बुधवार, 19 अक्टूबर 2016

व्यंग्य

संबंधसुधारक और उसकी कोटयाँ


संबंध जोड़ने के काम की तरह ही संबंध सुधारना भी यहाँ पवित्र कार्य माना जाता है। यहाँ बिगड़े हुए संबंधों को सुधारने की बात नहीं कह रहा हूँ, भूले-बिसरे संबंधों अथवा संबंधों की ’अतिसांकरी प्रेम गली’ से चलकर नये संबंध जोड़़नेवालों की बात कह रहा हूँ। अपना लोक और परलोक सुधारने की चाह में अनेक लोग संबंधों के उलझे हुए सूत्रों को सुधारने में लगे रहते हैं। ऐसे दिव्य व्यक्तित्वों को संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए। संबंध सुधारने का अंतिम लक्ष्य संबंध जोड़ना ही होता है।

यहाँ जब भी दो व्यक्ति मिलते हैं, अपने बीच किसी तरह के संबंधों की तलाश में जुट जाते हैं। तलाश का यह क्रम क्षेत्र, भाषा, जाति से शुरू होती है और अंत में रिश्तेदारी में आकर समाप्त होती है। इस काम के लिए आजकल राजनीति अधिक उपजाऊ जमीनें मुहैया करा रही है। यहाँ इसे फैशन का दर्जा मिला हुआ है। यात्रा आदि के समय ऐसा बहुतायत में होता है। संबंधसुधारकों का आदर्शवाक्य होता है - झुकती है दुनिया, झुकानेवाला चाहिए। प्रयास करने पर सूत्रों की उलझने अक्सर सुधर ही जाती है; कोई न कोई सूत्र हाथ लग ही जाता है। फिर भी, दुर्योग से कोई सूत्र न जुड़ पाये तो ऐसी स्थिति में मिताई बदने की रामायणकालीन परंपरा तो है ही।

संबंधों की अनन्यता इस देश के लोगों की खास सामाजिक विशेषता है। इसी विशेषता के गिट्टी, सिमेंट के रेतीले गारे के रसीलेपन से यहाँ के लोगों के सरस चरित्रों का निर्माण होता है। आपस के संबंधसूत्रों को खोजने, उसके उलझावों को सुलझाने और उसके किसी अनपेक्षित सिरे में खुद को टांक लेने में यहाँ के लोग माहिर होते हैं। संबंधसुधार का यह कार्य समाजसुधार की तरह ही एक महान मानवीय कार्य है। यह एक महत्वपूर्ण शोधकार्य भी है। इस तरह के शोधकार्यों का सहारा अवतारों को भी लेना पड़ा है। सुग्रीव, विभीषण और हनुमानजी के साथ मधुर संबंध बनाये बिना रावण की ऐसीतैसी करना मर्यादा पुरुषोत्तम के लिए संभव नहीं था।

एक दिन जब मैं चैंक में पान का रसास्वादन करते हुए एक मित्र की प्रतिक्षा कर रहा था, मेरे पास भला-सा दिखनेवाला एक संबंधसुधारक आया। आते ही वह मेरा चरणस्पर्श करने लगा। यहाँ की चरणस्पर्श करनेवाली पवित्र परंपरा मुझे असहज कर देती है। पर मेरे प्रति उसके द्वारा व्यक्त की जा रही अनन्यश्रद्धा ने मुझे अपनी असहजता पर पर्दा डालने के लिए विवश कर दिया। चरण स्पर्श के रूप में श्रद्धा अर्पण के बाद कुछ देर तक वह अपनी मोहनी मूरत की नुमाईश करता हुआ मेरे सामने गद्गद् भाव से खड़ा रहा। पर्दे से आवृत्त मेरी असहजता को उसने बहुत जल्दी भांप लिया। तुरंत उसे नोचते हुए उसने कहा - ’’लगता है, आपने मुझे पहचाना नहीं।’’
 उसकी इस पर्दानुचाई ने मुझे और भी असहज कर दिया। अपनी असहजताजनित दुनियाभर के दीनभावों से निर्मित महासागर में डूबते-अकबकाते हुए मैंने कहा - ’’माफ करना! इस मामले में मैं निहायत ही अयोग्य व्यक्ति हूँ।’’

मेरे चेहरे पर पड़ी असहजता के पर्दे को तो वह पहले ही तार-तार कर चुका था, अब मेरी दीनता पर व्यंग्य प्रहार करते हुए उसने कहा - ’’स्वाभाविक है, दिन में आपको कितने ही महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मिलना पड़ता होगा, कितनों को याद रख पायेंगे आप।’’

’नाविक के तीर’ की कोटि के उसके इस कथन ने मुझे बुरी तरह घायल कर दिया। उसके ’महत्वपूर्ण व्यक्तियों’ वाली उक्ति का इस संदर्भ में मैं क्या अर्थ निकालता; यह कि - ’सामने खड़े इस महत्वपूर्ण व्यक्ति को विस्मृत करने के अपराध में मुझे जहर खा लेना चाहिए या कि महत्वपूर्णों को याद रखने और इस जैसे साधारणों को विस्मृत कर जाने की घोर अनैतिक आचरण का प्रायश्चित करने के लिए मुझे फंदे पर झूल जाना चाहिए।’ सच्चाई यह है कि जिन गिने-चुने व्यक्तियों को मैं महत्वपूर्ण मानता हूँ वे मुझसे मिलने भला क्यों आने लगे; और दूसरी ओर, स्वयं को महत्वपूर्ण माननेवाले महामानवों-महामनाओं से मिलने की मुझे कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। मिलने-मिलाने वाले मित्रों का मेरा दायरा बहुत छोटा है। उन्हें विस्मृत कर पाना संभव नहीं है।

मुझे व्यावहारिक रूप से पराजितकर विजयगर्व से वह झूमने लगा। बात आगे बढाते हुए उसने कहा - ’’माफ कीजिएगा, भोलापुर में आपका कोई रिश्तेदार रहता है?’’

इस चैक में चाय, जलपान और पान की असमाप्त स्थितिवाली सुविधाएँ एकमुश्त उपलब्ध हैं। अब तक वह इन सारी सुविधाओं का आनंद ले चुका था। उसके अपनत्वपूर्ण, सभ्य, सुसंस्कृत और नैतिक व्यवहार के प्रति समझदारी जताते हुए मेरी जेब निरंतर आत्मसमर्पित हुई जा रही थी। जेब की इस दुष्टता के कारण मुझे उस पर और उस व्यक्ति पर रह-रहकर क्रोध आ रहा था। परन्तु किसी भले व्यक्ति पर, और वह भी सार्वजनिक जगह पर क्रोध प्रदर्शित करना सर्वथा गर्हित कार्य होता। मुझे इस क्रोध का शमन करना पड़ा। इस कोशिश में मेरा विवेक जाता रहा। मैंने कहा - ’’भोलापुर में तो नहीं पर भलापुर में जरूर रहता हैं। भलापुर, वहीं पर ही है। भोलापुर-भलापुर। ’क’ उसका नाम है। रिश्ते में भतीजा लगता है। पिछली गर्मी में वह मुझसेे मिलने मेरे घर आया था। शायद आप उन्हीं के साथ थे।’’

इस मामले में वह शातिर निकला और एक बार फिर मुझे परास्त कर गया। उन्होंने मेरे झूठ को तुरंत पकड़ लिया। बगलें झांककर मुझे चिढ़ाते हुए उसने कहा - ’’झमा कीजियेगा, पहचानने में मुझसे शायद भूल हुई है। भोलापुर वाले ’क’ भाई साहब के, सूरजपुरवाले साले ’ख’ के, चन्द्रपुरवाले मामा ’ग’ के, बड़े लड़के ’घ’ का मैं दोस्त हूँ। भोलापुर में एक शादी में ’क’ भाई साहब ने आपकी तरह ही दिखनेवाले किसी सज्ज्न से परिचय कराया था। भाई साहब ने उनका नाम शायद कुबेर बताया था। मैंने आपको वही कुबेर अंकल समझ लिया था। वे लेखक है। बड़े भले और सज्जन आदमी हैं। आपका समय बर्बाद किया इसका मुझे खेद है।’’

इस बार ’भले और सज्जन कुबेर अंकल’ का हवाला देकर उसने मेरे अंदर छिपे हुए बुरे और दुर्जन कुबेर को नंगा कर दिया था। अपनी बुरई और दुर्जनता को स्वीकार कर लेने में ही मुझे अपनी भलाई दिखी। मैंने कहा - ’’आपने मुझे अधूरा पहचाना। पहचानने में आपसे गलती तो हुई है, पर यह कोई गंभीर और बड़ी गलती नहीं है। इसे गलती नहीं, यहाँ के लोगों का आम चरित्र माना जाना चाहिए। ऐसा हम सबसे होता है। यहाँ के लोग न तो स्वयं को पूरी तरह अनावृत्त ही करते हैं और न ही हम किसी को पूरी तरह पहचान ही पाते हैं। आपके भले और सज्जन कुबेर अंकल की तरह दिखनेवाला मैं भी कुबेर नाम ही धारण करता हूँ। लेखन-रोग भी है मुझे। परंतु आप देख ही रहे हैं, आपके उस कुबेर अंकल की भलाई और सज्जनता ने आपको धोखा दिया है।’’

अब की बार उन्होंने हें..हें...हें.... का मधुर स्वर निकाला। दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा बनाया, नमस्कार किया और चला गया। 

एसे लोगों को सामाजिक संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए। परन्तु संबंधसुधार का यह काम इनके लिए समाजसुधार का काम नहीं, व्यवसाय-विस्तार का काम होता है। आँखों से काजल चुरा लेना अर्थात् जेबें समर्पित करवा लेना इनके लिए बाएँ हाथ का खेल होता है। भाई का दोस्त बनकर बहिन को, बाप का दोस्त बनकर बेटी को और पति का दोस्त बनकर पत्नी को उड़ा ले जाने में ये बड़े माहिर होते हैं।
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बाजारों से गुजरते समय अक्सर आइए भाई साहब, आइए सर   की मनुहारें हमें उलझा देती हैं। एक बार इसी तरह की एक अत्यंत आत्मिक मनुहार ने मुझे लुट जाने पर विवश कर दिया। यद्यपि रुकते ही मैंने उस युवा दुकानदार से साफ-साफ कह दिया था कि मुझे इस समय कुछ भी खरीदना नहीं है। मुझसे कुछ काम हो तो कहिए।

उन्होंने पूछा - ’’कोई बात नहीं सर! आइए। बैठिए। आप साहू जी हैं न?’’

इस शहर में दस आम लोगों के प्रत्येक समूह में छः-सात लोग साहू ही होते हैं। उनकी इस चालाकी को मैं समझता था परंतु मामला जाति से संबंधित था, इसलिए झूठ बोलने का न तो वहाँ कोई अवसर था और न ही कोई नैतिक औचित्य। उसके अनुमान पर मैंने स्वीकृति की मुहर लगा दी।

संबंधों के उलझे सूत्रों को सुलझाते हुए उन्होने पूछा - ’’आप भोलापुर रहते हैं न?’’
’’हाँ।’’

वहाँ लंबा-लंबा सा, गोरा-नारा सा, एक आदमी रहता था, अच्छा सा उनका नाम था। क्या था  ... ।
’’क प्रसाद।’’
’’हाँ, हाँ। क प्रसाद। आप उन्हें जानते थे?’’
’’हाँ।’’

’’बड़े भले, सच्चे और सज्जन आदमी थे। हमारे परमानेंट ग्राहक थे। उनके साथ उनका पंद्रह-सत्रह साल का बेटा भी आया करता था।’’

मैंने उनके आशय को समझते हुए कहा - ’’पंद्रह-सत्रह साल का वह लड़का मैं ही हुआ करता था।’’
’’देखा, मेरा अनुमान कितना सही निकला। आपका नाम क्या हैं?
’’झ प्रसाद।’’
’’आप क्या करते हैं, शिक्षक हैं?’’
’’हाँ।’’

वह तीर में तुक्का आजमाये जा रहा था। मैं भी लगातार साफ झूठ बोले जा रहा था। पर दुकानदारी सजानेवालों को जैसा होना चाहिए, वह उससे भी अधिक, सवा सेर निकला। उनकी आँखें कह रही थी - बेटा! आपके झूठ-सच से मुझे क्या लेना-देना; मुझे तो दुकानदारी करना है। और उसने अपनी दुकानदारी कर भी ली।

(आप सोचते होंगे, यह कैसा लेखक है, जो झूठ बोलता है। लेखकों को तो कम से कम ईमानदार होना चाहिए। आपकी यह सोच आम सोच के दायरे में है इसलिए इसे गलत नहीं कहा जा सकता। इस शहर में एक तथाकथित बड़े साहित्यकार रहते हैं - विभूति प्रसाद ’भसेड़ू’ जी; बहुत शातिराना अंदाज में झूठ बोलते है और बात-बात में कहते हैं - ’झूठ और झूठ बोलनेवालों से मुझे सख्त नफरत होती है’। पर मुझे न तो झूठ से घृणा होती है और न हीं झूठ बोलनेवालों से नफरत। यहाँ तो अवतारों को भी झूठ बोलना पड़ा है। झूठ बोलना आदमी का स्वभाव है। झूठ न बोलनेवाला या तो पशु होता है, या महामानव। परंतु झूठ न बोलने का दावा करनेवाला आदमी न तो पशु होता है, और न ही महामानव। वह इन सभी से परे होता है।)

ऐसा उन सभी जगहों पर होता है जहाँ विक्रेता-क्रेता की संभावना हो। कार्यालय भी इसमें शामिल हैं; जहाँ कानून-कायदों और ईमानों की खरीद-फरोख्त होती है।

इन्हें व्यावसायिक संबंधसुधाराकों की श्रेणी में रखा जाना चहिए।
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राजनीति में मंत्रियों की सरकारी विदेश यात्राओं के समय दोनों देशों के बीच संबंधशोध और संबंधसुधार का काम यात्रा के एजेंडे में सबसे ऊपर होता है। रवाना होने के महीनों पहले माननीय मंत्री सहित उनका पूरा मंत्रालय संबंधित देश के साथ सदियों पुराने एतिहासिक तथ्यों पर शोधकार्य में जुट जाता होगा। तब न तो पूर्व-पश्चिम का भेद आड़े आता है और न ही वाम-दक्षिण का वाद-विचार। तब माहौल में सर्वत्र केवल अवसरवाद की ही गंध आती रहती है। आज बच्चन साहब होते तो उनकी मधुशाला में एक सूफियाना रुबाई और जुड़ जाती - ’वाम-दक्षिण भेद कराती, संबंध जोड़ती मधुशाला।’ इन्हें राजनीतिक संबंधसुधारक कहा जाना उचित होगा।

संबंधसूत्र हाथ लगने की कोई संभावना न हो तो नये सिरे से संबंधों की शुरुआत करने की कोशिशें होने लगती है। तलवे चाँटना, शहद से भी मीठी आवाज में कूँ .. कुँ .. करना, आज्ञापालन, जलपान, बार-रेस्टोरेंट की यात्राएँ, तोहफे, छोटे-मोटे पराक्रमों का भी बढ़-चढ़कर वर्णन आदि का प्रयोग होने लगे तो आप फौरन समझ जाते हैं कि ऐसा करनेवाला आपसे मधुर संबंध जोड़ने की व्यग्र अभिलाषा में उग्र हुआ जा रहा है। यह दुम हिलानेवाले कुत्ते की तरह का आचरण आजकल सर्वाधिक चलन में है। यह एक विलक्षण कला है और राजनीति तथा कला के सभी क्षेत्रों में इसे बेशर्मीपूर्वक और बेधड़क आजमाया जा रहा है।

इस तरह के संबंधसुधारकों को कलावादी संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए।

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संबंधसुधारकों की मुझे और भी अनेक कोटियाँ नजर आती हैं। इन्हें मैं आपके अभ्यासार्थ छोड़ देना चाहता हूँ। अपर्युक्त चारों प्रकारों को समझ लेने के बाद बाकी का अनुमान लगना आपके लिए जरा भी कठिन नहीं होगा।
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