सहिष्णुता-असहिष्णुता
सहिष्णुता-असहिष्णुता पर आजकल बहस चल रही है। मेरा मानना है, हमारा सवर्ण-मुखी समाज कभी भी सहिष्णु नहीं रहा है। जाति और धर्म हमारे बीच असहिष्णुता की अकाट्य-अटूट और नियामक भूमिका में आज भी अपने पुराने पारम्परिक रूप में मौजूद है। मैं ओमप्रकाश वाल्मीकि के ’जूठन’ प्रथम के अंतिम पृष्ठ के अंशों को उद्धृत करना चाहूँगा -
’’तरह-तरह के मिथक रचे गए - वीरता के, आदर्शों के। कुल मिलकर क्या परिणाम निकले? पराजित, निराश, निर्धन, अज्ञानता, संकीर्णता, कूपमण्डूकता, धार्मिक जड़ता, पुरोहितवाद के चंगुल में फंसा, कर्मकांड में उलझा समाज, जो टुकड़ों में बँटकर कभी यूनानियों से हारा, कभी शकों से। कभी हूणों से, कभी अफगानों से, कभी मुगलों, फ्रांसीसियों और अंग्रेजों से हारा, फिर भी अपनी वीरता और महानता के नाम पर कमजोरों और असहायों को पीटते रहे। घर जलाते रहे। औरतों को अपमानित कर उनकी इज्जत से खेलते रहे। आत्मश्लाघा में डूबकर सच्चाई से मुँह मोड़ लेना, इतिहास से सबक न लेना, आखिर किस राष्ट्र के निर्माण की कल्पना है?
वक्त बदला है। लेकिन कहीं कुछ है जो सहज नहीं होने देता है। कई विद्वानों से जानना चाहा कि सवर्णों के मन में दलितों, शूद्रों के लिए इतनी घृणा क्यों है? पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को पूजने वाला हिंदू दलितों के प्रति इतना असहिष्णु क्यों है? आज ’जाति’ एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण घटक है। जब तक यह पता नहीं होता कि आप दलित हैं तो सब कुछ ठीक रहता है, ’जाति’ मालूम होते ही सब कुछ बदल जाता है। फुसफुसाहटें, दलित होने की पीड़ा चाकू की तरह नस-नस में उतर जाती है। गरीबी, अशिक्षा, छिन्न-भिन्न दारूण जिंदगी, दरवाजे के बाहर खड़े रहने की पीड़ा भला अभिजात्य गुणों से संपन्न सवर्ण हिंदू कैसे जान पायेंगे?
’जाति’ ही मेरी पहचान क्यों? कई मित्र मेरी रचनाओं में मेरे लाउडनेस, एरोगैंट हो जाने की ओर इशारा करते हैं। उनका इशारा होता है कि मैं संकीर्ण दायरे में कैद हूँ। साहित्यिक अभिव्यक्ति को व्यापक अर्थों में ग्रहण करना चाहिए। संकीर्णता से बाहर आना चाहिए। यानी मेरा दलित होना और किसी विषय पर अपने परिवेश, अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुसार दृष्टिकोण बनान एरोगैंट हो जाना है, क्योंकि मैं उनकी नजरों में सिर्फ एस. सी. हूँ, दरवाजे के बाहर खड़े रहनेवाला।’’
अभी मैंने सुना - एक सवर्ण छात्रा ने जूठन पढ़ने के पश्चात् अपने अभिभावक से पूछा - ’क्या हमारे पूर्वज ऐसे थे?’
वर्तमान पीढ़ी का यह नजरिया हमें आश्वस्त करता है कि सामाजिक असहिष्णुता की अकाट्य-अटूट और नियामक भूमिका में मौजूद जाति और धर्म की दीवारें एक दिन जरूर टूटेगी; धीरे-धीरे ही सही। ओमप्रकाश वाल्मीकि, डाॅ. तुलसी राम और डाॅ. सुशीला टाकभौरे जेसे विद्वानों-विदुषियों की आत्मकथाएँ इस प्रक्रिया को गति देने वाली प्रेरक रचनाएँ हैं और इसीलिए ये पवित्र भी हैं।
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