सोमवार, 30 दिसंबर 2013
रविवार, 29 दिसंबर 2013
आलेख
बस्मार्क
ओटो एडुअर्ड लिओपोल्ड बिस्मार्क (बिस्मार्क का जन्म शून हौसेन में 1 अप्रैल, 1815 तथा निधन 30 जुलाई, 1898 को हुआ था), जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर तथा तत्कालीन यूरोप का प्रभावी राजनेता था। वह ’ओटो फॉन बिस्मार्क’ के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। उसने अनेक जर्मनभाषी राज्यों का एकीकरण करके शक्तिशाली जर्मन साम्राज्य स्थापित किया। वह (1862 ई. में) द्वितीय जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर बना। वह ’रीअलपालिटिक’ की नीति के लिये प्रसिद्ध है जिसके कारण उसे ’लौह चांसलर’ के उपनाम से जाना जाता है। वह लगभग 25 वर्षों तक जर्मनी का सर्वेसर्वा रहा। बिस्मार्क एक महान राष्ट्रनिर्माता था, जिसने अपने राष्ट्र की जरूरतों को समझा और उन्हें पूरा करने की भरपूर कोशिश की। जर्मन राष्ट्र उसके प्रति हमेशा कृतज्ञ रहेगा।
बिस्मार्क का जन्म शून हौसेन में 1 अप्रैल, 1815 को हुआ। गांटिंजेन तथा बर्लिन में कानून का अध्ययन किया। बाद में कुछ समय के लिए नागरिक तथा सैनिक सेवा में नियुक्त हुआ। 1847 ई. में वह प्रशा की विधान सभा का सदस्य बना। 1848-49 की क्रांति के समय उसने राजा के ’दिव्य अधिकार’ का जोरों से समर्थन किया। सन् 1851 में वह फ्रैंकफर्ट की संघीय सभा में प्रशा का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। वहाँ उसने जर्मनी में आस्ट्रिया के आधिपत्य का कड़ा विरोध किया और प्रशा को समान अधिकार देने पर बल दिया। आठ वर्ष फ्रेंकफर्ट में रहने के बाद 1859 में वह रूस में राजदूत नियुक्त हुआ। 1862 में व पेरिस में राजदूत बनाया गया और उसी वर्ष सेना के विस्तार के प्रश्न पर संसदीय संकट उपस्थित होने पर वह परराष्ट्रमंत्री तथा प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त किया गया। सेना के पुनर्गठन की स्वीकृति प्राप्त करने तथा बजट पास कराने में जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने पार्लमेंट से बिना पूछे ही कार्य करना प्रारंभ किया और जनता से वह टैक्स भी वसूल करता रहा। यह ’संघर्ष’ अभी चल ही रहा था कि श्लेजविग होल्सटीन के प्रभुत्व का प्रश्न पुनः उठ खड़ा हुआ। जर्मन राष्ट्रीयता की भावना से लाभ उठाकर बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के सहयोग से डेनमार्क पर हमला कर दिया और दोनों ने मिलकर इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया (1864)।
दो वर्ष बाद बिस्मार्क ने आस्ट्रिया से भी संघर्ष छेड़ दिया। युद्ध में आस्ट्रिया की पराजय हुई और उसे जर्मनी से हट जाना पड़ा। अब बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी के सभी उत्तरस्थ राज्यों को मिलाकर उत्तरी जर्मन संघराज्य की स्थापना हुई। जर्मनी की इस शक्तिवृद्धि से फ्रांस आंतकित हो उठा। स्पेन की गद्दी के उत्तराधिकार के प्रश्न पर फ्रांस जर्मनी में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई और अंत में 1870 में दोनों के बीच युद्ध ठन गया । फ्रांस की हार हुई और उसे अलससलोरेन का प्रांत तथा भारी हर्जाना देकर जर्मनी से संधि करनी पड़ी। 1871 में नए जर्मन राज्य की घोषणा कर दी गई। इस नवस्थापित राज्य को सुसंगठित और प्रबल बनाना ही अब बिस्मार्क का प्रधान लक्ष्य बन गया। इसी दृष्टि से उसने आस्ट्रिया और इटली से मिलकर एक त्रिराष्ट्र संधि की। पोप की ’अमोघ’ सत्ता का खतरा कम करने के लिए उसने कैथॉलिकों के शक्तिरोध के लिए कई कानून बनाए और समाजवादी आंदोलन के दमन का भी प्रयत्न किया। इसमें उसे अधिक सफलता नहीं मिली। साम्राज्य में तनाव और असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो गई। अंततागत्वा सन् 1890 में नए जर्मन सम्राट् विलियम द्वितीय से मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण उसने पदत्याग कर दिया।
बिस्मार्क के समान ही लौह संकल्पों के कारण भरत के लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल को ’भारत का बिस्मार्क’ कहा जाता है।
कुबेर
शनिवार, 28 दिसंबर 2013
समीक्षा,
संस्कार ले उपजे कहानी : बनकैना
कुबेर
साहित्य अउ संस्कृति के तिमाही पत्रिका "विचार वीथी" के संपादक अउ साहित्यकार सुरेश सर्वेद के नाम ह न सिरिफ पत्रकारिता ले जुडे बुद्धिजीवी मनबर भलुक साहित्य के जानकार विद्वान मनबर घला कोनों अनजाना नइ हे। न सिरिफ छत्तीसगगढ, छत्तीसगगढ के बाहिर, देश भर म, समर्पित अउ जागरूक संपादक के रूप म अउ विशेष रूप म गद्य साहित्य के क्षेत्र कथाकार के रूप म, वोकर पहिचान बन गे हे। "विचार वीथी" के जरिया वो मन ह राष्टभाषा हिन्दी के संगेसंग छत्तीसगढी भाखा के सोर ल घला देश भर म बगरावत हें।
येकर पहिली सुरेश सर्वेद के हिन्दी कहानी मन के दू ठन संग्रह छप चुके हे, ये दरी वो मन ह छत्तीसगढी साहित्य के भंडार म बढौतरी करे बर ये छत्तीसगढी के कहानी संग्रह ल आप मन के हाथ म संउपत हें। सूमुद्र ह घला बूँद-बूँद पानी के जुरियाय ले बने हे। "बनकैना" ह घला छत्तीसगढी साहित्य के समुद्र ल भरे खातिर एक ठन बूँद हरे।
सुरेश सर्वेद ह साहित्य, पत्रकारिता अउ संपादन के क्षेत्र म हमर मयारूक छत्तीसगढ के गाँव के माटी ले निकल के आय हवंय, उंकर तन-मन अउ हिरदे म छत्तीसगढ के माटी के महक ह, इहां के संस्कार अउ संस्कृ ति ह रचे-बसे हे, इही पाय के ये कहानी संग्रह म रचाय जम्मो कहानी मन ल पढत खानी आप मन ल, अपने गाँव म, अपने गाँव के खेत-खार के मेड म, खेती-डोली के बीच म किंजरत हव तइसे लगही।
ये संग्रह म कुल जमा नौ ठन कहानी मन ल जोरे गे हे।
'फ,ुुटहा छानी', 'मतलाहा पानी', 'नियाव के जीत' अउ 'मनहरण भइया' ये चारों ठन कहानी मन म सरपंच के आगू-पीछू किंजरत गाँव के राजनीति, गाँव के खेत-खार अउ खेत-डोली मनबर सिंचाई-पानी के समस्या, परदेसिया मन हमरे गाँव म आ के हमी मन ल दबाय के कोशिश करथें तेकर समस्या ल बड सुघ्घर ढंग ले रखे गे हे।
गाय-गरू, बइला-भंइसा मन ह हमर खेती-किसानी अउ जीता-जिनगी के अधार आवंय। इही पाय के गउ ल हम माता कहिके वोकर पूजा करथन। बइला के बिना हमर किसानी नइ हो सकय, ये ह किसान मन के संगी-संगवारी आवंय, भाई आवंय। इही पाय के हम बइला के घला पूजा करथन। हमर समाज म हमर गोधन के रक्षा करे खातिर जउन नियम बनाय गे हे वो ह हमर दूसर सामाजिक नियम मन ले बढ के होथे। गउ हत्या के पाप ल मनखे हत्या के पाप ले बडे पाप माने गे हे। अब गाँव-गाँव म टेक्टर आ गे हे, पशुधन बर हमर प्रेम ह कम होवत जावत हे, इही समस्या ल 'छन्नू अउ मन्नू', 'बन कैना' अउ 'गउ प्रेम' कहानी मन म उठाय गे हे। पढ के हमर चेथी के आँखी ह आगू डहर आ जाथे।
जुग-जोडी के जीवन ह आपसी बिश्वास के ठीहा म टेके रहिथे, बिश्वास के धारन ह बड कमजोर होथे, थोरको धक्का परे म गिर जाथे। 'बिही चानी' म इही बात ल समझाय गे हे। छुआ-छूत, छोटे-बडे येकर अधार पइसा ह हरे। अपन सुविधा अउ फायदा बर हम येकर बर नियम बनाथन, इही बात ल 'देखावा' म बताय गे हे।
हाना ह छत्तीसगढी भाषा के परान आवय। कथाकार ह अपन कहानी मन म येकर प्रयोग तो करे हे फेर छत्तीसगढी के हिसाब से जतका अउ जइसन होना चाही वइसन नइ हे। कथाकार के भाषा ह कोनो-कोनो जघा अखरथे घला।
येकर पहिली सुरेश सर्वेद के हिन्दी कहानी मन के दू ठन संग्रह छप चुके हे, ये दरी वो मन ह छत्तीसगढी साहित्य के भंडार म बढौतरी करे बर ये छत्तीसगढी के कहानी संग्रह ल आप मन के हाथ म संउपत हें। सूमुद्र ह घला बूँद-बूँद पानी के जुरियाय ले बने हे। "बनकैना" ह घला छत्तीसगढी साहित्य के समुद्र ल भरे खातिर एक ठन बूँद हरे।
सुरेश सर्वेद ह साहित्य, पत्रकारिता अउ संपादन के क्षेत्र म हमर मयारूक छत्तीसगढ के गाँव के माटी ले निकल के आय हवंय, उंकर तन-मन अउ हिरदे म छत्तीसगढ के माटी के महक ह, इहां के संस्कार अउ संस्कृ ति ह रचे-बसे हे, इही पाय के ये कहानी संग्रह म रचाय जम्मो कहानी मन ल पढत खानी आप मन ल, अपने गाँव म, अपने गाँव के खेत-खार के मेड म, खेती-डोली के बीच म किंजरत हव तइसे लगही।
ये संग्रह म कुल जमा नौ ठन कहानी मन ल जोरे गे हे।
'फ,ुुटहा छानी', 'मतलाहा पानी', 'नियाव के जीत' अउ 'मनहरण भइया' ये चारों ठन कहानी मन म सरपंच के आगू-पीछू किंजरत गाँव के राजनीति, गाँव के खेत-खार अउ खेत-डोली मनबर सिंचाई-पानी के समस्या, परदेसिया मन हमरे गाँव म आ के हमी मन ल दबाय के कोशिश करथें तेकर समस्या ल बड सुघ्घर ढंग ले रखे गे हे।
गाय-गरू, बइला-भंइसा मन ह हमर खेती-किसानी अउ जीता-जिनगी के अधार आवंय। इही पाय के गउ ल हम माता कहिके वोकर पूजा करथन। बइला के बिना हमर किसानी नइ हो सकय, ये ह किसान मन के संगी-संगवारी आवंय, भाई आवंय। इही पाय के हम बइला के घला पूजा करथन। हमर समाज म हमर गोधन के रक्षा करे खातिर जउन नियम बनाय गे हे वो ह हमर दूसर सामाजिक नियम मन ले बढ के होथे। गउ हत्या के पाप ल मनखे हत्या के पाप ले बडे पाप माने गे हे। अब गाँव-गाँव म टेक्टर आ गे हे, पशुधन बर हमर प्रेम ह कम होवत जावत हे, इही समस्या ल 'छन्नू अउ मन्नू', 'बन कैना' अउ 'गउ प्रेम' कहानी मन म उठाय गे हे। पढ के हमर चेथी के आँखी ह आगू डहर आ जाथे।
जुग-जोडी के जीवन ह आपसी बिश्वास के ठीहा म टेके रहिथे, बिश्वास के धारन ह बड कमजोर होथे, थोरको धक्का परे म गिर जाथे। 'बिही चानी' म इही बात ल समझाय गे हे। छुआ-छूत, छोटे-बडे येकर अधार पइसा ह हरे। अपन सुविधा अउ फायदा बर हम येकर बर नियम बनाथन, इही बात ल 'देखावा' म बताय गे हे।
हाना ह छत्तीसगढी भाषा के परान आवय। कथाकार ह अपन कहानी मन म येकर प्रयोग तो करे हे फेर छत्तीसगढी के हिसाब से जतका अउ जइसन होना चाही वइसन नइ हे। कथाकार के भाषा ह कोनो-कोनो जघा अखरथे घला।
गाँव - भोडिया, पोस्ट - सिंघोला,
जिला - राजनांदगाँव, छ.ग.
मो. - ९४०७६८५५५७
जिला - राजनांदगाँव, छ.ग.
मो. - ९४०७६८५५५७
पत्र
पत्र
एक पत्र श्री कौशल जी के नाम
छत्तीसगढ़ी भासा के मानकीकरण
आदरणीय कौशल जी,
सादर नमस्कार।
छत्तीसगढ़ी भासा के मानकीकरण के बिसय म आप मन के आलेख ह सुघ्घर, चेतपरहा अउ चेतलगहा घला हे। आपके बिचार ले महूँ ह राजी हँव। स्कूल मन म हमर ’राष्ट्र भाषा हिन्दी’ किताब के पाठ म आज के 'हिन्दी भाषा' के पाठ मन के संगेसंग सूरदास अउ दूसर कवि मन के ब्रज भासा के कविता, तुलसीदास के अवधी भासा के कविता, कबीरदास के सधुक्कड़ी भासा के कविता, मीरा बाई के राजस्थानी मिलेजुले भासा के कविता घला पढ़थन अउ पढ़ाथन। जिहाँ छायावादी कवि मन के रचना मन के अर्थ ल उँकर तत्सम शब्द मन के मारे समझत ले चेत ह उबुकचुबुक हो जाथे विहिंचेच् प्रेमचंद, परसाई अउ जोशी जइसन लेखक मन के सोझ आउ सरल भासा ह हिरदे अउ मन म तुरते उतर जाथे। अब तो हिन्दी के लेखक-कवि मन ह अपन-अपन क्षेत्र के बोली मन ल मिंझार के लिखे के सुरू कर देय हें। हालाकि दिल्ली अउ वोकर अतराब के हिन्दी ल मानक हिन्दी माने के बात कहे गे हे, फेर मोर मति के अनुसार हिन्दी के मानकीकरण आज तक होयेच् नइ हे; होना घला नइ चाही। कोनों भासा के मानकीकरण करे के मतलब वोला एक ठन बनेबनाय सांचा म ढाल देय के सिवा अउ कुछू नो हे। भासा ह सरलग बोहात नदिया हरे, बोहावत-बोहावत वो ह अपन सरूप खुदे गढ़ लिही, येकर पीछू जादा चिंता करके हमला दुबराय के कोनों जरूरत नइ हे। छत्तीसगढ़ी ल पोट बनाय बर छत्तीसगढ़ म जतका तरह के छत्तीसगढ़ी चलागन म हे अउ जतका बोली चलागन म हे, वो सब्बो ल संघेर के चलना जरूरी हे। फिलहाल तो हमला छत्तीसगढ़ी भासा के भण्डार ल पोट करे के काम म लग जाना चाही। हजारों टन कोइला के बीच म एकाध हीरा मिलथे। कोन्हों घला रचनाकार के कोनों न कोनों रचना ह हीरा जइसन होबेच् करथे। रचनाकार मन के भीड़ बाढ़ही तब वो भीड़ म कोनों न कोनों शुक्ल अउ द्विवेदी निकलबेच् करही।
जइसन कि आप मन कहे हव, छत्तीसगढ़ी के विभक्ति अउ कारक मन के प्रयोग म एकरूपता लाय, संगेसंग जतका शब्द जिंकर एक ले जादा रूप चलागन म हे, उँकर कोनों एक ठन रूप ल बढ़ावा देय के जरूरत अवश्य हे।
कुबेर।
शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013
आलेख
हाना
परोसी के भरोसा लइका उपजारना
बुधारू घर के बहू के पाँव भारी होईस, बुधारू के दाई ह गजब खुस होईस। फेर बिचारी ह नाती के सुख नइ भोग पाईस। बहू के हरू-गरू होय के पंदरा दिन पहिलिच् वोकर भगवान घर के बुलव्वा आ गे। बुधारू के बहू ह सुंदर अकन नोनी ल जनम दिस, सियान मन किहिन "डोकरी मरे छोकरी होय, तीन के तीन।"
बहू के दाई ह महीना भर ले जच्चा-बच्चा के सेवा जतन करिस। दाईच् आय त का होईस, कतका दिन ले अपन घर-दुवार ल छोड़ के पर घर म जुटाही नापतिस, दू दिन बर घर जावत हंव बेटी कहिके गिस तउन हा हिरक के अउ नइ देखिस। लहुटबेच् नइ करिस। लइका के थोकुन अउ टंच होवत ले बहु ह थिराईस, तहन फेर बनी-भूती म जाय के शुरू कर दिस। पर के आँखीं म के दिन ले सपना देखतिस। बनिहार अदमी, के दिन ले घर म बइठ के रहितिस। परोसिन दाई के गजब हाथ-पाँव जोरिस अउ वोला लइका के रखवारिन बने बर राजी करिस। परोसिन दाई के घर लोग-लइका नइ रहय, वहू ह सरको म राजी हो गे।
पर के लइका के नाक-मुहूँ ह के दिन ले सुहातिस। डोकरी ह लंघियांत कउवा गे। साफ-साफ सुना दिस कि अब वो ह ये लइका के जतन नइ कर सकय। कहूँ ऊँच-नीच हो गे ते बद्दी म पड़ जाहूँ।
बहू रोजे परोसिन डोकरी के गजब किलोली कर करके जइसने-तइसने दिन निकालत रिहिस। परोसिन डोकरी ह कउवा जातिस त कहितिस; "परोसी के भरोसा लइका उपजारे हे दुखाही-दुखहा मन ह। हमर मरे बिहान कर के रखे हें।"
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कुबेर
Mo - 9407685557
Email - kubersinghsahu@gmail.com
बुधवार, 25 दिसंबर 2013
आलेख,
सुशासन
पूर्व प्रधानमंत्री मान. अटलबिहारी बाजपेई के जन्म दिन को सरकार द्वारा ’सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की गई है। तदनुरूप विचार गोष्ठियाँ और अन्य कार्यक्रम आयोजित भी किये जा रहे है। पहल स्वागतेय है।
कुछ बुद्धिजीवियों का अभिमत है कि सुशासन क्रियान्वयन का विषय है। क्रियान्वयन किस तरह का, इस विषय पर तार्किक बहस और अधिक माथापच्ची करके चाहे इस स्थापना के औचित्य को सिद्ध भी किया जा सकता हो परन्तु प्रचलित अर्थों में क्रियान्वयन का निहितार्थ शासकीय योजनाओं और कार्यक्रमों को जनहित में लागू करने जैसी संकुचित अभिप्रायों से ही है। और इसीलिए इस स्थापना अथवा निष्पत्ति से मैं सहमत नहीं हूँ। इस प्रकार की स्थापनाएँ देकर सुशासन की सारी जिम्मेदारियाँ हम शासन के हिस्से और शासन के माथे नहीं थोप सकते हैं और न ही हम अपनी व्यक्तिगत नैतिक जिम्मेदारियों और मानवीय मूल्यों से बच सकते हैं क्योंकि सुशासन का प्राथमिक, नैसर्गिक और सीधा संबंध हमारी इन्हीं नागरिक जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से है।
शासन शब्द में सु उपसर्ग लग जाने से सुशासन शब्द का जन्म होता है। ’सु’ उपसर्ग का अर्थ शुभ, अच्छा, मंगलकारी आदि भावों को व्यक्त करने वाला होता है। राजनीतिक और सामाजिक जीवन की भाषा में सुशासन की तरह लगने वाले कुछ और बहुप्रचलित-घिसेपिटे शब्द हैं जैसे - प्रशासन, स्वशासन, अनुशासन आदि। इन सभी शब्दों का संबंध शासन से है। ’शासन’ आदिमयुग की कबीलाई संस्कृति से लेकर आज तक की आधुनिक मानव सभ्यता के विकासक्रम में अलग-अलग विशिष्ट रूपों में प्रणाली के तौर पर विकसित और स्थापित होती आई है। इस विकासक्रम में परंपराओं से अर्जित ज्ञान और लोककल्याण की भावनाओं की अवधारणा प्रबल प्रेरक की भूमिका में रही है। इस अर्थ में शासन की सभी प्रणालियाँ कृत्रिम हैं।
अभी हम शासन की नवीनतम प्रणाली ’प्रजातंत्र’ से शासित हो रहे हैं जिसके तीन स्तंभ - व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सर्वविदित हैं। पत्रकारिता को चैंथे स्तंभ के रूप मान्य किया गया है। इन सभी स्तंभों की व्यवस्था लोकाभिमुख कर्तव्यों के निर्वहन की अवधारणा पर अवलंबित है। इस जन केन्द्रित प्रणाली के अंतर्गत जनता की स्थिति क्या है और कहाँ पर है? सोचें, केवल एक दिन मत देने वाले की और बाकी दिन सरकारी दफ्तरों में जाकर रिश्वत देने वालों की रह गई है। निर्वाचन के दिन अपना प्रतिनिधि चुनते वक्त जनता मतदान के रूप में अपनी शक्तियों को पाँच साल के लिए अपने प्रतिनिधियों को दान कर स्वयं शक्तिहीन हो जाती है। इस प्रणाली में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली होकर भी किसी सतंभ के रूप में, किसी शक्ति के रूप में जनता की स्थिति बहुत अधिक सुदृढ़ और सुस्पष्ट नहीं है। अपनी शक्तियों को मत के रूप में दान कर देने के बाद जनता शोषितों की स्थिति में आ जाती है। यह स्थिति तब और भी भयावह हो जाता है जब मतदाताओं का एक विशाल समूह निरक्षर होता है और प्रजातांत्रिक प्रणाली के सिद्धातों और विशेषताओं के बारे में अनभिज्ञ होता है। मेरा मानना है कि मतदाता के रूप में जनता का शिक्षित होना चाहे आवश्यक न हो, पर प्रजातांत्रिक प्रणाली के सिद्धातों ओैर विशेषताओं के बारे में उनका प्रशिक्षित होना निहायत जरूरी है। यहाँ इस प्रकार के किसी भी औपचारिक प्रशिक्षण का अभाव सुशासन के लिए हानिकारक है।
विश्व का स्वरूप कैसा है? इसका आकार कैसा है और इसका विस्तार-प्रसार कहाँ तक है? इन प्रश्नों का उत्तर मानव बुद्धि, मानव मन और मानवीय कल्पनाओं के परे है। विश्व और उसके सारे नियम स्वयंभु है। सबसे बड़ा शासक स्वयं प्रकृति है। प्रकृति ने अपनी शासन पद्धति स्वयं विकसित की है। प्रकृति में हमें चारों ओर सुशासन ही सुशासन दिखाई देता है। कई मनुष्येत्तर प्राणियों की भी सामाजिक व्यवस्था में हमें सुस्पष्ट सुशासन दिखाई देता है। सुशासन की सीख हमें प्रकृति से ग्रहण करना चाहिए।
मनुष्य समाज के अलावा कुशासन के लिये और कहीं कोई जगह नहीं है। हमें एक बात सदैव स्मरण रखना चाहिए कि नियम का संबंध अनुशासन से है जबकि कानून का संबंध शासन से। अनुशासित व्यक्ति नियमों और कानूनों का अनुपालन करते हुए अपने आचरण और व्यवहार को संयमित और मर्यादित रखता है। सामान्य व्यक्ति भूलवश, अज्ञानता वश अथवा परिस्थितिवश नियमों और कानूनों का उलंघन करता है परंतु उच्श्रृँखल व्यक्ति जानबूझकर नियमों और कानूनों का उलंघन करता है। प्रकृति जहाँ एक ओर नियमों और कानूनों का उलंघन करने वालों को दंडित करती है, वहीं दूसरी ओर अपने आचरण और व्यवहार में संयम और मर्यादा का पालन करने वालों को पुरस्कृत भी करती है। प्रकृति समदृष्टा है। दंडित और पुरस्कृत करने में प्रकृति में किसी भी प्रकार का भेदभाव संभव नहीं है। मानव समाज में भी सुशासन के लिये यह अनिवार्य है। परंतु यह परवर्ती स्थिति है। यदि अपने आचरण में सभी व्यक्ति मर्यादित हों, अनुशासित हों तो फिर सुशासन ही सुशासन है। इसीलिए कहा गया है, ’हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा।’
अधिकांशतः देखा गया है कि किसी उच्श्रृँखल व्यक्ति द्वारा किये गए गलत कृत्यों का अनुशरण करने में लोग न तो हिचकते हैं और न ही ऐसा करके उन्हें कोई आत्मग्लानि या पछतावा ही होता है। हर स्थिति में यह पशुवृत्ति है। सुशासन की राह का सबसे बड़ा अवरोध भी यही वृत्ति है। मनुष्य होने के नाते हमें अपने विवेक की अवहेलना कदापि नहीं करना चाहिए। मनुष्य का विवेक सदैव आचरण में शुचिता और वयवहार में मर्यादा का पक्षधर होता है। सुशासन का पहला शर्त भी यही है।
हम यह न देखें कि देश ने हमें क्या दिया है। यह आत्मावलोकन करें कि देश को हमने क्या दिया है। सुशासन का यही मूलमंत्र है।
कुछ बुद्धिजीवियों का अभिमत है कि सुशासन क्रियान्वयन का विषय है। क्रियान्वयन किस तरह का, इस विषय पर तार्किक बहस और अधिक माथापच्ची करके चाहे इस स्थापना के औचित्य को सिद्ध भी किया जा सकता हो परन्तु प्रचलित अर्थों में क्रियान्वयन का निहितार्थ शासकीय योजनाओं और कार्यक्रमों को जनहित में लागू करने जैसी संकुचित अभिप्रायों से ही है। और इसीलिए इस स्थापना अथवा निष्पत्ति से मैं सहमत नहीं हूँ। इस प्रकार की स्थापनाएँ देकर सुशासन की सारी जिम्मेदारियाँ हम शासन के हिस्से और शासन के माथे नहीं थोप सकते हैं और न ही हम अपनी व्यक्तिगत नैतिक जिम्मेदारियों और मानवीय मूल्यों से बच सकते हैं क्योंकि सुशासन का प्राथमिक, नैसर्गिक और सीधा संबंध हमारी इन्हीं नागरिक जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से है।
शासन शब्द में सु उपसर्ग लग जाने से सुशासन शब्द का जन्म होता है। ’सु’ उपसर्ग का अर्थ शुभ, अच्छा, मंगलकारी आदि भावों को व्यक्त करने वाला होता है। राजनीतिक और सामाजिक जीवन की भाषा में सुशासन की तरह लगने वाले कुछ और बहुप्रचलित-घिसेपिटे शब्द हैं जैसे - प्रशासन, स्वशासन, अनुशासन आदि। इन सभी शब्दों का संबंध शासन से है। ’शासन’ आदिमयुग की कबीलाई संस्कृति से लेकर आज तक की आधुनिक मानव सभ्यता के विकासक्रम में अलग-अलग विशिष्ट रूपों में प्रणाली के तौर पर विकसित और स्थापित होती आई है। इस विकासक्रम में परंपराओं से अर्जित ज्ञान और लोककल्याण की भावनाओं की अवधारणा प्रबल प्रेरक की भूमिका में रही है। इस अर्थ में शासन की सभी प्रणालियाँ कृत्रिम हैं।
अभी हम शासन की नवीनतम प्रणाली ’प्रजातंत्र’ से शासित हो रहे हैं जिसके तीन स्तंभ - व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सर्वविदित हैं। पत्रकारिता को चैंथे स्तंभ के रूप मान्य किया गया है। इन सभी स्तंभों की व्यवस्था लोकाभिमुख कर्तव्यों के निर्वहन की अवधारणा पर अवलंबित है। इस जन केन्द्रित प्रणाली के अंतर्गत जनता की स्थिति क्या है और कहाँ पर है? सोचें, केवल एक दिन मत देने वाले की और बाकी दिन सरकारी दफ्तरों में जाकर रिश्वत देने वालों की रह गई है। निर्वाचन के दिन अपना प्रतिनिधि चुनते वक्त जनता मतदान के रूप में अपनी शक्तियों को पाँच साल के लिए अपने प्रतिनिधियों को दान कर स्वयं शक्तिहीन हो जाती है। इस प्रणाली में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली होकर भी किसी सतंभ के रूप में, किसी शक्ति के रूप में जनता की स्थिति बहुत अधिक सुदृढ़ और सुस्पष्ट नहीं है। अपनी शक्तियों को मत के रूप में दान कर देने के बाद जनता शोषितों की स्थिति में आ जाती है। यह स्थिति तब और भी भयावह हो जाता है जब मतदाताओं का एक विशाल समूह निरक्षर होता है और प्रजातांत्रिक प्रणाली के सिद्धातों और विशेषताओं के बारे में अनभिज्ञ होता है। मेरा मानना है कि मतदाता के रूप में जनता का शिक्षित होना चाहे आवश्यक न हो, पर प्रजातांत्रिक प्रणाली के सिद्धातों ओैर विशेषताओं के बारे में उनका प्रशिक्षित होना निहायत जरूरी है। यहाँ इस प्रकार के किसी भी औपचारिक प्रशिक्षण का अभाव सुशासन के लिए हानिकारक है।
विश्व का स्वरूप कैसा है? इसका आकार कैसा है और इसका विस्तार-प्रसार कहाँ तक है? इन प्रश्नों का उत्तर मानव बुद्धि, मानव मन और मानवीय कल्पनाओं के परे है। विश्व और उसके सारे नियम स्वयंभु है। सबसे बड़ा शासक स्वयं प्रकृति है। प्रकृति ने अपनी शासन पद्धति स्वयं विकसित की है। प्रकृति में हमें चारों ओर सुशासन ही सुशासन दिखाई देता है। कई मनुष्येत्तर प्राणियों की भी सामाजिक व्यवस्था में हमें सुस्पष्ट सुशासन दिखाई देता है। सुशासन की सीख हमें प्रकृति से ग्रहण करना चाहिए।
मनुष्य समाज के अलावा कुशासन के लिये और कहीं कोई जगह नहीं है। हमें एक बात सदैव स्मरण रखना चाहिए कि नियम का संबंध अनुशासन से है जबकि कानून का संबंध शासन से। अनुशासित व्यक्ति नियमों और कानूनों का अनुपालन करते हुए अपने आचरण और व्यवहार को संयमित और मर्यादित रखता है। सामान्य व्यक्ति भूलवश, अज्ञानता वश अथवा परिस्थितिवश नियमों और कानूनों का उलंघन करता है परंतु उच्श्रृँखल व्यक्ति जानबूझकर नियमों और कानूनों का उलंघन करता है। प्रकृति जहाँ एक ओर नियमों और कानूनों का उलंघन करने वालों को दंडित करती है, वहीं दूसरी ओर अपने आचरण और व्यवहार में संयम और मर्यादा का पालन करने वालों को पुरस्कृत भी करती है। प्रकृति समदृष्टा है। दंडित और पुरस्कृत करने में प्रकृति में किसी भी प्रकार का भेदभाव संभव नहीं है। मानव समाज में भी सुशासन के लिये यह अनिवार्य है। परंतु यह परवर्ती स्थिति है। यदि अपने आचरण में सभी व्यक्ति मर्यादित हों, अनुशासित हों तो फिर सुशासन ही सुशासन है। इसीलिए कहा गया है, ’हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा।’
अधिकांशतः देखा गया है कि किसी उच्श्रृँखल व्यक्ति द्वारा किये गए गलत कृत्यों का अनुशरण करने में लोग न तो हिचकते हैं और न ही ऐसा करके उन्हें कोई आत्मग्लानि या पछतावा ही होता है। हर स्थिति में यह पशुवृत्ति है। सुशासन की राह का सबसे बड़ा अवरोध भी यही वृत्ति है। मनुष्य होने के नाते हमें अपने विवेक की अवहेलना कदापि नहीं करना चाहिए। मनुष्य का विवेक सदैव आचरण में शुचिता और वयवहार में मर्यादा का पक्षधर होता है। सुशासन का पहला शर्त भी यही है।
हम यह न देखें कि देश ने हमें क्या दिया है। यह आत्मावलोकन करें कि देश को हमने क्या दिया है। सुशासन का यही मूलमंत्र है।
कुबेर
मो. 9407685557
Email : kubersinghsahu@gmail.com
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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013
उपन्यास के अंश
कुबेर के अवइया नवा उपन्यास ’’भोलापुर : तारन भैया के गाँव’’ के अंश
1- डंडापिचरंगा
तारन,
रघ्घू, लखन, फकीर, ये मन तो वीरेन्द्र महराज के ननपन के संगवारी आवंय, संग
म खेले-कूदे हें, खेत के लाख-लाखड़ी अउ चना ल संग म चोराय हें, होरा भूंज
के खय हें, संग म चड्डी पहिने बर सीखे हें। इंकर ननपन के एक ठन कहानी सुनव।
तारन, रघ्घू, लखन, फकीर अउ वीरेन्द्र गाँव के प्रायमरी स्कूल म एके कक्षा म पढत रहंय। परीक्षा हो गे रहय, पास-फेल सुनाय के बाचे रहय। बिहने स्कूल लगय। मस्ती के दिन आ गे रहय। स्कूल ले छूटतिन अउ सोज्झे राजा तरिया कोती पल्ला भागतिन। तरिया पार म आमा के पेड़ कहस कि अमली के पेड़, पांत धर के, पुरखा मन के लगाय आजो जस के तस हे। ये समय म आमा के पेड़ मन लटलिट ले फरे रहिथें, ककरो फर ह सिसाही बांटी कस त ककरो ह चुनाकड़ी बांटी कस हो जाय रहिथे। वो मन सबले पहिली लबडेना मार-मार के जिकी धरत आमा के फर मन ल गिरातिन, सोसन के पूरत ले खातिन, सोसन पूरतिस तहाँ ले टुरा घटौंधा म आ जातिन। घटौंधा म तरियापार म पीपर के बड़ जबर रूख हे। डारा मन ह आधा तरिया के जावत ले छिछले-छिछले हें। छँइहा म शंकर चँवरा हे जेमा भोला बाबा ह नंदी संग बिराजमान हे। पीपर के पेड़ौरा म बिराजमान हे बजरंग बली। टूरा मन ह पागी-पटका ल लकर-धकर तरिया पार म कुढ़ोतिन अउ नंगरा हो के आँखी के ललियात ले तंउरतिन, पानी भीतर नाना भाँति के खेल खेलतिन। डंडापिचरंगा तो रोजे खेलतिन। लड़रिया मन सरीख उत्ताधुर्रा पेड़ म चघतिन, डारा म फलंगतिन अउ उहाँ ले पानी म कूदतिन।
एक दिन के बात आवय। पेड़ म चढ़त खानी रघ्घू ह बजरंग बली ऊपर पांव रख परिस। वीरेन्द्र ह देखत रिहिस; चिल्ला के कहिथे - ’’वहा दे! वहा दे।’’
हुरहा वीरेन्द्र के वहा दे! वहा दे! ल सुन के बाकी टुरा मन सुटपुटा गें। फकीर ह कहिथे - ’’का हो गे बे महराज, काबर चिचियावत हस?’’
वीरेन्द्र - ’’रघ्घू ह बजरंगबली भगवान ल खूंद दिस।’’
फकीर - ’’तब का हो गे?’’
वीरेन्द्र - ’’बजरंगबली ह रिसा जाही, जम्मा गाँव भर म आगी लगा देही, रोग-राही बगर जाही, सब आदमी मरे लगहीं।’’
फकीर - ’’तंय तो रोजेच खूँद के चढ़थस, बजरंग बली ह एकोदिन तो नइ रिसाइस?’’
वीरेन्द्र - ’’हम तो महराज आवन, हमर ले नइ रिसाय।’’
फकीर - ’’अउ वो दिन पेड़ म चढ़ के शंकर भगवान ऊपर मूते रेहेस तब बे?’’
वीरेन्द्र - ’’वो ह तो पानी चढ़ायेच् के देवता हरे। अउ जान-सुन के थोरे मूते रेहेंव, अउ उतर के पांव पर के माफी मांगे रेहेंव कि नहीं? - ’हे भगवान हमन लइका के जात, धोखा होगे, गलती कर परेंव, क्षमा कर देबे’ कहिके। मांगे रेहेंव कि नहीं?’’
फकीर - ’’रघ्धू ह घला मांग लेही तब।’’ रघ्धू ल कहिथे - ’’चल बे रघ्धू, बजरंग बली ल खूंदे हस तेकर सेती वोकर पांव पड़ के माफी मांग।’’
वीरेन्द्र - ’’शंकर भगवान ह सिधवा देवता हरे। बजरंगबली ह घुसियाहा भगवान हरे। पांव परे म नइ बनय।’’
फकीर - ’’तब कइसन म बनही?’’
वीरेन्द्र - ’’उदबत्ती अउ नरिहर चघाय बर पड़ही। ’’
फकीर - ’’नइ चढ़ाही तब?’’
वीरेन्द्र - ’’तुम जानव। गांव म कुछू अलहन आही तेकर जिम्मेदार तुम रहिहव। हम तो ये पाप के भागी नइ बनन। जा के अभीच् बताहूँ कका ल। बैसका सकेल के विही ह येकर फैसला करही।’’
वीरेन्द्र महराज के कका, मतलब संपत महराज। कका ल बताय के नाव म रघ्धू ह कांपे लगिस। आजेच वो ह कलम लेय बर अपन दाई ल पांच पइसा मांगे रिहिस, लेय नइ रिहिस, पेंट के जेब म राखे रिहिस, वोकरे सुरता आ गे। किहिस - ’’मोर तिर नरिहर लेय के पुरती पइसा नइ हे, पांच पइसा धरे हंव।’’
वीरेन्द्र - ’’बन जाही, बजरंग बली म चढ़ा दे, पांव पर ले अउ कोनो बाम्हन ल दान कर दे।’’
फकीर ह रघ्धू ल कहिथे - ’’कुछू नइ होय यार। तंय डर्रा झन। ये ह तोला ठगत हे।’’
जनम के सिधवा रघ्धू, वो ह तो बैठका के नाव सुन के कांपत रहय। जेब म रखाय पांच पइसा ल तुरते निकालिस अउ बजरंग बली म चढ़ा दिस।
फकीर ह रघ्धू के घोंचूपन ल देख के गुसियाय रहय, बीरेन्द्र के चाल ल समझ गे रहय, वोकरे डहर अंगरी धर के कहिथे - ’’अब दान करे बर कहाँ बाम्हन खोजबे। खोजे बर जाबे त पोलपट्टी खुल जाही। येकर ले बड़े बाम्हन अउ कहाँ मिलही? चढ़ा दे येकरे मुड़ी म।’’
रघ्धू ह वइसनेच् करिस।
ये तो होइस ननपन के बात; अब तो सब जवान हो गे हें। अब, जब सब मितान सकलाथें तब अपन ननपन के अइसने कतरो घटना ल सुरता कर-करके जम्मों झन कठल-कठल के हाँसथें। कहिथें - ’’फकीर ह बने कहथे संगी हो, पसीना गारथन तब दू कंवरा अन्न ह मिलथे, दू पइसा के दरसन होथे, अपन कमाई के धन ल काबर कोनों ल सेतमेत म देबोन?’’
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