सुशासन
पूर्व प्रधानमंत्री मान. अटलबिहारी बाजपेई के जन्म दिन को सरकार द्वारा ’सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की गई है। तदनुरूप विचार गोष्ठियाँ और अन्य कार्यक्रम आयोजित भी किये जा रहे है। पहल स्वागतेय है।
कुछ बुद्धिजीवियों का अभिमत है कि सुशासन क्रियान्वयन का विषय है। क्रियान्वयन किस तरह का, इस विषय पर तार्किक बहस और अधिक माथापच्ची करके चाहे इस स्थापना के औचित्य को सिद्ध भी किया जा सकता हो परन्तु प्रचलित अर्थों में क्रियान्वयन का निहितार्थ शासकीय योजनाओं और कार्यक्रमों को जनहित में लागू करने जैसी संकुचित अभिप्रायों से ही है। और इसीलिए इस स्थापना अथवा निष्पत्ति से मैं सहमत नहीं हूँ। इस प्रकार की स्थापनाएँ देकर सुशासन की सारी जिम्मेदारियाँ हम शासन के हिस्से और शासन के माथे नहीं थोप सकते हैं और न ही हम अपनी व्यक्तिगत नैतिक जिम्मेदारियों और मानवीय मूल्यों से बच सकते हैं क्योंकि सुशासन का प्राथमिक, नैसर्गिक और सीधा संबंध हमारी इन्हीं नागरिक जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से है।
शासन शब्द में सु उपसर्ग लग जाने से सुशासन शब्द का जन्म होता है। ’सु’ उपसर्ग का अर्थ शुभ, अच्छा, मंगलकारी आदि भावों को व्यक्त करने वाला होता है। राजनीतिक और सामाजिक जीवन की भाषा में सुशासन की तरह लगने वाले कुछ और बहुप्रचलित-घिसेपिटे शब्द हैं जैसे - प्रशासन, स्वशासन, अनुशासन आदि। इन सभी शब्दों का संबंध शासन से है। ’शासन’ आदिमयुग की कबीलाई संस्कृति से लेकर आज तक की आधुनिक मानव सभ्यता के विकासक्रम में अलग-अलग विशिष्ट रूपों में प्रणाली के तौर पर विकसित और स्थापित होती आई है। इस विकासक्रम में परंपराओं से अर्जित ज्ञान और लोककल्याण की भावनाओं की अवधारणा प्रबल प्रेरक की भूमिका में रही है। इस अर्थ में शासन की सभी प्रणालियाँ कृत्रिम हैं।
अभी हम शासन की नवीनतम प्रणाली ’प्रजातंत्र’ से शासित हो रहे हैं जिसके तीन स्तंभ - व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सर्वविदित हैं। पत्रकारिता को चैंथे स्तंभ के रूप मान्य किया गया है। इन सभी स्तंभों की व्यवस्था लोकाभिमुख कर्तव्यों के निर्वहन की अवधारणा पर अवलंबित है। इस जन केन्द्रित प्रणाली के अंतर्गत जनता की स्थिति क्या है और कहाँ पर है? सोचें, केवल एक दिन मत देने वाले की और बाकी दिन सरकारी दफ्तरों में जाकर रिश्वत देने वालों की रह गई है। निर्वाचन के दिन अपना प्रतिनिधि चुनते वक्त जनता मतदान के रूप में अपनी शक्तियों को पाँच साल के लिए अपने प्रतिनिधियों को दान कर स्वयं शक्तिहीन हो जाती है। इस प्रणाली में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली होकर भी किसी सतंभ के रूप में, किसी शक्ति के रूप में जनता की स्थिति बहुत अधिक सुदृढ़ और सुस्पष्ट नहीं है। अपनी शक्तियों को मत के रूप में दान कर देने के बाद जनता शोषितों की स्थिति में आ जाती है। यह स्थिति तब और भी भयावह हो जाता है जब मतदाताओं का एक विशाल समूह निरक्षर होता है और प्रजातांत्रिक प्रणाली के सिद्धातों और विशेषताओं के बारे में अनभिज्ञ होता है। मेरा मानना है कि मतदाता के रूप में जनता का शिक्षित होना चाहे आवश्यक न हो, पर प्रजातांत्रिक प्रणाली के सिद्धातों ओैर विशेषताओं के बारे में उनका प्रशिक्षित होना निहायत जरूरी है। यहाँ इस प्रकार के किसी भी औपचारिक प्रशिक्षण का अभाव सुशासन के लिए हानिकारक है।
विश्व का स्वरूप कैसा है? इसका आकार कैसा है और इसका विस्तार-प्रसार कहाँ तक है? इन प्रश्नों का उत्तर मानव बुद्धि, मानव मन और मानवीय कल्पनाओं के परे है। विश्व और उसके सारे नियम स्वयंभु है। सबसे बड़ा शासक स्वयं प्रकृति है। प्रकृति ने अपनी शासन पद्धति स्वयं विकसित की है। प्रकृति में हमें चारों ओर सुशासन ही सुशासन दिखाई देता है। कई मनुष्येत्तर प्राणियों की भी सामाजिक व्यवस्था में हमें सुस्पष्ट सुशासन दिखाई देता है। सुशासन की सीख हमें प्रकृति से ग्रहण करना चाहिए।
मनुष्य समाज के अलावा कुशासन के लिये और कहीं कोई जगह नहीं है। हमें एक बात सदैव स्मरण रखना चाहिए कि नियम का संबंध अनुशासन से है जबकि कानून का संबंध शासन से। अनुशासित व्यक्ति नियमों और कानूनों का अनुपालन करते हुए अपने आचरण और व्यवहार को संयमित और मर्यादित रखता है। सामान्य व्यक्ति भूलवश, अज्ञानता वश अथवा परिस्थितिवश नियमों और कानूनों का उलंघन करता है परंतु उच्श्रृँखल व्यक्ति जानबूझकर नियमों और कानूनों का उलंघन करता है। प्रकृति जहाँ एक ओर नियमों और कानूनों का उलंघन करने वालों को दंडित करती है, वहीं दूसरी ओर अपने आचरण और व्यवहार में संयम और मर्यादा का पालन करने वालों को पुरस्कृत भी करती है। प्रकृति समदृष्टा है। दंडित और पुरस्कृत करने में प्रकृति में किसी भी प्रकार का भेदभाव संभव नहीं है। मानव समाज में भी सुशासन के लिये यह अनिवार्य है। परंतु यह परवर्ती स्थिति है। यदि अपने आचरण में सभी व्यक्ति मर्यादित हों, अनुशासित हों तो फिर सुशासन ही सुशासन है। इसीलिए कहा गया है, ’हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा।’
अधिकांशतः देखा गया है कि किसी उच्श्रृँखल व्यक्ति द्वारा किये गए गलत कृत्यों का अनुशरण करने में लोग न तो हिचकते हैं और न ही ऐसा करके उन्हें कोई आत्मग्लानि या पछतावा ही होता है। हर स्थिति में यह पशुवृत्ति है। सुशासन की राह का सबसे बड़ा अवरोध भी यही वृत्ति है। मनुष्य होने के नाते हमें अपने विवेक की अवहेलना कदापि नहीं करना चाहिए। मनुष्य का विवेक सदैव आचरण में शुचिता और वयवहार में मर्यादा का पक्षधर होता है। सुशासन का पहला शर्त भी यही है।
हम यह न देखें कि देश ने हमें क्या दिया है। यह आत्मावलोकन करें कि देश को हमने क्या दिया है। सुशासन का यही मूलमंत्र है।
कुछ बुद्धिजीवियों का अभिमत है कि सुशासन क्रियान्वयन का विषय है। क्रियान्वयन किस तरह का, इस विषय पर तार्किक बहस और अधिक माथापच्ची करके चाहे इस स्थापना के औचित्य को सिद्ध भी किया जा सकता हो परन्तु प्रचलित अर्थों में क्रियान्वयन का निहितार्थ शासकीय योजनाओं और कार्यक्रमों को जनहित में लागू करने जैसी संकुचित अभिप्रायों से ही है। और इसीलिए इस स्थापना अथवा निष्पत्ति से मैं सहमत नहीं हूँ। इस प्रकार की स्थापनाएँ देकर सुशासन की सारी जिम्मेदारियाँ हम शासन के हिस्से और शासन के माथे नहीं थोप सकते हैं और न ही हम अपनी व्यक्तिगत नैतिक जिम्मेदारियों और मानवीय मूल्यों से बच सकते हैं क्योंकि सुशासन का प्राथमिक, नैसर्गिक और सीधा संबंध हमारी इन्हीं नागरिक जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से है।
शासन शब्द में सु उपसर्ग लग जाने से सुशासन शब्द का जन्म होता है। ’सु’ उपसर्ग का अर्थ शुभ, अच्छा, मंगलकारी आदि भावों को व्यक्त करने वाला होता है। राजनीतिक और सामाजिक जीवन की भाषा में सुशासन की तरह लगने वाले कुछ और बहुप्रचलित-घिसेपिटे शब्द हैं जैसे - प्रशासन, स्वशासन, अनुशासन आदि। इन सभी शब्दों का संबंध शासन से है। ’शासन’ आदिमयुग की कबीलाई संस्कृति से लेकर आज तक की आधुनिक मानव सभ्यता के विकासक्रम में अलग-अलग विशिष्ट रूपों में प्रणाली के तौर पर विकसित और स्थापित होती आई है। इस विकासक्रम में परंपराओं से अर्जित ज्ञान और लोककल्याण की भावनाओं की अवधारणा प्रबल प्रेरक की भूमिका में रही है। इस अर्थ में शासन की सभी प्रणालियाँ कृत्रिम हैं।
अभी हम शासन की नवीनतम प्रणाली ’प्रजातंत्र’ से शासित हो रहे हैं जिसके तीन स्तंभ - व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सर्वविदित हैं। पत्रकारिता को चैंथे स्तंभ के रूप मान्य किया गया है। इन सभी स्तंभों की व्यवस्था लोकाभिमुख कर्तव्यों के निर्वहन की अवधारणा पर अवलंबित है। इस जन केन्द्रित प्रणाली के अंतर्गत जनता की स्थिति क्या है और कहाँ पर है? सोचें, केवल एक दिन मत देने वाले की और बाकी दिन सरकारी दफ्तरों में जाकर रिश्वत देने वालों की रह गई है। निर्वाचन के दिन अपना प्रतिनिधि चुनते वक्त जनता मतदान के रूप में अपनी शक्तियों को पाँच साल के लिए अपने प्रतिनिधियों को दान कर स्वयं शक्तिहीन हो जाती है। इस प्रणाली में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली होकर भी किसी सतंभ के रूप में, किसी शक्ति के रूप में जनता की स्थिति बहुत अधिक सुदृढ़ और सुस्पष्ट नहीं है। अपनी शक्तियों को मत के रूप में दान कर देने के बाद जनता शोषितों की स्थिति में आ जाती है। यह स्थिति तब और भी भयावह हो जाता है जब मतदाताओं का एक विशाल समूह निरक्षर होता है और प्रजातांत्रिक प्रणाली के सिद्धातों और विशेषताओं के बारे में अनभिज्ञ होता है। मेरा मानना है कि मतदाता के रूप में जनता का शिक्षित होना चाहे आवश्यक न हो, पर प्रजातांत्रिक प्रणाली के सिद्धातों ओैर विशेषताओं के बारे में उनका प्रशिक्षित होना निहायत जरूरी है। यहाँ इस प्रकार के किसी भी औपचारिक प्रशिक्षण का अभाव सुशासन के लिए हानिकारक है।
विश्व का स्वरूप कैसा है? इसका आकार कैसा है और इसका विस्तार-प्रसार कहाँ तक है? इन प्रश्नों का उत्तर मानव बुद्धि, मानव मन और मानवीय कल्पनाओं के परे है। विश्व और उसके सारे नियम स्वयंभु है। सबसे बड़ा शासक स्वयं प्रकृति है। प्रकृति ने अपनी शासन पद्धति स्वयं विकसित की है। प्रकृति में हमें चारों ओर सुशासन ही सुशासन दिखाई देता है। कई मनुष्येत्तर प्राणियों की भी सामाजिक व्यवस्था में हमें सुस्पष्ट सुशासन दिखाई देता है। सुशासन की सीख हमें प्रकृति से ग्रहण करना चाहिए।
मनुष्य समाज के अलावा कुशासन के लिये और कहीं कोई जगह नहीं है। हमें एक बात सदैव स्मरण रखना चाहिए कि नियम का संबंध अनुशासन से है जबकि कानून का संबंध शासन से। अनुशासित व्यक्ति नियमों और कानूनों का अनुपालन करते हुए अपने आचरण और व्यवहार को संयमित और मर्यादित रखता है। सामान्य व्यक्ति भूलवश, अज्ञानता वश अथवा परिस्थितिवश नियमों और कानूनों का उलंघन करता है परंतु उच्श्रृँखल व्यक्ति जानबूझकर नियमों और कानूनों का उलंघन करता है। प्रकृति जहाँ एक ओर नियमों और कानूनों का उलंघन करने वालों को दंडित करती है, वहीं दूसरी ओर अपने आचरण और व्यवहार में संयम और मर्यादा का पालन करने वालों को पुरस्कृत भी करती है। प्रकृति समदृष्टा है। दंडित और पुरस्कृत करने में प्रकृति में किसी भी प्रकार का भेदभाव संभव नहीं है। मानव समाज में भी सुशासन के लिये यह अनिवार्य है। परंतु यह परवर्ती स्थिति है। यदि अपने आचरण में सभी व्यक्ति मर्यादित हों, अनुशासित हों तो फिर सुशासन ही सुशासन है। इसीलिए कहा गया है, ’हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा।’
अधिकांशतः देखा गया है कि किसी उच्श्रृँखल व्यक्ति द्वारा किये गए गलत कृत्यों का अनुशरण करने में लोग न तो हिचकते हैं और न ही ऐसा करके उन्हें कोई आत्मग्लानि या पछतावा ही होता है। हर स्थिति में यह पशुवृत्ति है। सुशासन की राह का सबसे बड़ा अवरोध भी यही वृत्ति है। मनुष्य होने के नाते हमें अपने विवेक की अवहेलना कदापि नहीं करना चाहिए। मनुष्य का विवेक सदैव आचरण में शुचिता और वयवहार में मर्यादा का पक्षधर होता है। सुशासन का पहला शर्त भी यही है।
हम यह न देखें कि देश ने हमें क्या दिया है। यह आत्मावलोकन करें कि देश को हमने क्या दिया है। सुशासन का यही मूलमंत्र है।
कुबेर
मो. 9407685557
Email : kubersinghsahu@gmail.com
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