मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

कविता

यह, वह समय नहीं है

यह, वह समय नहीं है
यह, इस समय है, सच यही है
वह समय, अभी नहीं आनेवाला है
वह समय, को कोई अभी नहीं लानेवाला है

वह आये,
ऐसा जतन करनेवाला अभी कोई नहीं है
उसे लाया जाये,
ऐसा सोचनेवाला भी अभी कोई नहीं है

लोग अभी,
इस समय को भुनाने में मस्त हैं
लोग अभी,
इस समय को बिताने में व्यस्त हैं

यह समय
साबित, सिद्ध और प्रमाणित होने का समय है
यह समय
साबित, सिद्ध और प्रमाणित लोगों का समय है

और
इस समय लोग स्वयं को
साबित, सिद्ध और प्रमाणित करने में लगे हुए हैं
घृणिततम पाप करके
जघन्यतम अपराध करके
गर्वोक्त कथन में लगे हुए हैं -
’तुम्हारे ..... में दम है तो साबित करके बता
फिर ऊँगली उठा ...... ।’

उसे पता है
यह, यह यमय है, और
इस समय कुछ भी साबित नहीं किया जा सकता
साबित, सिद्ध और प्रमाणित लोगों के खिलाफ
इस समय कुछ भी नहीं किया जा सकता
साबित, सिद्ध और प्रमाणित लोगों की मर्जी के खिलाफ

लोग स्वयं को
साबित, सिद्ध और प्रमाणित करने में लगे हुए हैं
ताकि उनकी मर्जी के खिलाफ
कुछ भी साबित, सिद्ध और प्रमाणित न हो सके
इस समय।

वह समय
अपमानित और, तिरस्कृत होकर चला गया था
हजारों साल पहले
वह समय शायद अब लौटकर आनेवाला नहीं
हजारों सालों तक

इस समय, अभी कोई नहीं है
उसका सम्मान और स्वागत करनेवाला।
000
kuber - 28.12.2106

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

दिल्ली का लटियन जोन


देशबंधु, 19 दिसंबर 2016 के संपादकीय पृष्ठ में पुष्परंजन ने अपने लेख में बहुत से सवाल उठाये हैं। जैसे - 

’’....कार्ड करेंसी के वास्ते प्रचंड प्रचार में देश के करदाताओं के पैसे किस बेरहमी से बहाए जा रहे हैं, उस पर कोई सवाल नहीं उठाता। तर्क क्या दिया जा रहा है? इससे भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा, काले धन को बाहर निकाल लेंगे। आतंकवादियों के फंडिंग को रोक देंगे। अभी तो चंद बिल्डरों, ज्वेलरों, व्यापारियों, कानून की आड़ में काले का सफेद करनेवाले धंधेबाजों के यहाँ छापेमारी में कुछ सौ करोड़ निकले हैं। क्या दिल्ली के लटियन जोन में जाने की किसी की हिम्मत है? ......’’

पढ़कर मन में जिज्ञासा हुई कि यह लटियन जोन क्या है, यहाँ कौन लोग रहते होंगे, जहाँ जाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता और जहाँ जाने की हिम्मत जुटाने के लिए सरकार को चुनौती दी गई है? 

20 दिसंबर 2016 के नई दुनिया के पृष्ठ 12 पर ’’देश के सबसे मंहगे रिहायशी इलाके में केपी सिंह की बेटी ने खरीदा बंगला’’ शीर्षक से एक समाचार छपा है। देश के इस सबसे मंहगे रिहायशी इलाके का नाम लुटियंश जोन है। केपी सिंह डी. एल. एफ. के चेयरमैन हैं और उनकी बेटी का नाम रेनुका तलवार है जिन्होंने पृथ्वीराज रोड इलाके में 435 करोड रूपये में बंगला खरीदा है। इस सौदे को अब तक का सबसे मंहगा सौदा बताया गया है। 

’’.... 4925 वर्गमीटर के प्लाट पर स्थित यह बंगला 1189 वर्गमीटर में फैला है। बंगले को 8.8 लाख रूपये प्रति वर्गमीटर के हिसाब से बेचा गया है। ........’’  

आगे बाक्स में यह जानकारी दी गई है - 

’’इन उद्योगपतियों के बंगले इन जोन में हैं। ... एल. एन. मित्तल, नवीन जिंदल, केपी सिंह, सुनील मित्तल, एस्सार ग्रुप के शशि और रवि रूइया, मलविंदर और शिविंदर सिंह और अनलजीत सिंह जैसे उद्योगपतियों के बंगले बने हुए हैं। लटियन जोन का फिलहाल कुल क्षेत्रफल 3000 एकड़ है। .......’’

यह भी बताया गया है कि इस जोन में मंत्रियों और आला अधिकारियों के बंगले भी हैं। मुझे लगता है, लटियन जोन और लुटियंश जोन एक ही है।
000







सोमवार, 12 दिसंबर 2016

कविता

व्युत्क्रम अनुपात


जब-जब, जितना-जितना
मंहगे और चटक वस्त्र ओढ़ते जाता हूँ
तब-तब, उसी अनुपात में
उतना ही अनावृत्त होते जाता हूँ।
वैज्ञानिक इसमें व्युत्क्रम अनुपात का नियम ढूँढेंगे।
नीयत के खोंटेपन के इन आयामों को
खोंटे नीयत के इन चलित दृश्यों को
पता नहीं आप क्या कहेंगे
समझ नहीं आता, मैं इसे क्या कहूँ
पर अपने व्यवहार-व्यापार की इस सच्चाई को मैं
पल-प्रतिपल जरूर देखता हूँ।
000

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

कविता

बस


बस का अर्थ जानते हो?
तो बताओ -

किसी ने कहा -
’’वह, जो हमें पहुँचाती है
हमारे गंतव्य तक
पीं-पों, पीं-पों, घर्र-घर्र करती
(और बीच में जो कभी धपोड़ भी देती है।)’’

किसी ने कहा -
’’वह, जो हमारी सामथ्र्य है
और जिसके चलते
हम बहुतकुछ कर लेते हैं
बहुतकुछ कर लेने की चाह रखते है।’’

किसी ने कहा -
’’बस! माने पूर्ण विराम
जो लगा हुआ है बहुत दिनों से
हमारे विचारों पर,
लगा दी गई है जिसे हमारी अभिव्यक्ति पर
हमारे अधिकारों पर
गंतव्य तक पहुँचने के पहले ही
बहुतकुछ कर लेने के पहले ही।’’

किसी ने ऐसा भी कहा -
’’बस! माने वह भाव
जो ताकत और अधिकार बन हुआ है सदियों से
सवर्णों, शोषकों, सामंतों और दबंगों का
और जो बेबसी और किस्मत बना हुआ
दलितों, शोषितों, गुलामों और वंचितों का।’’

अंत में एक आवाज और आई -
’’बस का अर्थ ऐसे समझ में नहीं आयेगी
इसके लिए कुछ अलग करना होगा
सही देखने के लिए, इसे उलटना होगा
और इस तरह ’बस’ को ’सब’ बनाना होगा
ताकि सबको उनका सभी प्राप्य मिल सके
सब, सबमें, सबको, स्वयं को पा सके।’’
000

रविवार, 6 नवंबर 2016

चित्र कथा


महाराश्ट्र की सीमा से लगे राजनांदगाँव जिले के गाँव कल्लूबंजारी में आयोजित साहित्यिक कार्यक्रम में ’आदिवासी और उनकी समस्याएँ’ विषय पर वक्तव्य देते हुए - कुबेर - बाएँ से तीसरे क्रम पर .

शनिवार, 5 नवंबर 2016

कविता

मुझे सजा लेना चाहते हो


मैं खुद को खुद से नहीं जानता

परन्तु -
मैं अपने जंगलों को जानता हूँ
और इन जंगलों को खुद से अधिक जानता हूँ
जैसे ये जंगल, वैसा मैं

मैं अपने पेड़ों को जानता हूँ
और इन पेड़ों को, खुद से अधिक जानता हूँ
जैसे ये पेड़, वैसा मैं

मैं अपने पहाड़ों को जानता हूँ
और खुद से अधिक मैं इन पहाड़ों को जानता हूँ
जैसे ये पहाड़, वैसा मैं

मैं अपने नदियों को जानता हूँ
और खुद से अधिक इन नदियों को जानता हूँ
जैसी ये नदियाँ, वैसा मैं

मैं अपनी हवाओं को जानता हूँ
और खुद से अधिक जानता हूँ, इन हवाओं को
जैसी ये हवाएँ, वैसा मैं

मैं अपनी इन पक्षियों को जानता हूँ
और खुद से अधिक जानता हूँ, इन पक्षियों को
जैसी ये पक्षियाँ, वैसा मैं

मैं अपने हिरणों और बाघों को जानता हूँ
और खुद से अधिक जानता हूँ
इन हिरणों और इन बाघों को
जैसे ये हिरण और बाघ, वैसा मैं

मैं खुद को खुद से नहीं जानता
मैं खुद को जानता हूँ
इन जंगलों, पेड़ों, पहाड़ों
नदियों, हवाओं, पक्षियों
और यहाँ के प्राणियों से

और सुनो -
ये ही मेरी भाषा हैं,
ये ही मेरे संस्कार हैं
ये ही मेरी सभ्यता और मेरे धर्म हैं
ये ही मेरी पहचान और मेरे प्राण हैं -
मेरी अपनी जानी-पहचानी हुई

इन्होंने न कभी तुम्हारा बुरा किया
और न ही तुम्हारा कभी कुछ छीना

मैंने भी न कभी तुम्हारा बुरा किया
और न ही तुम्हारा कभी कुछ छीना

परन्तु -
तुमने मुझे कहा - आदिवासी
और मैं आदिवासी हो गया
तुमने मुझे कहा - नक्सली
और मैं नक्सली हो गया

और इस तरह
मुझे मारा और मिटया जाने लगा
मेरा सबकुछ मुझसे
छीना और लूटा जाने लगा
मेरे खात्में की यह शुरुआत थी
मैं मरने और मिटने लगा

और अब तुम
मेरे जंगलों, पेड़ों, पहाड़ों,
नदियों, हवाओं और
पशु-पक्षियों को पूरी तरह मिटाकर
मुझे पूरी तरह मिटा देना चाहते हो

क्यों
मेरा सबकुछ छीन लेना चाहते हो
मुझे
म्यूजियमों और चिड़िया-घरों में
जीवाश्मों और
लुप्तप्राय प्राणियों की तरह
सजा लेना चाहते हो?
000kuber000

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

कविता

सफाईवाली से साक्षातकार


वह रोज आती है
मोहल्ले को साफ करती है और चली जाती है
पर, साफई मोहल्ले की फितरत में नहीं है
इसे वह अच्छी तरह जानती है,
मोहल्ला सदियों से साफ होता आ रहा है
पर, वह साफ रहना नहीं जानता
वह साफ होना नहीं चाहता
इसे भी वह, अच्छी तरह जानती है।

मनुष्य और मनुष्यता को
मनुष्य होने के अहसास को
और मनुष्य के स्वत्वों-स्वाभिमानों को रौंदनीवाली
मनुष्य को पशुओं से भी नीचे ढकेलनेवाली
मोहल्ले की यह फितरत
अन्य सभी फितरतों से अधिक हिंसक
अधिक घृणित, अधिक गर्हित है
पर विडंबना है,
अपने इस फितरत पर मोहल्ला
सदियों से मदोन्मत्त और गर्वित है
इसे भी वह भलीभांति जानती है।

उसके अभ्यस्त, मजबूत और
जानदार हाथों में होते हैं -
उतने ही अभ्यस्त और जानदार हत्थोंवाले
झाड़ू-फावड़े और
ठिलकर चलनेवाली मैलागाड़ी
दो छौटी-छोटी
सदियों से थकी-थकी
बीमार और असक्त पहियोंवाली
चें... चीं.... चें... चीं....की आवाज करती हुई।

इस गाड़ी की पहियों से निकलनेवाली
चें... चीं.... चें... चीं....की आवाज असाधारण है
सदियों से अथक चलनेवाली
बीमार और अमानवीय परंपरा के विरोध में
एक बेजान का जानदार आह्वान है।

उसे काम करते मैं रोज देखता हूँ
लंबे हाथोंवाली झाड़ू अथवा फावड़े में उलझी
उनकी नत आँखों को मैं रोज तौलता हूँ।

उनकी आँखों में
मैं रोज कुछ देखना चाहता हूँ
पता नहीं कितने-कितने
और क्या-क्या सवाल उनसे पूछना चाहता हूँ।

पर कचड़े और गंदगी की ओर झुकी हुई
अपने काम में निरंतर उलझी हुई
उनकी नत आखों को कभी मैं देख नहीं पाता हूँ
उनसे एक भी सवाल कभी पूछ नहीं पाता हूँ।

एक दिन उन्होंने कहा -
’’बाबू! मैं जानती हूँ
आप मुझे रोज इस तरह क्यों देखते हो
आँखों ही आँखों में क्या तौलते हो,
कुछ नहीं बोलकर भी, बहुत कुछ बोलते हो।

आपका इस तरह देखने का यह सिलसिला,
और आपकी इन नजरों की वार को झेलने का मेरा अनुभव,
आज का नहीं, सदियों पुराना है
मेरे लिए न तो आप अजनबी हो
और न ही आपकी इन आतुर आँखों की लिप्साएँ ही
सबकुछ परखी हुई है, सबकुछ जाना-पहचाना है।

बाबू! दरअसल, मुझे देखते हुए
आप किसी भंगिन को नहीं
एक स्त्री और उसकी देह को देखते हो
उस देह की जवानी और मादकता को
किसी पेशेवर व्यापारी की भांति
मन ही मन तौलते हो और
अपनी आत्मा, अपने मन
और अपने विचारों में संचित गंदगी को
उस देह के ऊपर निर्दयतापूर्वक, लगातार फेंकते हो।

बाबू! काम के क्षणों में
आप मेरे निर्विकार भाव को देखते हो
और खुद से पूछते हो -
’शौचालयों, नालियों, सड़कों और गलियों से
गंदगी के ढेरों को उठाते हुए
इन गंदगी के ढेरों से उठनेवाली बदबू के भभोके
मेरे नथनों को छूते क्यों नहीं हैं?’
और इस तरह मेरी संवेदनाओं पर
हर रोज
एक बड़ा और गैरजरूरी प्रश्नचिह्न लगाते हो।

बाबू!
शौचालय, नालियाँ, सड़कें और गलियाँ
न तो स्वयं गंदी होती हैं
न कभी गंदगी पैदा करती हैं
गंदगियाँ आपके घरों में पैदा होती हैं
और आपके घरों से निकलकर
शौचालयों, नालियों, सड़कों और गलियों में
विस्तार पाती हैं
समूचे वातावरण को गंदा बनाती हैं।

और सच कहूँ बाबू!
गंदगी न घरों में पैदा होती है
न शौचालयों, नालियों, सड़कों
और न गलियों में
गंदगी तो आपके मन में,
आपकी आत्मा में
आपकी सोच और
आपके विचारों में पैदा होती है
जो आपकी बनाई समाज
और उसके शास्त्रों में
 ठूँस-ठूँसकर भरी होती है
जिनसे उठनेवाली बदबू के भभोके
इन शौचालयों, नालियों,
सड़कों और गलियों की गंदगी से उठनेवाली
बदबू के भभोकों से कहीं अधिक उबकाऊ
और अधिक घनी होती है।
मैं आपसे पूछती हूँ
क्या इसनें कभी आपकी संवेदनाओं को
आपके नथुनों को छुआ है?
मैं दावा करती हूँ - कभी नहीं
फिर आपकी संवेदनाएँ
और आपके नथुने
किस चीज की बनी होती हैं?

बाबू! आप पूछते हो -
’गंदगी की इन ढेरों में पलनेवाले रोगाणु
मुझे बीमार क्यों नहीं बनाते?’
मैं आपसे फिर पूछती हूँ -
अपने स्वच्छ घरों में रहते हुए
और इज्जतदार व्यवसाय करते हुए
आप कितने स्वस्थ हो?
पवित्र स्थानों में बैठकर
पवित्रता का व्यवसाय करनेवाले
पुजारी, पादरी और मुल्ला कितने स्वस्थ हैं?
मुझे तो कहीं भी, कोई भी
कभी स्वस्थ नजर नहीं आता
बाबू! इनसे कभी आपने यह सवाल पूछा है?
यह सवाल फिर मुझसे ही क्यों पूछते हो?

बाबू! आप अक्सर यह भी पूछते हो -
’इस काम को करते हुए
मुझे शर्म क्यों नहीं आती है?’
सच है, आप ऐसा कह सकते हैं
इस काम को करते हुए
मुझे कभी शर्म नहीं आती है
पर मैं भी आपसे पूछती हूँ -
’ऐसा बेतुका प्रश्न पूछते हुए
आपको कभी शर्म आती है?’

बाबू! सच कहूँ
सफाई और गंदगी या
पवित्रता और अपवित्रता
अथवा श्रेष्ठता और निकृष्टता के सवाल पर
आपकी और मेरी सोच में
सदियों से एक बड़ा और बुनियादी अंतर है
जो आपको कभी दिखता नहीं है।
आपका यह प्रश्न बहुत घिसा-पिटा,
बहुत पुराना है
अनगिनत लोगों ने अनेकों बार इसे दुहराया है
इसीलिए आपका यह प्रश्न
आपकी छद्म-संस्कृति और
छद्म-सभ्यता के नाम पर
हाथोंहाथ बिक जाता है
परंतु, आपके समाज की इसी
छद्म संस्कृति और सभ्यता के बाजार में
मेरा प्रश्न कभी किसी को दिखता नहीं है
इसीलिए, यह कभी बिकता नहीं है।

बाबू!
मैं जानती हूँ
मेरे निरक्षर होने
और मैला ढोने पर आपकों प्रसन्नता होती होगी
इसे आप अपनी जीत की तरह मानते होंगे
इस पर आपको गर्व होता होगा
पर इस जीत के पीछे की आपकी कुटिलता
कभी मुझसे छिपती नहीं है
मेरी निरक्षर निगाहें भी
आपके अक्षरों के पीछे छिपे सड़ते सारे कूड़ों को
साफ-साफ देख लेती हैं
परंतु इस सच्चाई को आप देख नहीं सकते
कि आपकी साक्षर योग्यता
आपको कभी साफ रखना नहीं चाहती
और मेरी निरक्षर हुनर
कहीं कोई गंदगी छोड़ना नहीं जानती।’’

000KUBER000

सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

टिप्पणी

इन्सानियत का अन्तकाल

जब से इस देश में पूँजीवाद का एकछत्र साम्राज्य शुरू हुआ है तब से 3,50,000 किसानों ने आत्महत्या की है। इतने किसानों की आत्महत्या ब्रिटिश राज में भी नहीं हुई थी। दुनिया के किसी देश में इतनी बड़ी संख्या में किसानों ने आत्महत्या नहीं की है। और क्या मजाल कि सरकार एक वाक्य बोले। जिसको राष्ट्रीय शोक या राष्ट्रीय शर्म का विषय बनना चाहिए उस पर चुप्पी के अलावा और कुछ नहीं। एक तरह से इन्सानियत के अन्तकाल का यहाँ मामला है।
(मैनेजर पाण्डेय, नया ज्ञानोदय, अक्टुबर 16, पृ. 137)

शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

कविता

ब्रह्माण्ड का पहला इतिहास


यह हमें बताया गया है -
’अंधकार अज्ञानता का प्रतीक है’
इसीलिए इसे हम जानते हैं
इसे हम इसलिए नहीं जानते हैं कि
इसे हमने जाना है
हमने कभी कोशिश नहीं की
अंधकार को जानने की
’अंधकार को सदैव हमने
अज्ञानता के प्रतीक रूप मे ही जाना है’।

अंधकार किसका प्रतीक है?
और -
अंधकार क्या है?
दोनों भिन्न प्रश्न हैं
अंधकार को अज्ञानता का प्रतीक बताना
अंधकार को जानने के प्रयास की विफलता है
इसीलिए
अंधकार को जानने का दंभ भरना
अंधकार की और अधिक गहरी पर्त में दफ्न होना है।

ब्रह्माण्ड के पूर्व भी अँधकार था
ब्रह्माण्ड को अँधकार ने ही रचा था
अंधकार ने ब्रह्माण्ड रचकर
खुद का पहला इतिहास रचा था
समय के सफों पर
अपनी भाषा और अपनी लिपि में लिखा था
जिसे न तो कभी देखा गया
न पहचाना गया, न पढ़ गया

और इस तरह अंधकार को
कभी किसी के द्वारा नहीं जाना गया।

अंधकार को जाने बिना ब्रह्माण्ड को जानना
और दुनिया के बारे में कुछ भी जानना
दुनिया को अधूरा जानना है।

दुनिया के बारे मे
हमारी अब तक की सारी जानकारी
अधूरी और आधी जानकारी है।
000

बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

व्यंग्य

संबंधसुधारक और उसकी कोटयाँ


संबंध जोड़ने के काम की तरह ही संबंध सुधारना भी यहाँ पवित्र कार्य माना जाता है। यहाँ बिगड़े हुए संबंधों को सुधारने की बात नहीं कह रहा हूँ, भूले-बिसरे संबंधों अथवा संबंधों की ’अतिसांकरी प्रेम गली’ से चलकर नये संबंध जोड़़नेवालों की बात कह रहा हूँ। अपना लोक और परलोक सुधारने की चाह में अनेक लोग संबंधों के उलझे हुए सूत्रों को सुधारने में लगे रहते हैं। ऐसे दिव्य व्यक्तित्वों को संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए। संबंध सुधारने का अंतिम लक्ष्य संबंध जोड़ना ही होता है।

यहाँ जब भी दो व्यक्ति मिलते हैं, अपने बीच किसी तरह के संबंधों की तलाश में जुट जाते हैं। तलाश का यह क्रम क्षेत्र, भाषा, जाति से शुरू होती है और अंत में रिश्तेदारी में आकर समाप्त होती है। इस काम के लिए आजकल राजनीति अधिक उपजाऊ जमीनें मुहैया करा रही है। यहाँ इसे फैशन का दर्जा मिला हुआ है। यात्रा आदि के समय ऐसा बहुतायत में होता है। संबंधसुधारकों का आदर्शवाक्य होता है - झुकती है दुनिया, झुकानेवाला चाहिए। प्रयास करने पर सूत्रों की उलझने अक्सर सुधर ही जाती है; कोई न कोई सूत्र हाथ लग ही जाता है। फिर भी, दुर्योग से कोई सूत्र न जुड़ पाये तो ऐसी स्थिति में मिताई बदने की रामायणकालीन परंपरा तो है ही।

संबंधों की अनन्यता इस देश के लोगों की खास सामाजिक विशेषता है। इसी विशेषता के गिट्टी, सिमेंट के रेतीले गारे के रसीलेपन से यहाँ के लोगों के सरस चरित्रों का निर्माण होता है। आपस के संबंधसूत्रों को खोजने, उसके उलझावों को सुलझाने और उसके किसी अनपेक्षित सिरे में खुद को टांक लेने में यहाँ के लोग माहिर होते हैं। संबंधसुधार का यह कार्य समाजसुधार की तरह ही एक महान मानवीय कार्य है। यह एक महत्वपूर्ण शोधकार्य भी है। इस तरह के शोधकार्यों का सहारा अवतारों को भी लेना पड़ा है। सुग्रीव, विभीषण और हनुमानजी के साथ मधुर संबंध बनाये बिना रावण की ऐसीतैसी करना मर्यादा पुरुषोत्तम के लिए संभव नहीं था।

एक दिन जब मैं चैंक में पान का रसास्वादन करते हुए एक मित्र की प्रतिक्षा कर रहा था, मेरे पास भला-सा दिखनेवाला एक संबंधसुधारक आया। आते ही वह मेरा चरणस्पर्श करने लगा। यहाँ की चरणस्पर्श करनेवाली पवित्र परंपरा मुझे असहज कर देती है। पर मेरे प्रति उसके द्वारा व्यक्त की जा रही अनन्यश्रद्धा ने मुझे अपनी असहजता पर पर्दा डालने के लिए विवश कर दिया। चरण स्पर्श के रूप में श्रद्धा अर्पण के बाद कुछ देर तक वह अपनी मोहनी मूरत की नुमाईश करता हुआ मेरे सामने गद्गद् भाव से खड़ा रहा। पर्दे से आवृत्त मेरी असहजता को उसने बहुत जल्दी भांप लिया। तुरंत उसे नोचते हुए उसने कहा - ’’लगता है, आपने मुझे पहचाना नहीं।’’
 उसकी इस पर्दानुचाई ने मुझे और भी असहज कर दिया। अपनी असहजताजनित दुनियाभर के दीनभावों से निर्मित महासागर में डूबते-अकबकाते हुए मैंने कहा - ’’माफ करना! इस मामले में मैं निहायत ही अयोग्य व्यक्ति हूँ।’’

मेरे चेहरे पर पड़ी असहजता के पर्दे को तो वह पहले ही तार-तार कर चुका था, अब मेरी दीनता पर व्यंग्य प्रहार करते हुए उसने कहा - ’’स्वाभाविक है, दिन में आपको कितने ही महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मिलना पड़ता होगा, कितनों को याद रख पायेंगे आप।’’

’नाविक के तीर’ की कोटि के उसके इस कथन ने मुझे बुरी तरह घायल कर दिया। उसके ’महत्वपूर्ण व्यक्तियों’ वाली उक्ति का इस संदर्भ में मैं क्या अर्थ निकालता; यह कि - ’सामने खड़े इस महत्वपूर्ण व्यक्ति को विस्मृत करने के अपराध में मुझे जहर खा लेना चाहिए या कि महत्वपूर्णों को याद रखने और इस जैसे साधारणों को विस्मृत कर जाने की घोर अनैतिक आचरण का प्रायश्चित करने के लिए मुझे फंदे पर झूल जाना चाहिए।’ सच्चाई यह है कि जिन गिने-चुने व्यक्तियों को मैं महत्वपूर्ण मानता हूँ वे मुझसे मिलने भला क्यों आने लगे; और दूसरी ओर, स्वयं को महत्वपूर्ण माननेवाले महामानवों-महामनाओं से मिलने की मुझे कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। मिलने-मिलाने वाले मित्रों का मेरा दायरा बहुत छोटा है। उन्हें विस्मृत कर पाना संभव नहीं है।

मुझे व्यावहारिक रूप से पराजितकर विजयगर्व से वह झूमने लगा। बात आगे बढाते हुए उसने कहा - ’’माफ कीजिएगा, भोलापुर में आपका कोई रिश्तेदार रहता है?’’

इस चैक में चाय, जलपान और पान की असमाप्त स्थितिवाली सुविधाएँ एकमुश्त उपलब्ध हैं। अब तक वह इन सारी सुविधाओं का आनंद ले चुका था। उसके अपनत्वपूर्ण, सभ्य, सुसंस्कृत और नैतिक व्यवहार के प्रति समझदारी जताते हुए मेरी जेब निरंतर आत्मसमर्पित हुई जा रही थी। जेब की इस दुष्टता के कारण मुझे उस पर और उस व्यक्ति पर रह-रहकर क्रोध आ रहा था। परन्तु किसी भले व्यक्ति पर, और वह भी सार्वजनिक जगह पर क्रोध प्रदर्शित करना सर्वथा गर्हित कार्य होता। मुझे इस क्रोध का शमन करना पड़ा। इस कोशिश में मेरा विवेक जाता रहा। मैंने कहा - ’’भोलापुर में तो नहीं पर भलापुर में जरूर रहता हैं। भलापुर, वहीं पर ही है। भोलापुर-भलापुर। ’क’ उसका नाम है। रिश्ते में भतीजा लगता है। पिछली गर्मी में वह मुझसेे मिलने मेरे घर आया था। शायद आप उन्हीं के साथ थे।’’

इस मामले में वह शातिर निकला और एक बार फिर मुझे परास्त कर गया। उन्होंने मेरे झूठ को तुरंत पकड़ लिया। बगलें झांककर मुझे चिढ़ाते हुए उसने कहा - ’’झमा कीजियेगा, पहचानने में मुझसे शायद भूल हुई है। भोलापुर वाले ’क’ भाई साहब के, सूरजपुरवाले साले ’ख’ के, चन्द्रपुरवाले मामा ’ग’ के, बड़े लड़के ’घ’ का मैं दोस्त हूँ। भोलापुर में एक शादी में ’क’ भाई साहब ने आपकी तरह ही दिखनेवाले किसी सज्ज्न से परिचय कराया था। भाई साहब ने उनका नाम शायद कुबेर बताया था। मैंने आपको वही कुबेर अंकल समझ लिया था। वे लेखक है। बड़े भले और सज्जन आदमी हैं। आपका समय बर्बाद किया इसका मुझे खेद है।’’

इस बार ’भले और सज्जन कुबेर अंकल’ का हवाला देकर उसने मेरे अंदर छिपे हुए बुरे और दुर्जन कुबेर को नंगा कर दिया था। अपनी बुरई और दुर्जनता को स्वीकार कर लेने में ही मुझे अपनी भलाई दिखी। मैंने कहा - ’’आपने मुझे अधूरा पहचाना। पहचानने में आपसे गलती तो हुई है, पर यह कोई गंभीर और बड़ी गलती नहीं है। इसे गलती नहीं, यहाँ के लोगों का आम चरित्र माना जाना चाहिए। ऐसा हम सबसे होता है। यहाँ के लोग न तो स्वयं को पूरी तरह अनावृत्त ही करते हैं और न ही हम किसी को पूरी तरह पहचान ही पाते हैं। आपके भले और सज्जन कुबेर अंकल की तरह दिखनेवाला मैं भी कुबेर नाम ही धारण करता हूँ। लेखन-रोग भी है मुझे। परंतु आप देख ही रहे हैं, आपके उस कुबेर अंकल की भलाई और सज्जनता ने आपको धोखा दिया है।’’

अब की बार उन्होंने हें..हें...हें.... का मधुर स्वर निकाला। दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा बनाया, नमस्कार किया और चला गया। 

एसे लोगों को सामाजिक संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए। परन्तु संबंधसुधार का यह काम इनके लिए समाजसुधार का काम नहीं, व्यवसाय-विस्तार का काम होता है। आँखों से काजल चुरा लेना अर्थात् जेबें समर्पित करवा लेना इनके लिए बाएँ हाथ का खेल होता है। भाई का दोस्त बनकर बहिन को, बाप का दोस्त बनकर बेटी को और पति का दोस्त बनकर पत्नी को उड़ा ले जाने में ये बड़े माहिर होते हैं।
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बाजारों से गुजरते समय अक्सर आइए भाई साहब, आइए सर   की मनुहारें हमें उलझा देती हैं। एक बार इसी तरह की एक अत्यंत आत्मिक मनुहार ने मुझे लुट जाने पर विवश कर दिया। यद्यपि रुकते ही मैंने उस युवा दुकानदार से साफ-साफ कह दिया था कि मुझे इस समय कुछ भी खरीदना नहीं है। मुझसे कुछ काम हो तो कहिए।

उन्होंने पूछा - ’’कोई बात नहीं सर! आइए। बैठिए। आप साहू जी हैं न?’’

इस शहर में दस आम लोगों के प्रत्येक समूह में छः-सात लोग साहू ही होते हैं। उनकी इस चालाकी को मैं समझता था परंतु मामला जाति से संबंधित था, इसलिए झूठ बोलने का न तो वहाँ कोई अवसर था और न ही कोई नैतिक औचित्य। उसके अनुमान पर मैंने स्वीकृति की मुहर लगा दी।

संबंधों के उलझे सूत्रों को सुलझाते हुए उन्होने पूछा - ’’आप भोलापुर रहते हैं न?’’
’’हाँ।’’

वहाँ लंबा-लंबा सा, गोरा-नारा सा, एक आदमी रहता था, अच्छा सा उनका नाम था। क्या था  ... ।
’’क प्रसाद।’’
’’हाँ, हाँ। क प्रसाद। आप उन्हें जानते थे?’’
’’हाँ।’’

’’बड़े भले, सच्चे और सज्जन आदमी थे। हमारे परमानेंट ग्राहक थे। उनके साथ उनका पंद्रह-सत्रह साल का बेटा भी आया करता था।’’

मैंने उनके आशय को समझते हुए कहा - ’’पंद्रह-सत्रह साल का वह लड़का मैं ही हुआ करता था।’’
’’देखा, मेरा अनुमान कितना सही निकला। आपका नाम क्या हैं?
’’झ प्रसाद।’’
’’आप क्या करते हैं, शिक्षक हैं?’’
’’हाँ।’’

वह तीर में तुक्का आजमाये जा रहा था। मैं भी लगातार साफ झूठ बोले जा रहा था। पर दुकानदारी सजानेवालों को जैसा होना चाहिए, वह उससे भी अधिक, सवा सेर निकला। उनकी आँखें कह रही थी - बेटा! आपके झूठ-सच से मुझे क्या लेना-देना; मुझे तो दुकानदारी करना है। और उसने अपनी दुकानदारी कर भी ली।

(आप सोचते होंगे, यह कैसा लेखक है, जो झूठ बोलता है। लेखकों को तो कम से कम ईमानदार होना चाहिए। आपकी यह सोच आम सोच के दायरे में है इसलिए इसे गलत नहीं कहा जा सकता। इस शहर में एक तथाकथित बड़े साहित्यकार रहते हैं - विभूति प्रसाद ’भसेड़ू’ जी; बहुत शातिराना अंदाज में झूठ बोलते है और बात-बात में कहते हैं - ’झूठ और झूठ बोलनेवालों से मुझे सख्त नफरत होती है’। पर मुझे न तो झूठ से घृणा होती है और न हीं झूठ बोलनेवालों से नफरत। यहाँ तो अवतारों को भी झूठ बोलना पड़ा है। झूठ बोलना आदमी का स्वभाव है। झूठ न बोलनेवाला या तो पशु होता है, या महामानव। परंतु झूठ न बोलने का दावा करनेवाला आदमी न तो पशु होता है, और न ही महामानव। वह इन सभी से परे होता है।)

ऐसा उन सभी जगहों पर होता है जहाँ विक्रेता-क्रेता की संभावना हो। कार्यालय भी इसमें शामिल हैं; जहाँ कानून-कायदों और ईमानों की खरीद-फरोख्त होती है।

इन्हें व्यावसायिक संबंधसुधाराकों की श्रेणी में रखा जाना चहिए।
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राजनीति में मंत्रियों की सरकारी विदेश यात्राओं के समय दोनों देशों के बीच संबंधशोध और संबंधसुधार का काम यात्रा के एजेंडे में सबसे ऊपर होता है। रवाना होने के महीनों पहले माननीय मंत्री सहित उनका पूरा मंत्रालय संबंधित देश के साथ सदियों पुराने एतिहासिक तथ्यों पर शोधकार्य में जुट जाता होगा। तब न तो पूर्व-पश्चिम का भेद आड़े आता है और न ही वाम-दक्षिण का वाद-विचार। तब माहौल में सर्वत्र केवल अवसरवाद की ही गंध आती रहती है। आज बच्चन साहब होते तो उनकी मधुशाला में एक सूफियाना रुबाई और जुड़ जाती - ’वाम-दक्षिण भेद कराती, संबंध जोड़ती मधुशाला।’ इन्हें राजनीतिक संबंधसुधारक कहा जाना उचित होगा।

संबंधसूत्र हाथ लगने की कोई संभावना न हो तो नये सिरे से संबंधों की शुरुआत करने की कोशिशें होने लगती है। तलवे चाँटना, शहद से भी मीठी आवाज में कूँ .. कुँ .. करना, आज्ञापालन, जलपान, बार-रेस्टोरेंट की यात्राएँ, तोहफे, छोटे-मोटे पराक्रमों का भी बढ़-चढ़कर वर्णन आदि का प्रयोग होने लगे तो आप फौरन समझ जाते हैं कि ऐसा करनेवाला आपसे मधुर संबंध जोड़ने की व्यग्र अभिलाषा में उग्र हुआ जा रहा है। यह दुम हिलानेवाले कुत्ते की तरह का आचरण आजकल सर्वाधिक चलन में है। यह एक विलक्षण कला है और राजनीति तथा कला के सभी क्षेत्रों में इसे बेशर्मीपूर्वक और बेधड़क आजमाया जा रहा है।

इस तरह के संबंधसुधारकों को कलावादी संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए।

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संबंधसुधारकों की मुझे और भी अनेक कोटियाँ नजर आती हैं। इन्हें मैं आपके अभ्यासार्थ छोड़ देना चाहता हूँ। अपर्युक्त चारों प्रकारों को समझ लेने के बाद बाकी का अनुमान लगना आपके लिए जरा भी कठिन नहीं होगा।
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व्यंग्य

सड़कों के प्रकार


भारत के योगियों और सड़कों के अन्तर्संबंधों पर शोध करनेवाले मेरे एक सड़कछाप शोधार्थी मित्र हैं। (मित्र असाधारण हैं, परन्तु सड़कों पर शोधकार्य में जब से वे प्रवृत्त हुए हैं, उन्होंने अपना उपनाम सड़कछाप रख लिया है।) अपने शोधकार्य का महत्व समझाते हुए एक दिन मुझे उन्होंने ये बातें बतलाईं थी -

’एक अतिप्रभावशाली और सभ्रांत व्यक्ति था। वह आपने एक मातहत को बुरी तरह झिड़क रहा था। कह रहा था - ’’सड़क निर्माण के पवित्र कार्य में लगे हो और राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण की बातें करते हो? इसी से सड़कें बनेगी? साले चूतिए। राष्ट्र और चरित्र जाये भांड़ में। (यहाँ ’भांड़ में’ की जगह आप अपनी सुविधा अनुसार अन्य शब्द, जैसे - ’चूल्हे में’ का भी प्रयोग कर सकते हैं।) हम सड़क निर्माता हैं। हमने केवल सड़क निर्माण का ठेका लिया है; राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण का नहीं। केवल सड़कें बनायेंगे, सड़कें ही बिछायेंगे, सड़कें ही ओढ़ेंगे और सड़कें ही खायेंगे। यह अलग बात है कि भविष्य में जब कभी भी राष्ट्रनिर्माण का टेण्डर निकलेगा तो वह हमारे ही खाते में आयेगा। चरित्र-निर्माण का टेण्डर निकला तो वह भी हमी को मिलेगा। तब हम वह भी कर लेंगे। अभी मुफत में इसे काहे बाँटते फिरते हो। सब्र नहीं कर सकते। अभी से राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण का काम करके हमें कितना नुकसान होगा, जानते हो? और फिर राष्ट्र और चरित्र बनाकर क्या उखाड़ लोगे। खूब बना लिये राष्ट्र। खूब बना लिये चरित्र। जाओ! अभी सड़कें बनाओ, राष्ट्र और चरित्र बनते रहेंगे।’’

उस अतिप्रभावशाली और सभ्रांत व्यक्ति की इन बातों से मैं बड़ा प्रभावित हुआ। कारण साफ है - बातें बिलकुल मौलिक हैं। इसमें सत्य और ईमान की झलक है। विचारों में नवीनता है। ऐसी बातें मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी। कहीं पढ़ा भी नहीं था। जाहिर है, ऐसी बातें करनेवाला पहुँचा हुआ कोई योगी अथवा ज्ञानी ही होगा। इन्हीं चीजों ने मुझे सड़कों और सड़कों के बारे में चिंतन करनेवाले योगियों पर अनुसंधान करने के लिए प्रेरित किया। इसीलिए मेरे शोध में दी जा रही सामग्रियों का सीधा संबंध सड़कों के निर्माण से है, न राष्ट्र निर्माण से और न ही चरित्र निर्माण से। रही बात राष्ट्र निर्माण और चरित्र निर्माण की - ये विषय ’आऊट आफ फैशन’ हैं। इन पर बातें करके मैं आपको और आपके अमूल्य समय को नष्ट करना नहीं चाहूँगा। किसी को भी बोर करना या कष्ट देना नहीं चाहूँगा।

राज की एक बात कहता हूँ - शोध कार्य जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, एक नया तथ्य सामने आ रहा है। सड़क निर्माण के साथ-साथ राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण का काम भी होता रहता है, एकदम आधुनिक शैली में। यह आम तरह के राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण से बिलकुल अलग तरह का होता है, एकदम विशिष्ट। अतः कहा जा सकता है कि सड़क निर्माण, राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण, तीनों, सहपोषी किस्म के कार्य हैं। इस नाते मेरी यह शोध-सामग्री भविष्य में सड़कों पर शोध करनेवाले शोधार्थियों, निबंध लिखनेवाले विद्यार्थियों या फिर कमर कसकर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारियों में जुटे प्रतियोगियों के लिए अतिउपयोगी, सहयोगी सामग्री सिद्ध होगी।

मेरे शोध-प्रबंध के पहले अध्याय का शीर्षक ही है - ’’प्रतियोगी, उपयोगी, सहयोगी तथा योगी’’। इस अध्याय में इन शब्दों की उत्पत्ति और इनके अन्तर्संबंधों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। मसलन - यह देश योगियों का देश रहा है। पहले यहाँ चार प्रकार के योगी पाये जाते थे - प्रतियोगी, सहयोगी, उपयोगी तथा योगी (शुद्धयोगी)। मनोविकार श्रेणी के सभी तत्व और वे सभी लोग जो योग और उसकी माया के प्रतिगामी होते थे, विरोधी और बाधक होते थे; प्रतियोगी कहलाते थे। योगी का बिलकुल विलोम। इसी तरह मनोविकार श्रेणी के सभी तत्व और वे सभी लोग जो योग और उसकी माया के अनुगामी होते थे, साधक होते थे; सहयोगी कहलाते थे। वे साधक जो योगसिद्धि के मार्ग में बीच मे ही अटक-भटक जाया करते थे और योगियों की पूँछ पकड़कर अपनी जीवन-नैया पार लगाया करते थे - उपयोगी कहलाया करते थे।’

योग और योगियों से संबंधित उनके शोधकार्य के प्रथम अध्याय के इस महत्वपूर्ण अंश का अमृतपान करते हुए मुझे योगनिद्रा आने लगी थी। वे तत्काल समझ गये थे। झकोरते हुए उन्होंने कहा था - ’अब जैसा कि आप जानते ही हैं, उत्तरआधुनिकता का दौर है। योगियों ने अपने आपको बदल लिया है। अपने अर्थ और सामथ्र्य को भी बदल लिया है। योगी लोग ही जब बदल गये हैं तो बेचारे ये शब्द क्या करते, मर तो नहीं जाते न? इन लोगों ने भी अपने-अपने अर्थ बदल लिये हैं।

पुराने समय में योगीगण अपने योगों को साधने के फिराक में जंगल, पहाड़, बीहड़, गाँव और शहर; चारों ओर मारा-मारा फिरा करते थे। इनके मार्ग बड़े दुर्गम और कठिन हुआ करते थे। कंटकों और कंकड़ों से भरे होते थे। छोटे-बड़े गड्ढे ही गड्ढे होते थे। जनलेवा खाइयाँ होती थी, दरारें होती थी। कहीं भयंकर धूल तो कहीं दलदल और कीचड़ ही कीचड़ होते थे। कहीं ये पगडंडियों में रूपान्तरित हो जात थे तो कहीं-कहीं निराकार ईश्वर की भाँति अदृश्य भी हो जाते थे। इसीलिए योगियों ने अपने योगमार्ग को कठिन मार्ग कहा है। परन्तु योगीगण कभी भी कठिन योगमार्ग से दुखी और विचलित नहीं होते थे। वे जानते थे - योगमार्ग जितना दुर्गम और कठिन होगा उतने ही ऊँचे भगवान के दर्शन होंगे, उतने ही ऊँचे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

योगी लोग इन मार्गों पर चलकर मोक्ष और स्वर्ग प्राप्त करते थे। यह परंपरा आज भी जारी है। उस जमाने के सारे योगमार्ग आज भी जीवित हैं। योगियों की कर्मनिष्ठ-तापोनिष्ठ संतानें - आज की जनता, इन मार्गों पर चलकर प्रतिदिन बड़ी संख्या में मरती है। मरकर स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करती है।

इन जीवित योगमार्गों को हमारी आज की नासमझ सरकारें राजमार्ग बनाने पर तुली हुई हैं। पर ये मार्ग भी बड़े हठीले और चमत्कारी होते हैं, अपना रूप बदलने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं। डामर चिपकानेवाली मशीनें जैसे ही लौटती हैं, ये फिर अपने असली रूप में आ जाते हैं। बेचारी सरकार क्या करे, इन हठमार्गों के हठ के सामने उनकी सारी कोशिशें बेकार चली जाती हैं।

इन मार्गों पर डामर चिपकाने का काम देखकर हमारी जनता दुखी होकर कहती है - ’यह तो हमारे साथ सरासर धोखा है। हमारे स्वर्ग और मोक्ष के मार्गों को बंद किया जा रहा है।’ परन्तु डामर चिपकानेवाली मशीनों के लौटते ही ये मार्ग जब अपने असली रूप में आ जाते हैं तो जनता को परम शांति मिलती है। उन्हें अपनी परंपरा और अपने मार्ग पर गर्व होता है। ’ये हठीले योगमार्ग कभी आधुनिक नहीं हो सकते।’

सड़कछाप मित्र की बातें अब मेरी समझ में आने लगी थी। उनके योगमार्ग-पुराण के प्रवचन का उद्यापन करते हुए मैंने कहा - ’ठीक कहते हो मित्र। हमारे जैसे चूतिये टाइप कुछ लोग चिल्लाते रहते हैं कि - भाइयों, सड़क बनाने के नाम पर सड़क बनानेवाले और डामर चिपकानेवाले लोग मनमानी करते हैं। भ्रष्टाचार करते हैं। आपके साथ छल करते हैं। स्वर्ग और नरक का इन मार्गों के साथ कोई संबंध नहीं है। स्वर्ग भी इसी धरती पर है और नरक भी। मोक्ष भी यहीं है।’

पर जनता कहती है - ’हमारी परंपरा का मजाक बनानेवाले इन साले खतरनाक पागलों और बीमारों को अस्पताल क्यों नहीं भेज दिया जाता। पगला जाने पर या सन्निपात हो जाने पर ही लोग इस तरह चिल्लाते हैं। अरे छोड़ो यार, सालों को चिल्लाने दो। इनकी बातों का क्या बुरा मानना।’

 मेरी इस धृष्टता के कारण सड़कछाप मित्र नाराज होकर चले गये। परन्तु सड़कछाप मित्र की बाते सुनकर अब मेरी भी अंतर्दृष्टि  काम करने लगी है। मैं साफ-साफ देख पा रहा हूँ कि यहाँ की कुछ सड़कें पवित्र सरस्वती नदी की तरह होती र्हैं। पवित्र सरस्वती नदी की तरह ही पतित पावनी, मोक्ष दायिनी होती हैं। होती तो हैं पर दिखती नहीं हैं। ये सड़कंे मरम्मत और सुधार के नाम पर हर साल अरबों रूपये की मांग करती हैं। इन रूपयों से वह सड़क बनानेवाले और डामर चिपकानेवाले अपने भक्तों की वर्तमान पीढ़ी और उसके आगे की सात पीढ़ियों के लिए स्वर्ग का सुख प्रदान करती हैं। उन्हें मोक्ष देती हैं। इस तरह की सड़कें केवल सड़क बनानेवाले और डामर चिपकानेवाले लोगों के रिकार्ड रूपी पवित्र पुराणों में दिखती हैं। इसे ढूँढ़ने का प्रयास न करें, धरातल पर ये होती नहीं हैं। 


महान राजनेताओं, महापुरुषों और शहीदों के नाम पर अनेक मार्ग होते हैं। धर्म गुरुओं के नाम पर भी बड़े-बड़े मार्ग होते हैं। श्रद्धा और भक्ति के कारण कुछ लोग इन मार्गों के लिए पंथ शब्द का भी प्रयोग करते हैं। पर इन सबसे हटकर हमारे नगर में एक अनूठा मार्ग है। कुछ साल पहले इस मार्ग पर इसी मुहल्ले के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति को एक ट्रक ने अपनी चपेट में ले लिया था। दुष्ट निर्दयी ट्रक ने उस सज्जन को उनकी बाईक सहित आधे फर्लांग तक घसीटा था। बेचारे तुरन्त स्वर्ग गमन कर गये थे। लोगों की भावनाएँ बड़ी आहत हुई थी। मुहल्लेवालों ने चाहकर भी आजतक कभी चक्काजाम, हड़ताल, प्रदर्शन जैसा राष्ट्रीय कार्य किया नहीं था। उन्हें अच्छा अवसर मिल गया था। शव को बीच सड़क पर रखकर चक्का जाम कर दिया गया था। दुर्घटना और मृत्युकारित करनेवाली ट्रक तो बच निकली थी। परन्तु चक्काजाम में कई निर्दोष वाहनों के चक्के जाम हो गये थे। लोगों ने उन्हें अपने क्रोधाग्नि से भस्म कर डाला था। लोगों का कहना था - ’अकाल मृत्युकारित होनेवाला यह सज्जन इस मुहल्ले में जन-जन के वंदनीय थे। यहाँ स्पीडब्रेकर नहीं बल्कि उनकी स्मारक बननी चाहिए। स्मारक देश की परंपरा के अनुसार बननी चाहिए। सज्जन को जहाँ तक घसीटा गया है, उतने को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए। जहाँ-जहाँ उनके पवित्र रक्त गिरे हैं वहाँ-वहाँ स्मृतिचिह्न बनने चाहिए, एकदम शक्तिपीठ की तरह।’

सरकार ने कहा - ’आम रास्ता होने के कारण यहाँ स्मारक बनाना संभव नहीं है। स्पीड ब्रेकर जरूर बन जायेगा।’

लोगों ने कहा - ’स्पीड ब्रेकर बनें मगर सज्जन को जहाँ तक घसीटा गया है, वहाँ तक बनें।’

सरकार ने कहा - ’उन्हें लगभग सौ मीटर तक घसीटा गया है। इतना लंबा स्पीड ब्रेकर बनाना संभव नहीं है। कोई दूसरा तरीका सुझाइए।’

लोगों ने कहा - ’सज्जन साठ साल के थे इसलिए लगातार साठ ब्रेकर बनने चाहिए।’

सरकार ने कहा - ’यह तो दो सौ मीटर से भी अधिक लंबा होगा। कोई व्यावहारिक तरीका बताइए।’

एक चंदनधारी व्यक्ति ने सुझाव दिया - ’दुर्घटना पंद्रह तारीख को हुई है। संयोग से तिथि भी पूर्णिमा की है। अतः ब्रेकरों की संख्या भी पंद्रह होने चाहिए।’

यह नेक सलाह सबको भा गई। जनमानस के मापदण्डों के अनुसार आनन-फानन में लगातार पंद्रह भव्य स्पीड ब्रेकर बनाये गये।

आगे चलकर इस मार्ग में इस स्मारक के प्रभाव से और भी स्मारकों का प्रणयन हुआ और अब यह मार्ग स्मारक मार्ग नाम से विख्यात हो गया है। मुहल्लेवाले अब हमेशा अकड़े रहते हैं कि देखो, सरकार को हमने झुका दिया। यहाँ के श्रद्धालुगण इस मार्ग को स्मारक मार्ग कहते हुए अपार श्रद्धाभाव से भर जाते हैं।

अन्य शहरों में भी स्मारक मार्ग होते होंगे, पर इस तरह के नहीं ही होते होंगे। इस मार्ग पर हर दस कदम पर बड़े-बड़े स्पीड ब्रेकर बने हुए है। अकाल मृत्युकारित होनेवाले उस सज्जन की रूष्ट और असंतुष्ट आत्मा आये दिन अपनी अकाल मृत्यु का बदला लेती रहती है। इनके ऊपर से गुजरनेवाले अनेक लोगों की टांगों, पैरों और माथे की हड्डियाँ टूट चुकी हैं। अनेकों के बैकबोन ढीले पड़ चुके हैं। अनेक लोग कमर दर्द के स्थायी मरीज बन चुके हैं। अब तो इस मार्ग पर जनमानकों के अनुरूप बने इन खतरनाक स्पीड ब्रेकरों को समझदार लोग बोन ब्रेकर कहने लगेे हैं।

अन्य शहरों में इस तरह के स्मारक मार्ग चाहे नहीं होते होंगे, परन्तु इस मार्ग का लघु संस्करण - मारक मार्ग, तो देशभर में कहीं भी देखे जा सकते हैं। इन मार्गों से गुजरना और सुरक्षित पार हो जाना वैतरणी पार करने जैसा होता है।


यहाँ बहुतायत में पशुसंरक्षण मार्ग भी पाये जाते हैं। इन मार्गों पर पशुओं का आधिपत्य होता है। ये मार्ग पशुवंश की आहार, विहार, निद्रा, क्रीड़ा और विष्ठा के लिए संरक्षित होते हैं। इन पशुओं की सामान्य दिनचर्या में बाधा पहुँचाने का दुस्साहस करनेवाले अनेक लोग अपनी  हड्डियाँ तुड़वा बैठते हैं। कामक्रीड़ा के दिनों में इन्हीं मार्गों पर पशुगण अपनी-अपनी काम-कलाओं का उन्मुक्त प्रदर्शन कर लोगों का मुफ्त मनोरंजन करते हैं और उनकी वाहवाही बटोरते हैं।

इतने सारे विलक्षण मार्गों वाले इस देश के प्रति जिनका सिर श्रद्धा से न झुके, उन सब देशद्रोहियों के सिर कलम कर देने चाहिए।
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रविवार, 9 अक्तूबर 2016

कविता


कैफ़ी आज़मी

1
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो


आँखों में नमी हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो


बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो


जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो


रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो

2
झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं


तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता
मेरी तरह तेरा दिल बेक़रार है कि नहीं


वो पल के जिस में मुहब्बत जवान होती है
उस एक पल का तुझे इंतज़ार है कि नहीं


तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं

बुधवार, 28 सितंबर 2016

समीक्षा

29 सितंबर 2016 नई दुनिया के अंक में ’’फीस के चक्कर में बची एम. बी. बी. एस. की 86 सरकारी सीट निजी काॅलेजों के हवाले’’ शीर्षक से छत्तीसगढ़ियों के लिए एक निराशा जनक समाचार प्रकाशित हुआ है। 

’मंगलवार रात समाप्त हुई सेकंड राउंड काउंसिलिंग के बाद निजी मेडिकल काॅलेजों में सरकारी कोटा की बची 86 एम. बी. बी. एस. सीटें मैनेजमेंट कोटा में तब्दील हो गईं। अब इन सीटों को ’नीट’ के जरिये भरा जायेगा।’

छत्तीसगढ़ के उम्मीदवारों के पास डाॅक्टर बनने के लिए इन कालेजों द्वारा तय की जानेवाली फीस अदा करने के लिए धन नहीं था, इसीलिए सरकारी कोटे की ये सीटें नहीं भरी जा सकीं। छत्तीसगढ़ की सरकार ने यह सब हो जाने दिया। सरकार को अपने अहोभागी बनने के लिए शायद यही उचित लगा होगा। 

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

'वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परीक्षा एवं मूल्यांकन: सीमाएँ और चुनौतियाँ’ विषय पर छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल में 23 एवं 24 सितंबर 2016 को संगोष्ठी का आयेजन किया गया। संगोष्ठी में सहभागिता करते हुए मेरे द्वारा आलेख वाचन किया गया जो इस प्रकार है -


आज के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा लेना परीक्षा देने से अधिक चुनौतीपूर्ण काम है क्योंकि परीक्षार्थी अधिकार संपन्न हैं और परीक्षक सीमाओं से बंधा हुआ तथा चुनौतियों से घिरा हुआ है। छत्तीसगढ़ माध्य. शिक्षा मंडल जैसी संविधानिक संस्थाओं के लिए यह चुनौती तब और बढ़ जाती है जब यह राज्य की जनआकाक्षाओं के साथ जुड़ी हो, राज्य के लाखों बच्चों के भविष्य के साथ जुड़ी हो और अनेक चुनौतियों के साथ सीमाएँ भी तय कर दी गई हों क्योंकि व्यवस्था का अंग होने के नाते यह हमारी ही जिम्मेदारी है और हम अपनी जवाबदेही से इन्कार नहीं कर सकते। तमाम सीमाओं में बंधकर भी परीक्षा और मूल्यांकन से संबंधित सभी तरह की चुनौतियों को हमें स्वीकार करना ही होगा। सीमाएँ और चुनौतियाँ हमारे लिए परीक्षा की तरह हैं जो हमारी क्षमताओं, योग्यताओं और अनुभवों  का मूल्यांकन करती है। सफलता के अलाव हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है।
एक जनप्रचलित कहानी जो इस चर्चा के परिप्रेक्ष्य में मुझे प्रासंगिक लगती है, इस प्रकार है - 

अकबर ने बीरबल की चतुराई और बुद्धि को जाँचने के लिए उसे एक चुनौती दिया। एक बकरे को छः महीने तक पालना है। चारा-पानी में कटौती नहीं की जा सकती। छः महीने बाद बकरे को लौटाना होगा। परंतु शर्त यह है कि बकरे का वजन छः महीने पूर्व के वजन से जरा भी अधिक नहीं होना चाहिए। बीरबल ने चुनौती को सहर्ष स्वीकार किया और बादशाह की शर्तों को पूरा कर दिखाया। कहानीकार कहता है - इसके लिए बीरबल ने दो पृथक कक्षोंवाला बड़ा सा एक पिंजरा बनवाया। एक में उन्होंने बकरे को रखा और दूसरे में एक शेर को।

बीरबल का आत्मविश्वास, उसकी चतुराई और उसकी बुद्धि जब तक हमारे पास नहीं होगी, आज के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा एवं मूल्यांकन की सीमाओं और चुनौतियों से हम नहीं निपट सकते। 
 Dr. S.K. Pandey
The V.C., Pt. R.S.U.Raipur
As Chief Guest
Kuber Singh Sahu

सीमाएँ जो हमें बाँधती है चार तरह की हैं -
1. पाठ्यक्रम,
2. ब्लूपिंट,
3. पाठयक्रम में विषयवस्तु के साथ संलग्न अभ्यास के प्रश्न तथा
4. परीक्षा संचालन हेतु बनाये गये विभिन्न नियम व निर्देश।
ये हमारे द्वारा ही तय किये गये मानक हैं।
चुनौतियाँ अनेक हैं परन्तु दो प्रमुख चुनौतियों की मैं चर्चा करना चाहूँगा -

1. समय सीमा में गुणवत्तापूर्ण, निष्पक्ष, निर्विवाद तथा पारदर्शी, तरीके से परीक्षाएँ आयोजित करना, उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्याकन करना तथा परिणामों की घोषणा करना।

2. बेहतर परीक्षा परिणामों का नैतिक दबाव। बेहतर परीक्षा परिणामों के लिए नैतिक रूप से शिक्षा व्यवस्था, शिक्षक, छात्र तथा पालक; सभी समान रूप से जिम्मेदार हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल भी शिक्षा व्यवस्था के एक अंग के रूप में स्थापित संस्था है इसलिए अपने हिस्से की जिम्मेदारियाँ उसे उठाना ही पड़ेगा।
उपर्युक्त सीमाओं और चुनौतियों पर कल के दोनों सत्रों में विद्वान वक्ताओं तथा हमारे अनुभवी मित्रों के द्वारा विस्तारपूर्वक चर्चा की गई। प्रथम सत्र के मुख्यअतिथि आदरणीय प्रो. एस के पाण्डेय, कुलपति, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर ने इस विषय पर अपने संक्षिप्त पर सारगर्भित उद्बोधन में हमें कुछ मूल्यवान व महत्वपूर्ण सुझाव दिया है जो इस प्रकार है -

1. परीक्षा के लिए ऐसा वातावरण बनाया जाय जो छात्रों के मन से परीक्षा के भय को दूर करने में सहायक हो। बच्चे परीक्षा और उसकी चुनौतियों को भी अध्यापन कार्य की तरह सहज रूप में सवीकार कर सके। बच्चों में इस तरह की क्षमताओं का विकास और आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए हमें प्रयास करने होंगे।

2. हमारे द्वारा ली जानेवाली परीक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में मूल अंतर है। प्रतियोगी परीक्षाएँ यद्यपि चयन परीक्षाएँ कही जाती हैं, परन्तु उसकी प्रकृति छाँटनेवाली या रिजेक्ट करनेवाली होती है। कुछ ही अभ्यर्थी उत्तीर्ण हो पाते हैं, अधिकांश अनुत्तीर्ण अर्थात रिजेक्ट कर दिये जाते हैं। हमारी परीक्षा की प्रवृत्ति अनुत्तीर्ण करने की नहीं बल्कि उत्तीर्ण करने की होती है। हमारा उद्देश्य किसी बच्चे को छाँटकर उसे शि़क्षा से दूर करना या वंचित करना नहीं हो सकता। 

विद्वान साथी श्री दीपक सिंह ठाकुर, प्राचार्य शा. उ. मा. शाला टेड़ेसरा तथा विषय संयोजक हिन्दी द्वारा अपने लिखित वक्तव्य में चर्चा के लिए निर्धारित विषय ’आज के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा एवं मूल्यांकन: सीमाएँ एवं चुनौतियाँ’ के लगभग सभी पक्षों को स्पर्श करते हुए इस संबंध में; अपने अध्यापन तकनीक में शिक्षकों को व्यावसायिक वृत्ति अपनाये जाने तथा बोर्ड को समय-समय पर ब्लूप्रिंट में संशोधन करने जैसे कुछ और भी महत्वपूर्ण सुझाव दिये गये। इन सुझावों को सदन का समर्थन भी प्रप्त हुआ। श्री ठाकुर को इसके लिए बधाई दिया जाना चाहिए।

डाॅ. फ्रांसिस मैडम अपने पावर प्वाईट प्रेजेन्टेशन में चर्चा के लिए निर्धारित विषय से दूर जाती हुई प्रतीत हुई। इसके अलावा अन्य सभी साथियों के द्वारा अपने वक्तव्य में ’प्रश्नों की मौलिकता’ विषय पर विचार व्यक्त करते हुए लगभग एक ही बात को दुहराया गया कि भाषा अथवा वाक्य संरचना में परिवर्तन करके किसी भी प्रचलित प्रश्न को मौलिक रूप दिया जा सकता है। यह सुझाव उपयोगी कम और हास्यास्पद अधिक लगी। यह एक आम और प्रचलित तकनीक है। बच्चों में इस तकनीक के लिए एक जुमला प्रचलित है - प्रश्न को घुमा-फिराकर पूछा गया है।    संयोजकों-आयोजको द्वारा शायद वक्ताओं को चितन हेतु पर्याप्त समय नहीं दिया गया होगा अथवा उन्हें उनके लिए निर्घारित विषय की अवधारण स्पष्ट नहीं की गई होगी। 

फिर भी इस दो दिवसीय संगोष्ठी के आयोजन के लिए विद्योचत विभाग बधाई का पात्र है क्योंकि राज्य स्तर पर इस तरह का आयोजन होना ही अपने आप में एक महत्वपूर्ण और बड़ी घटना है। एक सार्थक पहल है।
धन्यवाद।
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दिनांक - 24. 09. 2016

कुबेर सिंह साहू
व्याखाता
शास. उ. मा. शाला
कन्हारपुरी, राजनांदगाँव
मो. 9407685557

बुधवार, 21 सितंबर 2016

कविता

सच होती एक उक्ति


ईश्वर और अल्लाह एक नहीं थे
उन्हें एक करने के लिए एक उक्ति गढ़ी गई
’ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम
सबको सन्मति दे भगवान’
और यही उक्ति
मेंरे उपर्युक्त कथन का प्रमाण है।

अपनी और अपने शास्त्रों की आलोचनाएँ,
अविश्वास और टिप्पणियाँ कोई मनुष्य करे
यह छूट न कभी ईश्वर ने दिया है
और न अल्लाह ने।

फिर भी मैं निर्भीक होकर
ईश्वर की आलोचनाएँ कर सकता था
ईश्वर के अस्तित्व को नकार सकता था
परन्तु
अल्लाह के बारे में
ऐसा न अब सोच सकता हूँ
न पहले कभी सोच सकता था

’ईश्वर अल्लाह तेरो नाम ...’
यह किसी आशावादी की उक्ति होगी
अथवा किसी हताशावादी की
और मैं -
न तो आशावादी हूँ
और न हताशावादी
यथार्थ जो दिखाता है उसे मानता हूँ
इसीलिए इस उक्ति को सिरे से नकारता हूँ।

पर अब, यह उक्ति सचमुच
सच होती दिखती है
निःसंदेह, ईश्वर और अल्लाह
एक होते दिखते हैं
क्योंकि अब तो
ईश्वर के संबंध में भी कुछ कहते हुए
गले पर असंख्य तलवार
लटकते हुए दिखते हैं।

फतवों और तलवारों के बाद भी,
ईश्वर और अल्लाह,
और ऐसे सभी तत्वों को मैं नकारता हूँ
क्योंकि ये मुझे महज
एक काल्पनिक दृश्य लगते हैं।
और, कल्पना के केवल एक ईश्वर और
एक अल्लाह को क्यों माना जाय?
जबकि मानने के लिए मुझे अपने चारों ओर
घिसटते-रपटते चलते, रोते-बिलखते
असंख्य, आदमी ही आदमी नजर आते हैं।
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रविवार, 18 सितंबर 2016

व्यंग्य

संबंधसुधारक और उसकी कोटयाँ


संबंध जोड़ने के काम की तरह ही संबंध सुधारना भी यहाँ पवित्र कार्य माना जाता है। यहाँ बिगड़े हुए संबंधों को सुधारने की बात नहीं कह रहा हूँ, भूले-बिसरे संबंधों अथवा संबंधों के अतिसांकरी प्रेम गली से चलकर नये संबंध जोड़़नेवालों की बात कह रहा हूँ। अपना लोक और परलोक सुधारने की चाह में अनेक लोग संबंधों के उलझे हुए सूत्रों को सुधारने में लगे रहते हैं। ऐसे दिव्य व्यक्तित्वों को संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए। संबंध सुधारने का अंतिम लक्ष्य संबंधजोड़ना ही होता है।

यहाँ जब भी दो व्यक्ति मिलते हैं, अपने बीच किसी तरह के संबंधो की तलाश में जुट जाते हैं। तलाश का यह क्रम क्षेत्र, भाषा, जाति से शुरू होती है और अंत में रिश्तेदारी में आकर समाप्त होती है। इस काम के लिए आजकल राजनीति अधिक उपजाऊ जमीनें मुहैया करा रही है। यहाँ इसे फैशन का दर्जा मिला हुआ है। यात्रा आदि के समय ऐसा बहुतायत में होता है। सूत्रों की लझने अक्सर सुधर ही जाती है; कोई न कोई सूत्र हाथ लग ही जाता है। सूत्र न जुड़ने की स्थिति में मिताई बदने की रामायणकालीन परंपरा तो है ही। 

संबंधों की अनन्यता इस देश के लोगों की खास सामाजि विशेषता है। इसी विशेषता के गिट्टी, सिमेंट के रेतीले गारे के रसीलेपन से यहाँ के लोगों के सरस चरित्रों का निर्माण होता है। आपस के संबंधसूत्रों को खोजने, उसके उलझावों को सुलझाने और उसके किसी अनपेक्षित सिरे में खुद को टांक लेने में यहाँ के लोग माहिर होते हैं। संबंधसुधार का यह कार्य समाजसुधार की तरह ही एक महान मानवीय कार्य है। यह एक महत्वपूर्ण शोधकार्य भी है। इस तरह के शोधकार्यों का सहारा अवतारों को भी लेना पड़ा है। सुग्रीव, विभीषण और हनुमानजी के साथ मधुर संबंध बनाये बिना रावण की ऐसीतैसी करना मर्यादा पुरुषोत्तम के लिए संभव नहीं था। 

एक दिन जब मैं चौक में पान का रसास्वादन करते हुए एक मित्र की प्रतिक्षा कर रहा था, मेरे पास भला-सा दिखनेवाला एक संबंधसुधारक आया। आते ही वह मेरा चरणस्पर्श करने लगा। यहाँ की चरणस्पर्श करनेवाली पवित्र परंपरा मुझे असहज कर देती है। पर मेरे प्रति उसके द्वारा व्यक्त की जा रही अनन्यश्रद्धा ने मुझे अपनी असहजता पर पर्दा डालने के लिए विवश कर दिया। चरण स्पर्श के रूप में श्रद्धा अर्पण के बाद कुछ देर तक वह अपनी मोहनी मूरत की नुमाईश करता हुआ मेरे सामने गद्गद् भाव से खड़ा रहा। पर्दे से आवृत्त मेरी असहजता को उसने बहुत जल्दी भांप लिया। तुरंत उसे नोचते हुए उसने कहा - ’’लगता है, आपने मुझे पहचाना नहीं।’’

 उसकी इस पर्दानुचाई ने मुझे और भी असहज कर दिया। अपनी असहजताजनित दुनियाभर के दीनभावों से निर्मित महासागर में डूबते-अकबकाते हुए मैंने कहा - ’’माफ करना! इस मामले में मैं निहायत ही अयोग्य व्यक्ति हूँ।’’

मेरे चेहरे पर पड़ी असहजता के पर्दे को तो वह पहले ही तार-तार कर चुका था, अब मेरी दीनता पर व्यंग्य प्रहार करते हुए उसने कहा - ’’स्वाभाविक है, दिन में आपको कितने ही महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मिलना पड़ता होगा, कितनों को याद रख पायेंगे आप।’’

’नाविक के तीर’ की कोटि के उसके इस कथन ने मुझे बुरी तरह घायल कर दिया। उसके ’महत्वपूर्ण व्यक्तियों’ वाली उक्ति का इस संदर्भ में मैं क्या अर्थ निकालता; यह कि - ’सामने खड़े इस महत्वपूर्ण व्यक्ति को विस्मृत करने के अपराध में मुझे जहर खा लेना चाहिए या कि महत्वपूर्णों को याद रखने और इस जैसे साधारणों को विस्मृत कर जाने की घोर अनैतिक आचरण का प्रायश्चित करने के लिए मुझे फंदे पर झूल जाना चाहिए।’ सच्चाई यह है कि जिन गिने-चुने व्यक्तियों को मैं महत्वपूर्ण मानता हूँ वे मुझसे मिलने भला क्यों आने लगे; और दूसरी ओर, स्वयं को महत्वपूर्ण माननेवाले महामानवों-महामनाओं से मिलने की मुझे कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। मिलने-मिलाने वाले मित्रों का मेरा दायरा बहुत छोटा है। उन्हें विस्मृत कर पाना संभव नहीं है।


मुझे व्यवहारिक रूप से पराजितकर विजयगर्व से वह झूमने लगा। बात आगे बढाते हुए उसने कहा - ’’माफ कीजिएगा, भोलापुर में आपका कोई रिश्तेदार रहता है?’’

इस चौक में चाय, जलपान और पान की असमाप्त स्थितिवाली सुविधाएँ एकमुश्त उपलब्ध हैं। अब तक वह इन सारी सुविधाओं का आनंद ले चुका था। उसके अपनत्वपूर्ण, सभ्य, सुसंस्कृत और नैतिक व्यवहार के प्रति समझदारी जताते हुए मेरी जेब निरंतर आत्मसमर्पित हुई जा रही थी। जेब की इस दुष्टता के कारण मुझे उस पर और उस व्यक्ति पर रह-रहकर क्रोध आ रहा था। परन्तु किसी भले व्यक्ति पर, और वह भी सार्वजनिक जगह पर क्रोध प्रदर्शित करना सर्वथा गर्हित कार्य होता। मुझे इस क्रोध का शमन करना पड़ा। इस कोशिश में मेरा विवेक जाता रहा। मैंने कहा - ’’भोलापुर में तो नहीं पर भलापुर में जरूर रहता हैं। भलापुर, वहीं पर ही है। भोलापुर-भलापुर। ’क’ उसका नाम है। रिश्ते में भतीजा लगता है। पिछली गर्मी में वह मुझसेे मिलने मेरे घर आया था। शायद आप उन्हीं के साथ थे।’’

इस मामले में वह शातिर निकला और एक बार फिर मुझे परास्त कर गया। उन्होंने मेरे झूठ को तुरंत पकड़ लिया। बगलें झांककर मुझे चिढ़ाते हुए उसने कहा - ’’झमा कीजियेगा, पहचानने में मुझसे शायद भूल हुई है। भोलापुर वाले ’क’ भाई साहब के, सूरजपुरवाले साले ’ख’ के, चन्द्रपुरवाले मामा ’ग’ के, बड़े लड़के ’घ’ का मैं दोस्त हूँ। भोलापुर में एक शादी में ’क’ भाई साहब ने आपकी तरह ही दिखनेवाले किसी सज्ज्न से परिचय कराया था। भाई साहब ने उनका नाम शायद कुबेर बताया था। मैंने आपको वही कुबेर अंकल समझ लिया था। वे लेखक है। बड़े भले और सज्जन आदमी हैं। आपका समय बर्बाद किया इसका मुझे खेद है।’’

इस बार ’भले और सज्जन कुबेर अंकल’ का हवाला देकर उसने मेरे अंदर छिपे हुए बुरे और दुर्जन कुबेर को नंगा कर दिया था। अपनी बुरई और दुर्जनता को स्वीकार कर लेने में ही मुझे अपनी भलाई दिखी। मैंने कहा - ’’आपने मुझे अधूरा पहचाना। पहचानने में आपसे गलती तो हुई है, पर यह कोई गंभीर और बड़ी गलती नहीं है। इसे गलती नहीं, यहाँ के लोगों का आम चरित्र माना जाना चाहिए। ऐसा हम सबसे होता है। यहाँ के लोग न तो स्वयं को पूरी तरह अनावृत्त ही करते हैं और न ही हम किसी को पूरी तरह पहचान ही पाते हैं। आपके भले और सज्जन कुबेर अंकल की तरह दिखनेवाला मैं भी कुबेर नाम ही धारण करता हूँ। लेखन-रोग भी है मुझे। परंतु आप देख ही रहे हैं, आपके उस कुबेर अंकल की भलाई और सज्जनता ने आपको धोखा दिया है।’’

अब की बार उन्होंने हें..हें...हें.... का मधुर स्वर निकाला। दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा बनाया, नमस्कार किया और चला गया।  

एसे लोगों को सामाजिक संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए। परन्तु संबंधसुधार का यह काम इनके लिए समाजसुधार का काम नहीं, व्यवसाय-विस्तार का काम होता है। आँखों से काजल चुरा लेना अर्थात् जेबें समर्पित करवा लेना इनके लिए बाएँ हाथ का खेल होता है। भाई का दोस्त बनकर बहिन को, बाप का दोस्त बनकर बेटी को और पति का दोस्त बनकर पत्नी को उड़ा ले जाने में ये बड़े माहिर होते हैं।


बाजारों से गुजरते समय अक्सर आइए भाई साहब, आइए सर   की मनुहारें हमें उलझा देती हैं। एक बार इसी तरह की एक अत्यंत आत्मिक मनुहार ने मुझे लुट जाने पर विवश कर दिया। यद्यपि रुकते ही मैंने उस युवा दुकानदार से साफ-साफ कह दिया था कि मुझे इस समय कुछ भी खरीदना नहीं है। मुझसे कुछ काम हो तो कहिए।

उन्होंने पूछा - ’’कोई बात नहीं सर! आइए। बैठिए। आप साहू जी हैं न?’’

इस शहर में दस आम लोगों के प्रत्येक समूह में छः-सात लोग साहू ही होते हैं। उनकी इस चालाकी को मैं समझता था परंतु मामला जाति से संबंधित था, इसलिए झूठ बोलने का न तो वहाँ कोई अवसर था और न ही कोई औचित्य। उसके अनुमान पर मैंने स्वीकृति की मुहर लगा दी।

संबंधों के उलझे सूत्रों को सुलझाते हुए उन्होने पूछा - ’’आप भोलापुर रहते हैं न?’’
’’हाँ।’’
वहाँ लंबा-लंबा सा, गोरा-नारा सा, एक आदमी रहता था, अच्छा सा उनका नाम था। क्या था  ... ।
’’क प्रसाद।’’
’’हाँ, हाँ। क प्रसाद। आप उन्हें जानते थे?’’
’’हाँ।’’
’’बड़े भले, सच्चे और सज्जन आदमी थे। हमारे परमानेंट ग्राहक थे। उनके साथ उनका पंद्रह-सत्रह साल का बेट भी आया करता था।’’

मैंने उनके आशय को समझते हुए कहा - ’’पंद्रह-सत्रह साल का वह लड़का मैं ही हुआ करता था।’’
’’देखा, मेरा अनुमान कितना सही निकला। आपका नाम क्या हैं?
’’झ प्रसाद।’’
’’आप क्या करते हैं, शिक्षक हैं?’’
’’हाँ।’’

वह तीर में तुक्का आजमाये जा रहा था। मैं भी लगातार साफ झूठ बोले जा रहा था। पर दुकानदारी सजानेवालों को जैसा होना चाहिए, वह उससे भी अधिक, सवा सेर निकला। उनकी आँखें कह रही थी - बेटा! आपके झूठ-सच से मुझे क्या लेना-देना; मुझे तो दुकानदारी करना है। और उसने अपनी दुकानदारी कर भी ली। 

(आप सोचते होंगे, यह कैसा लेखक है, जो झूठ बोलता है। लेखकों को तो कम से कम ईमानदार होना चाहिए। आपकी यह सोच आम सोच के दायरे में है इसलिए इसे गलत नहीं कहा जा सकता। इस शहर में एक तथाकथित बड़े साहित्यकार रहते हैं - विभूति प्रसाद ’भसेड़ू’ जी; बहुत शातिराना अंदाज में झूठ बोलते है और बात-बात में कहते हैं - ’झूठ और झूठ बोलने वालों से मुझे सख्त नफरत होती है’। पर मुझे न तो झूठ से घृणा होती है और न हीं झूठ बोलनेवालों से नफरत। यहाँ तो अवतारों को भी झूठ बोलना पड़ा है। झूठ बोलना आदमी का स्वभाव है। झूठ न बोलनेवाला या तो पशु होता है, या महामानव। परंतु झूठ न बोलने का दावा करनेवाला आदमी न तो पशु होता है, और न ही महामानव। वह इन सभी से परे होता है।) 

ऐसा उन सभी जगहों पर होता है जहाँ विक्रेता-क्रेता की संभावना हो। कार्यालय भी इसमें शामिल हैं; जहाँ कानून-कायदों और ईमानों की खरीद-फरोख्त होती है।

इन्हें व्यावसायिक संबंधसुधाराको की श्रेणी में रखा जाना चहिए।


राजनीति में मंत्रियों की सरकारी विदेश यात्राओं के समय दोनों देशों के बीच संबंधशोध और संबंधसुधार का काम यात्रा के एजेंडे में सबसे ऊपर होता है। रवाना होने के महीनों पहले माननीय मंत्री सहित उनका पूरा मंत्रालय संबंधित देश के साथ सदियों पुराने एतिहासिक तथ्यों पर शोधकार्य में जुट जाता होगा। तब न तो पूर्व-पश्चिम का भेद आड़े आता है और न ही वाम-दक्षिण का वाद-विचार। तब माहौल में सर्वत्र केवल अवसरवाद की ही गंध आती रहती है। आज बच्चन साहब होते तो उनकी मधुशाला में एक रुबाई और जुड़ जाती - ’वाम-दक्षिण भेद कराती, संबंध जोड़ती मधुशाला।’ इन्हें राजनीतिक संबंधसुधारक कहा जाना उचित होगा।

संबंधसूत्र हाथ लगने की कोई संभावना न हो तो नये सिरे से संबंधों की शुरुआत करने की कोशिशें होने लगती है। तलवे चाँटना, शहद से भी मीठे आवाज में कूँ .. कुँ .. करना, आज्ञापालन, जलपान, बार-रेस्टोरेंट की यात्राएँ, तोहफे, छोटे-मोटे पराक्रमों का भी बढ़-चढ़कर वर्णन आदि का प्रयोग होने लगे तो आप फौरन समझ जाते हैं कि ऐसा करनेवाला आपसे मधुर संबंध जोड़ने की व्यग्रता में उग्र अभिलाषी हुआ जा रहा है। यह दुम हिलाने वाले कुत्ते की तरह का आचरण आजकल सर्वाधिक चलन में है। यह एक विलक्षण कला है और राजनीति तथा कला के सभी क्षेत्रों में इसे बेशर्मीपूर्वक और बेधड़क आजमाया जा रहा है।

इस तरह के संबंधसुधारकों को कलावादी संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए।


संबंधसुधारकों की मुझे और भी अनेक कोटियाँ नजर आती हैं। इन्हें मैं आपके अभ्यासार्थ छोड़ देना चाहता हूँ। अपर्युक्त चारों प्रकारों को समझ लेने के बाद बाकी का अनुमान लगना आपके लिए जरा भी कठिन नहीं होगा।
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गुरुवार, 8 सितंबर 2016

कविता

वे बँटना नहीं जानते


समय में, सहूलियत में,
कल्पना और असलियत में
सब जगह, सब में,
लोग अपना हिस्सा तलाशते हैं।

समय को, समाज को
कल को, अब और आज को
कल्पनाओं और हकीकतों को
ईश्वर और अकीदतों को
संपत्ति की तरह हिस्सों में
तोड़कर-काँटकर बाँटते हैं।

हिस्सा बहुरूपिया होता है
अनेक-अनेक संभावित रूपों में
छद्म सुखों और सार्वत्रिक दुखों में
जैसे - स्वार्थ और सुविधा,
ये बहुप्रयोगित, बहुप्रचलित रूप होते हैं
हमारी पारंपरिक प्रतिष्ठा और समृद्धि के -
सर्वाधिक स्वाभाविक और अनुरूप होते हैं।

जिनको हम बाँटना चाहते हैं, वे बँटना जानते हैं?
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