सोमवार, 24 मार्च 2014

आलेख

गागर में सागर : छत्तीसगढ़ी हाना

डॉ. पी.सी. लाल यादव
साहित्य कुटीर, गंडई पंडरिया,
जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)
मो. 9424113122




भारतीय वांगमय में ''लोक'' का प्रयोग प्राचीन काल से हो रहा है। लोक का कोशगत शाब्दिक अर्थ, स्थान  विशेष, संसार, प्रदेश, जन या लोग, समाज प्राणी, यश आदि है। किन्तु ''लोक'' शब्द की गहराई में जाने पर इसका आशय उस विशेष जन-समूह से होता है जो साज-सज्जा, सभ्यता, शिक्षा परिष्कार आदि से कोसों दूर आदिम मनोवृत्तियों के अवशेषों से युक्त है। जिसमें प्रकृति के नैसर्गिंक सौंदर्य की दिव्य आभा है। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने लोक को परिभाषित करते हुए लिखा है कि ''लोक'' हमारे जीवन का महासमुद्र है, उसमें भूत, भविष्य वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है। लोक राष्ट्र का अमर स्वरूप है, लोक कृत्सन ज्ञान और सम्पूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसान। अर्वाचीन मानव के लिए लोक सर्वोच्च प्रजापति है।1  इसी लोक या जन समूह का साहित्य लोक साहित्य कहलाता है।

लोकसाहित्य लोक मानस की सहज सरल और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। लोकसाहित्य वाचिक परंपरा द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी मुखान्तरित होता रहता है और इसके अलिखित स्वरूप में ही विद्यमान रहता है। लोकसाहित्य का रचयिता अज्ञात रहता है। व्यक्ति विशेष की अभिव्यक्ति होकर भी समूह की वाणी पाकर वह सामूहिक अभिव्यक्ति का स्वरूप ले लेता है और व्यक्ति का अस्तित्व समूह में ही घुलमिलकर लोकमय हो जाता है। लोकसाहित्य लोकसंस्कृति का दर्पण होता है। शास्त्रीय रचना पद्धति और व्याकरिणक नियम से मुक्ति लोकसाहित्य की अनगढ़ता में ही सौंदर्य की सृष्टि होती है। अकृत्रिमता लोकसाहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है। लोक की अनुभूतियाँ, मनोवेग, हृदयोद्गार तथा क्रिया व्यापार लोकगीतों, लोककथाओं, लोकगाथाओं, लोकनाट्यों और लोकोक्तियों के रूप में मुखरित होकर सजीव व साकार होती है। लोकसाहित्य की प्रमुख विधाओं के अतिरिक्त प्रकीर्ण साहित्य के अंतर्गत ''लोकोक्ति ''  की अपनी अलग ही पहचान है।

लोकोक्तियाँ अद्भुत ज्ञान का भंडार है। लोकोक्तियाँ विश्व के समस्त जनसमुदाय के ज्ञान और परीक्षण को उनकी भाषा व बोली में प्रकट करती है। ''यह मानव प्रकृति और उसके व्यावहारिक ज्ञान की घोतक हैं, जो उसे उत्तराधिकार में सदैव से प्राप्त होती चली आ रही है। दैनिक समस्याएँ सुलझाने के ये अद्भुत साधन हैं। लोकोक्तियों के माध्यम से किसी देश की जनता की विचारधारा, ज्ञान और संस्कृति का सुगमता से पता लगाया जा सकता है। बड़े-बड़े विचारकों और सामाजिकों ने लोकोक्तियों से ही ज्ञान प्राप्त किया है। ''2  लोकोक्तियों के संबंध में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है कि ''कहावतें हमारी जातीय बुद्धिमता के समुचित सूत्र हैं। शताब्दियों के निरीक्षण और अनुभव के बाद जीवन के विविध व्यवहारों में, हम जिस संतुलित स्थिति तक पहुँचते हैं, लोकोक्ति उसका संक्षिप्त सत्यात्मक परिचय हमें देती है। ''3

लोकोक्तियों में लोक का अनुभवसिद्ध ज्ञान छिपा रहता है। जनमानस के वाणी-विलास में लोकोक्ति का अत्यधिक प्रचलन प्ररिलक्षित होता है। ये उन्हें कंठस्थ होती है, और सामान्य बोलचाल में सहज रूप से प्रयुक्त होती है। लोकोक्ति एक प्राकर से मानवी ज्ञान का सूत्र है। मानव अपने जीवन काल में जिन सत्य तथ्यों से साक्षात्कार करता है, उन्हें लोकोक्ति के माध्यम से संक्षिप्त रूप में सूत्रबद्ध करता है। लोकोक्तियाँ देखने में भले ही छोटी लगती हैं किन्तु ये शिक्षा, सिद्धांत, आचार, नीति व नियमों का विस्तृत रूप में प्रतिपादन करती हैं।

भिन्न-भिन्न भारतीय भाषाओं व बोलियों में लोकोक्ति के भिन्न-भिन्न नाम हैं यथा हिन्दी में लोकोक्ति संस्कृत में दुभाषित, उर्दू में जबुल मिस्ल, राजस्थानी में ओखाणों, गढ़वाली में परवाणा, गुजराती में कहेवत, बंगला में प्रवाद, प्रवलन, मराठी में आणा न्याय, तेलगू में समीटा और छत्तीसगढ़ी में हाना।

लोकोक्तियों की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। उपनिषदों में इसका बाहुल्य है, त्रिपिटक व जातक कथाओं में इनका प्रयोग प्रचुर मात्रा में मिलता है। संस्कृति साहित्य तो लोकोक्तियों से भरा पड़ा है। संस्कृत में लोकोक्ति को सूक्ति या सुभाषित कहा जाता है। सुन्दर रीति से कहा गया कथन ही सुभाषित हैं। सुष्ठु भाषितं सुभाषितं। लोकोक्तियाँ हमारे प्राचीन समाज की ज्ञान परंपरा पर प्रकाश डालती हैं। प्राचीन तथ्यों को धारण करने के अतिरिक्त लोकोक्तियों में समयुगीन अनुभव एवं व्यवहार सिद्ध भी जुड़ता रहता है। ये यथार्थ जीवन के धरातल पर उत्पन्न तत्वों से निर्मित होती है। इनमें कल्पना या अवास्तविकता अंशमात्र भी नहीं होती।

लोकोक्तियों का निर्माण स्थल यह मानव जगत है। उसका मस्तिष्क ही है जहाँ अपने जीवन में आसपास घटित घटनाओं व अनुभवों का सूक्ष्म निरीक्षण कर संचित अनुभव को संक्षिप्त अनुभव करता है। लोकोक्ति का निर्माण तो प्रारंभ में व्यक्ति विशेष करता है। व्यक्ति विशेष की अभिव्यक्ति को जब लोक की स्वीकृति मिल जाती है तब उसकी व्यक्तिगत उक्ति ही लोक की उक्ति बन जाती है। उसके प्रतिदिन के अनुभवों की सरस व सारपूर्ण अभिव्यक्ति ही लोकोक्ति है। सामान्य जीवन की घटनाओं की संक्षिप्त और लयात्मक उक्ति ही लोकोक्ति है, जो लोकमानस व लोकसाहित्य की अमूल्य सम्पत्ति है। डॉ. श्याम परमार ने लोकोक्ति के गुणों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि - ''जीवन के विस्तृत प्रांगण में भिन्न-भिन्न अनुभव सर्वसाधारणजन के मानस को प्रभावित करके उसकी अभिव्यक्ति से संबंधित अंग को उत्कर्ष प्रदान करते हैं। ये ही अनुभव लोकोक्तियाँ-कहावतें हैं। '' 4

लोकोक्ति व कहावतें लोक की ही देन है। जैसा कि हम जानते हैं कि शास्त्र लोक से ही प्राणवायु लेकर जीवित रहता है। लोक में भी लोकोक्ति की संरचना यूँ ही नहीं होती बल्कि प्रसंग विशेष या घटनाओं के कारण व्यक्ति विशेष की वाणी से मुखरित होकर लोक की उक्ति बनती है जो आदिम समाज से लेकर शिष्ट समाज के जीवन व्यवहार में प्रयुक्त होती है। समय के साथ-साथ नई लोकोक्ति का सृजन होते रहता है। इनका आधार कोई न कोई घटना ही होती है। लोकोक्तियाँ सत्य की संवाहक होती है, जिसमें धनीभूत असत्य नहीं हो सकता। लोकोक्तियाँ परिस्थिति की अनुकूलता को देखकर ही प्रयोग में लाई जाती हैं। इनमें चमत्कार के साथ-साथ भाव गांभीर्य व हृदय ग्राहयता भी होती है।

छत्तीसगढ़ का लोकसाहित्य अत्यंत ही समृद्ध है। जिसमें लोकगीत, लोककथाएं, लोकगाथाएं व अन्य प्रकीर्ण लोकसाहित्य का समावेश है। छत्तीसगढ़ी में लोकोक्ति या कहावत को हाना कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी लोकजीवन में हाना का प्रयोग भाषा व भावों में चमत्कार के साथ कथन को ग्राहय व प्रभावोत्पादक बनाता है। हम देखते हैं कि एक सुसंस्कारित व शिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा एक ग्रामीण अपनी ठेठ छत्तीसगढ़ी में बातकर जनसमुदाय को प्रभावित कर बाजी मार ले जाता है और हम मुँह ताकते रह जाते हैं। हानों का प्रयोग वह इतनी कुशलता व सहजता से करता है कि उसके कथन का अमिट प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता।

अन्य भाषा बोलियों की लोकोक्ति की तरह ही छत्तीसगढ़ी हानों की सृजन प्रक्रिया का कारण घटना विशेष ही हैं। जो घड़ा भरा नहीं होता वह चलने पर छलकता है, उसके छलकने से आवाज होती है किन्तु जो पूरा भरा होता है वह छलकता नहीं, उसमें से कोई आवाज नहीं होती, वह शांत रहता है। सिर पर घड़ा लेकर आती-जाती स्त्रियों के संबंध में यह हमारा प्रतिदिन का अनुभव है, किन्तु यह केवल नेत्रानुभव है। सामान्य जीवन में हम इस तरह के दृश्य नित्यप्रति देखते हैं किन्तु इस क्रिया की मानसिक प्रतिक्रिया सबके मन में नहीं होती। किसी दिन किसी विचारशील व्यक्ति के मन में यह दृश्य उस व्यक्ति का चरित्र सामने रख देता है, जो बोलता बहुत है, अपने अधूरे ज्ञान का बढ़-चढ़ कर प्रदर्शन करता है, दिखावा और दंभ से करता है। ऐसी स्थिति में उपरोक्त नेत्रानुभव प्रक्रिया स्वरूप अनुभव में परिणित हो जाता है और अनायास यह अनुभव  ''अति जल गगरी छलकत जाय ''  उक्ति का रूप ले लेता है। इसमें कोई सुसंस्कारित चेष्टा नहीं, कोई कृत्रिमता नहीं। यह उक्ति केवल लोक की देन है। शास्त्र इस पर अपने अधिकार का केवल दंभ कर सकता है। नागर सभ्यता में जीने वाला आभिजात्य वर्ग जब सिर पर घड़ा ही नहीं रखता तो वह इस उक्ति का सर्जक कैसे हो सकता है?

लोकोक्तियों (हानों) की उत्पत्ति घटना विशेष से जुड़ी होती है। ग्रामीण जीवन में लोग मही (मठा) खरीदते नहीं बल्कि मही उन्हें पास-पड़ोस से नि:शुल्क मिल जाता है। मही मांगने के लिए कोई जाता है किन्तु संकोचवश कह नहीं पाता और ठेकवा (मही रखने का मिट्टी का बर्तन) छिपाने लगता है। इस स्थिति में किसी बुजुर्ग के मुख से यह उक्ति अनायस निकल पड़ी होगी -मही मांगे ल जाय ठेकवा लुकाय, और इस प्रत्यक्ष अनुभव के बाद यह घटना लोकोक्ति के रूप में प्रचलित हो गर्इं।

स्त्रियाँ श्रृंगारप्रिय होती है, सुन्दर से भी सुन्दर दिखने की उनकी ललक होती है। सुन्दर बनने की चाह में आँखों में सुरमा लगाती हैं। संभव है कोई युवती अपनी आँखों में काजल आँजती रही हो, काजल आँजने की इस क्रिया में असावधानी वश शलाका से आँखों में चोट पहुँच गयी हो और वह अँधी हो गई हो। सुन्दर बनने की चाह में हानि ही हुई। बस यही घटना उक्ति बन गई- आंजत-आंजत कानी होय। इन उक्तियों के परिदृश्य में चिरकालिन निरीक्षण तथा अनुभव सिद्ध ज्ञान ही दृष्टि गोचर होते हैं।

लक्षण :-  अन्य लोकोक्तियों की तरह ही छत्तीसगढ़ी हानों के निम्नलिखित लक्षण देखने को मिलते हैं।

(1) लाघव :- आकारगत लाघव लोकोक्ति का प्रथमत: नितांत आवश्यक गुण है। लोकोक्तियाँ सूत्रात्मक पद्धति में मिलती हैं। हाना संक्षिप्त सूत्र में आबद्ध होकर ज्ञान की संचित राशि है। अपनी लघुता के कारण ही हाना आवक वृद्ध जन-जन के कंठ पर सैकड़ों की संख्या में विराजमान रहती है। अपनी लघुता के कारण ये अपना पूर्ण प्रभाव अन्तरमन पर डालते हैं। (1) जस ल तस (2) घीर ले खीर (3) उन के दून (4)बरी पुट नून (5) अंधवा म कनवा राजा (6) दूबर ल दू असाड़ (7) बिन पेंदी के लोटा (8) चोर घर ढेंकी (9)सत ले पत (10)भोग करके जोग (11)दही के साखी बिलई (12)काम बर छरा परसाद बर पूरा।

(2) लय या गीत :- हानों में लय व गीत का महत्वपूर्ण स्थान होता है। प्राय: सभी हाना, तुकान्त हो या अतुकान्त लयात्मक अभिव्यक्ति इनकी विशेषता होती है। इनकी लयात्मकता व गेयता के कारण इन्हें काव्य रूप में गठित लघु आकारीय विधा कहा जा सकता है :-

(1)  नता म साढू कलेवा म लाडू(2) अल्लर खूँटा अल्लर पाऊ, जइसने बाम्हन तइसने नाउ। (3)आज के न काल के बईहा पूरा साल के (4) बोंय सोन जामय नहीं, मोती फरे न डार, गे समय बहुरे नहीं खोजे मिले न उधार (5) जांगर चले न जंगरोटा खाय बर गहूँ के रोटा (6) हाय रे मोर बोरे बरा, गिंजर फिर के मोरे करा (7) हाय रे मोर मूसर तैं नहीं त दूसर।

(3)तुक :- तुकान्त हाना का तीसरा लक्षण हैं। अनेक हानों में तुक मिलता है जिसके परिणामस्वरूप लोकोक्ति की भाषा संगीतमय हो जाती है। केवल यही नहीं बल्कि इससे उसकी प्रभावोत्पदकता व सरसता में श्री वृद्धि हो जाती है।

(1) अल्लर खूंटा अल्लर पाऊ, जइसने दाऊ तइसने नाऊ (2) तोर गारी, मोर कान के बारी (3) बईठन दे, त पीसन दे (4) मन म आन मुँह म आन (5) खाय बर जरी तबाय बर बरी (6) सांच ल का आंच ।

(4) निरीक्षण और अनुभूति की अभिव्यंजना :- मानव मन की सूक्ष्म अनुभूतियाँ ही लोकोक्तियों के निर्माण में आधारशिला का कार्य करती हैं। ऐसी लोकानुभूतियाँ गहन निरीक्षणों पर आधारित होती हैं। लोकानुभव, सूक्ष्म व गहन निरीक्षणों पर आधारित निम्नलिखित हानें दृष्टव्य हैं :-

(1) संझा के पानी बिहनिया के झगरा, (2) दही देख बिलई रतियाय (3) अधजल गगरी छलकत जाय (4) आँजत-आँजत कानी (5) बाँस के भीरा म बाँसे जामही (6) दूधो जाय दूहनी जाय (7) जोगी के भीख म कऊँवा हग दीस।
(5)प्रभावशीलता और लोकरंजकता :- प्रभावशीलता व लोकरंजकता का गुण हानों में पाया जाता है। यद्यपि यह गुण सभी हानों में नहीं मिलता किन्तु कुछ हाने अपने इस गुण के कारण लोक- रंजक होते हैं। इनमें प्रभावित करने के साथ-साथ लोकानुरंजन की क्षमता होती है -

(1) अंधवा पीसे कुकुर खाय (2) दिया तरी अँधियार (3) आल बहुरिया काल करे, काड़ी कोचक  के घाव करे (4) दही के भोरहा कपसा ल लीले।

(6)सरलता :- यह हानों की अनूठी विशेषता है। यह इतनी सहज, सरल और बोध गम्य होती है कि भाषा और भाव सरलता के कारण हाना जन-जन को प्रभावित करता है। जटिल भाव और दुरूह भाषा मर्म को छूने में असमर्थ होती है।

(1) सौ में सती (2) मुह म राम बगल म छुरी (3) घींव गंवागे ङ्क्षखचरी में। (4)फूटहा करम के फूटहा दोना पेज गंवागे चारों कोना (5)अड़हा बैइद परान घात

वर्गीकरण :-  वर्गीकरण की दृष्टि से विचार करने पर छत्तीसगढ़ी हानों को पांच वर्गो में विभाजित किया जा सकता है -
(1) स्थान परक लोकोक्तियाँ
(2) जाति परक लोकोक्तियाँ
(3) प्रकृति व कृषि परक लोकोक्तियाँ
(4) पशु पक्षी परक लोकोक्तियाँ
(5) नीति परक या प्रकीर्ण लोकोक्तियाँ

(1) स्थान परक लोकोक्तियाँ :- प्रत्येक गांव-शहर या स्थान विशेष की अपनी निजी पहचान होती है। उनके गुण-दोष होते है। इन्हीं तत्वों के आधार पर स्थान संबंधी हानों का  प्रचलन है।
(1) जहर खाय न महुरा खाय, मरे बर होय ता लोहारा जाय।
(2) छुईखदान के बस्ती जय गोपाल के सस्ती।

छुईखदान में वैष्णव लोगों की अधिकता है। वे सामान्य व्यवहार में अभिवादन के लिए राम-राम के स्थान पर जै गोपाल का प्रयोग करते हैं। अत: यह सहज ही उक्ति बन गई कि छुईखदान के बस्ती जै गोपाल के सस्ती। आशय यह कि जहाँ जिस चीज की जितनी अधिकता होगी वहाँ चीज उतनी ही सस्ती होगी।
(3) गंडई के नेवता (4) बेलगांव कस बईला धपोर दिस। (5) रात भर गाड़ी जोते कुकदा के कुकदा (6) बहु बिहाय कोहका बोड़ झन जाय।

(2)जाति संबंधी :- कुछ हानों में जाति विशेष की विशिष्टताओं एवं प्रवृत्तियों का उल्लेख होता है। इन हानों में उपहास, व्यंग्य, कटाक्ष अथवा आक्षेप व आलोचनाएँ मिलती हैं।

(1) जात म नऊँवा पंछी म कऊवाँ (2) घी खात बाम्हन नरियाय (3) गांव बिगाड़े बम्हना, खेत बिगाड़े सोमना (4) सब के नाचे कूदे गांडा के मटकाय (5) मातिस गोंड़ दिस कलोर, उतरिस नशा दांत निपोर। (6) साल्हेवारा रोड सुधरगे, फेर गोंड़ नई सुधरिस। (7) हाथी बर गेंड़ा कोष्टिन बर खेड़हा (8) ठेलहा बनिया मटकाय कनिहा (9) चिट जात तेली घोरन जात कलार, कुर्मी जात मदन मोहनी घोरमुंहा जात मरार (10) गदहा सूर न बगुला जती,बनिया मित्र न बेसिया सती। (11) संहराय बहुरिया डोम के घर जाय। (12) तेली घर तेल रथे त पहार ल नइ पोतय। (13) आय देवारी राऊत माते। (14) बाम्हन मरे गोड के घाव कुकुर मरे मुड़ के घाव (15) अटके बनिया नौ सेरिया (16) गोंड गांव के चिपरी मोटियारी (17) गांड़ा घर गाय नहीं बाय (18) रडिया बइठे खटिया, बाम्हन बइठे गाड़ा, मरिया ल भीख नई मिले, मसके सोहारी गांडा (19) मर-मर पोथी पढ़े तिवारी, घोंडू मसके सोहारी। (20)उजरिया बस्ती के कोसरिया ठेठवार (21) जइसे दाऊ के बाजा तइसे नाऊ के नाचा (22) गांडा के बछवा।

(3) प्रकृति व कृषि संबंधी लोकोक्तियाँ :- हमारे देश की 80' जनता गाँवों में बसती है। कृषि उनका मुख्य कार्य है। छत्तीसगढ़ी कृषि प्रधान क्षेत्र है। इसे धान का कटोरा कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों में भी कृषि संबंधी सूक्ष्म निरीक्षण व ज्ञान प्राप्त होता है।

(1) गांव बिगाड़े बम्हना खेत बिगाड़े सोमना (2) हरियर खेती गाभिन गाय जभे होय तभे पतिपाय।(3) खेती अपन सेती,नइ ते नदिया के रेती। (4) महतारी के परसे मघा के बरसे (5) राड़ी के बेटी धरसा के खेती। (6) धान-पान-खीरा, तीनों पानी के कीरा (7) सामिल के खेती ल कोलिहा खाय। (8) उत्तम खेती मध्यम बान, निर्धिन चाकरी भीख निदान। (9) कोरे-गांथे बेटी, नींदे कोड़े खेती।

(4) पशु पक्षी संबंधी लोकोक्तियाँ :- पशु-पक्षियों के स्वभाव व गुण-दोष आदि का विवेचन करने वाली लोकोक्तियाँ भी छत्तीसगढ़ी में मिलती हैं :-

(1) पइधे गाय कछारे जाय (2) बोकरा के जीव जाय खवईया ल अलोना (3) घर म नांगदेव भिंभोरा पूजे ल जाय (4) कौंवा के कटरे ले ढोर नाई मरे (5) कुकुर भूंके हजार हाथी चले बाजार (6) टेटका के चिन्हारी बारी ले (7) राजा के मरगे हाथी परजा के मरगे घोड़, राड़ी के मरगे कुकरी त एक बरोबर होय। (8) कुकुर के पूंछी टेंडगाच रही (9) दुधारू गाय के लात मीठ (10) जात म नऊँवा पंछी म कऊँवा (11) बाम्हन कुकुर नाऊ जात देख गुर्राऊ (12) बुटरी गाय सदा कलोर (13)परोसी बुती सांप नइ मरे। (14)सांप के मुड़ी तिहाँ बाबू के झूलेना (15)अल्कर मरे भालू त ठ_ा करे कोल्लू (16)चील खोंदरा म मांस बॉचही। (17)नवा बईला के नवा सिंग चल रे बईला टींगे टींग।

(5)प्रकीर्ण लोकोक्तियाँ :- इस कोटि की लोकोक्तियों में ज्ञान, शिक्षा, कर्तव्य, उपदेश, उपहास, व्यंग्य, दृष्टान्त, समाज और जातीय जीवन के विविध क्षेत्रों पर मार्मिक कथन और चुभने वाली उक्तियाँ मिल जाती है -

(1) आठ हाथ खीरा नौ हाथ बीजा (2) मुड़ के राहत ले माड़ी म पागा नइ बांधय (3) अपटे बन के पथरा पगेरे घर के सील (4)खीरा चोर जोंधरी चोर, धीरे-धीरे सैंध फोर (5) जइसे-जइसे घर दुवार तइसे तइसे फईखा, जईसे जेखर दाई-ददा, तइसे तेखर लईका। (5) बने-बने बजार के कड़हा कोचरा मरार के। (6)सब पाप जाय फेर मनसा पाप नई जाय। (7)बोहिक बईला घर जिंया दमाद, मरे के बांचय जोते के काम। (8) कमईया बर भाजी भात खसुहा बर सोहारी (9) हाथी गिंजरे गाँव-गाँव, जेखर हाथी तेखर नांव।

संदर्भ - जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि लोकोक्तियाँ प्रसंग विशेष व घटनादि के कारण प्रचलन में आती है। नेत्रानुभव के पश्चात मानव हृदयगत अनुभूतियों को भाषा व वाणी के माध्यम से चित्रित करता है। कुछ लोकोक्तियों के पीछे कुछ प्रमुख घटनाएँ सुनने को मिलती है। इन लोकोक्तियों के साथ में घटनाएँ लोककथा के रूप में जुड़ी है। कुछ छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों के संदर्भ प्रस्तुत है :-

(1) जेखर लाठी तेखर भँईस :- इसका आशय यह कि जिसके पास शक्ति होगी, उसी के पास सत्ता होगी। इस लोकोक्ति के पीछे यह लोककथा प्रचलित है कि एक किसान ने एक भैंस खरीदी। वह उसे लेकर घर आ रहा था। किसी चोर की नीयत उस भैंस के लिए खराब हो गई। वह लाठी लेकर अड़ गया और लाठी से भैंस को हँकालने लगा। जान के भय से किसान चोर का प्रतिरोध न कर सका। किसान चतुर था उसने चोर से कहा अच्छा भैया अब भैंस तो तुम्हारी हो गई, ठीक है, भैंस ले जाओ, मैं तुम्हें कुछ न कहूंगा, केवल अपनी लाठी दे दो। चोर किसान की चालाकी न समझ सका। उसने अपनी लाठी किसान को दे दी। लाठी पाते ही किसान लाठी भांजते हुए चोर पर टूट पड़ा, चोर प्राण बचाकर भागा। और यह लोकोक्ति प्रचलित हो गई। जेखर लाठी तेखर भँईस।
(2)पान म दरजा हे फेर हमार म नहीं :- छत्तीसगढ़ में अक्सर जब पति-पत्नी के बीच विवाद या झगड़ा होता है तब पत्नियाँ यह कहती है कि ''पान म दरजा हे फेर हमर म नहीं ''  बुजुर्ग इस लोकोक्ति को श्रीकृष्ण भगवान को तराजू पर तौलने की घटना से जोडकर देखते हैं। एक पलड़े पर श्रीकृष्ण व दूसरे पलड़े पर महल के सारे स्वर्ण आभूषण, फिर भी श्रीकृष्ण का पलड़ा भारी रहता है। पटरानियाँ परेशान हो जाती है। नारद जी उन्हें यह युक्ति बताते हैं कि भगवान तो तुलसी के एक पत्र से ही तौले जा सकते हैं। और सचमुच पलड़े पर तुलसी का एक पत्र रखने से दोनों पलड़े बराबर हो जाते हैं। रूक्मणि के मुंह से अनायास निकल पड़ा - पान म दरजा हे फेर हमर म नहीं।

(3) भँईस लेवाय नई हे लइका पंडरू के पीठ म चढ़थे :- इस लोकोक्ति के संबंध में यह लोककथा प्रचलित है कि एक राउत था, उसने अपनी पत्नी से कहा कि वह नई भैंस खरीद कर लायेगा। यह सुनकर उसका छोटा लड़का जो आंगन में खेल रहा था यह कहकर जिद्द करने लगा कि वह पंडरू (भैंस का बच्चा) की पीठ पर चढ़ेगा। उसे धोने के लिए तालाब ले जायेगा। राऊत गुस्से में आकर अपने बच्चे को मारने-पीटने लगा कि पंडरू की पीठ पर चढऩे से पंडरू की कमर टूट जायेगी। बच्चा फिर भी जिद्द कर रोने लगा कि वह पंडरू की पीठ पर चढ़ेगा। रोने की आवाज सुनकर राऊत का पड़ोसी आया। उसने राऊत से पूछा कि वह अपने लड़के को क्यों मार रहा है? राऊत ने कहा - भैंस तो अभी खरीदा नहीं, खरीद कर लाने वाला हूँ। पड़ोसी ने कहा - भँईस लेवाय नई हे लइका पंडरू के पीठ म चढ़थे। यह उक्ति उतावले व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होती है।

(4) अल्कर परे भालू गत मारे कोल्हू :- इस लोकोक्ति का आशय यह कि जब समर्थ व्यक्ति बाधाओं से घिर जाता है तो तुच्छ लोग भी उसका उपहास करते हैं। इस लोकोक्ति के संबंध में यह लोककथा प्रचलित है कि एक मादा भालू एक दिन झाडिय़ों में फँस गयी, लाख कोशिशों के बावजूद नहीं निकल पायी। तभी एक सियार ने उसकी इज्जत ले ली। इस स्थिति में मादा भालू ने विवश होकर कहा - कोई बात नहीं तुम आखिर मेरे देवर हो। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ में देवर द्वारा अपनी भाभी को चूड़ी पहनाकर विवाह करने की प्रथा प्रचलित है।

(5) बांस रही न बांसरी बाजही :- इसका आशय यह कि न कारण रहेगा और न ही कार्य होगा। कहा जाता है कि एक बार एक गाँव में एक बाँसुरी बजाने वाला आया। उसकी बाँसुरी के धुन पर गाँव के सभी बच्चे मोहित हो गए। सभी बच्चे उसकी बाँसुरी मांगने लगे। इस पर बाँसुरी वाले ने कहा - यदि तुम्हारे गाँव में बाँस हो तो उससे सभी बच्चों के लिए बाँसुरी बनाई जा सकती है। गाँव में एक किसान के घर बाँस के पेड़ थे। बच्चे किसान के घर जाकर बाँस मांगने लगे। किसान ने कुछ बच्चों को बाँस तो दिया, लेकिन इससे उनकी परेशानी बढ़ गई। अत: किसान ने परेशानी से बचने के लिए सभी बाँसों को काट दिया।

(6)खासर खूसर, बिन सामीं के मूसर,
    राजा के दूसर, छेरी के तीसर,
    चलन के चाल, घोड़ा बिन लगाम, नइ आवे काम।।

 अर्थात गाड़ी में लकड़ी का असकूड़ (सेंटर एक्सल), बिना छल्ले का मूसल, कोई काम का नहीं। राजा के दो लड़के नहीं होना चाहिए इससे उत्तराधिकारी में विवाद होता है। बकरी के तीन बच्चे नहीं होना चाहिए क्योंकि बकरी के दो ही थन होते हैं, जिससे तीसरा बच्चा दूध के अभाव में मर जाता है। चलनी का सहज स्वभाव है कि वह अच्छे बीज को छोड़ देती है, बेकार वस्तु को एकत्रित करती है। अचछी वस्तु को छोड़कर बेकार वस्तु को ग्रहण करना भी ठीक नहीं। इसी प्रकार घोड़ा भी बिना लगाम के वश में नहीं रहता। अर्थात उपरोक्त परिस्थितियाँ कोई काम की नहीं, औचित्यहीन है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ी हाना में जहाँ लोकमानस की अभिव्यक्ति हुई है, वहीं लोकजीवन भी प्रतिबिम्बित हुआ है। लोक के समस्त क्रियाकलाप, स्थिति, संघर्ष, घटित घटनाएँ लोकोक्तियों के माध्यम से लोक में परिव्याप्त हैं, जिनमें सूक्ष्म निरीक्षण और गहन ज्ञान की संचित राशि है। ये आकार में छोटे किन्तु प्रभावोत्पादक और हृदयग्राही हैं। हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम वाणी-व्यापार में लोकोक्तियों का प्रयोग करें। विलुप्त होती इन लोकोक्तियों को ग्रामीण जनों से सीखें, उन्हें व्यवहार में उतारें। बुजुर्गों से अनुरोध कर उन्हें संकलित कर लोकसाहित्य का संरक्षण व संवर्धन करें। अन्यथा लोक-साहित्य की अन्य विधाओं की तरह यह भी संकुचित हो जायेगी। नागर व पाश्चात्य सभ्यता हमारे लोकसाहित्य व लोकसंस्कृति के लिए विषबेल का कार्य कर रही है। हमें इनसे बचना है और लोकसाहित्य को बचाना है।
संदर्भ :-
1. सम्मेलन पत्रिका, लोक-संस्कृति अंक, पृष्ठ 65
2. लोक साहित्य सिद्धांत और प्रयोग - डॉ. श्रीराम शर्मा, पृष्ठ 156
3. पृथ्वी पुत्र - डॉ.वासुदेव शरण अग्रवाल पृष्ठ 57
4. भारतीय लोकसाहित्य - डॉ. श्याम परमार, पृष्ठ 184
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