गुरुवार, 12 नवंबर 2015

लघु कथाएँ

मिलते बहुत हैं; जो भी मिला, उसे सहेज लिया

एक मित्र हैं। राह चलते अक्सर उन्हें सिक्के, नोट, या मूल्यवान वस्तुएँ मिल जाया करती हैं। (यह रहस्य उन्होंने तब जाहिर किया था जब हम दोनों साथ-साथ कहीं जा रहे थे या कहीं से आ रहे थे और रास्ते में उन्हें सौ रूपये का एक नोट मिल गया था।)

इस हद तक मेरा सौभाग्य मुझ पर कभी मेहरबाँ नहीं हुआ है। परन्तु अपनी किस्मत पर न तो मुझे कभी अफसोस हुआ और न हीं मित्र की किस्मत से ईश्र्या हुई।

हमारी नजरें वहीं केन्द्रित हो जाती हैं जिस विषय-वस्तु पर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है। और उस विषय-वस्तु को हम उठा लेते हैं। मुझे लिखने के लिए विषय की तलाश होती है। मेरी नजरें उसे तलाश लेती हैं और उसे मैं चुनकर रख लेता हूँ।

जिस गाँव में मैं और यह मित्र पदस्थ थे उस गाँव के मुखिया से एक बार हम मिलने गये थे। एक व्यक्ति जो दिखने में किसी भीखमंगे की तरह दिख रहा था, लाठी टेकते मैदान से गुजर रहा था। मुखिया ने बताया - ’’गुरूजी! उस आदमी को देख रहे हो?’’

हम लोग उस अदमी की ओर देखने लगे। उनकी क्रियाकलापों को कुछ देर देख्ते रहे। वह रास्ते में पड़े हुए कागज के कुछ टुकड़ों को उठाकर अपनी जेब में रख लेता था। मैंने पूछा - ’’क्या यह विक्षिप्त है?’’

’’नहीं। अजीब और असाधारण है। कुछ काम नहीं करता, पर रहता ठाठ से है।’’ मुखिया ने कहा - ’’मैंने एक बार इनसे पूछा था, इन रद्दी कागजों का क्या करते हो? उनका जवाब था, कागज के जिन टुकड़ों को मैं उठाता हूँ, जो तुम्हे रद्दी दिखते हैं, दरअसल वे नोट होते हैं। है न अजीब और असाधारण। आदमी?’’

 हमें ताज्जुब हुआ।

कुछ समय बाद पता चला कि आपराधिक गतिविधयों में संलिप्तता के आरोप में पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया है।
000

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें