शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

उपन्यास के अंश

कुबेर के अवइया नवा उपन्यास ’’भोलापुर : तारन भैया के गाँव’’ के अंश

1- डंडापिचरंगा  

तारन, रघ्घू, लखन, फकीर, ये मन तो वीरेन्द्र महराज के ननपन के संगवारी आवंय, संग म खेले-कूदे हें, खेत के लाख-लाखड़ी अउ चना ल संग म चोराय हें, होरा भूंज के खय हें, संग म चड्डी पहिने बर सीखे हें। इंकर ननपन के एक ठन कहानी सुनव।
तारन, रघ्घू, लखन, फकीर अउ वीरेन्द्र गाँव के प्रायमरी स्कूल म एके कक्षा म पढत रहंय। परीक्षा हो गे रहय, पास-फेल सुनाय के बाचे रहय। बिहने स्कूल लगय। मस्ती के दिन आ गे रहय। स्कूल ले छूटतिन अउ सोज्झे राजा तरिया कोती पल्ला भागतिन। तरिया पार म आमा के पेड़ कहस कि अमली के पेड़, पांत धर के, पुरखा मन के लगाय आजो जस के तस हे। ये समय म आमा के पेड़ मन लटलिट ले फरे रहिथें, ककरो फर ह सिसाही बांटी कस त ककरो ह चुनाकड़ी बांटी कस हो जाय रहिथे। वो मन सबले पहिली लबडेना मार-मार के जिकी धरत आमा के फर मन ल गिरातिन, सोसन के पूरत ले खातिन, सोसन पूरतिस तहाँ ले टुरा घटौंधा म आ जातिन। घटौंधा म तरियापार म पीपर के बड़ जबर रूख हे। डारा मन ह आधा तरिया के जावत ले छिछले-छिछले हें। छँइहा म शंकर चँवरा हे जेमा भोला बाबा ह नंदी संग बिराजमान हे। पीपर के पेड़ौरा म बिराजमान हे बजरंग बली। टूरा मन ह पागी-पटका ल लकर-धकर तरिया पार म कुढ़ोतिन अउ नंगरा हो के आँखी के ललियात ले तंउरतिन, पानी भीतर नाना भाँति के खेल खेलतिन। डंडापिचरंगा तो रोजे खेलतिन। लड़रिया मन सरीख उत्ताधुर्रा पेड़ म चघतिन, डारा म फलंगतिन अउ उहाँ ले पानी म कूदतिन। 

एक दिन के बात आवय। पेड़ म चढ़त खानी रघ्घू ह बजरंग बली ऊपर पांव रख परिस। वीरेन्द्र ह देखत रिहिस; चिल्ला के कहिथे - ’’वहा दे! वहा दे।’’

हुरहा वीरेन्द्र के वहा दे! वहा दे! ल सुन के बाकी टुरा मन सुटपुटा गें। फकीर ह कहिथे - ’’का हो गे बे महराज, काबर चिचियावत हस?’’

वीरेन्द्र - ’’रघ्घू ह बजरंगबली भगवान ल खूंद दिस।’’

फकीर - ’’तब का हो गे?’’

वीरेन्द्र - ’’बजरंगबली ह रिसा जाही, जम्मा गाँव भर म आगी लगा देही, रोग-राही बगर जाही, सब आदमी मरे लगहीं।’’

फकीर - ’’तंय तो रोजेच खूँद के चढ़थस, बजरंग बली ह एकोदिन तो नइ रिसाइस?’’

वीरेन्द्र - ’’हम तो महराज आवन, हमर ले नइ रिसाय।’’

फकीर - ’’अउ वो दिन पेड़ म चढ़ के शंकर भगवान ऊपर मूते रेहेस तब बे?’’

वीरेन्द्र - ’’वो ह तो पानी चढ़ायेच् के देवता हरे। अउ जान-सुन के थोरे मूते रेहेंव, अउ उतर के पांव पर के माफी मांगे रेहेंव कि नहीं? - ’हे भगवान हमन लइका के जात, धोखा होगे, गलती कर परेंव, क्षमा कर देबे’ कहिके। मांगे रेहेंव कि नहीं?’’

फकीर - ’’रघ्धू ह घला मांग लेही तब।’’ रघ्धू ल कहिथे - ’’चल बे रघ्धू, बजरंग बली ल खूंदे हस तेकर सेती वोकर पांव पड़ के माफी मांग।’’

वीरेन्द्र - ’’शंकर भगवान ह सिधवा देवता हरे। बजरंगबली ह घुसियाहा भगवान हरे। पांव परे म नइ बनय।’’

फकीर - ’’तब कइसन म बनही?’’

वीरेन्द्र - ’’उदबत्ती अउ नरिहर चघाय बर पड़ही। ’’

फकीर - ’’नइ चढ़ाही तब?’’

वीरेन्द्र - ’’तुम जानव। गांव म कुछू अलहन आही तेकर जिम्मेदार तुम रहिहव। हम तो ये पाप के भागी नइ बनन। जा के अभीच् बताहूँ कका ल। बैसका सकेल के विही ह येकर फैसला करही।’’

वीरेन्द्र महराज के कका, मतलब संपत महराज। कका ल बताय के नाव म रघ्धू ह कांपे लगिस। आजेच वो ह कलम लेय बर अपन दाई ल पांच पइसा मांगे रिहिस, लेय नइ रिहिस, पेंट के जेब म राखे रिहिस, वोकरे सुरता आ गे। किहिस - ’’मोर तिर नरिहर लेय के पुरती पइसा नइ हे, पांच पइसा धरे हंव।’’

वीरेन्द्र - ’’बन जाही, बजरंग बली म चढ़ा दे, पांव पर ले अउ कोनो बाम्हन ल दान कर दे।’’

फकीर ह रघ्धू ल कहिथे - ’’कुछू नइ होय यार। तंय डर्रा झन। ये ह तोला ठगत हे।’’

जनम के सिधवा रघ्धू, वो ह तो बैठका के नाव सुन के कांपत रहय। जेब म रखाय पांच पइसा ल तुरते निकालिस अउ बजरंग बली म चढ़ा दिस।

फकीर ह रघ्धू के घोंचूपन ल देख के गुसियाय रहय, बीरेन्द्र के चाल ल समझ गे रहय, वोकरे डहर अंगरी धर के कहिथे - ’’अब दान करे बर कहाँ बाम्हन खोजबे। खोजे बर जाबे त पोलपट्टी खुल जाही। येकर ले बड़े बाम्हन अउ कहाँ मिलही? चढ़ा दे येकरे मुड़ी म।’’

रघ्धू ह वइसनेच् करिस। 

ये तो होइस ननपन के बात; अब तो सब जवान हो गे हें। अब, जब सब मितान सकलाथें तब अपन ननपन के अइसने कतरो घटना ल सुरता कर-करके जम्मों झन कठल-कठल के हाँसथें। कहिथें - ’’फकीर ह बने कहथे संगी हो, पसीना गारथन तब दू कंवरा अन्न ह मिलथे, दू पइसा के दरसन होथे, अपन कमाई के धन ल काबर कोनों ल सेतमेत म देबोन?’’
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कुबेर

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