संख्या - शून्य

अपने स्वार्थ, सुख अथवा स्वाद के लिए, धर्म के नाम पर शब्दों का प्रपंच रचकर, लोगों को ठगने, लूटने, दिग्भ्रमित करके उन्हें आपस में लड़वाने की संख्या - शून्य

ईश्वर और धर्म के नाम पर लोगों को देश, जाति अथवा संप्रदाय में बाँटने का काम करने की संख्या - शून्य

बहीखाता पढ़कर ईश्वर के मन की शंका और गहरी हो गई। उन्होंने यमराज से पुनः पूछा - ’’क्या यह मानव वाकई भारतीय है?’’

यमराज ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा - ’’मैंने इसके बारे में बहुत बारीकी से जांच किया है, प्रभु! यह भारतीय ही है। संभालिये इसे और मुझे आज्ञा दीजिये।’’

’’ठहरिये यमराज जी!’’ ईश्वर ने कहा - ’’इसके सम्बन्ध में हमारी योजना अलग है। इस विचित्र मानव को वापस पवित्र देवभूमि भारत भेज दीजिये। वहाँ किसी अजायब घर में इसे सुरक्षित रखवा दीजिये। इसके पिंजरे के बाहर सूचना-पट टंगवा दीजिये जिसमें लिखा हो - ’विलुप्त प्रजाति का भारतीय मानव’।
000

4. अंधे और लंगड़े की कहानी


अंधे और लंगड़े की कहानी के दोनों प्रमुख पात्र वास्तविक पात्र हैं। आज की युवा पीढ़ी इस सच्ची कहानी से प्रेरणा ग्रहण करे और अपना कैरियर बनायेे, इसी महान् उद्देश्य से इस कहानी को प्रकाशित किया जा रहा है।
एक था गंगाराम। एक था बंशीराम। दोनो में गाढ़ी मित्रता थी। मेहनत करके आजीविका कमाना इनके सिद्धांत के विरूद्ध था। वे छल-बल से पैसा कमाते, डटकर खाते, खूब कसरत करते और बदन बनाते। उन दोनों की सोच समान थी। दोनों रातों-रात अरबपति बनकर ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीना चाहते थे। वहाँ से बहुत दूर, देश की राजधानी में एक मेला लगती थी। इस मेले में पहँुचकर लोग रातों-रात अरबपति बन जाते थे। उन दानों ने भी वहाँ जाकर अपनी किस्मत आजमाने की सोची। परन्तु वहाँ तक पहुँचना आसान नहीं था। उन दानों ने देखा, उस मेले में जाने वाले सारे लोग विकलांग थे, कोई अंधा था, कोई लंगड़ा था, कोई बहरा था, पर सभी हट्टेकट्टे और बलशाली थे।

हट्टेकट्टे और बलशाली तो वे थे ही, उन्होंने सोचा, विकलांग बनने में समय ही कितना लगता है, केवल अभिनय ही तो करना है। उन्हें बचपन में पढ़ी कहानी याद आई, बंशी अंधा था और गंगाराम लंगड़ा था। बंशी ने गंगाराम से कहा - ’’मित्र! मैं तो अंधा बन चुका हूँ, लंगड़ा बनने में अब तुम विलंब न करो, मुझे अपने कंधे पर बिठाओ, मैं रास्ता बताता जाऊँगा और हम मेले में आसानी से पहुँच जायेंगे।’’

गंगाराम को इस प्रस्ताव में बंशी की चालाकी दिखी। उसने विरोध करते हुए कहा - ’’नहीं मित्र! अंधा मुझे बनने दो, तुम्हारे कंधे पर सवार होकर रास्ता बताने का काम मुझे करने दो।’’

दोनों मित्रों में इस बात पर खूब विवाद हुआ। बंशी ने बचपन में पढ़ी उस कहानी की दुहाई दी और कहा -’’मित्र! मैं तुम्हारे साथ कोई चालाकी नहीं कर रहा हूँ, परंपरा की बात कर रहा हूँ।’’

गंगा राम ने कहा - ’’लानत है ऐसी परंपरा पर।’’

अंत में दोनों ने एक समझौता किया। तय हुआ कि प्रतिदिन वे अपनी भूमिकाएँ बदल लिया करेंगे। वक्त आने पर बहरा भी बन जाना होगा। इस समझौते को उन्होंने नाम दिया, कामन मिनिमम प्रोग्राम। 

जल्द ही वे दोनों मेले में पहुँच गये। पहुँचकर वे बहुत खुश हुए। उन्होंने देखा, वहाँ पहुँचने वाले सारे लोग उन्हीं के जैसे थे। 
000


KUBER
Mo. 94076855557
E Mail  - kubersinghsahu@gmail.com

सोमवार, 24 मार्च 2014

आलेख

गागर में सागर : छत्तीसगढ़ी हाना

डॉ. पी.सी. लाल यादव
साहित्य कुटीर, गंडई पंडरिया,
जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)
मो. 9424113122




भारतीय वांगमय में ''लोक'' का प्रयोग प्राचीन काल से हो रहा है। लोक का कोशगत शाब्दिक अर्थ, स्थान  विशेष, संसार, प्रदेश, जन या लोग, समाज प्राणी, यश आदि है। किन्तु ''लोक'' शब्द की गहराई में जाने पर इसका आशय उस विशेष जन-समूह से होता है जो साज-सज्जा, सभ्यता, शिक्षा परिष्कार आदि से कोसों दूर आदिम मनोवृत्तियों के अवशेषों से युक्त है। जिसमें प्रकृति के नैसर्गिंक सौंदर्य की दिव्य आभा है। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने लोक को परिभाषित करते हुए लिखा है कि ''लोक'' हमारे जीवन का महासमुद्र है, उसमें भूत, भविष्य वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है। लोक राष्ट्र का अमर स्वरूप है, लोक कृत्सन ज्ञान और सम्पूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसान। अर्वाचीन मानव के लिए लोक सर्वोच्च प्रजापति है।1  इसी लोक या जन समूह का साहित्य लोक साहित्य कहलाता है।

लोकसाहित्य लोक मानस की सहज सरल और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। लोकसाहित्य वाचिक परंपरा द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी मुखान्तरित होता रहता है और इसके अलिखित स्वरूप में ही विद्यमान रहता है। लोकसाहित्य का रचयिता अज्ञात रहता है। व्यक्ति विशेष की अभिव्यक्ति होकर भी समूह की वाणी पाकर वह सामूहिक अभिव्यक्ति का स्वरूप ले लेता है और व्यक्ति का अस्तित्व समूह में ही घुलमिलकर लोकमय हो जाता है। लोकसाहित्य लोकसंस्कृति का दर्पण होता है। शास्त्रीय रचना पद्धति और व्याकरिणक नियम से मुक्ति लोकसाहित्य की अनगढ़ता में ही सौंदर्य की सृष्टि होती है। अकृत्रिमता लोकसाहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है। लोक की अनुभूतियाँ, मनोवेग, हृदयोद्गार तथा क्रिया व्यापार लोकगीतों, लोककथाओं, लोकगाथाओं, लोकनाट्यों और लोकोक्तियों के रूप में मुखरित होकर सजीव व साकार होती है। लोकसाहित्य की प्रमुख विधाओं के अतिरिक्त प्रकीर्ण साहित्य के अंतर्गत ''लोकोक्ति ''  की अपनी अलग ही पहचान है।

लोकोक्तियाँ अद्भुत ज्ञान का भंडार है। लोकोक्तियाँ विश्व के समस्त जनसमुदाय के ज्ञान और परीक्षण को उनकी भाषा व बोली में प्रकट करती है। ''यह मानव प्रकृति और उसके व्यावहारिक ज्ञान की घोतक हैं, जो उसे उत्तराधिकार में सदैव से प्राप्त होती चली आ रही है। दैनिक समस्याएँ सुलझाने के ये अद्भुत साधन हैं। लोकोक्तियों के माध्यम से किसी देश की जनता की विचारधारा, ज्ञान और संस्कृति का सुगमता से पता लगाया जा सकता है। बड़े-बड़े विचारकों और सामाजिकों ने लोकोक्तियों से ही ज्ञान प्राप्त किया है। ''2  लोकोक्तियों के संबंध में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है कि ''कहावतें हमारी जातीय बुद्धिमता के समुचित सूत्र हैं। शताब्दियों के निरीक्षण और अनुभव के बाद जीवन के विविध व्यवहारों में, हम जिस संतुलित स्थिति तक पहुँचते हैं, लोकोक्ति उसका संक्षिप्त सत्यात्मक परिचय हमें देती है। ''3

लोकोक्तियों में लोक का अनुभवसिद्ध ज्ञान छिपा रहता है। जनमानस के वाणी-विलास में लोकोक्ति का अत्यधिक प्रचलन प्ररिलक्षित होता है। ये उन्हें कंठस्थ होती है, और सामान्य बोलचाल में सहज रूप से प्रयुक्त होती है। लोकोक्ति एक प्राकर से मानवी ज्ञान का सूत्र है। मानव अपने जीवन काल में जिन सत्य तथ्यों से साक्षात्कार करता है, उन्हें लोकोक्ति के माध्यम से संक्षिप्त रूप में सूत्रबद्ध करता है। लोकोक्तियाँ देखने में भले ही छोटी लगती हैं किन्तु ये शिक्षा, सिद्धांत, आचार, नीति व नियमों का विस्तृत रूप में प्रतिपादन करती हैं।

भिन्न-भिन्न भारतीय भाषाओं व बोलियों में लोकोक्ति के भिन्न-भिन्न नाम हैं यथा हिन्दी में लोकोक्ति संस्कृत में दुभाषित, उर्दू में जबुल मिस्ल, राजस्थानी में ओखाणों, गढ़वाली में परवाणा, गुजराती में कहेवत, बंगला में प्रवाद, प्रवलन, मराठी में आणा न्याय, तेलगू में समीटा और छत्तीसगढ़ी में हाना।

लोकोक्तियों की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। उपनिषदों में इसका बाहुल्य है, त्रिपिटक व जातक कथाओं में इनका प्रयोग प्रचुर मात्रा में मिलता है। संस्कृति साहित्य तो लोकोक्तियों से भरा पड़ा है। संस्कृत में लोकोक्ति को सूक्ति या सुभाषित कहा जाता है। सुन्दर रीति से कहा गया कथन ही सुभाषित हैं। सुष्ठु भाषितं सुभाषितं। लोकोक्तियाँ हमारे प्राचीन समाज की ज्ञान परंपरा पर प्रकाश डालती हैं। प्राचीन तथ्यों को धारण करने के अतिरिक्त लोकोक्तियों में समयुगीन अनुभव एवं व्यवहार सिद्ध भी जुड़ता रहता है। ये यथार्थ जीवन के धरातल पर उत्पन्न तत्वों से निर्मित होती है। इनमें कल्पना या अवास्तविकता अंशमात्र भी नहीं होती।

लोकोक्तियों का निर्माण स्थल यह मानव जगत है। उसका मस्तिष्क ही है जहाँ अपने जीवन में आसपास घटित घटनाओं व अनुभवों का सूक्ष्म निरीक्षण कर संचित अनुभव को संक्षिप्त अनुभव करता है। लोकोक्ति का निर्माण तो प्रारंभ में व्यक्ति विशेष करता है। व्यक्ति विशेष की अभिव्यक्ति को जब लोक की स्वीकृति मिल जाती है तब उसकी व्यक्तिगत उक्ति ही लोक की उक्ति बन जाती है। उसके प्रतिदिन के अनुभवों की सरस व सारपूर्ण अभिव्यक्ति ही लोकोक्ति है। सामान्य जीवन की घटनाओं की संक्षिप्त और लयात्मक उक्ति ही लोकोक्ति है, जो लोकमानस व लोकसाहित्य की अमूल्य सम्पत्ति है। डॉ. श्याम परमार ने लोकोक्ति के गुणों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि - ''जीवन के विस्तृत प्रांगण में भिन्न-भिन्न अनुभव सर्वसाधारणजन के मानस को प्रभावित करके उसकी अभिव्यक्ति से संबंधित अंग को उत्कर्ष प्रदान करते हैं। ये ही अनुभव लोकोक्तियाँ-कहावतें हैं। '' 4

लोकोक्ति व कहावतें लोक की ही देन है। जैसा कि हम जानते हैं कि शास्त्र लोक से ही प्राणवायु लेकर जीवित रहता है। लोक में भी लोकोक्ति की संरचना यूँ ही नहीं होती बल्कि प्रसंग विशेष या घटनाओं के कारण व्यक्ति विशेष की वाणी से मुखरित होकर लोक की उक्ति बनती है जो आदिम समाज से लेकर शिष्ट समाज के जीवन व्यवहार में प्रयुक्त होती है। समय के साथ-साथ नई लोकोक्ति का सृजन होते रहता है। इनका आधार कोई न कोई घटना ही होती है। लोकोक्तियाँ सत्य की संवाहक होती है, जिसमें धनीभूत असत्य नहीं हो सकता। लोकोक्तियाँ परिस्थिति की अनुकूलता को देखकर ही प्रयोग में लाई जाती हैं। इनमें चमत्कार के साथ-साथ भाव गांभीर्य व हृदय ग्राहयता भी होती है।

छत्तीसगढ़ का लोकसाहित्य अत्यंत ही समृद्ध है। जिसमें लोकगीत, लोककथाएं, लोकगाथाएं व अन्य प्रकीर्ण लोकसाहित्य का समावेश है। छत्तीसगढ़ी में लोकोक्ति या कहावत को हाना कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी लोकजीवन में हाना का प्रयोग भाषा व भावों में चमत्कार के साथ कथन को ग्राहय व प्रभावोत्पादक बनाता है। हम देखते हैं कि एक सुसंस्कारित व शिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा एक ग्रामीण अपनी ठेठ छत्तीसगढ़ी में बातकर जनसमुदाय को प्रभावित कर बाजी मार ले जाता है और हम मुँह ताकते रह जाते हैं। हानों का प्रयोग वह इतनी कुशलता व सहजता से करता है कि उसके कथन का अमिट प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता।

अन्य भाषा बोलियों की लोकोक्ति की तरह ही छत्तीसगढ़ी हानों की सृजन प्रक्रिया का कारण घटना विशेष ही हैं। जो घड़ा भरा नहीं होता वह चलने पर छलकता है, उसके छलकने से आवाज होती है किन्तु जो पूरा भरा होता है वह छलकता नहीं, उसमें से कोई आवाज नहीं होती, वह शांत रहता है। सिर पर घड़ा लेकर आती-जाती स्त्रियों के संबंध में यह हमारा प्रतिदिन का अनुभव है, किन्तु यह केवल नेत्रानुभव है। सामान्य जीवन में हम इस तरह के दृश्य नित्यप्रति देखते हैं किन्तु इस क्रिया की मानसिक प्रतिक्रिया सबके मन में नहीं होती। किसी दिन किसी विचारशील व्यक्ति के मन में यह दृश्य उस व्यक्ति का चरित्र सामने रख देता है, जो बोलता बहुत है, अपने अधूरे ज्ञान का बढ़-चढ़ कर प्रदर्शन करता है, दिखावा और दंभ से करता है। ऐसी स्थिति में उपरोक्त नेत्रानुभव प्रक्रिया स्वरूप अनुभव में परिणित हो जाता है और अनायास यह अनुभव  ''अति जल गगरी छलकत जाय ''  उक्ति का रूप ले लेता है। इसमें कोई सुसंस्कारित चेष्टा नहीं, कोई कृत्रिमता नहीं। यह उक्ति केवल लोक की देन है। शास्त्र इस पर अपने अधिकार का केवल दंभ कर सकता है। नागर सभ्यता में जीने वाला आभिजात्य वर्ग जब सिर पर घड़ा ही नहीं रखता तो वह इस उक्ति का सर्जक कैसे हो सकता है?

लोकोक्तियों (हानों) की उत्पत्ति घटना विशेष से जुड़ी होती है। ग्रामीण जीवन में लोग मही (मठा) खरीदते नहीं बल्कि मही उन्हें पास-पड़ोस से नि:शुल्क मिल जाता है। मही मांगने के लिए कोई जाता है किन्तु संकोचवश कह नहीं पाता और ठेकवा (मही रखने का मिट्टी का बर्तन) छिपाने लगता है। इस स्थिति में किसी बुजुर्ग के मुख से यह उक्ति अनायस निकल पड़ी होगी -मही मांगे ल जाय ठेकवा लुकाय, और इस प्रत्यक्ष अनुभव के बाद यह घटना लोकोक्ति के रूप में प्रचलित हो गर्इं।

स्त्रियाँ श्रृंगारप्रिय होती है, सुन्दर से भी सुन्दर दिखने की उनकी ललक होती है। सुन्दर बनने की चाह में आँखों में सुरमा लगाती हैं। संभव है कोई युवती अपनी आँखों में काजल आँजती रही हो, काजल आँजने की इस क्रिया में असावधानी वश शलाका से आँखों में चोट पहुँच गयी हो और वह अँधी हो गई हो। सुन्दर बनने की चाह में हानि ही हुई। बस यही घटना उक्ति बन गई- आंजत-आंजत कानी होय। इन उक्तियों के परिदृश्य में चिरकालिन निरीक्षण तथा अनुभव सिद्ध ज्ञान ही दृष्टि गोचर होते हैं।

लक्षण :-  अन्य लोकोक्तियों की तरह ही छत्तीसगढ़ी हानों के निम्नलिखित लक्षण देखने को मिलते हैं।

(1) लाघव :- आकारगत लाघव लोकोक्ति का प्रथमत: नितांत आवश्यक गुण है। लोकोक्तियाँ सूत्रात्मक पद्धति में मिलती हैं। हाना संक्षिप्त सूत्र में आबद्ध होकर ज्ञान की संचित राशि है। अपनी लघुता के कारण ही हाना आवक वृद्ध जन-जन के कंठ पर सैकड़ों की संख्या में विराजमान रहती है। अपनी लघुता के कारण ये अपना पूर्ण प्रभाव अन्तरमन पर डालते हैं। (1) जस ल तस (2) घीर ले खीर (3) उन के दून (4)बरी पुट नून (5) अंधवा म कनवा राजा (6) दूबर ल दू असाड़ (7) बिन पेंदी के लोटा (8) चोर घर ढेंकी (9)सत ले पत (10)भोग करके जोग (11)दही के साखी बिलई (12)काम बर छरा परसाद बर पूरा।

(2) लय या गीत :- हानों में लय व गीत का महत्वपूर्ण स्थान होता है। प्राय: सभी हाना, तुकान्त हो या अतुकान्त लयात्मक अभिव्यक्ति इनकी विशेषता होती है। इनकी लयात्मकता व गेयता के कारण इन्हें काव्य रूप में गठित लघु आकारीय विधा कहा जा सकता है :-

(1)  नता म साढू कलेवा म लाडू(2) अल्लर खूँटा अल्लर पाऊ, जइसने बाम्हन तइसने नाउ। (3)आज के न काल के बईहा पूरा साल के (4) बोंय सोन जामय नहीं, मोती फरे न डार, गे समय बहुरे नहीं खोजे मिले न उधार (5) जांगर चले न जंगरोटा खाय बर गहूँ के रोटा (6) हाय रे मोर बोरे बरा, गिंजर फिर के मोरे करा (7) हाय रे मोर मूसर तैं नहीं त दूसर।

(3)तुक :- तुकान्त हाना का तीसरा लक्षण हैं। अनेक हानों में तुक मिलता है जिसके परिणामस्वरूप लोकोक्ति की भाषा संगीतमय हो जाती है। केवल यही नहीं बल्कि इससे उसकी प्रभावोत्पदकता व सरसता में श्री वृद्धि हो जाती है।

(1) अल्लर खूंटा अल्लर पाऊ, जइसने दाऊ तइसने नाऊ (2) तोर गारी, मोर कान के बारी (3) बईठन दे, त पीसन दे (4) मन म आन मुँह म आन (5) खाय बर जरी तबाय बर बरी (6) सांच ल का आंच ।

(4) निरीक्षण और अनुभूति की अभिव्यंजना :- मानव मन की सूक्ष्म अनुभूतियाँ ही लोकोक्तियों के निर्माण में आधारशिला का कार्य करती हैं। ऐसी लोकानुभूतियाँ गहन निरीक्षणों पर आधारित होती हैं। लोकानुभव, सूक्ष्म व गहन निरीक्षणों पर आधारित निम्नलिखित हानें दृष्टव्य हैं :-

(1) संझा के पानी बिहनिया के झगरा, (2) दही देख बिलई रतियाय (3) अधजल गगरी छलकत जाय (4) आँजत-आँजत कानी (5) बाँस के भीरा म बाँसे जामही (6) दूधो जाय दूहनी जाय (7) जोगी के भीख म कऊँवा हग दीस।
(5)प्रभावशीलता और लोकरंजकता :- प्रभावशीलता व लोकरंजकता का गुण हानों में पाया जाता है। यद्यपि यह गुण सभी हानों में नहीं मिलता किन्तु कुछ हाने अपने इस गुण के कारण लोक- रंजक होते हैं। इनमें प्रभावित करने के साथ-साथ लोकानुरंजन की क्षमता होती है -

(1) अंधवा पीसे कुकुर खाय (2) दिया तरी अँधियार (3) आल बहुरिया काल करे, काड़ी कोचक  के घाव करे (4) दही के भोरहा कपसा ल लीले।

(6)सरलता :- यह हानों की अनूठी विशेषता है। यह इतनी सहज, सरल और बोध गम्य होती है कि भाषा और भाव सरलता के कारण हाना जन-जन को प्रभावित करता है। जटिल भाव और दुरूह भाषा मर्म को छूने में असमर्थ होती है।

(1) सौ में सती (2) मुह म राम बगल म छुरी (3) घींव गंवागे ङ्क्षखचरी में। (4)फूटहा करम के फूटहा दोना पेज गंवागे चारों कोना (5)अड़हा बैइद परान घात

वर्गीकरण :-  वर्गीकरण की दृष्टि से विचार करने पर छत्तीसगढ़ी हानों को पांच वर्गो में विभाजित किया जा सकता है -
(1) स्थान परक लोकोक्तियाँ
(2) जाति परक लोकोक्तियाँ
(3) प्रकृति व कृषि परक लोकोक्तियाँ
(4) पशु पक्षी परक लोकोक्तियाँ
(5) नीति परक या प्रकीर्ण लोकोक्तियाँ

(1) स्थान परक लोकोक्तियाँ :- प्रत्येक गांव-शहर या स्थान विशेष की अपनी निजी पहचान होती है। उनके गुण-दोष होते है। इन्हीं तत्वों के आधार पर स्थान संबंधी हानों का  प्रचलन है।
(1) जहर खाय न महुरा खाय, मरे बर होय ता लोहारा जाय।
(2) छुईखदान के बस्ती जय गोपाल के सस्ती।

छुईखदान में वैष्णव लोगों की अधिकता है। वे सामान्य व्यवहार में अभिवादन के लिए राम-राम के स्थान पर जै गोपाल का प्रयोग करते हैं। अत: यह सहज ही उक्ति बन गई कि छुईखदान के बस्ती जै गोपाल के सस्ती। आशय यह कि जहाँ जिस चीज की जितनी अधिकता होगी वहाँ चीज उतनी ही सस्ती होगी।
(3) गंडई के नेवता (4) बेलगांव कस बईला धपोर दिस। (5) रात भर गाड़ी जोते कुकदा के कुकदा (6) बहु बिहाय कोहका बोड़ झन जाय।

(2)जाति संबंधी :- कुछ हानों में जाति विशेष की विशिष्टताओं एवं प्रवृत्तियों का उल्लेख होता है। इन हानों में उपहास, व्यंग्य, कटाक्ष अथवा आक्षेप व आलोचनाएँ मिलती हैं।

(1) जात म नऊँवा पंछी म कऊवाँ (2) घी खात बाम्हन नरियाय (3) गांव बिगाड़े बम्हना, खेत बिगाड़े सोमना (4) सब के नाचे कूदे गांडा के मटकाय (5) मातिस गोंड़ दिस कलोर, उतरिस नशा दांत निपोर। (6) साल्हेवारा रोड सुधरगे, फेर गोंड़ नई सुधरिस। (7) हाथी बर गेंड़ा कोष्टिन बर खेड़हा (8) ठेलहा बनिया मटकाय कनिहा (9) चिट जात तेली घोरन जात कलार, कुर्मी जात मदन मोहनी घोरमुंहा जात मरार (10) गदहा सूर न बगुला जती,बनिया मित्र न बेसिया सती। (11) संहराय बहुरिया डोम के घर जाय। (12) तेली घर तेल रथे त पहार ल नइ पोतय। (13) आय देवारी राऊत माते। (14) बाम्हन मरे गोड के घाव कुकुर मरे मुड़ के घाव (15) अटके बनिया नौ सेरिया (16) गोंड गांव के चिपरी मोटियारी (17) गांड़ा घर गाय नहीं बाय (18) रडिया बइठे खटिया, बाम्हन बइठे गाड़ा, मरिया ल भीख नई मिले, मसके सोहारी गांडा (19) मर-मर पोथी पढ़े तिवारी, घोंडू मसके सोहारी। (20)उजरिया बस्ती के कोसरिया ठेठवार (21) जइसे दाऊ के बाजा तइसे नाऊ के नाचा (22) गांडा के बछवा।

(3) प्रकृति व कृषि संबंधी लोकोक्तियाँ :- हमारे देश की 80' जनता गाँवों में बसती है। कृषि उनका मुख्य कार्य है। छत्तीसगढ़ी कृषि प्रधान क्षेत्र है। इसे धान का कटोरा कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों में भी कृषि संबंधी सूक्ष्म निरीक्षण व ज्ञान प्राप्त होता है।

(1) गांव बिगाड़े बम्हना खेत बिगाड़े सोमना (2) हरियर खेती गाभिन गाय जभे होय तभे पतिपाय।(3) खेती अपन सेती,नइ ते नदिया के रेती। (4) महतारी के परसे मघा के बरसे (5) राड़ी के बेटी धरसा के खेती। (6) धान-पान-खीरा, तीनों पानी के कीरा (7) सामिल के खेती ल कोलिहा खाय। (8) उत्तम खेती मध्यम बान, निर्धिन चाकरी भीख निदान। (9) कोरे-गांथे बेटी, नींदे कोड़े खेती।

(4) पशु पक्षी संबंधी लोकोक्तियाँ :- पशु-पक्षियों के स्वभाव व गुण-दोष आदि का विवेचन करने वाली लोकोक्तियाँ भी छत्तीसगढ़ी में मिलती हैं :-

(1) पइधे गाय कछारे जाय (2) बोकरा के जीव जाय खवईया ल अलोना (3) घर म नांगदेव भिंभोरा पूजे ल जाय (4) कौंवा के कटरे ले ढोर नाई मरे (5) कुकुर भूंके हजार हाथी चले बाजार (6) टेटका के चिन्हारी बारी ले (7) राजा के मरगे हाथी परजा के मरगे घोड़, राड़ी के मरगे कुकरी त एक बरोबर होय। (8) कुकुर के पूंछी टेंडगाच रही (9) दुधारू गाय के लात मीठ (10) जात म नऊँवा पंछी म कऊँवा (11) बाम्हन कुकुर नाऊ जात देख गुर्राऊ (12) बुटरी गाय सदा कलोर (13)परोसी बुती सांप नइ मरे। (14)सांप के मुड़ी तिहाँ बाबू के झूलेना (15)अल्कर मरे भालू त ठ_ा करे कोल्लू (16)चील खोंदरा म मांस बॉचही। (17)नवा बईला के नवा सिंग चल रे बईला टींगे टींग।

(5)प्रकीर्ण लोकोक्तियाँ :- इस कोटि की लोकोक्तियों में ज्ञान, शिक्षा, कर्तव्य, उपदेश, उपहास, व्यंग्य, दृष्टान्त, समाज और जातीय जीवन के विविध क्षेत्रों पर मार्मिक कथन और चुभने वाली उक्तियाँ मिल जाती है -

(1) आठ हाथ खीरा नौ हाथ बीजा (2) मुड़ के राहत ले माड़ी म पागा नइ बांधय (3) अपटे बन के पथरा पगेरे घर के सील (4)खीरा चोर जोंधरी चोर, धीरे-धीरे सैंध फोर (5) जइसे-जइसे घर दुवार तइसे तइसे फईखा, जईसे जेखर दाई-ददा, तइसे तेखर लईका। (5) बने-बने बजार के कड़हा कोचरा मरार के। (6)सब पाप जाय फेर मनसा पाप नई जाय। (7)बोहिक बईला घर जिंया दमाद, मरे के बांचय जोते के काम। (8) कमईया बर भाजी भात खसुहा बर सोहारी (9) हाथी गिंजरे गाँव-गाँव, जेखर हाथी तेखर नांव।

संदर्भ - जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि लोकोक्तियाँ प्रसंग विशेष व घटनादि के कारण प्रचलन में आती है। नेत्रानुभव के पश्चात मानव हृदयगत अनुभूतियों को भाषा व वाणी के माध्यम से चित्रित करता है। कुछ लोकोक्तियों के पीछे कुछ प्रमुख घटनाएँ सुनने को मिलती है। इन लोकोक्तियों के साथ में घटनाएँ लोककथा के रूप में जुड़ी है। कुछ छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों के संदर्भ प्रस्तुत है :-

(1) जेखर लाठी तेखर भँईस :- इसका आशय यह कि जिसके पास शक्ति होगी, उसी के पास सत्ता होगी। इस लोकोक्ति के पीछे यह लोककथा प्रचलित है कि एक किसान ने एक भैंस खरीदी। वह उसे लेकर घर आ रहा था। किसी चोर की नीयत उस भैंस के लिए खराब हो गई। वह लाठी लेकर अड़ गया और लाठी से भैंस को हँकालने लगा। जान के भय से किसान चोर का प्रतिरोध न कर सका। किसान चतुर था उसने चोर से कहा अच्छा भैया अब भैंस तो तुम्हारी हो गई, ठीक है, भैंस ले जाओ, मैं तुम्हें कुछ न कहूंगा, केवल अपनी लाठी दे दो। चोर किसान की चालाकी न समझ सका। उसने अपनी लाठी किसान को दे दी। लाठी पाते ही किसान लाठी भांजते हुए चोर पर टूट पड़ा, चोर प्राण बचाकर भागा। और यह लोकोक्ति प्रचलित हो गई। जेखर लाठी तेखर भँईस।
(2)पान म दरजा हे फेर हमार म नहीं :- छत्तीसगढ़ में अक्सर जब पति-पत्नी के बीच विवाद या झगड़ा होता है तब पत्नियाँ यह कहती है कि ''पान म दरजा हे फेर हमर म नहीं ''  बुजुर्ग इस लोकोक्ति को श्रीकृष्ण भगवान को तराजू पर तौलने की घटना से जोडकर देखते हैं। एक पलड़े पर श्रीकृष्ण व दूसरे पलड़े पर महल के सारे स्वर्ण आभूषण, फिर भी श्रीकृष्ण का पलड़ा भारी रहता है। पटरानियाँ परेशान हो जाती है। नारद जी उन्हें यह युक्ति बताते हैं कि भगवान तो तुलसी के एक पत्र से ही तौले जा सकते हैं। और सचमुच पलड़े पर तुलसी का एक पत्र रखने से दोनों पलड़े बराबर हो जाते हैं। रूक्मणि के मुंह से अनायास निकल पड़ा - पान म दरजा हे फेर हमर म नहीं।

(3) भँईस लेवाय नई हे लइका पंडरू के पीठ म चढ़थे :- इस लोकोक्ति के संबंध में यह लोककथा प्रचलित है कि एक राउत था, उसने अपनी पत्नी से कहा कि वह नई भैंस खरीद कर लायेगा। यह सुनकर उसका छोटा लड़का जो आंगन में खेल रहा था यह कहकर जिद्द करने लगा कि वह पंडरू (भैंस का बच्चा) की पीठ पर चढ़ेगा। उसे धोने के लिए तालाब ले जायेगा। राऊत गुस्से में आकर अपने बच्चे को मारने-पीटने लगा कि पंडरू की पीठ पर चढऩे से पंडरू की कमर टूट जायेगी। बच्चा फिर भी जिद्द कर रोने लगा कि वह पंडरू की पीठ पर चढ़ेगा। रोने की आवाज सुनकर राऊत का पड़ोसी आया। उसने राऊत से पूछा कि वह अपने लड़के को क्यों मार रहा है? राऊत ने कहा - भैंस तो अभी खरीदा नहीं, खरीद कर लाने वाला हूँ। पड़ोसी ने कहा - भँईस लेवाय नई हे लइका पंडरू के पीठ म चढ़थे। यह उक्ति उतावले व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होती है।

(4) अल्कर परे भालू गत मारे कोल्हू :- इस लोकोक्ति का आशय यह कि जब समर्थ व्यक्ति बाधाओं से घिर जाता है तो तुच्छ लोग भी उसका उपहास करते हैं। इस लोकोक्ति के संबंध में यह लोककथा प्रचलित है कि एक मादा भालू एक दिन झाडिय़ों में फँस गयी, लाख कोशिशों के बावजूद नहीं निकल पायी। तभी एक सियार ने उसकी इज्जत ले ली। इस स्थिति में मादा भालू ने विवश होकर कहा - कोई बात नहीं तुम आखिर मेरे देवर हो। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ में देवर द्वारा अपनी भाभी को चूड़ी पहनाकर विवाह करने की प्रथा प्रचलित है।

(5) बांस रही न बांसरी बाजही :- इसका आशय यह कि न कारण रहेगा और न ही कार्य होगा। कहा जाता है कि एक बार एक गाँव में एक बाँसुरी बजाने वाला आया। उसकी बाँसुरी के धुन पर गाँव के सभी बच्चे मोहित हो गए। सभी बच्चे उसकी बाँसुरी मांगने लगे। इस पर बाँसुरी वाले ने कहा - यदि तुम्हारे गाँव में बाँस हो तो उससे सभी बच्चों के लिए बाँसुरी बनाई जा सकती है। गाँव में एक किसान के घर बाँस के पेड़ थे। बच्चे किसान के घर जाकर बाँस मांगने लगे। किसान ने कुछ बच्चों को बाँस तो दिया, लेकिन इससे उनकी परेशानी बढ़ गई। अत: किसान ने परेशानी से बचने के लिए सभी बाँसों को काट दिया।

(6)खासर खूसर, बिन सामीं के मूसर,
    राजा के दूसर, छेरी के तीसर,
    चलन के चाल, घोड़ा बिन लगाम, नइ आवे काम।।

 अर्थात गाड़ी में लकड़ी का असकूड़ (सेंटर एक्सल), बिना छल्ले का मूसल, कोई काम का नहीं। राजा के दो लड़के नहीं होना चाहिए इससे उत्तराधिकारी में विवाद होता है। बकरी के तीन बच्चे नहीं होना चाहिए क्योंकि बकरी के दो ही थन होते हैं, जिससे तीसरा बच्चा दूध के अभाव में मर जाता है। चलनी का सहज स्वभाव है कि वह अच्छे बीज को छोड़ देती है, बेकार वस्तु को एकत्रित करती है। अचछी वस्तु को छोड़कर बेकार वस्तु को ग्रहण करना भी ठीक नहीं। इसी प्रकार घोड़ा भी बिना लगाम के वश में नहीं रहता। अर्थात उपरोक्त परिस्थितियाँ कोई काम की नहीं, औचित्यहीन है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ी हाना में जहाँ लोकमानस की अभिव्यक्ति हुई है, वहीं लोकजीवन भी प्रतिबिम्बित हुआ है। लोक के समस्त क्रियाकलाप, स्थिति, संघर्ष, घटित घटनाएँ लोकोक्तियों के माध्यम से लोक में परिव्याप्त हैं, जिनमें सूक्ष्म निरीक्षण और गहन ज्ञान की संचित राशि है। ये आकार में छोटे किन्तु प्रभावोत्पादक और हृदयग्राही हैं। हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम वाणी-व्यापार में लोकोक्तियों का प्रयोग करें। विलुप्त होती इन लोकोक्तियों को ग्रामीण जनों से सीखें, उन्हें व्यवहार में उतारें। बुजुर्गों से अनुरोध कर उन्हें संकलित कर लोकसाहित्य का संरक्षण व संवर्धन करें। अन्यथा लोक-साहित्य की अन्य विधाओं की तरह यह भी संकुचित हो जायेगी। नागर व पाश्चात्य सभ्यता हमारे लोकसाहित्य व लोकसंस्कृति के लिए विषबेल का कार्य कर रही है। हमें इनसे बचना है और लोकसाहित्य को बचाना है।
संदर्भ :-
1. सम्मेलन पत्रिका, लोक-संस्कृति अंक, पृष्ठ 65
2. लोक साहित्य सिद्धांत और प्रयोग - डॉ. श्रीराम शर्मा, पृष्ठ 156
3. पृथ्वी पुत्र - डॉ.वासुदेव शरण अग्रवाल पृष्ठ 57
4. भारतीय लोकसाहित्य - डॉ. श्याम परमार, पृष्ठ 184
०००

गुरुवार, 13 मार्च 2014

उपन्यास के अंश

2- मुसुवा के केकरा चाला


संझउती समय बैसका के हांका पर गे।

सटका लउठी ल फटर-फटर बजावत अउ ठुठवा बिड़ी ल सिपचावत निकल गे मुसुवा राम ह अपन बिला ले। माड़ी के आवत ले धोती पहिरे हे, बदन म सलूखा हे अउ चैखाना वाले लाल रंग के जुन्नेटहा मुहा पटका ल पागा सरीख मुड़ म लपेटे हे। कान म जरहा बिड़ी खेंचाय हे। मुरहा राम के घर आगू पहुँच के वोकर सटका के बजई ह बंद होइस। बने असन खखार के नरी ल साफ करिस अउ हुंत कराइस - ’’सुत गेव का जी मुरहा राम।’’

गरमी के दिन। भीतर ह धमकी मारत रहय। मुरहा ह घर आगू खोर म खटिया जठा के बइठे रहय। बैसका के नाव सुन के वोकर मुँहू ह वइसने सुखा गे रहय, करेजा ह धकधक-धकधक करत रहय; मुसुवा के आरो पा के वोकर घिघ्घी बंधा गे। मनेमन किहिस - ’पहुँच गे माहिल ह। को जानी का चाल चले बर आय होही ते। हे भगवान, रक्षा करबे।’ जी ल कड़ा कर के कहिथे - ’’आ भइया बइठ। कते कोती ले आवत हस। चोंगी पी ले।’’ मुरहा ह छेना के आगी म बिड़ी सुपचा के वोकर कोती लमा दिस।

मुसुवा ह बीड़ी के बने दू-तीन कस खींच लिस अउ किहिस - ’’वाह! मजा आगे जी मुरहा, तोर बीड़ी म। हाथे के बनावल आवय तइसे लगथे।’’

’’मंहगाई के जमाना, गरीब के नून-मिरी बिसाय के ताकत नइ हे। बिड़ी-सिकरेट ल का बिसा सकबोन ददा। घरे म अलवा-जलवा अंइठ लेथन। अब तंय ह सुना रे भइ, कइसे आय हस।’’

’’हफ्ता लगे न पंदरही, फकत बैसका; फकत बैसका। मालिक मन के दबदबा, अउ धमकी-चमकी के देखे बैसका के नाव सुन के कंपकंपी धर लेथे भइया। जर धरे सही लागथे। कमजोर दिल के आदमी, का बतांव, छाती ह धकधिक-धकधिक करत हे। घर म मन ह उचाट लगिस ते खोर डहर निकले रेहेंव। तुंहर इहां काकी के गोठ के सुरता आ गे। आजे बिहिनिया केहे रिहिस - ’तंय तो जानतेच् हस नानचुक, कतका देखासुनी अउ तेलाबाती करे म भगवान ह बड़े बहू ल चीन्हे हे तउन ल। देय हस तइसे बने-बने निबटा घला देतेस भगवान, कहिके रात-दिन मनउती मनात रहिथव बाबू। दू-चार दिन हो गे हे, बहू के पांव ह फुलफुलहा-फुलफुलहा कस दिखत हे। आ के देख देतेस।’ विही बात के सुरता आ गे। तउने पाय के आय हंव भइया। बने-गिनहा के बात ल तुम जानो रे भइ। .... काकी के आरो नइ मिलत हे। सुत गे हे का?’’

’’दस-गियारा बजे बिना अतका गरमी म काकर नींद ह परही भइया। नंदगहिन काकी घर कोती बइठे-बुठाय बर गे होही। बड़की के गोड़ ह थोरिक उसवाय-उसवाय कस दिखथे, वोकरे बात ल बताय रिहिस होही।’’

’’आज के जमाना ह दवई-गोली के जमाना आय मुरहा। देसी जड़ी-बुटी के जमाना ह नंदा गे। का दवई बतांव तोला। केहे गे हे - धर-बांध के डउकी अउ तेला-बाती के लइका, नंदात-नंदात म नंदाथे। उलटा-पुलटा हो जाही ते बाय हो जाही रे भइ। सौ लगे के पचास, नांदगांव लेग अउ बने असन माईलोगन के डागदरिन ल देखा रे भाई, बच्चा के खातिर।’’

’’काला बतांव भइया, अंटी म फूटे कउड़ी नइ हे। सोचबे ते चेत ह बिचेत हो जाथे।’’

’’होयेच् के बात ए मुरहा। डागदर मन के फीस ह मार डरथे। दवा-बूटी के भाव झन पूछ, आगी लगे हे। एक तो कोनों आदमी ल गरीब घर जनम झन देय भगवान ह अउ देथे त बीमार झन करे। गरीब के बीमारी ल मौत के परवाना जान ले बाबू।’’ थोरके थिरा के फेर कहिथे मुसुवा ह - ’’आजकल के खवई-पियई, इलाज-पानी म लइका ह पेटे भीतर बने भोगा जाथे भइया। जचकी निभे म तकलीफ होथे, काबर के चैखट ह नान्हे परे धरथे। तहाँ ले सोज्झे आपरेसन म टेकाथें डागदर मन ह। दस-पंदरा हजार ह नइ बांचे। इही ल कहिथे - दुब्बर बर दू असाड़। बने जोरा करके राख बाबू, अउ भगवान ऊपर भरोसा राख। चिंता करे म काम नइ बनय। मुड़ी म आय हे काम ह, कइसनो करके निपटबे करही। ले बइठ, जेवन-पानी निपट, मंय ह जावत हंव, बच्चा के खातिर।’’

मुरहा ह मनेमन सोचथे, दुब्बर बर दू असाड़ कहत हे माहिल ह, बात म कोनो न कोनो रहस अवस होही। सार बात ल, जेकर नाव ले के ये ह आय हे वोला नइ खोलिस लागथे। चिरौरी करत किहिस - ’’बइठ न भइया, बइठ न। जाबेच् निही। दुब्बर बर दू असाड़ कहिथस, अउ कोनो बात हे तइसे लागथे। बने समझा के बता न भइया। अइसने बिसकुटक वाले बात ह हमर जइसे अड़हा मन के मुड़ी म नइ समाय।’’

रेंगे बर ठाड़ हो गे रहय मुसुवा ह, अतकच् ल तो खोजत रहय। दांव ह पड़ गे। धरालका फेर बइठ गे। फुसफुसाय कस कहिथे - ’’तब तंय ह सिरतोनेच् म नइ जानस जी, कुछु बात ल? गाँव म कइसन-कइसन गोठ होवत हे तोर बारे म तउन ल।’’

मुसुवा के बात ल सुन के मुरहा के सांस ह अटके कस हो गे। बड़ मुसकिल म मुँहू ह उलिस। कहिथे - ’’मोर बारे म? मंय तो कुछुच् नइ जानव भइया। का बात होवत हे, बने फोर के बता न।’’

मुसुवा ह कहिथे - ’’हत् बइहा! आरूग भकला हस जी। बने-बने म बहू बेटा वाले हो जाय रहितेस। लइका नइ हस। सुन, भइया, तोला अपन भाई जान के कहत हंव। गरीब के संगी गरीबेच् ह होथे, नइ ते हमला का करना रिहिस हे रे भइ।’’ थोरिक थिरा लिस तहाँ फेर कहिथे - ’’तुंहर जात वाले मन ह, पार वाले मन ह का कहत हे थोरकोच् नइ जानस न?’’

जात वाले अउ पार वाले के बात ल सुन के मुरहा ल रोवासी आ गे। हे भगवान! जात-बिरादरी वाले मन के कोन जानी का बिगाड़ कर परे हंव ते। कहिथे - ’’मंय तो कुछुच् बिगाड़ नइ करे हंव भइया जात-बिरादारी वाले मन के। का कहत हें? बता न।’’

’’सही गलत के बात ल तंय ह बताबे मुरहा, हमर तो सुनती बात ए रे भइ का सही, का गलत। परमान मांगबे ते कहाँ ले लाहूँ भला। भगवान ह लबारी मारे के पाप झन कराय। धरम-अधरम, पाप-पुन, सरग-नरक ह सबो बर होथे भइया, अधरम ले बच के रहना चाही। कोनो ह कहि दिस मुरहा! कि कंउवा ह कान ल ले गे, त पहिली कान ल टमड़ के देख लेना चाही। कंउवा के पीछू नइ भागना चाही। बच्चा खातिर। सुनत हस नहीं जी? तोर ले बगरी भात खाने वाले हे तोर पार वाले मन ह। भात नइ खवाबे ते जात बाहिर कर दिहीं। इही बात तो आय भाइया। अउ वोती लीम के डंगाली म करेला के नार ह चढ़ के इतरावत हे। जानेस न? वो बेड़जत्ता महराज; कहत रिहिस हे, ....’’

’’संपत महराज ह? का कहत रिहिस भइया।’’

’’कोन जानी वोकर का बिगाड़ कर परे हस ते, तिहीं ह जानबे रे भइ। जहू-तहू कहत फिरत हे। तोर बारे म कहत रिहिस कथे कि - ’कोनो घला ईज्जतदार आदमी ल बदनाम करत फिरत हे। वोला गाँव बाहिर करना हे। भतबहिरी करे बिना वोकर चेत ह नइ चढ़े।’ अब कारण का हे तउन ल तंय जान, का वोकर बेईज्जती करे हस ते। बड़े आदमी, कहत हे ते जरूर कर के बताही, तोला गाँव ले बहिर करवाइच् दिही। सोच ले, जात बाहिर हो के, गाँव बाहिर हो के आदमी ह के दिन ले अलग रहि सकथे जी। अउ आगू म तोर अतका बड़ काम खड़े हे, पहाड़ बराबर। विही पाय के आय हंव भइया, अपन जान के कि नइ जानत होही ते सावचेती कर देथों कहि के। बच्चा के खातिर।’’

सुन के मुरहा राम के चेत हरा गे। भाखा नइ निकलिस।

मुसुवाच् ह कहिथे - ’’अउ तुंहर पार वाले, जात-बिरादरी वाले मन ल उचकइया घला तो विहिच् हरे। जमगरहच् छांद-बांध डरे हे, बेड़जत्ता ह। अउ वोकरेच् तो चलती हे इहाँ। ये गाँव म विहिच होही, जइसन वो बेड़जत्ता ह कहि दिही। वोकर बात के उदेली करइया इहाँ कोन हे भइया।’’

मुरहा के आँखी आगू धुंधरा छा गे।

मुसुवच् ह कहिथे - ’’कोनो बातिक-बाता होय हे का जी तोर संग वोकर।’’

मुरहा ह रोनहू हो के कहिथे - ’’तंय तो जानतेच हस भइया। सरी गाँव ह जानथे; गाँव के कते बहू-बेटी ऊपर नान्हे नीयत नइ करत होही अँखफुट्टा ह। तोर छोटकी बहू ह वो दिन कहत रिहिस, - रद्दा लगे न बाट, जब देखबे तब, बेलबेलात रहिथे, हाथ बंहा ल तको धरे के उदिम करत रहिथे। अब तिही बता भइया, अइसन बात ल कोन ह सहही। मोला तो वोकर सूरत देखे के मन नइ होय, साले नीच के।’’

मुसवा ह आखिरी दांवा फेंकिस - ’’इहिच बात होही मुरहा। बात के बतंगड़ बने म कतका टेम लगथे। तोर जात-पार वाले मन इही पाय के उमिहांय होही। अब तंय जान भइया अउ तोर करम जाने। अपन बचाव बर तोर तीर कोनों अवाही-गवाही हे कि नइ हे तेला तंय जान। मोर धरम ल मंय निभा देंव। सावचेती करना रिहिस, कर देंव। ले बइठ, अब चलथों।’’

’’तंही ह कुछू रद्दा बता भइया। मोला तो चारों खूँट अँधियारेच् अँधियार दिखत हे। का करँव, का नइ करँव।’’ आखिर म हार खा के मुरहा ह कहिथे।

’’सियान मन ह कहिथें, मरे ले टरे बने। कुछू खुराजमोगी करे के कोसिस ह बेकार हे भइया। बंद मुट्ठी लाख के, खुले म खाक के। जबान खोले म अपने फजीहत हे। दुनिया के चलन हे, लोगन ह गिरे ल अउ गिराथें। समरथ आदमी ल कोनों दोस नइ देवंय। कहाँ ले साखी-गवाही लाबे। कोन ह तोर सुती खाही। वोकर ले माफी मांग लेबे, इही म भलाई दिखथे मोला।’’

’’जहर खा लेहूँ भइया, नइ ते कोनों डहर जा के फाँसी लगा लेहूँ; फेर वो नीच के पाँव नइ परंव।’’
मुरहा ह अपन फैसला सुना दिस।

मुसुवा ह थेरिक उपिक के कहिथे - ’’सियान मन कळिथें मुरहा! रीस खाय बुध ल, अउ बुध खाय परान ल। 

नादान मत बन, भइया। मूरख मन सरीख मत गोठिया तंय ह। तोला फाँसी म झूल जा केहे बर आय हंव जी। मर जाहूँ कहिथस। तोर पीछू अतेक बड़ परिवार हे, चैंथा पन म दाई के का हाल होही? दू-दू झन आधासीसी बाई हे, काली-परोन दिन तोर अँगना म खेलइया तोर नान-नान लइका आ जाहीं। काकर भरोसा छोंड़ के मरबे ये मन ल? कुछू सोचे हस। अउ मरिच् जाबे ते काकर काला लेग जाबे? अरे! जीयत रहिबे ते एक न एक दिन तोरो बारी आही। सब दिन होहि न एक समाना, एक बरोबर नइ रहय भइया सबके दिन ह। भगवान ह सब ल अवसर देथे। मुसीबत के समय आदमी ल केछवा धरम अपनाना चाही। मुसीबत परे म केछवा ह कइसे खोल म अपन मुड़ी-कान ल तोप लेथे, नइ देखे हस? आगू तंय जान भइया। अब मंय ह जावत हंव। मोर बात ल बने असन बिचार करके देख लेबे। बेफिकर रह। ले बइठ, जेवन-पानी नइ होय होही ते खा-पी। जावत हंव।’’

अतका कहिके मुसुवा ह ठुठवा बिड़ी ल सुपचावत अउ अपन सटका लउठी ल फटकारत गली कोती रेंग दिस।
000
कुबेर

चित्र कथा

1. विज्ञान की दुनिया में हमारी बेटियों की उड़ान

2. हमारी शान-हमारी जान - तिरंगा, जय स्तंभ चैक, राजनांदगाँव

सोमवार, 10 मार्च 2014

समाचार

साकेत का वार्षिक सम्मान समारोह संपन्न

हाना विमर्श

23 फरवरी 2014 को गंडई पंडरिया में साकेत साहित्य परिषद् सुरगी का पंद्रहवाँ सम्मान समारोह एवं वैचारिक संगोष्ठी का आयोजन सांस्कृतिक संस्था दूधमोंगरा के सहयोग से यिा गया जिसकी अध्यक्षता प्रगतिशील विचारधारा के सुप्रसिद्ध समालोचक-साहित्यकार डाॅ. गोरेलाल चंदेल (खैरागढ़) ने किया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध भाषाविद्, साहित्यकार व संपादक डाॅ. विनय कुमार पाठक (बिलासपुर) एवं विशिष्ट अतिथि डाॅ. जीवन यदु, डाॅ. दादूलाल जोशी, डाॅ. पीसीलाल यादव, डाॅ माघीलाल यादव, आ. सरोज द्विवेदी, श्री हीरालाल अग्रवाल, सुरेश सर्वेद तथा डाॅ. सन्तराम देशमुख थे। प्रारंभ में परिषद् के कोषाध्यक्ष लखन लाल साहू ’लहर’ ने संस्था का वार्षिक प्रतिवेदन तथा स्वागत भाषण प्रस्तुत किया। 

’छत्तीसगढ़ी जनजीवन पर हाना का प्रभाव’ विषय पर केन्द्रित संगोष्ठी के प्रारंभ में आधार वक्तव्य देते हुए परिषद् के संरक्षक कथाकार कुबेर ने कहा कि छत्तीसगढ़ी भाषा में मुहावरों, कहावतों और लोकोक्तियों को ’हाना’ कहा जाता है। हाना न केवल छत्तीसगढी भाषा की प्राण है अपितु यह इस भाषा का स्वभाव और श्रृँगार भी है। आम बोलचाल में छत्तीसगढ़ियों का कोई भी वाक्य हाना के बिना पूर्ण नहीं होता। कभी-कभी तो पूरी बात ही हानों के द्वारा कह दी जाती है। छत्तीसगढ़ी हाना लक्षणा के अलावा व्यंजना शब्द शक्ति तथा अन्योक्ति अलंकार से युक्त होती है। 

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डाॅ. विनय पाठक ने कहा कि कहा हाना पूर्णतः अपने परिवेश और जनजीवन पर आधारित होते हैं। एक ऊक्ति है - ’कानून अंधा होता है।’ छत्तीसगढ़ में लोग कहते हैं - ’कानून होगे कनवा अउ भैरा होगे सरकार।’ यह लोक की निरीक्षण शक्ति से उत्पन्न ऊक्ति है, जो कहीं अधिक मारक और तथ्यपरक है। लोकमान्यता में कानून अंधा नहीं बल्कि काना होता है जिसकी खुली आँख निम्न वर्ग की ओर और बंद आँख उच्च वर्ग की ओर रहती है। आजकल शोधार्थियों द्वारा शब्दकोश से किसी हाना का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद करके प्रस्तुत करने का गलत प्रचलन बढ़ रहा है। ’ऊँट के मुँह म जीरा’ इसका उदाहरण है। छत्तीसगढ़ में न तो ऊँट होते हैं और न ही जीरा। इस आशय का छत्तीसगढ़ी हाना है ’हाथी के पेट म सोहारी।’ साकेत साहित्य परिषद ने हाना का संकलन व इस पर संगोष्ठियों की शुरूआत कर सराहनीय कार्य किया है।

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में डाॅ. गारेलाल चंदेल ने कहा कि हाना लोकभाषा और लोकजीवन के गाढ़े अनुभव से पैदा होते हैं। वस्तुतत्व को अतिशय प्रभाव से प्रस्तुत करने की कला ही हाना है। इसमें अनुभव और निरीक्षण, दोनों ही प्रभावी ढंग से परिलक्षित होते हैं। हाना में निश्चित ही व्यंजना होती है जिसके प्रभाव से यह अपने परिवेश से निकलकर वैश्विक रूप धारण कर लेता है। एक हाना है - ’कोढ़िया बइला रेंगे नहीं, रेंगही त मेड़ फोर।’’ यह हाना ग्राम्य परिवेश में जितना सार्थक है उतना आज के तथाकथित बाहुबलियों और महाशक्तियों की राष्ट्रीय और वैश्विक परिवेश के लिए भी सार्थक है। 

हाना बनने की स्वाभाविक प्रक्रिया और शब्द शक्तियों के अंतर्संबंधों को हीरालाल अग्रवाल ने रोचक प्रसंगों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा; डाॅक्टर जब मरीज से पूछता है - ’’तोला कइसे लागत हे?’’ तब मरीज जवाब देता है - ’’कइसे, कइसे लागत हे।’’ डाॅक्टर और मरीज के शब्द ’कइसे लागत हे’ एक जैसे हैं, पर मरीज का जवाब, ’’कइसे लागत हे’’ एक हाना बन जाता है। ठीक वैसे ही जैसे - ’’ऐसे-वैसे कैसे-कैसे हो गए। कैसे-कैसे, कैसे-कैसे हो गए।’’ 

आचार्य सरोज द्विवेदी ने कहा कि यदि मैं कहूँ - ’’एक रूपया चाँऊर’’ तो आपको इशारा समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी और आजकल ’’पप्पू’’ और फेंकू’’ का क्या मतलब है, इसे भी आप बखूबी जानते हैं। हाना ऐसे ही बनते है। 

डाॅ. जीवन यदु ने कहा कि हाना प्रथमतः भाषा का मामला है। इसमें देश, समाज और अर्थतंत्र के अभिप्राय निहित होते हैं।

 डाॅ. दादूलाल जोशी ने कहा कि हाना में ’सेंस आॅफ ह्यूमर’ होता है, इसीलिए हाना में कही गई बातों का लोग बुरा नहीं मानते हैं। 

यशवंत मेश्राम ने कहा कि हाना में ’हाँ’ और ’न’ अर्थात स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता दोनों निहित होते हैं। हाना की अर्थ-संप्रेषणीयता और मारकता इन्हीं दोनों के समन्वित प्रभाव से आती है। 

प्रारंभ में डाॅ. पीसीलाल यादव ने रोचक कहानियों के द्वारा ’जिसकी लाठी उसकी भैंस,’ ’आँजत-आँजत कानी होना’ तथा ’पान म दरजा हे फेर हमर म नहीं’, जैसे हानों के बारे में बताया। 

सम्मान की कड़ी में श्री बी.डी.एल श्रीवास्तव, श्री द्वारिका यादव तथा श्री नन्द कुमार साहू को 2014 का साकेत सम्मान प्रदान किया गया। इस अवसर पर हाना पर केन्द्रित पत्रिका ’साकेत स्मारिका 2014’ तथा कथाकार-संपादक सुरेश सर्वेद की छत्तीसगढ़ी कहानियों का संग्रह ’बनकैना’ का विमोचन भी किया गया। काय्रक्रम का संचालन ओमप्रकाश साहू ’अंकुर’ ने तथा आभार प्रदर्शन परिषद के अध्यक्ष थनवार निषाद ’सचिन’ ने किया। हाना पर केन्द्रित इस महत्वपूर्ण संगोष्ठी के लिए सभी अतिथियों ने साकेत साहित्य परिषद् सुरगी के प्रयासों को सराहा जिसके माध्यम से इतनी गहन व सार्थक परिचर्चा संभव हो सकी। संगोष्ठी में साकेत साहित्य परिषद के वीरेन्द्र तिवारी ’वीरू’, महेन्द्र बधेल, फागूदास कोसले, फकीर प्रसाद साहू ’फक्कड़’, पवन यादव,  राजकमल सिंह राजपूत तथा बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। कार्यक्रके दूसरे सत्र में कविगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसका संचालन वीरेन्द्र तिवारी ’वीरू’ ने किया।
000
kuber
9407685557

आलेख

साहित्य की वाचिक परंपरा कथा-कंथली: लोक जीवन का अक्षय ज्ञान कोश 

समग्र साहित्यिक परंपराओं पर निगाह डालें तोे वैदिक साहित्य भी श्रुति परंपरा का ही अंग रहा है। कालांतर में लिपि और लेखन सामग्रियों के आविष्कार के फलस्वरूप इसे लिपिबद्ध कर लिया गया क्योंकि यह शिष्ट समाज की भाषा में रची गई थी। श्रुति परंपरा के वे साहित्य, जो लोक-भाषा में रचे गये थे, लिपिबद्ध नहीं हो सके, परंतु लोक-स्वीकार्यता और अपनी सघन जीवन ऊर्जा के बलबूते यह आज भी वाचिक परंपरा के रूप में लोक मानस में गंगा की पवित्र धारा की तरह सतत प्रवाहित है। लोक मानस पर राज करने वाले वाचिक परंपरा की इस साहित्य का अभिप्राय निश्चित ही, और अविवादित रूप से, लोक-साहित्य ही हो सकता है।
लोक जीवन में लोक-साहित्य की परंपरा केवल मन बहलाव, मनोरंजन अथवा समय बिताने का साधन नहीं है; इसमें लोक-जीवन के सुख-दुख, मया-पिरीत, रहन-सहन, संस्कृति, लोक-व्यवहार, तीज-त्यौहार, खेती-किसानी, आदि की मार्मिक और निःश्छल अभिव्यक्ति होती है। इसमें प्रकृति के रहस्यों के प्रति लोक की अवधारण और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए उसके सहज संघर्षों का विवरण; नीति-अनीति का अनुभवजन्य तथ्यपरक अन्वेशण और लोक-ज्ञान का अक्षय कोश निहित होता है। लोक-साहित्य में लोक-स्वप्न, लोक-इच्छा और लोक-आकांक्षा की स्पष्ट झलक होती है। नीति, शिक्षा और ज्ञान से संपृक्त लोक-साहित्य लोक-शिक्षण की पाठशाला भी होती है। यह श्रमजीवी समाज के लिए शोषण और श्रम-जन्य पीड़ाओं के परिहार का साधन है। यह लिंग, वर्ग, वर्ण और जाति की पृष्ठभूमि पर अनीति पूर्वक रची गई सामाजिक संरचना की अमानुषिक परंपरा के दंश को अभिव्यक्त करने की, इस परंपरा के मूल में निहित अन्याय के प्रति विरोध जताने की शिष्ट और सामूहिक लोकविधि भी है। जीवन यदि दुःख, पीड़ा और संघर्षों से भरा हुआ है तो लोक-साहित्य इन दुःखों, पीड़ाओं और संघर्षों के बीच सुख का, उल्लास का और खुशियों का क्षणिक संसार रचने का सामूहिक उपक्रम है। लोक-साहित्य सुकोमल मानवीय भावनाओं की अलिखित मर्मस्पर्षी अभिव्यक्ति है, जिसमें कल्पना की ऊँची उड़ानें तो होती है, चमत्कृत कर देने वाली फंतासी भी होती है।

लोक-साहित्य मानव सभ्यता की सहचर है। इसकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई होगी, यह अनुमान और अनुसंधान का विषय है, परंतु एक बात तय है कि इसकी उत्पत्ति और विकास उतना ही प्राकृतिक, सहज, और अनऔपचारिक है जितना कि मानवीय सभ्यता की उत्पत्ति और विकास। लोक-कथाएँ, लोक-गाथाएँ, लोक-गीत तथा लोकोक्तियाँ, लोक-साहित्य के विभिन्न रूप हैं। लोक-साहित्य में लोक द्वारा स्वीकार्य पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंगों का, पौराणिक पात्रों सहित ऐतिहासिक लोक-नायकों के अदम्य साहस, शौर्य और धीरोदात्त चरित्र का, अद्भुत लोकीकरण भी किया गया है। शिष्ट साहित्य का लोकसाहित्य में यह संक्रमण सहज और लोक ईच्छा के अनुरूप ही होता है। लोक साहित्य का नायक आवश्यक नहीं कि मानव ही हो; इसका नायक कोई मानवेत्तर प्राणी भी हो सकता है।

लोक-कथाओं की उत्पत्ति, उद्देश्य और अभिप्रायों को समझने के लिए यहाँ पर कुछ लोक-कथाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। आदिवासी अंचल में प्रचलित इस लोककथा की पृष्ठभूमि पर गौर करें -
चिंया अउ साँप

जंगल म बर रुख के खोड़रा म एक ठन सुवा रहय। ़़एक दिन वो ह गार पारिस। गार ल रोज सेवय। एक दिन वोमा ले ननाचुक चिंया निकलिस। सुवा ह चारा लाय बर जंगल कोती गे रहय। एक ठन साँप ह चिंया ल देख डरिस। चिंया तीर आ के कहिथे - ’’मोला गजब भूख लागे हे, मंय ह तोला खाहूँ।’’

चियां ह सोंचिस, अब तो मोर परान ह नइ बांचे। मोर मदद करइया घला कोनों नइ हें। ताकत म तो येकर संग नइ सक सकंव, अक्कल लगा के देखे जाय।

चिंया ह कहिथे - ’’अभी तो मंय ह नानचुक हंव नाग देवता; तोर पेट ह नइ भरही। बड़े हो जाहूँ, तब पेट भर खा लेबे।’’

साँप ल चिंया के बात ह जंच गे। वो ह वोकर बात ल मान तो लिस अउ वो दिन वोला छोड़ तो दिस फेर लालच के मारे वो ह रोज चिंया तीर आय अउ खाय बर मुँहू लमाय। चिंया ह रोजे वोला विहिच बात ल कहय - ’’अभी तो मंय ह नानचुक हंव; तोर पेट नइ भरही। बड़े हो जाहूँ, तब पेट भर खा लेबे।’’

अइसने करत दिन बीतत गिस। धीरे-धीरे चिंया के डेना मन उड़े के लाइक हो गे।

एक दिन साँप ह कहिथे - ’’अब तो तंय बड़े हो गे हस। आज तोला खा के रहूँ।’’

चिंया ह किहिस - ’’खाबे ते खा ले।’’ अउ फुर्र ले उड़ गे।

साँप ह देखते रहिगे।
0
शिल्प, विषय, उद्देश्य और लोकसंम्पृक्तता की दृष्टि से छोटी सी यह लोककथा किसी भी शिष्ट कथा की तुलना में अधिक प्रभावोत्पादक और चमत्कृत कर देने वाली है। इस लोककथा में लोककथा के अभिप्रायों और संदर्भों का सूक्ष्मावलोकन करने पर अनेक प्रश्न पैदा होते है और इन्हीं अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर में कई अनसुलझे तथ्यों का खुलासा भी स्वमेव हो जाता है।
इस लोककथा में निहित निम्न बातें ध्यातव्य हैं -

1. इस लोककथा का नायक एक सद्यजात चूजा है जिसकी अभी आँखें भी नहीं खुली हैं। यहाँ पर नायक कोई धीरोदात्त मानव चरित्र नहीं है।

2. इस लोककथा का प्रतिनायक भी मानवेत्तर चरित्र है लेकिन वह नायक की तुलना में असीम शक्तिशाली है।

3. इस लोककथा में वर्णित घटना से पृथ्वी पर जैव विकास से संबंधित डार्विन के प्रसिद्ध सिद्धांत ’ओरजिन आफ द स्पीसीज बाई द मीन्स आफ नेचुरल सलेक्सन’ की व्याख्या भी की जा सकती है। ध्यातव्य है कि इस लोककथा का सृजन डार्विन के विकासवाद के अस्तित्व में आने से हजारों साल पहले ही हो चुकी होगी।

4. इस लोककथा में वर्णित घटना प्रकृति के जीवन संघर्ष की निर्मम सच्चाई को उजागर करती है। हर निर्बल प्राणी किसी सबल प्राणी का आहार बन जाता है। यह न सिर्फ प्रकृति का नियम है अपितु प्रकृति द्वारा तय किया गया खाद्य श्रृँखला भी है।

5. प्रकृति में जीवन संघर्ष की लड़ाई प्राणी को अकेले और स्वयं लड़ना पड़ता है।

6. जीवन संघर्ष की लड़ाई में शारीर बल की तुलना में बुद्धिबल अधिक उपयोगी है।

7. विपत्ति का मुकाबला डर कर नहीं, हिम्मत और आत्मविश्वास के साथ करना चाहिये।

8. जीत का कोई विकल्प नहीं होता। दुनिया विजेता का यशोगान करती है। इतिहास विजेता का पक्ष लेता है। विजेता दुनिया के सारे सद्गुणों का धारक और पालक मान लिया जाता है।

9. दुनिया का सारा ऐश्वर्य, स्वर्ग-नर्क, धर्म और दर्शन जीतने वालों और जीने वालों के लिए है। जान है तो जहान है। अतः साम, दाम, दण्ड और भेद किसी भी नीति का अनुशरण करके जीतना और प्राणों की रक्षा करना ही सर्वोपरि है।

इस लोककथा से कुछ सहज-स्वाभाविक प्रश्न और उन प्रश्नों के उत्तर भी छनकर आते है, जो इस प्रकार हैं -

1. ऐसे सार्थक और प्रेरणादायी कहानी के सृजन की प्रेरणा लोक को किस प्राकृतिक घटना से मिली होगी?

कथासर्जक ने अवश्य ही किसी निरीह चूजे को, किसी शक्तिशाली साँप का निवाला बनाते और अपनी प्राण रक्षा हेतु तड़पते हुए देखा होगा। इस धरती का हर प्राणी हर क्षण प्रकृति के साथ जीवन संघर्ष की चुनौतियों से गुजर रहा होता है। इस लोककथा का सर्जक भी इसका अपवाद नहीं हो सकता। उसने साँप की जगह नित्यप्रति उपस्थित प्राकृतिक आपदाओं को, प्रकृति की असीम शक्तियों को तथा प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए स्वयं को, चूजे की जगह कल्पित किया होगा और परिणाम में इस प्रेरणादायी लोककथा का सृजन हुआ होगा।
2. विभिन्न लोक समाज में प्रचलित लोककथाओं की विषयवस्तु का प्रेरणा-स्रोत क्या हैं?

जाहिर है, लोककथा की विषयवस्तु अपने पर्यावरण से ही प्रेरित होती है। यही वजह है कि वनवासियों में प्रचलित अधिकांश लोककथाओं का नायक कोई मानवेत्तर प्राणी होता है। वहीं राजसत्ता द्वारा शासित लोक की लोककथाओं का नायक कोई राजा, राजकुमार अथवा राजकुमारी होती है। मनुवादी सामाजिक व्यवस्था का दंश झेलने वाले लोक की लोककथाओं में इस व्यवस्था से प्रेरित शोषण के विरूद्ध प्रतिकार के प्रतीकात्मक स्वर सुनाई देते हैं। पुरूष प्रधान समाज में नारियों की स्थिति सदा ही करुणाजनक रही है। अतः नारी चरित्र प्रधान लोककथाओं में (अन्य लोक साहित्य में भी) नारी मन की अभिव्यक्ति और उनकी वेदनाओं का वर्णन प्रमुख होता है। आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक शोषण से शोषित लोक की कथाओं में शोषण तथा शोषक वर्ग के प्रति कलात्मक रूप में प्रतिकार के स्वर मुखर होते है।

3. लोककथा-सर्जक को क्या अशिक्षित मान लिया जाय?

लोककथा-सर्जक, आधुनिक संदर्भों में, अक्षर-ज्ञान से वंचित होने के कारण, जाहिर तौर पर अशिक्षित हो सकता है। परंतु पारंपरिक अर्थों में न तो वह अशिक्षत होता है और न ही अज्ञानी होता है। उसकी शिक्षा प्रकृति की पाठशाला में संपन्न होती है। लोककथा-सर्जक प्राकृतिक कार्यव्यवहार रूपी विशाल फलक वाली खुली किताब का जितना विशद् अध्ययन किया होता है, विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में वह सब संभव नहीं है। धर्म, दर्शन और नीतिशास्त्र, सबका उसे ज्ञान होता है।

धर्मोपदेशकों और धार्मिक आख्यानककारों द्वारा विभिन्न अवसरों पर, विभिन्न संदर्भों में अक्सर एक बोध कथा कही जाती है जो इस प्रकार है -

’चार वेद, छः शास्त्र, अउ अठारहों पुरान के जानने वाला एक झन महापंडित रिहिस। वोला अपन पंडिताई के बड़ा घमंड रहय। पढ़े-लिखे आदमी ल अपन विद्या के घमंड होइच् जाथे, अनपढ ह का के घमंड करही? अब ये दुनों म कोन ल ज्ञानी कहिबे अउ कोन ल मूरख कहिबे? पढ़े-लिखे घमंडी ल कि सीधा-सादा, विनम्र अनपढ़ ल?
एक दिन वो महापंडित ह अपन खांसर भर पोथी-पुरान संग डोंगा म नदिया ल पार करत रहय। डोंगहार ल वो ह पूछथे - ’’तंय ह कुछू पढ़े-लिखे हस जी? वेद-शास्त्र के, धरम-करम के, कुछू बात ल जानथस?’’

डोंगहार ह कहिथे - ’’कुछू नइ पढ़े हंव महराज? धरम कहव कि करम कहव, ये डोंगा अउ ये नदिया के सिवा मंय ह अउ कुछुच् ल नइ जानव। बस इहिच् ह मोर पोथी-पुरान आय।’’

महापंडित - ’’अरे मूरख! तब तो तोर आधा जिंदगी ह बेकार हो गे।’’

डोंगहार ह भला का कहितिस?

डोंगा ह ठंउका बीच धार म पहुँचिस हे अउ अगास म गरजना-चमकना शुरू हो गे। भयंकर बड़ोरा चले लगिस। सूपा-धार कस रझरिझ-रझरिझ पानी गिरे लगिस। डोंगा ह बूड़े लागिस। डोंगहार ह महापंडित ल पूछथे - ’’तंउरे बर सीखे हव कि नहीं महराज? डोंगा ह तो बस अबक-तबक डूबनेच् वाला हे।’’
सामने म मौत ल खड़े देख के महापंडित ह लदलिद-लदलिद काँपत रहय; कहिथे - ’’पोथी-पुरान के सिवा मंय ह अउ कुछुच् ल नइ जानव भइया।’’

डोंगहार ह कहिथे - ’’तब तो तोर पूरा जिनगी ह बेकार हो गे महराज।’’

     ’’पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
    ढाई आखर प्रेम का, पढ़े से पंडित होय।’

पंण्डित और पोथियों के ज्ञान को अव्यवहारिक और असार सिद्ध करते हुए, प्रेम की सार्थकता को प्रतिपादित करने वाली कबीर की इस ऊक्ति का समर्थन करती यह कथा यद्यपि शिष्ट समाज में, शिष्ट साहित्य में समादृत है, पर इसकी विषयवस्तु, शिल्प और अभिप्रायों पर गौर करें तो वास्तव में यह लोककथा ही है। पोथी-पुराणजीवी पंडित वर्ग स्वयं अपना उपहास क्यों करेगा? सत्य को अनावृत्त करने वाली यह कथा निश्चित ही लोक-सृजित लोककथा ही है। यह तो इस लोककथा में निहित जीवन-दर्शन की सच्चाई की ताकत है, जिसने पंडित वर्ग में अपनी सार्थकता सिद्ध करते हुए स्वयं स्वीकार्य हुआ। यदि विभिन्न पौराणिक संदर्भों और पात्रों ने लोक साहित्य में दखल दिया है, तो पौराणिक और शिष्ट साहित्य में भी लोक साहित्य ने अपनी पैठ बनाई है। उपर्युक्त लोककथा इस बात को प्रमाणित करता है। 

अपने पूर्वजों द्वारा संचित धन-संपति और जमीन-जायदाद को, जो कि धूप-छाँव की तरह आनी-जानी होती हैं, हम सहज ही स्वस्फूर्त और यत्नपूर्वक सहेजकर रखते हैं। लोककथाओं सहित संपूर्ण लोकसाहित्य भी हमारे पूवर्जों द्वारा संचित; ज्ञान, शिक्षा, नीति और दर्शन का अनमोल और अक्षय-कोश है। कंप्यूटर और इंटरनेट की जादुई दुनिया से सम्मोहित वर्तमान पीढ़ी स्वयं को इस अनमोल ज्ञान से वंचित न रखें।
000
kuber
9407685557

बुधवार, 5 मार्च 2014

कहानी

चढ़ौतरी का रहस्य


अभी-अभी हमारे गाँव में भागवत-कथायज्ञ संपन्न हुआ है। कम से कम मेरी जानकारी में तो ऐसा आयोजन यहाँ पहले नहीं हुआ है।

गाँव के बुजुर्ग बताते हैं कि चालीस-पैंतालीस साल पहले झाड़ू गौंटिया के पिताजी अंतू गौंटिया ने अपने पिताजी के वार्षिक श्राद्ध के अवसर पर ऐसा ही आयोजन करवाया था। उस यज्ञ से संबंधित बातें आज भी हमारे गाँव और आस-पास के गाँवों में किंवदंती के रूप में कही-सुनी जाती हैं। गाँव में डेरहा बाबा के पास उस यज्ञ से संबंधित किस्से-कहानियों का भंडार है। उस यज्ञ की कहानियाँ बताते हुए जैसे वे पुनः उसी काल म लौट जाते हैं। भक्ति भाव का अतिरेक होने  के कारण वे भावविभोर हो जाते हैं। उस यज्ञ का पूरा दृश्य उनकी नजरों के आगे जैसे जी उठते हैं। उनके अनुसार, बैसाख का महीना था, ग्रीष्म की तपन अपनी जवानी पर थी। ऊपर, आसमान से लू बरस रहा था, और नीचे जमीन तवे के समान तप रही थी। तब बाजार में न तो बड़े पैमाने पर शामियाने ही उपलब्ध थे और न ही कूलर आदि की सुविधा थी। वक्ता और श्रोताओं को इस मुसीबत से बचाना एक बड़ी चुनौती थी। और इसीलिये, बहुत सोच-विचार के बाद उस आयोजन के लिये सर्वसम्मति से आम-बगीचे का चयन किया गया था।

गाँव से कोस भर की दूरी पर कलकल करती हुई यहाँ की जीवनदायिनी नदी शिवनाथ बहती है। गरमी के दिनों में धारा सूख जाती है, परंतु थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थित दहरों में सुंदर काजर के समान निर्मल जल भरे होते हैं जिससे न केवल आदमी ही, समस्त पशु-पक्षी भी अपनी प्यास बुझाते हैं। नदिया के दोनों किनारों पर नजरों से ओझल होते तक कछार भूमि का सिलसिला है, और इसी कछार में आबाद हैं आम, अमरूद और जामुन जैसे फलदार वृक्षों के बगीचे। कई एकड़ कछार-भूमि में भोलापुर वालों के भी बगीचे आबाद हैं। जेठ की तपती दुपहरी में भी, जब लू के थपेड़े चलते हैं, यहाँ सुंदर ठंडी-ठंडी हवा चलती है। उस समय प्रकृति के इस कूलर के सामने आज के जमाने के सारे कूलर और ए. सी. बेकार थी। इसी बगीचे में व्यास-गद्दी लगाई गई थी।

इस बगीचे के आसपास आधा दर्जन गाँव बसे हुए हैं। सभी गाँवों के सारे महिला, पुरूष और बच्चे, कथा सुनने के लिए आये हुए मेहमानों के साथ, कथा सुनने के लिए उमड़ पड़ते थे। इन गाँवों में कोई ऐसा घर-परिवार नहीं रहा होगा जिनके यहाँ एक भी मेहमान न आया रहा होगा। साधू-सन्यासियों का गाँव-बस्ती से क्या लेना-देना। दस-बारह दिनों तक दर्जनों साधू-सन्यासियों की धूनी बगीचेे में ही लगती थी। बगीचे में दस-बारह दिनों तक दिन-रात मेले का माहौल बना हुआ था।

अपने पिता की आत्मा की मुक्ति के लिए अंतू गौटिया ने कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ा था। सबकी सलाह मानी। साधू-सन्यासियों की मन लगाकर सेवा किया। श्रद्धालु श्रोताओं की हर सुख-सुविधा का ध्यान रखा। कथा परायण के लिए काशी के जाने-माने पंडित को बुलाया गया था। अमृत-कथा के एक-एक शब्द लोगों तक पहुँचे इसके लिए नांदगाँव से बैटरी पर चलने वाले भोपू मंगाये गए थे। रात में उजाला करने के लिए दर्जनों पेट्रोमेक्स जलाई जाती थी। श्रद्धालु श्रोताओं के लिए भण्डारा खोला गया था। भण्डारे का चूल्हा नौ दिनों तक लगातार जलता हा। लोगों को और क्या चाहिए, प्रवचन के समय प्रवचन सुनना और बांकी समय सत्संग करना, वहीं रहना और वहीं खाना और खाली समय में अंतू गौटिया की जी भर कर तारीफ करना। कहते - ’’अंतू गंउटिया के सात पुरखा तर गे भइया ,संग म हमू मन अउ ये बगीचा के हजारों बेंदरा-भालू , चिरइ-चिरगुन मन घला तर गें।’’

डेरहा बाबा आगे बताते हैं कि प्रवचनकर्ता को उस यज्ञ के चढौतरी में चार कोल्लर (बैलगाड़ी) धान, दो कोपरा भर के नगदी, दर्जन भर दूध देने वाली गायें मिली थी। पंडित जी महराज बड़े खुश हुए थे। अंतू गौटिया को जी भर कर आशीष  दिया था। उनके पिता जी की आत्मा की मुक्ति के लिए ढेर सारी प्रार्थनाएँ की थी।
इस वर्ष इसी अंतू गौटिया के इकलौते वारिस झाड़ू गौटिया ने वैसा ही यज्ञ रचाकर पुरानी यादों को ताजा कर दिया है। इसके भी किस्से कम नहीं हैं।

साल भर पहले अंतू गौटिया परलोक गमन कर गए थे। इस साल उन्हीं की बरसी हुई थी और उन्हीं की आत्मा की मुक्ति के लिए यज्ञ का विधान किया गया था।

चालीस वर्ष कम नहीं होते हैं। जमाना बदल गया है। लोगों की सोच बदल गई है। परिस्थितियाँ बदल गई है। झाड़ू गौटिया गाँव में कम ही रहते हैं। बेटे-बहु अपने-अपने परिवार के साथ शहर में रहते हैं। एक बेटा डाॅक्टर है तो दूसरा सरकारी अधिकारी है। झाड़ू गौटिया भी अपने काम में व्यस्त रहते हैं। इस इलाके के बड़े नेताओं में से वे एक हैं, हमेशा उनका एक पैर रायपुर में रहता है तो दूसरा दिल्ली में। गाँव में रहना अब उनके लिय सजा से कम नहीं है।

गौंटिया बगीचा का, जहाँ चालीस साल पहले अंतू गौंटिया ने भगवत ज्ञान यज्ञ करवाया था, अब नामोंनिशान नहीं है। सारे फलदार वृक्ष कट चुके हैं और अब आबाद हो गए हैं वहाँ ईंट भट्ठे, जिनके दर्जनों चिमनियों से चैबीसों घंटे निकलते रहते हैं काले-कले धुएँ। इस धुएँ के करण बचेखुचे पेड़ अब अंतिम सांसे ले रहे हैं। ईंट ढुलाई करने वाले ट्रक और ट्रेक्टरों के टायरों से बगीचे की ओर जाने वाले धरसे  की जगह अब धूल से भरी कच्ची सड़क बन गई है जिस पर चलना मुश्किल हो गया है। वाहनों की शोरगुल और उड़ने वाले धूल से लोगों का जीना हराम हो गया है। बगीचे में रहने वाले सारे बंदर अब गाँव में बसेरा किए हुए हैं और खपरैलों का दुश्मन बने हुए हैं।

मनहर महराज इस गाँव और गौंटिया खानदान का खानदानी पुरोहित  है। इनके पिता जी माधो महराज का बड़ा मान-सम्मान था। अंतू गौंटिया के समय बगीचे में काशी वाले पंडित का भागवत ज्ञान यज्ञ इन्हीं की पुरोहिती में संपन्न हुआ था। बिदाई के समय काशी वाले पंडित जी ने इन्हे अपना शिष्य बनाया था। यज्ञ में बरन का काम माधो महराज ने ही किया था, अतः चढ़ौतरी में से उन्हें उनके हिस्से के रूप में खूब सारा सामान और रूपया भी मिला था। माधो महराज अब नहीं रहे। पुरोहिती का काम अब उनका इकलौता पुत्र मनहर महराज करता है। बगीचे में संपन्न होने वाले भागवत ज्ञान यज्ञ के समय मनहर महराज की अवस्था छोटी थी, फिर भी कुछ धुँधली यादें उनके भी दिमाग में बसी हुई हैं। अब इस साल जब अंतू गौंटिया की बरसी होने वाली है, मनहर महराज की इच्छा है कि अंतू गौटिया की आत्मा की मुक्ति के लिये एक बार फिर वैसा ही भागवत ज्ञान यज्ञ का आयोजन होे। धरम-करम के ऐसे कामों से ही तो नाम चलता है।

छः-सात महीना पहले से ही मनहर महराज छाड़ू गौटिया को समझाइश देते आ रहे हैं - ’’गंउटिया, आप मन के पिताजी ह बड़ धरमी चोला रिहिस हे। पूजा-पाठ अउ दान-धरम बर कोई कमी नइ करय। अपन पुरखा मन ल तारे बर कतका बड़ जग रचाय रिहिस हे। एक ठन कहानी बन गे हे। गाँव-गाँव म आज घला लोगन ये कहानी ल कहिथें अउ नाम लेथें। वइसने पुण्य कमाय के, नाम कमाय के अब आपके बारी हे। दिन लकठावत जात हे।’’
झाड़ू गौंटिया ठहरा नेता, नेतागिरी से फुरसत मिले तब न सोचे धरम-करम की बात। व्यवहारिक व्यक्ति हैं, हर काम नफा-नुकसान देखकर करते हैं। जिस काम में धेले भर का भी फायदा न हो, उस काम के लिये वे एक पैसा भी खर्च नहीं करते। रह गई आत्मा और मोक्ष की बात; उनका विश्वास है कि ऐसा कुछ नहीं होता। होता होगा भी तो अपनी बला से, ऐसी बातों में भला कोई अपना मगज क्यों खपाए, जिसके होने और न होने से पंडितों के सिवा और किसी को कोई फायदा न हो़ता हो। झाड़ू गौटिया तो केवल वही काम करता है जिससे नेतागिरी में उनका रुतबा बढ़े और जेब में चार पैसे आएँ। बेटों  और नाती-पोतों पर तो अधुनिकता का रंग चढ़ा हुआ है। उनकी नजरों में धर्मिक अनुष्ठानों पर खर्च करना निरा बेवकूफी है।

पर कहा गया है - ’समय होत बलवान’। ठीक उसी समय आम चुनाव होने वाला था। झाड़ू गौंटिया टिकिट की जुगाड़ में लगे हुए थे। उसके राजनीतिक बुद्धि में एक आइडिया आया - ’बरसी के महीना भर बाद चुनाव होने वाला है। जनता को लुभाने का इससे बड़ा मौका और कहाँ हाथ लगने वाला है। भागवत ज्ञान यज्ञ के नाम पर जितना अधिक प्रचार हो, जितनी अधिक जनता इकट्ठी हो, उतना ही बढ़िया है। पार्टी वालों को भी झाड़ू गौंटिया की लोकप्रियता का अंदाजा हो जायेगा, फिर तो टिकिट पक्की समझो। जीत गया तो छोटा-मोटा मंत्री बनना तय ही मानो।’

झाड़ू गौंटिया के मन में लड्डू फूटने लगे। यह बात बेटों-बहुओं और पोतों को समझाया गया। सबने बाप के सूझबूझ और दूरदर्शिता की तारीफ की। कहा - ’’वाह, डैडी वाह! आप तो सचमुच जीनियस हैं। एक तीर से क्या दो निशाना साधे हैं। राजनीति तो कोई आप से सीखे।’’

अब तो बरसी में केवल महीने भर का समय बचा है, तैयारी में और देरी करना उचित नहीं होगा। खबर भेजकर गाँव से मनहर महराज को बुलाया गया। तैयारी से संबंधित सारी बातों पर गहन चर्चा की हुई। मनहर महराज को हिदायत दी गई - ’’केवल अपने गाँव वालों को ही नहीं, आस-पास के भी गाँव वालों की भी इसमें सक्रिय सहभागिता जरूरी है। प्रचार-प्रसार में कोई कोर-कसर नहीं रहना चाहिये, धर्म का मामला है। बाप की आत्मा की मुक्ति का सवाल है। खर्चे की कोई चिंता नहीं, आयोजन शानदार होना चाहिये।’’

उसी दिन गाँव जाकर झाड़ू गौंटिया ने गाँव वालों के साथ मीटिंग किया। बैठक में पंच-सरपंच को बुलया गया, महिला स्वसहायता की महिलाओं को बुलाया गया, नवयुवक दल वालों को बुलाया गया, भजनहा मंडली के कलाकारों को बुलाया गया; साम-दाम, की नीति अपनाई गई और सब को साध लिया गया। समझाया गया कि आने वाला काम केवल झाड़ू गौंटिया का काम नहीं है। नाम होगा तो अकेले झाड़ू गौंटिया का ही नाम नहीं होगा, गाँव का भी नाम होगा। धरम का काम है, पुण्य अर्जित करने का मौका हाथ लगा है।

सब एकजुट हुए। अलग-अलग काम के लिये अलग-अलग समितियाँ बनाई गई और सबको यथायोग्य काम सौंपा गया।

कथावाचन के लिये बिंदावन से बहुत बड़े कथावाचक को आंत्रित किया गया। क्विंटल भर पेंफलेट और निमंत्रण कार्ड छपवाया गया, पोस्टर छपवाए गए। विधानसभा के अंतर्गत आने वाले सभी गाँवों के सभी परिवारों को निमंत्रण कार्ड भेजा गया।

अखबारों में रोज ही विज्ञापन छपने लगे। विज्ञापन होता था भागवत ज्ञान यज्ञ का लेकिन फोटो छपा होता छाड़ू गौंटिया का, पार्टी के बड़े नेताओं के साथ, अभिवादन की मुद्रा में दोनों हाथ जोड़े, बड़े ही मनमोहक मुद्रा में।

गौंटिया के पाँच एकड़ के बियारा को समतल करके गोबर से लीपा गया, शामियाना लगाया गया, भव्य मंच बनाया गया और मंच के आगे श्रोताओं के बैठने के लिये पुआल बिछाये गये।  विशिष्ट जनों के बैठने लिए विशेष व्यवस्था किया गया। शामियाने सहित पूरे गाँव को तोरन-पताकों से सजाया गया, बिजली के झालर और लाउडस्पीकर लगाए गए। श्रद्धालु-श्रोताओं को गर्मी से बचाने के लिए कूलर-पंखे लगाए गए और भण्डारा खोला गया।

नीयत तिथि में कथा-प्रसंग की शुरुआत हुई। हजारों की भीड़ जुटने लगी। बियारा से लगे हुए बाड़े में पार्टी कार्यालय भी खोला गया। रोज कोई न कोई नेता या मंत्री अपने लाव-लश्कर के साथ आने लगे। प्रवचन के समय प्रवचन होता और मध्यान्तर में नेताओं की सभा होती। 

श्रद्धालु-श्रोताओं की भीड़ देखकर कथावाचक महराज बड़े खुश थे, अच्छी-खासी चढौतरी मतलब साल भर की कमाई एक ही बार में जो होने होने वाली थी।

बरन के आसन पर काबिज मनहर महराज भी बड़े खुश थे। अंक गणित में कमजोर होने के कारण भले ही वे आठवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाया था पर यहाँ उनकी अर्थ गणित एकदम ठीकठाक थी - ’नहीं-नहीं में भी लाख रूपय की चढ़ौतरी तो होगी ही। उनके हिस्से में कम से कम दस हजार तो जरूर आयेंगे ही। आने वाली बरसात के पहले घर के छप्पर की मरम्मत निहायत जरूरी है। और भी बहुतों की देनदारी है, सबका निवारण हो जायेगा।’

झाड़ू गौंटिया के घर के एक हिस्से को ही कथावाचक पंडित जी महराज और उनके साथ आये हुए संतजनों और साजिंदों के रहने के लिए सजाया गया था। कथावाचक पंडित जी महराज बड़े ही सरल, मृदुभाषी, और मिलनसार व्यक्ति थे। यहाँ भी वे भक्तजनों से घिरे रहते थे। धर्मग्रंथों में वर्णित कई मिथकों और गूढ़ कथाप्रसंगों के बारे में वे प्रश्न करते और पंडित जी महराज कई तरह से उदाहरण दे-देकर उनकी शंकाओं का समाधान करते। सतसंग का सिलसिला रोज ही चलता।

झाड़ू गौंटिया और उनके समधी की जोड़ी राम-लखन की जोड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। घाट-घाट का पानी पीने वाला समधी जी आजकल एकाएक धार्मिक हो गए हैं। आमंत्रण मिलते ही पुण्य लाभ लेने के लिए वे भी पधारे हुए हैं। वे भी इस सतसंग मंडली में रोज उपस्थित रहते है। कथावाचक पंडित जी महराज की हर बात को बड़े ध्यान से सुनते हैं। समधी जी केवल सुनते ही नहीं हैं, गुनते भी हैं, पर पाँच दिन गुजर चुके हैं, अब तक उन्होंने कथावाचक पंडित जी महराज से एक भी प्रश्न नहीं पूछे हंै। समधी जी महराज के व्यक्तित्व को देखकर कथावाचक पंडित जी महराज ने अनुमान लगाया होगा कि इनके साथ संतसंग करने में आनंद आयेगा। पर अब उनको आश्चर्य होने लगा है कि ये महाशय कुछ भी क्यों नहीं पूछते। आज उनसे रहा नहीं गया, पूछा - ’’भगत जी, आप तो रोज ही सतसंग में आते हैं, पूछते कुछ भी नहीं हैं।’’

दुनिया को अपनी ही नजरों से देखने वाले घुटे हुए समधी जी  कहा - ’’कुछू संका होही ते जरूर पछूबोन देवता। अभी तो आप मन दू-चार दिन रहिहौच।’’

बड़े ही आनंद-मंगल के साथ छः दिन गुजर गये। सातवें दिन से ही कथावाचक पंडित जी महराज ने बातों ही बातों में श्रोताओं को ताकीद करना शुरू कर दिया, - ’’प्रिय भक्तों, अब तक आपने अमृत रूपी श्रीमद्भागवत कथा का पान किया है। कल भगवान के श्री चरणों में श्रध्दा-सुमन अर्पित कर पुण्य कमाने का दिन है। ऐसा अवसर जीवन में बार-बार नहीं आता, याद रखियेगा।’’

और फिर चड़ौतरी का दिन आ ही गया।

चढ़ौतरी देखकर कथावाचक पंडित जी महराज का मन खिन्न हो गया। कहाँ तो लाख रूपयों की आस लगाये बैठे थे, जबकि बमुश्किल चालीय हजार ही जुड़ सके। ऊपर से अपना हिस्सा मंगने मनहर महराज छाती पर चढ़े हुए हैं। काफी देर तक मोलभाव होता रहा पर सौदा पट नहीं पाया। मनहर महराज ने अपना अंतिम निर्णय सुना दिया, कहा - ’’पाँच हजार ले एक पइसा कम नइ हो सकय महराज जी। चरबज्जी उठ-उठ के पुरान के बाचन करे हंव। जोत के रात-दिन रखवारी करे हंव।’’

दोनों पंडितों में काफी कहासुनी हुई। नौबत कुस्ती की आ गई। अंत में झाड़ू गौटिया को ही अपनी ओर से कुछ ले देकर मामला सुलझाना पड़ा।

पंडितों को झगड़ते देख सारे सतसंगी खिसक गये थे, समधी जी कहाँ जाते? फिर मौका जो हाथ आया है। कथावाचक पंडित जी महराज सिर पकड़कर बैठे हुए थे। समधी जी भी पास ही बैठे हुए थे, मौका देखकर उन्होंने कथावाचक पंडित जी महराज से अपने मन की शंका के बारे में आखिर पूछ ही लिया - ’’पंडित देवता, अभिच मोर मन म एक ठन संका पैेदा होइस हे। आर्डर देतेव ते पूछतेंव।’’

कथावाचक पंडित जी महराज ने बनावटी हँसी हँस कर कहा - ’’पूछो भइ, ऐसा मौका रोज थोड़े ही आता है।’’ 
समधी जी ने पूछा  - ’’महराज! काली आप मन परबचन म कहत रेहेव, ’भगवान को दीनबंधु कहते हैं क्योंकि वह गरीबों से प्रेम करता है। गरीब ही भगवान के सबसे निकट होता है। धन संपत्ति तो ईश्वर के मार्ग की बाधाएँ हैं।’ फेर आज आपमन विही धन बर काबर अतिका दुखी हव?’’

सुन कर कथावाचक पंडित जी महराज अकबका गये। कहा - ’’हम तो आपको भक्त और ज्ञानी समझ रहे थे, पर तुम तो मूरख निकले। कहीं ऐसा भी प्रश्न पूछते हैं।’’

समधी जी ने हाथ जोड़कर कहा - ’’गलती हो गे महराज, छिमा करव। एक ठन प्रश्न अउ पूछत हंव, नराज झन होहू। काली आपे मन केहे हव कि सबले पहिली राजा परीक्षित ह श्रीमद्भागवत जग्य कराइस। सुकदेव मुनि ह ब्यास गद्दी म बइठ के कथा सुनाइस। राजा परीक्षित के मोक्ष होइस। अतकी बतातेव महराज, राजा परीक्षित ह वो जग्य म कतका धन, कतका रूपिया-पइसा चढ़ाय रिहिस। सुकदेव मुनि ह कतका धन दौलत अपन घर लेगे रिहिस? बरन संग पइसा के बटवारा बर का वहू ह अइसने झगरा होय रिहिस?’’

पहले से ही दुखी और क्रोधित कथावाचक पंडित जी महराज समधी जी का प्रश्न सुनकर दुर्वासा हो गए, बमकते हुए उन्होंने कहा - ’’मूरख! पंडित का अपमान करते हो। घोर नरक में जाओगे। पापी, दूर हो जा मेरी नजरों से। जानते नहीं, ब्राह्मण जब शिखा खोल लेता है तब वह चाणक्य बन जाता है, और क्रोध आने पर दुर्वासा।’’

समधी जी अपने जीवन में अब तक न कभी किसी से दबां है और न ही कभी किसी से डरा है। कथावाचक पंडित जी महराज के इस रूप को देखकर वे हँस पड़े और नहले पर दहला मारते हुए उन्होंने कहा - ’’आप का-का बन सकथव और अभी का बन गे हव, देखतेच् हंव महराज। आप चाहे कुछू बनव, मोला कुछू फरक नइ पड़य। हाँ, मोर संका के समाधान जरूर हो गे अउ चढौतरी के रहस ल घला जान गेंव।’’
000
kuber
9407685557