गुरुवार, 13 मार्च 2014

उपन्यास के अंश

2- मुसुवा के केकरा चाला


संझउती समय बैसका के हांका पर गे।

सटका लउठी ल फटर-फटर बजावत अउ ठुठवा बिड़ी ल सिपचावत निकल गे मुसुवा राम ह अपन बिला ले। माड़ी के आवत ले धोती पहिरे हे, बदन म सलूखा हे अउ चैखाना वाले लाल रंग के जुन्नेटहा मुहा पटका ल पागा सरीख मुड़ म लपेटे हे। कान म जरहा बिड़ी खेंचाय हे। मुरहा राम के घर आगू पहुँच के वोकर सटका के बजई ह बंद होइस। बने असन खखार के नरी ल साफ करिस अउ हुंत कराइस - ’’सुत गेव का जी मुरहा राम।’’

गरमी के दिन। भीतर ह धमकी मारत रहय। मुरहा ह घर आगू खोर म खटिया जठा के बइठे रहय। बैसका के नाव सुन के वोकर मुँहू ह वइसने सुखा गे रहय, करेजा ह धकधक-धकधक करत रहय; मुसुवा के आरो पा के वोकर घिघ्घी बंधा गे। मनेमन किहिस - ’पहुँच गे माहिल ह। को जानी का चाल चले बर आय होही ते। हे भगवान, रक्षा करबे।’ जी ल कड़ा कर के कहिथे - ’’आ भइया बइठ। कते कोती ले आवत हस। चोंगी पी ले।’’ मुरहा ह छेना के आगी म बिड़ी सुपचा के वोकर कोती लमा दिस।

मुसुवा ह बीड़ी के बने दू-तीन कस खींच लिस अउ किहिस - ’’वाह! मजा आगे जी मुरहा, तोर बीड़ी म। हाथे के बनावल आवय तइसे लगथे।’’

’’मंहगाई के जमाना, गरीब के नून-मिरी बिसाय के ताकत नइ हे। बिड़ी-सिकरेट ल का बिसा सकबोन ददा। घरे म अलवा-जलवा अंइठ लेथन। अब तंय ह सुना रे भइ, कइसे आय हस।’’

’’हफ्ता लगे न पंदरही, फकत बैसका; फकत बैसका। मालिक मन के दबदबा, अउ धमकी-चमकी के देखे बैसका के नाव सुन के कंपकंपी धर लेथे भइया। जर धरे सही लागथे। कमजोर दिल के आदमी, का बतांव, छाती ह धकधिक-धकधिक करत हे। घर म मन ह उचाट लगिस ते खोर डहर निकले रेहेंव। तुंहर इहां काकी के गोठ के सुरता आ गे। आजे बिहिनिया केहे रिहिस - ’तंय तो जानतेच् हस नानचुक, कतका देखासुनी अउ तेलाबाती करे म भगवान ह बड़े बहू ल चीन्हे हे तउन ल। देय हस तइसे बने-बने निबटा घला देतेस भगवान, कहिके रात-दिन मनउती मनात रहिथव बाबू। दू-चार दिन हो गे हे, बहू के पांव ह फुलफुलहा-फुलफुलहा कस दिखत हे। आ के देख देतेस।’ विही बात के सुरता आ गे। तउने पाय के आय हंव भइया। बने-गिनहा के बात ल तुम जानो रे भइ। .... काकी के आरो नइ मिलत हे। सुत गे हे का?’’

’’दस-गियारा बजे बिना अतका गरमी म काकर नींद ह परही भइया। नंदगहिन काकी घर कोती बइठे-बुठाय बर गे होही। बड़की के गोड़ ह थोरिक उसवाय-उसवाय कस दिखथे, वोकरे बात ल बताय रिहिस होही।’’

’’आज के जमाना ह दवई-गोली के जमाना आय मुरहा। देसी जड़ी-बुटी के जमाना ह नंदा गे। का दवई बतांव तोला। केहे गे हे - धर-बांध के डउकी अउ तेला-बाती के लइका, नंदात-नंदात म नंदाथे। उलटा-पुलटा हो जाही ते बाय हो जाही रे भइ। सौ लगे के पचास, नांदगांव लेग अउ बने असन माईलोगन के डागदरिन ल देखा रे भाई, बच्चा के खातिर।’’

’’काला बतांव भइया, अंटी म फूटे कउड़ी नइ हे। सोचबे ते चेत ह बिचेत हो जाथे।’’

’’होयेच् के बात ए मुरहा। डागदर मन के फीस ह मार डरथे। दवा-बूटी के भाव झन पूछ, आगी लगे हे। एक तो कोनों आदमी ल गरीब घर जनम झन देय भगवान ह अउ देथे त बीमार झन करे। गरीब के बीमारी ल मौत के परवाना जान ले बाबू।’’ थोरके थिरा के फेर कहिथे मुसुवा ह - ’’आजकल के खवई-पियई, इलाज-पानी म लइका ह पेटे भीतर बने भोगा जाथे भइया। जचकी निभे म तकलीफ होथे, काबर के चैखट ह नान्हे परे धरथे। तहाँ ले सोज्झे आपरेसन म टेकाथें डागदर मन ह। दस-पंदरा हजार ह नइ बांचे। इही ल कहिथे - दुब्बर बर दू असाड़। बने जोरा करके राख बाबू, अउ भगवान ऊपर भरोसा राख। चिंता करे म काम नइ बनय। मुड़ी म आय हे काम ह, कइसनो करके निपटबे करही। ले बइठ, जेवन-पानी निपट, मंय ह जावत हंव, बच्चा के खातिर।’’

मुरहा ह मनेमन सोचथे, दुब्बर बर दू असाड़ कहत हे माहिल ह, बात म कोनो न कोनो रहस अवस होही। सार बात ल, जेकर नाव ले के ये ह आय हे वोला नइ खोलिस लागथे। चिरौरी करत किहिस - ’’बइठ न भइया, बइठ न। जाबेच् निही। दुब्बर बर दू असाड़ कहिथस, अउ कोनो बात हे तइसे लागथे। बने समझा के बता न भइया। अइसने बिसकुटक वाले बात ह हमर जइसे अड़हा मन के मुड़ी म नइ समाय।’’

रेंगे बर ठाड़ हो गे रहय मुसुवा ह, अतकच् ल तो खोजत रहय। दांव ह पड़ गे। धरालका फेर बइठ गे। फुसफुसाय कस कहिथे - ’’तब तंय ह सिरतोनेच् म नइ जानस जी, कुछु बात ल? गाँव म कइसन-कइसन गोठ होवत हे तोर बारे म तउन ल।’’

मुसुवा के बात ल सुन के मुरहा के सांस ह अटके कस हो गे। बड़ मुसकिल म मुँहू ह उलिस। कहिथे - ’’मोर बारे म? मंय तो कुछुच् नइ जानव भइया। का बात होवत हे, बने फोर के बता न।’’

मुसुवा ह कहिथे - ’’हत् बइहा! आरूग भकला हस जी। बने-बने म बहू बेटा वाले हो जाय रहितेस। लइका नइ हस। सुन, भइया, तोला अपन भाई जान के कहत हंव। गरीब के संगी गरीबेच् ह होथे, नइ ते हमला का करना रिहिस हे रे भइ।’’ थोरिक थिरा लिस तहाँ फेर कहिथे - ’’तुंहर जात वाले मन ह, पार वाले मन ह का कहत हे थोरकोच् नइ जानस न?’’

जात वाले अउ पार वाले के बात ल सुन के मुरहा ल रोवासी आ गे। हे भगवान! जात-बिरादरी वाले मन के कोन जानी का बिगाड़ कर परे हंव ते। कहिथे - ’’मंय तो कुछुच् बिगाड़ नइ करे हंव भइया जात-बिरादारी वाले मन के। का कहत हें? बता न।’’

’’सही गलत के बात ल तंय ह बताबे मुरहा, हमर तो सुनती बात ए रे भइ का सही, का गलत। परमान मांगबे ते कहाँ ले लाहूँ भला। भगवान ह लबारी मारे के पाप झन कराय। धरम-अधरम, पाप-पुन, सरग-नरक ह सबो बर होथे भइया, अधरम ले बच के रहना चाही। कोनो ह कहि दिस मुरहा! कि कंउवा ह कान ल ले गे, त पहिली कान ल टमड़ के देख लेना चाही। कंउवा के पीछू नइ भागना चाही। बच्चा खातिर। सुनत हस नहीं जी? तोर ले बगरी भात खाने वाले हे तोर पार वाले मन ह। भात नइ खवाबे ते जात बाहिर कर दिहीं। इही बात तो आय भाइया। अउ वोती लीम के डंगाली म करेला के नार ह चढ़ के इतरावत हे। जानेस न? वो बेड़जत्ता महराज; कहत रिहिस हे, ....’’

’’संपत महराज ह? का कहत रिहिस भइया।’’

’’कोन जानी वोकर का बिगाड़ कर परे हस ते, तिहीं ह जानबे रे भइ। जहू-तहू कहत फिरत हे। तोर बारे म कहत रिहिस कथे कि - ’कोनो घला ईज्जतदार आदमी ल बदनाम करत फिरत हे। वोला गाँव बाहिर करना हे। भतबहिरी करे बिना वोकर चेत ह नइ चढ़े।’ अब कारण का हे तउन ल तंय जान, का वोकर बेईज्जती करे हस ते। बड़े आदमी, कहत हे ते जरूर कर के बताही, तोला गाँव ले बहिर करवाइच् दिही। सोच ले, जात बाहिर हो के, गाँव बाहिर हो के आदमी ह के दिन ले अलग रहि सकथे जी। अउ आगू म तोर अतका बड़ काम खड़े हे, पहाड़ बराबर। विही पाय के आय हंव भइया, अपन जान के कि नइ जानत होही ते सावचेती कर देथों कहि के। बच्चा के खातिर।’’

सुन के मुरहा राम के चेत हरा गे। भाखा नइ निकलिस।

मुसुवाच् ह कहिथे - ’’अउ तुंहर पार वाले, जात-बिरादरी वाले मन ल उचकइया घला तो विहिच् हरे। जमगरहच् छांद-बांध डरे हे, बेड़जत्ता ह। अउ वोकरेच् तो चलती हे इहाँ। ये गाँव म विहिच होही, जइसन वो बेड़जत्ता ह कहि दिही। वोकर बात के उदेली करइया इहाँ कोन हे भइया।’’

मुरहा के आँखी आगू धुंधरा छा गे।

मुसुवच् ह कहिथे - ’’कोनो बातिक-बाता होय हे का जी तोर संग वोकर।’’

मुरहा ह रोनहू हो के कहिथे - ’’तंय तो जानतेच हस भइया। सरी गाँव ह जानथे; गाँव के कते बहू-बेटी ऊपर नान्हे नीयत नइ करत होही अँखफुट्टा ह। तोर छोटकी बहू ह वो दिन कहत रिहिस, - रद्दा लगे न बाट, जब देखबे तब, बेलबेलात रहिथे, हाथ बंहा ल तको धरे के उदिम करत रहिथे। अब तिही बता भइया, अइसन बात ल कोन ह सहही। मोला तो वोकर सूरत देखे के मन नइ होय, साले नीच के।’’

मुसवा ह आखिरी दांवा फेंकिस - ’’इहिच बात होही मुरहा। बात के बतंगड़ बने म कतका टेम लगथे। तोर जात-पार वाले मन इही पाय के उमिहांय होही। अब तंय जान भइया अउ तोर करम जाने। अपन बचाव बर तोर तीर कोनों अवाही-गवाही हे कि नइ हे तेला तंय जान। मोर धरम ल मंय निभा देंव। सावचेती करना रिहिस, कर देंव। ले बइठ, अब चलथों।’’

’’तंही ह कुछू रद्दा बता भइया। मोला तो चारों खूँट अँधियारेच् अँधियार दिखत हे। का करँव, का नइ करँव।’’ आखिर म हार खा के मुरहा ह कहिथे।

’’सियान मन ह कहिथें, मरे ले टरे बने। कुछू खुराजमोगी करे के कोसिस ह बेकार हे भइया। बंद मुट्ठी लाख के, खुले म खाक के। जबान खोले म अपने फजीहत हे। दुनिया के चलन हे, लोगन ह गिरे ल अउ गिराथें। समरथ आदमी ल कोनों दोस नइ देवंय। कहाँ ले साखी-गवाही लाबे। कोन ह तोर सुती खाही। वोकर ले माफी मांग लेबे, इही म भलाई दिखथे मोला।’’

’’जहर खा लेहूँ भइया, नइ ते कोनों डहर जा के फाँसी लगा लेहूँ; फेर वो नीच के पाँव नइ परंव।’’
मुरहा ह अपन फैसला सुना दिस।

मुसुवा ह थेरिक उपिक के कहिथे - ’’सियान मन कळिथें मुरहा! रीस खाय बुध ल, अउ बुध खाय परान ल। 

नादान मत बन, भइया। मूरख मन सरीख मत गोठिया तंय ह। तोला फाँसी म झूल जा केहे बर आय हंव जी। मर जाहूँ कहिथस। तोर पीछू अतेक बड़ परिवार हे, चैंथा पन म दाई के का हाल होही? दू-दू झन आधासीसी बाई हे, काली-परोन दिन तोर अँगना म खेलइया तोर नान-नान लइका आ जाहीं। काकर भरोसा छोंड़ के मरबे ये मन ल? कुछू सोचे हस। अउ मरिच् जाबे ते काकर काला लेग जाबे? अरे! जीयत रहिबे ते एक न एक दिन तोरो बारी आही। सब दिन होहि न एक समाना, एक बरोबर नइ रहय भइया सबके दिन ह। भगवान ह सब ल अवसर देथे। मुसीबत के समय आदमी ल केछवा धरम अपनाना चाही। मुसीबत परे म केछवा ह कइसे खोल म अपन मुड़ी-कान ल तोप लेथे, नइ देखे हस? आगू तंय जान भइया। अब मंय ह जावत हंव। मोर बात ल बने असन बिचार करके देख लेबे। बेफिकर रह। ले बइठ, जेवन-पानी नइ होय होही ते खा-पी। जावत हंव।’’

अतका कहिके मुसुवा ह ठुठवा बिड़ी ल सुपचावत अउ अपन सटका लउठी ल फटकारत गली कोती रेंग दिस।
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कुबेर

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