रविवार, 9 अक्तूबर 2016

कविता


कैफ़ी आज़मी

1
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो


आँखों में नमी हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो


बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो


जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो


रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो

2
झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं


तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता
मेरी तरह तेरा दिल बेक़रार है कि नहीं


वो पल के जिस में मुहब्बत जवान होती है
उस एक पल का तुझे इंतज़ार है कि नहीं


तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें