गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

व्यंग्य

व्यंग्य

बहुरूपिया

दो समाज सेवक हैं। इन दोनों को देखकर बड़ा ताज्जुब होता है। शारीरिक संरचना, चेहरा-मोहरा, व्यवहार-विचार, और प्रवृत्तियाँ सब कुछ एक जैसे; मानो जुड़वाँ हों।

पहला व्यक्ति है मालिकचंद, यथा नाम तथा गुण। ये बहुत बड़े कारोबारी हैं। इनके हजारों कर्मचारी हैं। कर्मचारियों को विधि द्वारा स्थापित नियमों के अनुसार वेतन-भत्ते दिये जाते हैं। नियम के मुताबिक कर्मचारियों को प्रतिमाह वेतन भुगतान हो जाने चाहिए, पर ऐसा कभी होता नहीं है। वेतन के लिए कर्मचारियों को कभी-कभी दो-दो, तीन-तीन माह, और कभी इससे भी अधिक समय तक मुँह ताकना पड़ जाता है। इसके पीछे मालिक के पास अनेक औचित्यपूर्ण कारण होते हैं। वेतन के लिए प्रतीक्षा करना और बिना वेतन के काम करना कर्मचारियों की मजबूरी है।

कर्मचारियों की और भी मजबूरियाँ हैं।

मजबूरियाँ सबसे बड़े नियम होते हैं, और ये मालिक के पक्ष में जाते हैं। मजबूरियाँ मनुष्य को आक्टोपस की तरह जकड़े रहते हैं। 

मालिकचंद के आॅफिस के पास ही दूसरे च्व्यक्ति, सेवकचंद का आॅफिस है। जरूरतमंदों की सहायता करना इनका काम है। ये सूद पर पैसा बाँटने का काम करते हैं। इनका कहना है कि सूद का यह काम वे किसी व्यावसायिक उद्देश्य या लाभ के लिए नहीं करते हैं; समाज-सेवा के लिए करते हैं। यही कारण है कि उधार के रकम पर इनका ब्याजदर बाजार में प्रचलित दर से कम होता है। सूद पर रकम बांटने के अलावा ये दुकानदारी का काम भी करते हैं। इनकी दुकान पर मालिकचंद के सभी जरूरतमंद कर्मचारियों को तमाम तरह की उपभोक्ता वस्तुएँ सहज ही उधार पर उपलब्ध कराई जाती हैं। सेवकचंद अपने नियमों के मामले में बड़े सख्त हैं। मालिकचंद के सारे कर्मचारी और आस-पास के दूसरे कंपनियों के अधिकांश वेतनभोगी इनके बंधे-बंधाये ग्राहक हैं। समाज सेवा के इस काम के सारे नियम इन्हीं के बनाये हुए हैं। पहले ही नियम के अनुसार बांटे गये सारे रकम ब्याज सहित कर्मचारी उर्फ ग्राहक के वेतन से कटकर सीधे इनके खाते में चले आते हैं। कर्मचारियों के खाते में शेष रकम कुछ ही दिन साथ दे पाते हैं। यह क्रम सालों से चल रहा है।

लोग हकीकत जानते हैं; मालिक चंद बहुत बड़ा बहुरूपिया है। मालिकचंद ही स्वांग रचकर सेवकचंद के रूप में बैठा है।
000
kuber

रविवार, 27 दिसंबर 2015

समीक्षा

 समीक्षा
माइक्रो कविता और दसवाँ रंग
-  डाॅ. सुरेश कांत
--------------------------------
दोस्तो, शुभ दिवस|

क्या आप कुबेर को जानते हैं?

मैं यक्षराज कुबेर की बात नहीं कर रहा और न कवि, चित्रकार और दूरदर्शन के मशहूर प्रोड्यूसर स्व. कुबेर दत्त की बात कर रहा हूँ|

मैं युवा व्यंग्यकार कुबेर की बात कर रहा हूँ—ग्राम भोड़िया, डाकघर सिंघोला, जिला राजनांदगाँव—491441 (छतीसगढ़) के निवासी और वहीं आसपास के एक सरकारी स्कूल में व्याख्याता के रूप में कार्यरत कुबेर की| बेशक आपमें से ज्यादातर लोग उन्हें नहीं जानते होंगे|

जानेंगे भी कैसे? वे दिल्ली में जो नहीं रहते| वह दिल्ली, जिसने व्यंग्य-लेखकों को पुष्पित-पल्लवित-पुरस्कृत होने का मुंबई जैसी मायानगरी से भी ज्यादा मौका दिया| मुंबई अमिताभ जैसों को अमिताभ बच्चन बनने का मौका भले देती हो, पर यज्ञ शर्मा जैसा उद्भट और सतत लेखनरत व्यंग्यकार भी वहाँ नौसिखिये व्यंग्यकार की तरह गुमनाम मर गया| जबकि इधर दिल्ली में औसत दर्जे के व्यंग्यकार भी लिखने से ज्यादा दिखने के बल पर पहले धन्य और फिर मूर्धन्य होकर शीर्ष पर पहुंच गए तथा सारे इनामों-इकरामों पर हाथ साफ करते रहे| दिल्ली से बाहर का केवल वही व्यंग्यकार उभर सका, जिसने अपने ही शब्दों में इन्हें मैले की तरह ढोकर अपने चतुर, ज्ञानी होने का परिचय दिया और इनके जरिये भगीरथ की तरह दिल्ली को अपने यहाँ ले गया| ‘अहो रूपं अहो ध्वनि’ के इस निकृष्ट षड्यंत्र से अच्छा लिखने वाले हतोत्साहित हुए और आने वाली पीढ़ी के समक्ष गलत संदेश गया| परिणाम यह हुआ कि लिखने-पढने पर ध्यान देने के बजाय आगे बढ़ने के लिए उन्होंने भी अपने छोटे-मोटे मठ अलग बना लिए और वहां भी वही ऊँट की शादी में गधों के गीत गाने और उन गीतों में एक-दूसरे की प्रशंसा करने की परंपरा शुरू कर दी| अफसोस कि यह परंपरा पूरी निर्लज्जता से जारी है|

कुबेर का पहला व्यंग्य-संग्रह ‘माइक्रो कविता और दसवाँ रंग’ (प्रकाशक : अनुभव प्रकाशन, ई-28, लाजपतनगर, साहिबाबाद, गाजियाबाद—201005 (उत्तर प्रदेश), संस्करण : 2015, पृष्ठ : 160, मूल्य : रु.200) पढ़ने के बाद से मेरे मन में यह सवाल कौंधता रहा है कि दिल्ली की तुलना में छोटी जगह पर रहकर लिखने वाले व्यक्ति के लिए उसकी यह स्थिति किस कदर अभिशाप है!

छोटी-बड़ी 60 व्यंग्य-रचनाओं का यह संकलन काफी अच्छा है, जिसमें उन्होंने धर्म, राजनीति, साहित्य, समाज, अर्थव्यवस्था, भाषा आदि विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त कुरीतियों और विसंगतियों पर प्रहार किया है| इसमें चुनाव जीतने की 'योग्यता' रखने वाले उम्मीदवार हैं, सत्ता में पहुँचाने वाले सिद्धांत और उन्हें लेकर होने वाली लड़ाई है, दाँत निपोरने को कला का दर्जा प्रदान करते कलाकार हैं, पेट में भी दाँत रखने वाले अवतारी पुरुष हैं, पूंछ के ऊपर से बिंदी हटाकर पूछ विकसित करने के तरीके हैं, धर्मनिरपेक्षता की रोटी खाते लोग हैं, भ्रष्टाचार का अवलेह पाक है, पड़ोसी की भूमि पर अतिक्रमण करने के लिए विशिष्ट बनने की प्रक्रिया है और माइक्रो कविता और दसवाँ रस तो है ही| हरिशंकर परसाई की प्रसिद्ध व्यंग्य-रचना ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ जैसी एक व्यंग्य-रचना ‘मास्टर चोखे लाल भिड़ाऊ चाँद पर’ भी इसमें है, जिसमें चाँद पर शिक्षा-व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए वहाँ की सरकार के अनुरोध पर आर्यावर्त सरकार द्वारा एक कथित शिक्षाविद को भेजने पर वहाँ फैल जाने वाली अराजकता का वैसा ही जिक्र है।

कुबेर ने पात्रों के सांकेतिक नाम रखकर उनसे व्यंग्य पैदा करने की पुरानी शैली का जमकर उपयोग किया है। तिकड़म जी भाई, दलाल जी भाई, पीटो सिंह, जनता प्रसाद भारतीय उर्फ जेपीबी, चोखेलाल भिड़ाऊ जैसे पात्र अपनी विशेषताएँ खुद बताते हैं| ये नाम अयथार्थ होते हुए भी पाठक को आकर्षित कर लेते हैं| विसंगतियों पर उनकी अच्छी पकड़ है और उन्हें उजागर करने की ललक भी। कुछ कमियाँ भी हैं, पर वे तो उनसे ज्यादा वरिष्ठ व्यंग्यकारों में हैं|

कुबेर को पढ़कर मुझे लगता है कि उन्हें छोटी जगह में रहने का नुकसान तो है, पर वे चाहें तो इसे अपने लाभ में बदल सकते हैं| इस अभिशाप को वे अपने लिए वरदान बना सकते हैं| उन्हें दिल्ली के औसत किंतु सुविधाप्राप्त व्यंग्यकारों से अधिक और बेहतर लिखते रहकर मुकाबले में बने रहना होगा और अंतत: यही उनका संबल बनेगा, यही उन्हें आगे ले जाएगा| मेरी शुभकामनाएँ कुबेर जी और उन जैसे हर संघर्षरत व्यंग्यकार के साथ हैं।

डाॅ. सुरेश कांत 7 एच हिमालय लिजेंड न्याय खण्ड इंदिरा पुरम गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश201014

रविवार, 20 दिसंबर 2015

आलेख

 छत्तीसगढ़  में हर चैथे दिन एक किसान ने आत्महत्या किया है 

छत्तीसगढ़ के मात्र तीन जिलों - राजनांदगाँव, बालोद और धमतरी में विगत 27 सितंबर से आज दिनांक तक देढ़ दर्जन किसान आत्म हत्या कर चुके हैं। राजनांदगाँव में आज ही एक और किसान ने आत्महत्या कर लिया है। अर्थात विगत लगभग 80 दिन के दौरान हर चैथे दिन एक किसान ने आत्महत्या किया है। 95 साल पहले आज ही के दिन किसानों के कंडेल नहर सत्याग्रह के समर्थन में महात्मा गांधी पहली बार छत्तीसगढ़ आये थे। आज किसानों के आत्महत्या करने की इस भयावह स्थिति के बावजूद छत्तीसगढ़ की चिंता करने वाला कोई नहीं है और न ही यह भयावह आँकड़ा राष्ट्रीय न्यूज चैनल्स की सूर्खियाँ ही बन पाई है। मुझे शंका होती है कि छत्तीसगढ़ राज्य भारतीय गणतंत्र का ही एक हिस्सा है।

कविता

 फर्क के तर्क

तंत्र की योजनाएँ जन के लिए होती हैं
अतः ये जनतंत्र की होती हैं

तंत्र और जनतंत्र की योजनाएँ
यद्यपि जन के लिए होती हैं
पर इनमें कई गंभीर फर्क होते हैं
क्योंकि इनसे चिपके इनके
अपने कई गंभीर तर्क होते हैं

इनके फर्क और तर्क बड़े सुसंगत होते हैं
इसलिए इनके फर्क के सारे तर्क
तर्कसंगत, विधिसंगत और नीतिसंगत होते हैं
मसलन -

’ये तंत्र के लिए अनिवार्य
और जनतंत्र के लिए ऐच्छिक
तंत्र के लिए सद्य-त्वरित
और जनतंत्र के लिए बहुप्रतीक्षित
तंत्र के लिए सेवा
और जनतंत्र के लिए दया
तंत्र के लिए पैतृक
और जनतंत्र के लिए (आवेदन की) कृपया
तंत्र के लिए अधिकार
और जनतंत्र के लिए भीख
तंत्र के लिए वर्तमान
और जनतंत्र के लिए कालातीत होते है।’

तंत्र की कालातीत योजनाओं से
जनतंत्र बीमार है
तंत्र की हर योजना
योजना नहीं, व्यापार है।
000
kuber

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

शनिवार, 12 दिसंबर 2015

छत्‍तीसगढ़ी कविता

हम कर लेबोन सब काम
('हम होंगे कामयाब'  का छत्तीसगढ़ी रूपान्तरण)
रूपान्तरण - कुबेर

कर लेबोन सब काम, कर लेबोन सब काम,
हम कर लेबोन सब काम एक दिन
ओ हो ..... मन म हे बिस्वास, पक्का हे बिस्वास
हम कर लेबोन सब काम, एक दिन। 

होही शांति चारों खोर, होही शांति चारों खोर,
होही शांति चारों खोर, एक दिन
ओ हो हो ..... मन म हे बिस्वास, पक्का हे बिस्वास
होही शांति चारों खोर, एक दिन।

कर लेबोन सब काम,  कर लेबोन सब काम,
हम कर लेबोन सब काम एक दिन
ओ हो हो ..... मन म हे बिस्वास, पक्का हे बिस्वास।
हम कर लेबोन सब काम, एक दिन।

हम चलबोन संगेसंग, जोर खांधे म खांध
हम चलबोन संगेसंग, एक दिन
ओ हो हो ..... मन म हे बिस्वास, पक्का हे बिस्वास।
हम चलबोन संगेसंग, एक दिन।

कर लेबोन सब काम, कर लेबोन सब काम,
हम कर लेबोन सब काम एक दिन
ओ हो ..... मन म हे बिस्वास, पक्का हे बिस्वास
हम कर लेबोन सब काम, एक दिन। 

नइहे डर ककरो आज, नइहे भय ककरो आज,
नइहे डर ककरो आजे के दिन
ओ हो ..... मन म हे बिस्वास, पक्का हे बिस्वास
हम कर लेबोन सब काम, एक दिन।

 कर लेबोन सब काम, कर लेबोन सब काम,
हम कर लेबोन सब काम एक दिन
ओ हो हो ..... मन म हे बिस्वास, पक्का हे बिस्वास
हम कर लेबोन सब काम, एक दिन।

(होंगे कामयाब, होंगे कामयाब
हम होंगे कामयाब एक दिन
ओ हो हो .. मन में है विश्वास,  पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन)
000

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

कविता

पता होना जरूरी है


जाने वाला पहुँचने वाला भी होता है
और जहाँ पहुँचना होता है
वह कहीं न कहीं तय होता है

मतलब
कहीं जाने के लिए कहीं जाने वाला
और कहीं का होना जरूरी होता है

और यह भी कि
अनगिन कहीं में से जाने वाले का कहीं
कहीं न कहीं गिना हुआ होता है

इसलिए तय कहीं पर जाने के लिए
तय कहीं पर जाने वाले को
उस तय कहीं का पता भी
पता होना जरूरी होता है

अक्सर, कहीं जाने वाले को
तय कहीं पर भेजने वाला
एक कोई भी होता है

और कोई को कहीं का पता
अक्सर पता होता होता है

कहीं जाने वाला, और उसका तय कहीं
व्यक्ति, वस्तु, स्थान आदि संज्ञाएँ
और इनके स्थान पर आने वाले
मैं तुम और वह आदि सर्वनाम
पत्र, धन और योजनाएँ
ज्ञान, विज्ञान और विचार 
कुछ भी हो सकता है

आजकल हमारे तंत्र में
कोई और कहीं
व्यक्ति और विचार के अलावा
कुछ भी हो सकता है

और यह भी कि
कोई को कहीं का पता
जरूर पता होता होता है
इसलिए कि दोनों वही होता है।
000

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

आलेख

जनसामान्य के हितों के विरुद्ध जाने वाले गीता के  श्लोक की आलोचना विवेकानंद ही कर सकते हैं।

हंस, अक्टूबर 2015 में सुधा चैधरी का लेख ’विवेकानंद की विरासत और मानव स्वात्रंत्य का सवाल’ का पहला भाग छपा है। (इस लेख का दूसरा भाग हंस, नचंबर 2015 में छपा है।) लेख में स्वामी विवेकानंद के प्रगतिशील विचारों का संदर्भ देते हुए प्रश्न उपस्थित किया गया है कि प्रगतिशील विचारों के बावजूद स्वामी विवेकानंद को भारतीय कम्युनिस्टों ने कोई महत्व नहीं दिया और यही कारण है कि वे दक्षिणपंथियों के हाथों में चले गये। लेख में भारत में माक्र्सवाद की विफलता के कारण भी स्पष्ट किये गये हैं। लेख में प्रस्तुत स्वामी विवेकानंद के विचारों के कुछ अंश इस प्रकार हैं - 

’’.... सभी प्राचीन राष्ट्रों में समाज को निर्देशित करने वाली श्रेष्ठ शक्ति, इनके इतिहास के प्रथम काल में ब्राह्मणों या पुरोहितों के हाथ में थी। .... दूसरे वर्गों के साथ संघर्षरत यह ’’अपने उच्च वर्ग की स्थिति से नरक में निम्न रसातल को घसीट लाया गया।’’ ..... सैनिकों (क्षत्रियों) का शासन जिसने पुरोहित के प्रभुत्व का स्थान लिया, निरंकुश व अत्याचारी था ...। व्यापारियों (वैश्यों) का शासन, जो बाद में आया, का यह लाभ था कि हर जगह घूमते हुए उन्होंने पुरोहितों व क्षत्रियों के के शासन के दौरान एकत्रित ज्ञान का  प्रसारण किया। .... परंतु वैश्यों की प्रभुता अब समाप्त हो गई है। भविष्य में शूद्रों की प्रभुता आनी चाहिए। इसके अंतर्गत भौतिक मूल्यों का सही वितरण प्राप्त होगा, समाज के सभी सदस्यों के अधिकारों में संपत्ति पर स्वामित्व पर समानता स्थापित होगी तथा जाति भेद का उन्मूलन हो जायेगा।’

........ विवेकानंद ने न केवल शिक्षा पर द्विज के विशेषाधिकार का युक्तियुक्त खंडन किया है जो जन को शिक्षा से वंचित करते हैं। विवेकानंद गीता के उस श्लोक की निंदा करते हैं जहाँ यह कहा गया है कि - ’’विषयासक्त अज्ञानी मनुष्यों को ज्ञान की शिक्षा देकर उनमें भ्रम न उत्पन्न करना चाहिए, बुद्धिमान मनुष्य को स्वयं कर्म में लगे रहकर अज्ञानी लोगों को सभी कार्यों में लगाये रखना चाहिए।’’ इस संबंध में विवेकानंद ने कहा - पुरातन के ऋषियों के प्रति मेरी असीम श्रद्धा होते हुए भी मैं उनकी लोक शिक्षा पद्धति की आलोचना किये बगैर नहीं रह सकता।’

जनसामान्य के हितों के विरुद्ध जाने वाले गीता के इस श्लोक की आलोचना करने और उसे नकारने की हिम्मत विवेकानंद के अलावा शायद और किसी ने नहीं किया है।
000

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

आलेख

कामधेनु अथवा कल्पवृक्ष

बाबरी मस्जिद-राममंदिर का मामला कहानी के हिसाब से सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की कहानी के मुर्गी के समान है। कहानी के कथ्य में समानता जरूर दिखाई देता है परंतु देश-काल, परिथिति और मांग बदल जाने के कारण इसमें कई ट्विस्ट्स आ गये हैं। इस प्रेरणादायी कहानी के बेवकूफ नाई ने मुर्गी को मार डाला था। कहानी में प्रेरक तत्व भरने के लिए नाई का यह कृत्य जरूरी था। मुर्गी पालना नाई और उसी के समकक्ष पिछड़ी, दलित और आदिवासियों का काम है। ट्विस्ट्स यहीं से शुरू होता है। जबकि इन शूद्र जातियों के लिए मंदिर की ओर झांकने का भी अधिकार नहीं है तब बाबरी मस्जिद-राममंदिर का मामला इन जातियों के हाथों में हो सकने की कोई कल्पना भी कर सकता है क्या? तो ट्विस्ट्स यह है कि अब कहानी में सोने के अंडे देने वाली मुर्गी के स्थान पर साक्षात कामधेनु विराजित हो चुकी है अथवा कल्पवृक्ष ने अपनी जड़ें जमा ली है। ये दोनों ही अमर हैं। और सनद रहे, यह मामला जिनके हाथों में है वे कोई बेवकूफ नाई भी नहीं हैं। इसलिए इस मसले का कभी अंत भी हो सकता है, ऐसा सपना देखना भी सबसे बड़ी बेवकूफी होगी।

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

आलेख

उपेक्षा का इससे अच्छा उदाहरण और कहाँ मिलेगा?

नई दुनिया, रायपुर, दिनांक 02 दिसंबर 2015 पृष्ठ 05 में ’’आत्महत्या करने वाले अधिकांश किसान सरकार की नजर में शराबी व झगड़ालू’’ शीर्षक से खबर छपी है। यहीं बाक्स में 12 सितंबर 2015 से 28 नवंबर 2015 के बीच छत्तीसगढ़ में आत्महत्या करने वाले 10 किसानों की सूची दिया गया है जो इस प्रकार है -

1. 12 सितंबर 2015: छुरिया बलाक (जिला - राजनांदगांव) के बादराटोला में किसान उदेराम चंद्रवंशी ने घर में फांसी लगा ली थी।

2. 30 अक्टूबर 2015: छुरिया बलाक (जिला - राजनांदगांव) के किरगाहाटोला में किसान ईश्वर लाल ने अपने खेत में ही फांसी लगा ली थी।

3. 30 अक्टूबर 2015: बालोद के दर्री ग्राम निवासी  किसान रेखू राम साहू ने रात में खुदकुशी कर ली।

4. 15 नवंबर 2015: डोंगरगांव बलाक (जिला - राजनांदगांव) के ग्राम संबंलपुर में किसान हिम्मत लाल साहू ने फांसी लगा ली थी।
5. 16 नवंबर 2015: धमतरी जालमपुर निवासी जुगेश्वर साहू (45 वर्ष) ने कीटनाशक पी लिया।
6. 17 नवंबर 2015: गुरूर ब्लाक के गांव घोघोपुरी के  57 साल के हरबन उर्फ हरधर नायक ने भी कीटनाशक पीकर जान दे दी।

7. 18 नवंबर 2015: डोंगरगढ़ (जिला - राजनांदगांव) के ग्राम ग्राम पंचायत पीटेपानी के आश्रित ग्राम बांसपहाड़ के किसान पूनम उइके ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी।

8. 27 नवंबर 2015: धमतरी जिले के खपरी निवासी किसान राधेश्याम साहू ने जहर सेवन कर आत्महत्या की।
9. 27 नवंबर 2015: डोंगरगांव बलाक (जिला - राजनांदगांव) के ग्राम संबंलपुर के किसान रामखिलावन साहू ने फांसी लगा ली।

10.  28 नवंबर 2015: बालोद जिला के गुंडरदेही विकासखंड अंतर्गगत ग्राम भांठागांव के किसान डोमेश्वर ने की आत्महत्या।

11. और अब आज समाचार छपा है कि 01 दिसंबर 2015 को बालोद जिला के ग्राम भोयनापार लाटाबोड़ निवासी किसान व्यास नारायण टंडन (50 साल) की आत्महत्या से मृत्यु हुई है। व्यास नारायण टंडन ने 24 नवंबर 2015 को जहर सेवनकर आत्महत्या का प्रयास किया था जिसका घमतरी के एक अस्पताल में उपचार चल रहा था।

विगत तीन महीनों में छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव, बालोद और धमतरी मात्र तीन जिलों में ही लगभग एक दर्जन किसान आत्महत्या कर चुके हैं, परन्तु न तो यह राष्ट्रीय स्तर का समाचार बन पाया है और न ही राष्ट्रीय चैनल्स इन समाचारों को प्रसारण योग्य ही समझती हैं। छत्तीसगढ़ के किसानों, मजदूरों और आदिवासियों की राष्ट्रीय उपेक्षा का इससे अच्छा उदाहरण और कहाँ मिलेगा?
0

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

आलेख

 भारत को भारतीय लोगों ने जीतकर अंग्रेजों को सौंप दिया।

(डाॅ. तुलसी राम की आत्मकथा के दूसरे भाग माणिकर्णिका के अंश)


’’  ....... भारतीय समाज के बारे में माक्र्स एंगेल्स ने 1853 तथा 1858 के बीच कई लेख लिखे। मूलतः जाति से संबंधित कार्ल माक्र्स के विचार अधूरे रह गए, अन्यथा हमारे लिए वे युगान्तरकारी सिद्ध हुए होते।

माक्र्स बुद्ध को नहीं जानते थे। यदि ऐसा होता, तो वे जाति व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ लिख जाते। फिर भी उन्होंने जो कुछ लिखा है, उससे बहुत सीख ली जा सकती है। माक्र्स भारत के विकास में जाति व्यवस्था को सबसे बड़ी बाधा मानते थे। उन्होंने भारत में धर्मांधता तथा मिथकों की तरफ भी ध्यान आकर्षित किया है। माक्र्स ने जगन्नाथ यात्रा के दौरान रथ के पहिये के नीचे कूदकर आत्महत्या करने वालों का भी जिक्र किया है। इन आत्महत्याकर्ताओं का विश्वास था कि ऐसा कारने से वे सीधे स्वर्ग चले जायेंगे। माक्र्स ने जगन्नाथ मंदिर से संबद्ध धार्मिक वेश्यावृत्ति का भी जिक्र किया है। इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण बात यह लिखी है कि भारत को भारतीय लोगों ने जीतकर अंग्रेजों को सौंप दिया। ..........।’’ (पृ. 171-172)


शनिवार, 14 नवंबर 2015

लघु कथाएँ

बोलो यार, कुछ तो

एक दिन मैं शहर जा रहा था। सडक के किनारे तीस-बत्तीस साल का एक युवक खड़ा था। उसे मैंने दूर से ही देख लिया था। उसकी शारीरिक भाषा और हरकतों से मुझे अनुमान हो गया था कि उसे लिफ्ट चाहिए थी। शायद वह कम पढ़ा-लिखा था। लिफ्ट के लिए अंगूठा दिखाना उसे नहीं आता था। झेंपते हुए उसने अपने कंधे के समानांतर अपना बाँया हाथ आगे बढ़ाकर और उसे लहरा कर मुझे रुकने का संकेत दिया। उसके सामने जैसे ही मैंने बाइक रोकी, बैठने के लिए वह लपका। मैंने तुरंत उसे ऐसा करने से रोक दिया। अपनी बाइक पीछे की ओर ठेलकर मैंने स्वयं को उसके सामने लाया। उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयास किया। उसके चेहरे पर मुझे निराशा, अपमान और शर्म के सम्मिलित भाव तैरते नजर आये।

उसने पूछा - ’’कहाँ जा रहे हो?’’

मैंने कहा - ’’जहन्नुम। अगर मेरे साथ चलना है तो अपना परिचय तुम्हें बताना पड़ेगा और मेरी शर्तें भी मानी होगी।’’


उसने अपना परिचय बताया और शर्तें पूछी।


मैंने कहा - ’’चुपचाप नहीं बैठोगे। पूरे समय कुछ न कुछ बोलते रहोगे।’’ 


उसने कहा - ’’मुझे बोलना नहीं आता। आप पढ़े-लिखे हो, आपको बोलना आता होगा। आप बोलना, मैं हामी भरता रहूँगा।’’

मैंने कहा - ’’एक कवि ने कहा है - ’मरा हुआ आदमी नहीं बोलता, नहीं बोलने से आदमी मर जाता है।’ क्या तुम मर चुके हो? या मरना चाहते हो?’’

वह चेथी खुजलाने लगा।

मैंने कहा - ’’जरूरत पड़ने पर गूँगा भी चिल्लाकर अपना विरोध दर्ज करता है। क्या तुम्हें चिल्लान भी नहीं आता।’’

उसने कहा - ’’बेमतलब चिल्लाने पर लोग पागल समझेंगे, नहीं?’’

’’पर मरा हुआ तो नहीं, न?’’ मैंने कहा।

 000

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

आलेख

सहिष्णुता-असहिष्णुता

सहिष्णुता-असहिष्णुता पर आजकल बहस चल रही है। मेरा मानना है, हमारा सवर्ण-मुखी समाज कभी भी सहिष्णु नहीं रहा है। जाति और धर्म हमारे बीच असहिष्णुता की अकाट्य-अटूट और नियामक भूमिका में आज भी अपने पुराने पारम्परिक रूप में मौजूद है। मैं ओमप्रकाश वाल्मीकि के ’जूठन’ प्रथम के अंतिम पृष्ठ के अंशों को उद्धृत करना चाहूँगा -

’’तरह-तरह के मिथक रचे गए - वीरता के, आदर्शों के। कुल मिलकर क्या परिणाम निकले? पराजित, निराश, निर्धन, अज्ञानता, संकीर्णता, कूपमण्डूकता, धार्मिक जड़ता, पुरोहितवाद के चंगुल में फंसा, कर्मकांड में उलझा समाज, जो टुकड़ों में बँटकर कभी यूनानियों से हारा, कभी शकों से। कभी हूणों से, कभी अफगानों से, कभी मुगलों, फ्रांसीसियों और अंग्रेजों से हारा, फिर भी अपनी वीरता और महानता के नाम पर कमजोरों और असहायों को पीटते रहे। घर जलाते रहे। औरतों को अपमानित कर उनकी इज्जत से खेलते रहे। आत्मश्लाघा में डूबकर सच्चाई से मुँह मोड़ लेना, इतिहास से सबक न लेना, आखिर किस राष्ट्र के निर्माण की कल्पना है?

वक्त बदला है। लेकिन कहीं कुछ है जो सहज नहीं होने देता है। कई विद्वानों से जानना चाहा कि सवर्णों के मन में दलितों, शूद्रों के लिए इतनी घृणा क्यों है? पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को पूजने वाला हिंदू दलितों के प्रति इतना असहिष्णु क्यों है? आज ’जाति’ एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण घटक है। जब तक यह पता नहीं होता कि आप दलित हैं तो सब कुछ ठीक रहता है, ’जाति’ मालूम होते ही सब कुछ बदल जाता है। फुसफुसाहटें, दलित होने की पीड़ा चाकू की तरह नस-नस में उतर जाती है। गरीबी, अशिक्षा, छिन्न-भिन्न दारूण जिंदगी, दरवाजे के बाहर खड़े रहने की पीड़ा भला अभिजात्य गुणों से संपन्न सवर्ण हिंदू कैसे जान पायेंगे?

’जाति’ ही मेरी पहचान क्यों? कई मित्र मेरी रचनाओं में मेरे लाउडनेस, एरोगैंट हो जाने की ओर इशारा करते हैं। उनका इशारा होता है कि मैं संकीर्ण दायरे में कैद हूँ। साहित्यिक अभिव्यक्ति को व्यापक अर्थों में ग्रहण करना चाहिए। संकीर्णता से बाहर आना चाहिए। यानी मेरा दलित होना और किसी विषय पर अपने परिवेश, अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुसार दृष्टिकोण बनान एरोगैंट हो जाना है, क्योंकि मैं उनकी नजरों में सिर्फ एस. सी. हूँ, दरवाजे के बाहर खड़े रहनेवाला।’’

अभी मैंने सुना - एक सवर्ण छात्रा ने जूठन पढ़ने के पश्चात् अपने अभिभावक से पूछा - ’क्या हमारे पूर्वज ऐसे थे?’

वर्तमान पीढ़ी का यह नजरिया हमें आश्वस्त करता है कि सामाजिक असहिष्णुता की अकाट्य-अटूट और नियामक भूमिका में मौजूद जाति और धर्म की दीवारें एक दिन जरूर टूटेगी; धीरे-धीरे ही सही। ओमप्रकाश वाल्मीकि, डाॅ. तुलसी राम और डाॅ. सुशीला टाकभौरे जेसे विद्वानों-विदुषियों की आत्मकथाएँ इस प्रक्रिया को गति देने वाली प्रेरक रचनाएँ हैं और इसीलिए ये पवित्र भी हैं।
000
  

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

लघु कथाएँ

मिलते बहुत हैं; जो भी मिला, उसे सहेज लिया

एक मित्र हैं। राह चलते अक्सर उन्हें सिक्के, नोट, या मूल्यवान वस्तुएँ मिल जाया करती हैं। (यह रहस्य उन्होंने तब जाहिर किया था जब हम दोनों साथ-साथ कहीं जा रहे थे या कहीं से आ रहे थे और रास्ते में उन्हें सौ रूपये का एक नोट मिल गया था।)

इस हद तक मेरा सौभाग्य मुझ पर कभी मेहरबाँ नहीं हुआ है। परन्तु अपनी किस्मत पर न तो मुझे कभी अफसोस हुआ और न हीं मित्र की किस्मत से ईश्र्या हुई।

हमारी नजरें वहीं केन्द्रित हो जाती हैं जिस विषय-वस्तु पर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है। और उस विषय-वस्तु को हम उठा लेते हैं। मुझे लिखने के लिए विषय की तलाश होती है। मेरी नजरें उसे तलाश लेती हैं और उसे मैं चुनकर रख लेता हूँ।

जिस गाँव में मैं और यह मित्र पदस्थ थे उस गाँव के मुखिया से एक बार हम मिलने गये थे। एक व्यक्ति जो दिखने में किसी भीखमंगे की तरह दिख रहा था, लाठी टेकते मैदान से गुजर रहा था। मुखिया ने बताया - ’’गुरूजी! उस आदमी को देख रहे हो?’’

हम लोग उस अदमी की ओर देखने लगे। उनकी क्रियाकलापों को कुछ देर देख्ते रहे। वह रास्ते में पड़े हुए कागज के कुछ टुकड़ों को उठाकर अपनी जेब में रख लेता था। मैंने पूछा - ’’क्या यह विक्षिप्त है?’’

’’नहीं। अजीब और असाधारण है। कुछ काम नहीं करता, पर रहता ठाठ से है।’’ मुखिया ने कहा - ’’मैंने एक बार इनसे पूछा था, इन रद्दी कागजों का क्या करते हो? उनका जवाब था, कागज के जिन टुकड़ों को मैं उठाता हूँ, जो तुम्हे रद्दी दिखते हैं, दरअसल वे नोट होते हैं। है न अजीब और असाधारण। आदमी?’’

 हमें ताज्जुब हुआ।

कुछ समय बाद पता चला कि आपराधिक गतिविधयों में संलिप्तता के आरोप में पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया है।
000

बुधवार, 11 नवंबर 2015

व्यंग्य,

पश्चाताप की एक कहानी पढ़ लें?

एक जंगल था। वहाँ राजा का चुनाव हो रहा था। जंगल में एक सियार रहता था। वह वहाँ का राजा बनना चाहता था। परंतु यह आसान नहीं था। जंगल के जानवर-मतदाता सियार जैसे बदनाम प्राणी को भला अपना राजा कैसे चुन लेते?

सियार निराश नहीं हुआ। वह बहुत चालाक, धूर्त, लालची और धोखेबाज था। अपनी इन क्षमताओं पर उसे बड़ा अभिमान था। उसे एक तरकीब सूझी। उसने अपने आराध्य गुरू की खूब सेवा की। गुरू ने प्रसन्न होकर कहा - तुम्हारी इच्छाएँ मैं जानता हूँ। इस वन प्रदेश का राजा बनने के सारे गुण तुम्हारे अंदर विद्यमान हैं। मैं भी चाहता हूँ कि तुम यहाँ का राजा बनों। तुम ही मेरे सर्वाधिक प्रिय शिष्य हो। परन्तु तुम्हारे पास न तो शेर के समान दहाड़ है और न ही रूप और शरीर। मैं तुम्हें इन दोनों ही चीजें देना चाहता हूँ, पर विवश हूँ। दोनों में से मैं तुम्हें एक ही दे सकता हूँ, वह भी सशर्त। बोलो क्या चाहिए?

सियार की चतुर बुद्धि ने कहा - रूप बनाने के लिए बाजार में मुखौटों की कमी है क्या? शेर की दहाड़ ही मांग ले।

गुरू ने उसे उसकी इच्छा के अनुसार शेर की दहाड़ का वरदान देते हुए कहा - और शर्त भी सुन लो। मेरे इस मंदिर में प्रतिदिन सुबह-शाम की आरती होती है, उसके चढ़ावे का प्रबंध तुम्हें ही करना होगा। माह के अंत में हाजिरी देना अनिवार्य होगा। ध्यान रहे! शर्त का उलंघन करने पर वरदान स्वतः निष्प्रभावी हो जायेगा।

राजा बनकर सियार बड़ा प्रसन्न है। गुरू की खूब सेवा करता है। सेवा के बदले खूब मेवा झड़कता है। सभाओं में कभी-कभी वह दहाड़ भी लेता है। परन्तु रात-दिन उसे अपने मुखौटे की चिंता बनी रहती है। उसे गलतफहमी है कि इस जंगल के जानवर-मतदाता उसकी असलियत के बारे में नहीं जानते हैं। परन्तु सच्चाई कभी छुपती भी है?
000

सोमवार, 9 नवंबर 2015

व्यंग्य

एक अश्लील कथा


कथा इस प्रकार है -

इस देश में कभी एक महान उपदेशक हुआ था। वह परम ज्ञानी, प्रकाण्ड विद्वान और प्रखर चिंतक था। गाँव-गाँव घूमकर लोगों को उपदेश देना उसका व्यवसाय था। लोग उसे ईश्वर की भांति पूजत थे।

उपदेशक महोदय पिछले कुछ दिनों से इस उपदेश पर वह बड़ा जोर देने लगा था - ’सज्जनों! शास्त्रों में लिखा है - पशुओं के साथ मैथुन कभी नहीं करना चाहिए। यह महापाप है। ऐसा करने वालों को घोर नरक का भागी बनना पड़ता है।’

उपदेशक महोदय का एक सेवक था जो हमेशा उनके साथ बना रहता था। उसे इस नये उपदेश से बड़ी उलझन होने लगी थी। वह सोचता था - सज्जन व्यक्ति ऐस कृत्य भला क्यों करेगा। और ऐसा कृत्य करने वाला सज्जन कैसे होगा?

पिछले कुछ दिनों से ही उपदेशक महोदय अपनी नयी-नवेली घोड़ी पर सवार होकर रोज प्रातःकाल जंगल की ओर सैर करने निकल पड़ता था और बड़ी देर बाद लौटता था। एक दिन वह सेवक छिपकर उसके पीछे हो लिया।

निर्जन, घने जंगल के बीच एक नदी बहती थी। उपदेशक महोदय अपनी नयी-नवेली घोड़ी को नदी के बीचोंबीच, जहाँ घुटनों तक पानी था ले गया और उसके साथ मैथुन करने लगा। सेवक ने यह देख लिया।

उपदेशक महोदय सदा सेवक की अवहेलना किया करता था। आज सेवक के पास अवसर था, उपदेशक महोदय को नीचा दिखाने का। उपदेश हेतु जब वह सज-धजकर मंच की ओर जाने के लिए तैयार हुआ तब सेवक ने कहा - ’’प्रभु! आपके उस उपदेश का रहस्य मैंने आज सुबह-सुबह नदी पर समझ लिया है, सोचता हूँ, लोगों को भी अवगत करा दूँ।’’

सुनकर उपदेशक महोदय पलभर के लिए विचलित हुए परन्तु तुरंत ही स्थितप्रज्ञों की तरह संयत होकर कहने लगा - ’’मूर्ख! जरूर बताओ। परन्तु शास्त्रों में इसके आगे यह भी लिखा है, सुनते जाओ - ’अगर यह कृत्य सूर्योदय के समय निर्जन वन में किसी नदी के बीच, घुटने भर जल में खड़े होकर किया जाय तो मन को असीम शांति मिलती है और स्वर्ग की प्राप्ति होती है।’ तू मेरा प्रिय शिष्य है इसलिए इस रहस्य को बता रहा हूँ अन्यथा शास्त्रों में इस अंश को प्रकट करने के लिए निषेध किया गया है। शास्त्रों में निषिद्ध बातों का उलंघन करने से पाप लगता है।’’

पुण्य प्राप्ति की लालसा में और पाप से बचने के लिए सेवक ने आज तक इस महात्मय का उल्लेख किसी से नहीं किया।

मुझे लगता है, उपदेशों से लबालब तमाम तरह के ग्रंथ ऐसे ही उपदेशकों के द्वारा लिखे गये होंगे। और यह भी, सारे उपदेशक इन्हीं उपदेशक महोदय के ही वंशज होंगे।
000 

शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

व्यंग्य

ये क्या कम  है

मरहा राम अपने साथियों के साथ बीते दिनों की नैतिकता की डीगें मार रहा था। कह रहा था - ’’भाइयों! अब तो अंधेर ही अंधेर है - जिधर भी देख लो। भ्रष्टाचार देश को खोखला किये जा रहा है। ये देखो, एक सौ साल पुरानी  सरकारी इमारत। भूरी चींटी के घुसने लायक भी कोई दरार हो इसमें, तो बता दे ढूँढकर, माई का लाल कोई हो तो। मजबूती से अब भी कैसे खड़ा है।’’

मरहा राम की इन ढींगों को पास ही बैठा मंत्री सुन रहा था। जब रहा नहीं गया तो मरहा राम को उसने ललकारा - ’’ओये! मरहा राम के बच्चे। और ये बिल्डिंग तुझे नहीं दिखता बे। एक ... साल्..से जादा हो गया है कि नहीं। खड़ा है कि नहीं अब भी? साला! बात करता है।’’

’एक ... साल्..से’, पर जिस तरीके से जोर देकर बोला गया था, उसी का असर होगा; बात मरहा राम के मर्म को छू गई। उसने हाथ जोड़कर कहा - ’हुजूर! ठीक कहते हैं आप, वरना यहाँ कई इमारतें तो बनते ही गायब हो जाती है।’’
000

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

कविता

वह शब्द है

बस!
एक शब्द हो निःसीम,
ब्रह्माण्ड की तरह
और
समाया हो समूचा ब्रह्माण जिसके भीतर।

एक शब्द हो प्राणमय
जीवन की तरह
और
समाया हो समूचा जीवन जिसके भीतर।

एक शब्द हो सम्वेदना-सिक्त
सम्वेदनाओं की तरह
और
समायी हो समूची सम्वेदनाएँ जिसके भीतर।

एक शब्द हो सर्वशक्तिमान
ईश्वर की तरह
और
समाहित जिसमें दुनिया के सारे ईश्वर
सारे धर्म, सारे ग्रंथ और सारे पंथ भी
अपनी समस्त लीलाओं के साथ जिसके भीतर।

बस!
अंत में एक शब्द और हो, आभामय
सूर्य की तरह
और
समाया हो समूचा ज्ञान जिसके भीतर।

आदिम परंपराओं को ढोने वाले
आदिम मनुष्य की आदिम संतानों
है ऐसा एक शब्द आपके पास?

सुना है
कबीर के पास था ऐसा एक शब्द
ढाई आखर वाला
जिसे पाकर वह मनुष्य बन गया था।
000
kuber

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

छत्‍तीसगढ़ी कहानी

योग्यता के जांच


भोलापुर के राजा ह एलान करिस - ’’इहां के सब मास्टर मन भोकवा अउ लेदरा हवंय। न पढ़े बर जानंय, न पढ़ाय बर। विही पाय के इहाँ के पढ़इया लइका मन घला भोकवा अउ लेदरा हो गे हें; होवत जावत हें। कलेक्टर, डाक्टर, इंन्जिनियर, साहब, बने के तो बाते ला छोड़ दे, इहाँ कोनों लइका ह चपरासी बने के लाइक घला नइ हे। विही पाय के अब हम परदेस ले कोरी-खरिका, बने-बने पढ़े-लिखे, सीखे-सोधे मास्टर लान के, मास्टर मन के जम्मों खाली जघा म वोमन ला बइठारबोन। सब स्कूल मन ला ऊँकरे हवाला करबोन, अउ इहाँ के जम्मों लेदरा-पदरा गुरूजी मन ला कान पकड़ के गेटाउट करबोन।’’

राजा ह मनेमन डर्रावत रिहिस, कहूँ ये फैसला ला सुन के राजभर मा गड़बड़ी झन मात जाय। हड़ताल-प्रदर्शन के रहिद झन मात जाय; फेर वइसन कुछुच् नइ होइस। राजा हा चैन के साँस लिस। सिंहासन के पाया मन ल निहर के टमड़िस, देखिस, पहिली ले जादा मजबूत लागिस। अपन भौं मन ला हलाइस, आँखीं मन ला बड़े-बड़े छटकारिस, अउ टेड़गा हाँसी हाँस के मनेमन किहिस - ’इहाँ के जम्मों साले मन लेड़गा अउ कोंदवच् नइ हें, अंधरा अउ भैरा घला हें।’

दूसर दिन वोकर एक झन भेदिया ह आ के वोला चुपचाप बताइस - ’सरकार! मरहा राम ह थोरिक अँटियावत हे। इहाँ के पढ़े-लिखे लइका मन ल भड़कावत हे। लइका मन ल सकेल के हड़ताल करइया हे।’

राजा ह सोचिस, नानचुक चिंगारी ह घला जंगल के आगी बन जाथे। रमंज के तुरत-फुरत बुझा देना जरूरी हे। किहिस - ’जब देखो तब, ये साले मरहाच् राम ह काबर जादा अइंठथे रे। एकोदिन वोकर अकड़ ल बने असन टोरव तो। जावव अउ अभिचे वोला धर को लानव, पूछबो साले ल, काबर वो ह अतिक अकड़थे।’

राजा के सिपाही मन मरहा राम के गजब खातिरदारी करत वोला राजा के आगू हाजिर करिन। मरहा राम ह अपन दू-चार संगवारी मन ल घला सकेल के लाय रहय। सबो झन ल बढ़िया गदिया वाले कुरसी म बइठार दिन। महर-महर करत नास्ता-पानी परोस दिन। वो मन म कोनों घला ह अइसन कुरसी म बाप-पुरखा बइठे नइ रहंय; अइसे लगिस मानो जमीन म धंसत हें का। मरहा राम ह कहिथे - ’नरक म धंस जाबो का रे। ये ह कुरसी आय के नरक के दुवार आय?’ संगवारी मन ह सबो झन नास्ता झड़के म मगन रहंय; मरहा के बात ल सुन के ’हें, हें’ कर दिन।

राजा ह आइस, जय-जोहार होइस, चहा-पानी के बात पूछिस, निकता-गिनहा के बात होइस तब राजा ह कहिथे - ’मरहा राम! तुँहर गाँव के रामायन प्रतियोगिता के गजब सोर सुने हंव जी। जाय के अड़बड़ इच्छा होथे, फेर तुमन तो कभी नेवताच् नइ पठोवव भाई। एसो अउ बने धूमधाम से होना चाही। खर्चा-पानी के फिकर झन करना। येदे साहब खड़े हे न, जावत-जावत येकर डायरी म लिखा देहव। चाँऊर-नून बने मिलत हे के नइ? एसो अकाल पड़ गे हे, राहत कार्य के जरूरत पड़ही। कतका होना, वहू ल लिखा देना। तोर संग अभी जतका आय हें न, ये बाबू मन ह, सब पढ़े-लिखे हें तइसे लागत हे। उहाँ ये सब झन ल मेट अउ टाइमकीपर बना देबोन। अउ कुछू बात होही तब सीधा मोला फोन करबे। लेव अउ आहू।’

मरहा राम ह सोचिस, ये तो हमला कुकुर समझत हे। बात ल कहाँ ले कहाँ घुमावत हे। रोसिया के किहिस - ’करइया मन ह करावत होहीं जी, हमूं मन कराथन रामायन प्रतियोगिता। हमला इही बात करे बर बलाय हस का? बाहिर के आदमी ल सरकारी नौकरी देवत हस, हमर ये लइका मन घला पढ़े-लिखे हवंय, ये मन कहाँ जाहीं तउन ल बता?’

राजा तीर सबके जवाब रहिथे, सब जवाब रहिथे, मरहा राम ल समझाइस - ’तोर बात ह सही हे जी मरहा राम, यहू लइका मन पढ़े-लिखे हवंय, जउन मन पढ़ावत हें तउनो मन ह पढ़े-लिखे हें, हमू ल पता है, फेर हमला जउन योग्यता के जरूरत हे, इंकर मन तीर नइ हे, विही पाय के हम दूसर कोती के आदमी मन ल भरती करत हन।’

मरहा राम ह किहिस - ’जउन कोती के आदमी मन ल बलावत हस, वोमन कइसे नकलमारी करके परीक्षा पास होथंय, समाचार म हमू सब देखथन। बाहिर के मन इहाँ आ के इहाँ के मन ल कइसे लूटथें, वहू ल देखत आवत हन। ये लइका ह गणित पढ़े हे, ये ह विज्ञान पढ़े हे, का ये मन हा नौक्री के लाइक नइ हें?’

राजा ह किहिस - ’तोर बात ह सही हे जी मरहा, अतका देख-सुन के घला तुंहला परीक्षा पास करे के अकल नइ आइस। कोन ह धरे-चपके हे तुहंर हाथ ल? रहि गे तोर संग म आय ये लइका मन के बात, इंकर योग्यता ल जांचे बर मंय ह इंकर ले सवाल पूछत हंव। सही जवाब दे दिहीं ते अभी इंकर नौकरी पक्का कर देहंव।’

मरहा राम ह किहिस - ’अंतेतंते पूछ के फेल करे के उदिम झन कर जी, हमला सब पता हे।’

राजा ह किहिस - ’अंतेतंते काबर पूछबोन जी, सोज अउ सरल जोड़-भाग के सवाल हे। दू झन हें, दूनों बर एक-एक सावल पूछत हंव। सवाल नंबर एक येकर बर - ’तोर तीर दस ठन आमा हे, पाँच ठन ल कोनों ह नंगा के भाग गे, तोर तीर कतका आमा बाचही? सावल नंबर दो येकर बर - तोर तीर दस ठन आमा हे, एक झन कोनों दूसर संगवारी संग बराबर बाँटना हे, तोर भाग म कतका आमा आही? बने सोच के बतावव।’

सवाल सरल रिहिस - पहिली संगवारी, जेकर नाम लखन रिहिस, किहिस - ’पाँच आमा।’ दूसर सवाल के जवाब ओम प्रकास ह दीस - ’पाँच-पाँच आमा।’

राजा ह माथा धर के बइठ गे। किहिस - ’दिख गे तुँहर योग्यता ह। इही कारण हमला दूसर कोती के आदमी बलाय बर पड़त हे मरहा राम। सुन डरेस?’

मरहा राम ह किहिस - ’बने तो बताइन हे, अउ का जवाब दिहीं जी?’

राजा ह कहिथे - ’कस जी! तुँहर चीज ल कोनों ह चोरी करके भागही, कोनों ह सेतमेत म तुँहर चीज के बँटवारा मांगही, अउ तुम वोला सहज म दे देहू? वोला धर के रहपटियाहू नहीं? वोकर हाथ-गोड़ ल नइ टोरहू? आज तो तुम सब फेल हो गेव। तुँहला कोनों नौकरी नइ मिल सकय। कोनों दिन अउ सवाल पूछहूँ, बने तियारी करके आहू। जावव! तब तक गोहगोहों ले चाँऊर-नून खावव अउ रामायन प्रतियोगिता के तियारी करव।’
000



शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

समीक्षा

समीक्षा

माइक्रोकविता और दसवाँ रस  

(समीक्षक: यशवंत)

माइक्रोकविता और दसवाँ रस अर्थात् भावनात्मक भ्रष्टाचार का पोस्टमार्टम

संघवाद ढाई हजार साल पुराना है। यह साम-दाम-दण्ड- भेद द्वारा संचालित हो रहा है; जिसमें थुथरो विजयी हुआ। हजारों ए. के. 47 के समक्ष थुथरो-संघ मिसाईल का काम करता है। मतलब बिल्ली की विष्ठा लीपने-पोतने के काम आ ही जाती है। स्थापित सुखर्रे-पंथियों ने कभी भी ’अमीरी हटाओ’ का नारा नहीं दिया; इसकी मशाल नहीं जगाई, नहीं जलाई। कुपंथी, जनपंथियों के मार्ग से गुजरकर राजपंथ तक पहुँच जाते हैं; जहाँ जानवरों की भयंकरता है। वे दूसरों पर हमला नहीं करते। मनुष्य एकमात्र ऐसा जीव है। संघसेवक आक्रमण करते हैं। देश से 1971 से गरीबी हटा रहे हैं; नहीं हटी। फिर सस्ता चाँवल का उपकार करके दांत निपोर दिए। जो दांत निपोरने की कला में माहिर होता वह सफलता के कदम चूमता है। बांकी सब ठेंगा चूमते हैं। हँसने-हँसाने की कला में जनता दक्ष है। आज नमो जप रहे हैं; हें हें हें ... कर रहे हैं।

दांत निपोरने की कला महानतम् है। मौलिक दांत बगैर साधना के पा सकते हैं। ये दांत आपको कल्पवृक्ष बना देंगे। परन्तु इसकी एक ही शर्त होगी - आपको कुतरना-काँटना आना चाहिए। यहाँ चूहे का कुतरना, कुत्ते का काँटना संदर्भित नहीं है, वरन् साँप का काँटने से संबंध प्रसंग है। बेचारे दांत रहकर खा नहीं सकते, खा भी लिए तो चबा नहीं सकते; दुर्भाग्य ही है। इसी कारण ये लोग दलबदल करते हैं। ईज्जत-बेईज्जत होते हैं। दांतों के कारण घट पर धार चलती है। अ-दांतों से घर के न घाट के हो जाते हैं। मतलब, संबंध दातों से मनुष्य का नहीं, कुत्तों से है। शायद दांत वालों ने ही लिखा - कुत्ते से सावधान। जनता दांत वाली हो जाय तो देशरक्षा की जा सकती है; बिना युद्ध के। गौतम की अहिंसा भी गौरवान्वित होगी।

’कामरेड का रिक्शावाला’ और ’यह अवैधानिक है’ को पढ़ते हुए कुमार प्रशांत की कविता याद आई - ’’बेचारे वामपंथी इस मेले में खो गए हैं। किताबी क्रांति इतनी अधूरी और भ्रष्ट में डालने वाली होती है और इसीलिए इतिहास गवाह है कि किताबों से क्रांति नहीं होती; क्रांतियाँ अपनी किताब आप लिखती हैं।’’1

’अभी मैं उन्हीं (ईश्वर) से मिलकर आ रहा हूँ, बिलकुल फिट हंै। यह देश उन्हीं के भरोसे चल रहा है।’ यह कथन ’समय के भविष्य’ का है। ’खाने-पीने के बाद यह तो हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। ये भगवान भरोसे नहीं है। ऊँट के देखे नहीं। एक करवट में बिठा दिया। एक अंग्रेजी कहावत है - ’चाय के प्याले और होठ के बीच कई फिसलने हांेती हैं।’ वामपंथ इसी प्रकार नाव खेता है, भारतीयों का। सामाजिक परिवर्तन मरने-मारने से होता है और आर्थिक विकास मोटाने से। छप्पन इंच का छाती मोटा-मोटाकर बोलता है। 

धर्मनिरपेक्षता का कोई पहिया नहीं तो छद्मनिरपेक्षता कायम होगी ही। ’नैतिकता की तोंद’ को खाने में पूरी निष्ठा के साथ, ईमानदारी के संग भारत में भोग सकते हैं। मिठास-भाव गरीबी में मिलता है? मिलबाँटकर खाते हैं, मानवीय गुण जो है। पर  कुत्ते हैं कि समझते ही नहीं। कुत्तों की एक जात होती है।  आदमियों की अनेक जाति भारत में होने से वे कुत्ते हैं? कुत्ते स्वयं सेवक ही होते हैं। यह गुण  मनुष्यों में होना चाहिए। कड़ी से जुड़ने का गुण न हो तो जुड़ेंगे कैसे? 

गुल्लक मजेदार होता है। हताशा कांे दूर करता ही है। कौड़ी-कौड़ी माया जोड़ी बड़ों में होती है, बच्चों में नहीं। भारतीय प्रजातांत्रिक पार्टियों के पास रोजगार का कोई भविष्य नहीं, पर आपके समय का भविष्य अवश्य है। फेंकन-डारन-सकेलन का भविष्य कैसा, जब वर्तमान ही नदारत हो। भूत तो रहा ही इनके हाथों, भूत की डरावनी शक्ल में ही सही। 

कथनी-करनी का अंतर ’आजकल’ में अवश्य है। कदाचित नहीं। ’समय का भविष्य’ और ’भविष्य’ मिलाकर पढ़े तो व्यंग्य सटीक बैठता है, जिसमें अनिश्चितता है। ’पानी’ का शानी पानी-पानी होकर संबंधों को ’लोप’ करता हुआ कि समय नहीं है। अर्थ - समय नहीं। वर्तमान आदमी ही जब लोप है तो समय विलोपित होना नई बात कहाँ? विलोपित व्यक्ति को बचाकर मानव संसाधनों को कैसे लूटें? इसका ब्यौरा ’रिकार्ड चर्चा’ में बतौर भूमिका है। और आगे ... परसाई जी के इंस्पैक्टर मातादीन चांद पर के आधार पर, निराधार चल रही भारतीय योजनाओं पर संतुलित वर्णन पढ़ने को मिलेगा - ’मास्टर चोखेलाल भिड़ाऊ चांद पर’ में। विडबंना है, भारत की विदेश नीतियाँ और भारत के लिए विदेश नीतियाँ, इण्डिया विदेश नीतियाँ हैं। तब भारत कैसे विश्व गुरू? काहे का विश्व गुरू? आपकी स्थिरता बची रहेगी? नाट्य शैली में लिखा व्यंग्य इण्डिया वालों को तंग करेगा। पर भारत वालों के लिए व्यावहारिक क्रांति अवश्य देगा। भरती का चक्कर चपरासी द्वारा हो सकता है, अफसर द्वारा नहीं।

’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ साहित्यकारों के लिए उपादेय है। रचनाकर्म साधना नहीं, साधारण है; स्पष्ट करेगी। परंतु साधारण का साधारणीकरण ही काव्य होता है। यह विश्लेषण ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ में मिलेगा। इसे जानने के पहले हम कविता पर मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणी याद कर लें - ’’कविता की एक बहुत प्रसिद्ध परिभाषा है - ’पोएट्री इज द बेस्ट वर्ड्स इन द बेस्ट आर्डर।’ अब इसमें जो वर्ड्स हैं उन्हें हम थोड़ी देर के लिए नागरिक मान लें। रचना और किताब के नागरिक शब्द ही होते हैं तो ’कविता सर्वोत्तम शब्दों का सर्वोत्तम विधान है।’ जाहिर है, सर्वोत्तम शब्द कौन हैं, कौन नहीं, कवि ही तय करेगा।’’2 लगे हाथ रचना में प्रयुक्त शब्द और उसके अर्थ भी समझ लें क्योंकि ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ के लिए यह परम आवश्यक है। 

’’अपनी बोली-बानी के साथ किसी आदमी का किसी रचना में उपस्थित होना एक तरह से अपनी पूरी दुनिया के साथ  उसमें उपस्थित होना है, क्यांेकि शब्द का अर्थ से, आर्थ का अनुभव से, अनुभव का जीवन के यथार्थ से, जीवन के यथार्थ का जीवन की परिस्थितियों से, जीवन की परिस्थितियों का सामाजिक स्थितियों से और सामाजिक स्थितियों का इतिहास की प्रक्रिया से गहरा संबंध होता है। अगर यह ठीक से न समझा जाय तो कोई रचनाकार न ठीक से लिख सकता है और न आलोचक उसे ठीक से समझ सकता है।’’3 इस हिसाब से कुबेर जी के व्यंग्य लेख का शीर्षक होना था - ’माइक्रोकविता और बारहवाँ रस’। परंतु कुबेर जी ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ पेश करते हैं।

सूरदास के साथ ही वात्सल्य रस का निर्माण हो चुका था। ’’स्वरूप गोस्वामी ने भक्तिरस जैसे नए रस की बात की।’’4 पूर्वप्रचलित नौ रसों तथा उक्त दो को मिलाकर ग्यारह रस मान्य लगते हैं; तो माइक्रोकविता दसवाँ रस कैसे होगी? खैर ’माइक्रोकविता’ में दिलचस्प ’रस’ की बातें मिलती हैं। काव्यशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र दोनों के ज्ञान अनुशासन अलग हैं। पर वे अनुभव की जगह पर मिलकर एक होते हैं। इसे संस्कृत में रस कहते हैं। आचार्य वामन ने सर्वप्रथम सौन्दर्य शब्द का प्रयोग किया। ज्ञान-अनुभव ने कबीर की व्यंग्य कविता को दार्शनिक बनाया अतः लोगों की जबान पर पाँच सौ वर्षों से है। काव्य सौन्दर्य से उदात्तता का उदाहरण कुबेर जी ने दिया है -

समोसा और कचोरी में क्या अंतर होता है?
अपने अक्ल का घोड़ा दौड़ाइये
इस सवाल का जवाब बताइये
सहीं जवाब देकर
इनाम में यह चाॅकलेट पाइये।
0
अब चाॅकलेट कौन खायेगा रखे रहिए,
घर में अंकल के काम आयेगा
पर दोनों का सेंपल दिखाइये
सबके हाथों में एक-एक पकड़ाइये
अंतर तभी तो समझ में आयेगा।
000
ये हैं माइक्रोकविता की बानगी -
लेता
देता
नेता।
0
हल्दी
मेंहदी
चल दी
0
खिलाना
पिलाना
बनाना।

माइक्रोकविता का विशेष गुण है - इसके लिए सवैया, छप्पय जैसे किसी लंबे-चैड़े छंदों की आवश्यकता नहीं है। शार्टकट से इसकी निष्पत्ति होती है। राखी सावंत के कपड़ों से इसका अंदाजा लगा सकते हैं। यह चरमोत्कर्ष का वीर्यदान है।
माइक्रोकविता में रस निष्पत्ति का विश्लेषण इस प्रकार किया गया है -
1. स्थायी भाव - माथापच्ची
2. विभाव
1. आलंबन विभाव - अनैतिकता, दुराचार, भ्रष्टाचार, असत्य भाषण तथा इन मूल्यों को धारण करने वाले राजपुरूष, उनके कर्मचारी और व्यापारीगण, उत्तरधुनिकता के रंग में रंगी हुई युवापीढ़ी आदि।
2. उद्दीपन विभाव - ऊबड़-खाबड़ तुकांतों वाली, न्यूनवस्त्रधारित्री व अतिउदाŸा विचारों वाली आधुनिक रमणी के समान, पारंपरिक अलंकारों से विहीन छंद-विधान।
3. अनुभाव - इन कविताओं को पढ़ते वक्त ’माथा पीटना’, ’बाल नोचना’ तथा ’छाती पीटाना’, उबासी आना, जम्हाई आना, सुनते वक्त श्रोताओं द्वारा एक-दूसरे के कान में ऊँगली डालना, चेहरे का रंग उड़ना आदि।
4. संचारी भाव -  निर्लज्जता, बेहयाई, व्यभिचार-कर्म करके गर्व करना, चोरी और सीना जोरी आदि।
रस - बौखलाहट रस

’माइक्रोकविता’ कुबेर की दृष्टि में आचार्य शुक्ल की रस दशा से मेल भी खाती है, अर्थात् ’लोकबद्ध’ होती है। बौखलाहट को जो लोक हृदय में लीन कर दे तो सहृदय की जो दशा होगी, वह एक अलग प्रकार की ’रस दशा’ तो होगी ही।

’माइक्रोकविता’ का रसात्मक रस, रस-साहित्य के काव्यशास्त्र एवं सौन्दर्यशास्त्र की रसात्मक मीमांसा है। द्विजेत्तर द्वारा रचित ’बौखलाहट रस’ निर्माण होने से अन्यों नेे तत्काल आड़े हाथों नहीं लिया; नहीं तो ’बौखलाहट रस’ कब का साहित्य के मान्य रसों में शामिल हो जाता। शायद अद्विजेत्तरों द्वारा माथा पीटा जा रहा होगा कि काश! इसका इजाद हमने किया होता। खैर बकरे-मुर्गे कब तक खैर मनाते रहेंगे? एक दिन हलाल तो होना ही था। आमीन!

नेता, मंत्री, अधिकारी, व्यापारी की प्रतिष्ठा का कारण ’भ्रष्टाचार का अवलेह पाक’ नामक औषधि का सेवन है। जेब सेल्फ-हेल्प की चीज है। जेब न हो तो आपकी जान नहीं। इन लोगों के द्वारा धारित वस्त्रों में जेबों की अधिकता से लगता है, दिल और जेबें उभर आती हैं और ’माइक्र्रोकविता’ तथा ’बौखलाहट रस’ तैयार करती हैं।

’भेड़िया धसान’ लोग ईश्वर की बात करेंगे। जैसे कुछ साल पहले ’हिग्सबोसोन’ कण को ईश्वर मान लिया गया। (हिग्सबोसोन मूलतः बोस के रिसर्च की भारतीय देन है।) शिष्टचार नहीं होने पर व्यक्ति-आदमी विशिष्ट बनता है। ईश्वर को मानने वाले शिष्टाचार निभाते हैं, अतः वे भेड़िया धसान बनकर ही रहते हैं। ’बेरोजगारवाद का घोषण पत्र’ पढ़कर वामपंथी सहित सभी दलों को नाराजगी नहीं होगी क्योंकि भेड़िया धसानों की फैक्ट्री इन्हीं से चलती है। 

राष्ट्रीयकरण होना वामपंथियों में उत्तम बात है। प्रजापंथ में भी उत्तम है। अधिकारियों, इंजिनियरों और चिकित्सकों की राष्ट्रीयता स्वयं चलती है। कोई आंदोलोन नहीं। ये कुर्सियाँ तोड़ते हैं; आरोप लगता है बेचारे राष्ट्रनिर्माताओं पर। कुबेर जी ने इसे गहरे दोैर-तोर से पेश किया है। तोता रटंत यथार्थ पर आधारित होकर तर्कसंगत बैठता है; पर घपले भावनात्मक करता है, करवाता है, जैसे आज नमो के शिकंजे में जनता जा रही है। (कल पिंजरे से निकल आये, अलग बात है।) यथार्थ छिप गया जैसा है। अर्थलोप होकर, अर्थोपकर्ष हो गया है। ’’भ्रष्ट लोग आते हैं, (धमाका) लालच देते हैं, भ्रष्टाचार का जाल फैलाते हैं, लालच में आकर भ्रष्टाचार के जाल में नहीं फँसना चाहिए।’’ भावनात्मक भ्रष्टाचार पर कोई चिंतन ही नहीं करता। करे कैसे? शिक्षा व्यवस्था गले तक सड़ चुकी है’ औरे रूदक्कड़ पैमानों में नप कर उदारता पूर्वक चहुँ ओर बदबू बिखेर रही है। रोने के नये-नये तरीकों का इजाद करना कला बन गई है। बिना खद-पानी, निराई-गुड़ाई बगीचे के पौधे रोते पाये जाते हैं। जो आसुरी शक्तियों के शिकार हो गये। कपि-भक्ति काम नहीं आई। इनके लिए संघर्ष-शक्ति उचित है। संवेदनाओं की समाधियाँ नहीं चाहिए। कर्माधियों की जरूरत है। ढोंगी परंपरा ढोने से नहीं, खोने से चलेगी’ इसी में भलाई है। पंच तत्व शरीर के पीछे छठवाँ तत्व लोप तत्व है। अधेरा, इसके ज्ञान बिना पंचतत्व शक्तिविहीन है।  छठवाँ तत्व नेताओं को मालूम पड़ जाय तो ’संतन को सीकरी से काहो काम?’ होगा? यह एक प्रश्न है। जिसे कुबेर जी ने व्यंग्य के माध्यम से उठाया है। देवभूमि और भोगभूमि के यथार्थ का अंतर भी दर्शाया है। ’नेता जे. बी. पी. की आत्मा’ खोजवादी व्यंग्य है कि आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। होती तो यम के दरबार में पेश की जाती। इसे पढ़कर ’भोलाराम का जीव’ याद कर सकते है। भारतीय आत्माएँ स्वीस बैंकों में कैद हो गई हैं। इसे मुक्त कर पाना न यमराज के वश में है और न ही ईश्वर के वश में। ब्रेकिंग न्यूज में ईश्वर के बहीखाते में मनुष्य की जाति और वर्ण का उल्लेख नहीं है। विलुप्त प्रजाति का भारतीय मानव अजायबघर में रखने लायक है। व्यंग्य संग्रह में ईश्वर और यमराज गशखाकर गिर पड़ते है। मरना तो इन्हें पड़ेगा ही। यह शास्वत है; जब तक ये जिंदा हैं, असमानता, भ्रष्टाचार, जमाखोरी के आलम चलते रहेंगे। चैन की सांस कोई नहीं ले पायेगा। विभिन्न विचारधाराओं को छोड़कर कुबेर जी को सादर धन्यवाद देता हूँ कि इन्होंने सारे शिष्टाचारों को ताक में रखकर अपना आचार तैयार किया है। सिद्ध किया है कि व्यंग्य बौखलाहट रस का आचार या मुरब्बा ही नहीं, संजीवनी बूटी और स्वस्थ होने का शिलाजीत भी है। किसी को खट्टा-मीठा, गुड़-गोबर, ताजातरी या बासी लगे, यह उनका, पाठक का वाद है। पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह किताब दसवें रस की कतई नहीं है; बारहवें रस की है। सातवें आसमान में चढ़ावा करना ठीक नहीं है। कोई मान्यता दे या न दे, मैं तो ’बौखलाहट रस’ को मान्यता देता हूँ; और आप से निवेदन करता हूँ कि आप इसमें सहभागिता निभएँ। भाईचारा बढ़एँ, आपसी संबंध बनाएँ, ताकि अस्थापित बारहवाँ रस स्थापित हो सके। 
आमीन।

संदर्भ:-
1. वोट डालने से पहले, हरिभूमि, 16 अप्रेल 2014, पृ. 08.
2. लोकतंत्र के संकटों की पहचान, मैनेजर पाण्डेय, संबोधन, जनवरी-मार्च 2014, पृ. 27-28
3. वही, पृ 28
4. भारत में तुलनात्मक काव्यशास्त्रीय अध्ययन के विकल्प, अवधेश कुमार, आलोचना, अक्टूबर-दिसंबर 2013, पृ. 40.
000

यशवंत
शंकरपुर, वार्ड नं. 7, गली नं. 4
राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन 491441
000

शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

कविता

ऐसा हमारा वर्तमान कहता है


हमारी आँखें, हमारे कान
और हमारे मस्तिष्क की रचना
नहीं होते अब माँ की कोख में
ये अब धर्म नामक कंपनी में बनते हैं।

जिन्होंने ये कंपनियाँ बनाई
उनकी आँखें, उनके कान
और उनके मस्तिष्क कहाँ बने होंगे?
माँ की कोख में
या किसी कंपनी में?

कंपनियों का विज्ञापन कहता है -
’मनुष्य अब सभ्य हो गया है
उसके पास है अब अकूत
ज्ञान की राशियाँ
और, राशियों का ज्ञान।’

पहले मनुष्य के पूँछ हुआ करते थे
जो अब झड़ गये हैं
बड़े-बड़े नाखून और दांत हुआ करते थे
जो अब घट गये हैं
आदमी पशु की तरह रहा करते थे
अब वे पशु से हट गये हैं
(पृथक हो गये हैं)
ऐसा विज्ञान कहता है।

ये सब मिथ्या है, भ्रम है
ऐसा हमारा वर्तमान कहता है।
000
kuber
October 11, 2015

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

आलेख


जरा सोचें और बतायें - हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में कब आत्मार्पित किया गया है? क्या पं. सुन्दर लाल शर्मा छत्तीसगढ़ी गाँधी हैं?

छत्तीसगढ़ के विश्वविद्यालयों के बी. ए. तृतीय वर्ष की कक्षाओं में एक किताब चलती है, ’’जनपदीय भाषा-साहित्य छत्तीसगढ़ी’’ इसके संपादक हैं सत्यभामा आडिल तथा इसे प्रकाशित किया है, छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी ने। किताब के प्रकाशकीय में अकादमी के संचालक रमेश नैयर ने एक वाक्य ऐसा भी लिखा है - ’राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में आत्मार्पित ’हिंदी’ आजादी की आधी शताब्दी बीत जाने के बाद भी सर्वमान्य और शक्तिमान भाषा का स्थान नहीं पा सकी है।’ यहाँ पर यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि हिंदी किस देश (राष्ट्र) की राष्ट्रभाषा है। प्रकाशक का आशय यदि भारत से है, तो यह बताने की कृपा करें कि हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में कब आत्मार्पित किया गया है? जहाँ तक मुझे पता है, भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। 

इसी किताब के पृष्ठ 52 में यह वाक्य लिखा है - ’छत्तीसगढ़ी गाँधी के नाम से विख्यात, महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. सुन्दर लाल एक युग प्रवर्तक थे।’
इस वाक्य में -
1. जिसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. सुन्दर लाल लिखा गया है उनका पूरा नाम पं. सुन्दर लाल शर्मा है।
2. कृपया स्पष्ट करें कि पं. सुन्दर लाल शर्मा यदि छत्तीसगढ़ी गाँधी हैं तो महात्मा गाँधी को भारतीय पिता कहा जा सकता है?
000

बुधवार, 23 सितंबर 2015

समीक्षा

मेरी व्यंग्य संग्रह  ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ पर वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री त्रिभुवन पाण्डेय की लिखित प्रतिक्रिया/समीक्षा प्राप्त हुई है जिसे मूलतः यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। - कुबेर

समीक्षा

’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ 

                                                                                                                               त्रिभुवन पाण्डेय

कुबेर का प्रथम व्यंग्य संग्रह ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद द्वारा बड़े ही आकर्षक आवरण पृष्ठ के साथ प्रकाशित हुआ है। संग्रह में कुबेर की साठ व्यंग्य रचनाएँ सम्मिलित हैं। अधिकांश रचनाएँ छोटी हैं इसलिए इसे लघु व्यंग्य भी कहा जा सकता है। इनमें से कुछ उल्लेखनीय व्यंग्य पाठक का ध्यान अपनी और आकर्षित करते हैं। ’तोंद की नैतिकता’, ’प्रश्न चिह्न’, ’भ्रष्टाचार का अवलेह पाक’, ’जेब’, ’कुर्सी तोड़ने वाले’, एवं ’खपरैलों की हेराफेरी’ अपनी नवीन व्यंग्य दृष्टि के कारण पाठक को अपनी और आकर्षित करेंगे।

’तोंद की नैतिकता में एक ओवरसियर बाबू का चित्रण है। पहले वे छरहरे बदन के थे लेकिन अब उनकी तोंद खाने और पचाने के लिए पूरी तरह अनुकूलित हो चुकी है। गाँव के बरसाती नाले का स्टाडेम बन रहा है। मस्टररोल में जैसे-जैसे मजदूरों की बढौतरी हो रही है उनकी तोंद की आकृति भी बढ़ रही है। देश के विकास के साथ उसके पेट का भी विकास हो रहा है।

इसी तरह ’प्रश्न चिह्न’ साम्प्रदायिकता की प्रकृति पर तीखा व्यंग्य है। एक व्यक्ति वृक्ष के नीेचे बैठा हुआ है। चार व्यक्ति उसे घेर कर प्रश्न पूछते हैं - कौन हो तुम? व्यक्ति उत्तर देता है - आदमी। लेकिन क्या हिन्दू हो? मुसलमान हो? सिख हो? इसाई हो? उत्तर में वह कहता है - मैं आदमी हूँ। उत्तर सुनकर आततायी कहते हैं - फिर अब तक तू इस शहर में जिंदा कैसे है?

’भ्रष्टाचार का अवलेह पाक’ भी दिलचस्प व्यंग्य है। भ्रष्टाचार का अवलेह पाक बनाने की विधि - सर्वप्रथम झूठ-बेल के कपड़छन चूर्ण को बेईमानी के वृक्ष के स्वरस के साथ अच्छी तरह खरल करें। इस तरह प्राप्त अवयव को निर्लज्जता के तेल से अच्छी तरह तर करें। अंत में चिकनी-चुपड़ी-मक्खनी-शर्करा की चाशनी में इसे पाक कर लें। ’भ्रष्टाचार का अवलेह पाक’ तैयार है। सेवन विधि इस प्रकार है - अवसरवादिता के गुनगुने दूध के साथ एक चम्मच अवलेह पाक चाँट लें। स्वार्थ, चमचागिरी, दलाली जैसे सुपाच्य भोजन का सेवन करें। नैतिकता, सदाचार, सच्चाई, परोकार जैसी गरिष्ठ चीजों के सेवन से बचकर रहें।

’जेब’ भी उल्लेखनीय व्यंग्य है। ’’दिल और जेब, दोनों की महिमा निराली है। देखने में ये जितने छोटे होते हैं, इनकी धारण-क्षमता उतनी ही अधिक होती है। दादाजी की कमीज में बहुत सी जेबें हुआ करती थीं। किसी में घर की चाबियाँ, किसी में आय-व्यय की डायरी और किसी में कलम रखते। उनकी जेबों में केवल जिम्मेदारियाँ ही भरी रहती थी। जेबों का इस्तेमाल वे आदमी को रखने के लिए कभी नहीं करते थे।’’

’कुर्सी तोड़ने वाले’ की पहली ही पंक्ति व्यंग्य से शुरू होती है - मेरी जन्मकुण्डली में लिखा है - जातक कुर्सी तोड़ेगा। मैं शिक्षाकर्मी बन गया हूँ। मेरे मित्र की कुण्डली में लिखा है - जातक कुर्सी पर बैठेगा। वह नेता बन गया है। वह भी मेरे जैसा बनना चाहता था पर उसकी डिग्री ने उसे इसकी अनुमति नहीं दी। आगे चलकर वह कुर्सी की दयनीय टूटी-फूटी स्थिति देखता है तब वह सोचता है इस कुर्सी को वह और कैसे बैठकर तोड़ेगा। वह नयी कुर्सी के लिए विभाग को लिखता है? विभाग से जो कुर्सी मिलती है वह टूटी हुई नई कुर्सी होती है। वह जब बड़े बाबू से शिकायत करता है तब बड़े बाबू ने बगैर विचलित हुए उत्तर दिया - देखिए मिस्टर, यह कुर्सी सुपर कंप्यूटर द्वारा डिजायन किया हुआ है। देश की नामी कम्पनी द्वारा बनायी गयी है। विभागीय कमेटी द्वारा अनुमोदित और चीफ इन्जीनियर द्वारा टेस्टेड ओ. के. है। आप इसमें कमियाँ नहीं निकाल सकते। आप इन्जीनियर नहीं हैं।

’खपरैलों की हेराफेरी’ पाठशाला भवनों की स्थिति पर प्रभावी व्यंग्य है। व्यंग्य की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है - हमारी शाला भवन की छत गरीबों की झोपड़ी की तरह है जो बरसात होते ही किसी रईस के स्नान घर के शावर की तरह झरने लगती है। जब से पंचायती राज आया है, खपरैलों की मरम्मत हर वर्ष होने लगी है। गत वर्ष का अनुभव अच्छा नहीं था। टपकने के पुराने द्वार तो बंद हो गये थे पर उतने ही नये द्वार फिर खुल गये थे। फिर से नये विशेषज्ञों को भेजा गया लेकिन नतीजा क्या हुआ - ’कुछ ही देर में कमरों में पानी भरना शुरू हो गया। मुझे लगा स्कूल दलदल में तब्दील हो चुका है और हमारी शिक्षा व्यवस्था उसमें गले तक डूब गयी है।’
 
कुबेर का व्यंग्य संग्रह पढ़कर आप आश्वस्त हो सकते हैं कि भविष्य में वे और मार्मिक व्यंग्य लिखने की दिशा में अग्रसर होंगे।
000
त्रिभुवन पाण्डेय
सोरिद नगर धमतरी