शनिवार, 14 नवंबर 2015

लघु कथाएँ

बोलो यार, कुछ तो

एक दिन मैं शहर जा रहा था। सडक के किनारे तीस-बत्तीस साल का एक युवक खड़ा था। उसे मैंने दूर से ही देख लिया था। उसकी शारीरिक भाषा और हरकतों से मुझे अनुमान हो गया था कि उसे लिफ्ट चाहिए थी। शायद वह कम पढ़ा-लिखा था। लिफ्ट के लिए अंगूठा दिखाना उसे नहीं आता था। झेंपते हुए उसने अपने कंधे के समानांतर अपना बाँया हाथ आगे बढ़ाकर और उसे लहरा कर मुझे रुकने का संकेत दिया। उसके सामने जैसे ही मैंने बाइक रोकी, बैठने के लिए वह लपका। मैंने तुरंत उसे ऐसा करने से रोक दिया। अपनी बाइक पीछे की ओर ठेलकर मैंने स्वयं को उसके सामने लाया। उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयास किया। उसके चेहरे पर मुझे निराशा, अपमान और शर्म के सम्मिलित भाव तैरते नजर आये।

उसने पूछा - ’’कहाँ जा रहे हो?’’

मैंने कहा - ’’जहन्नुम। अगर मेरे साथ चलना है तो अपना परिचय तुम्हें बताना पड़ेगा और मेरी शर्तें भी मानी होगी।’’


उसने अपना परिचय बताया और शर्तें पूछी।


मैंने कहा - ’’चुपचाप नहीं बैठोगे। पूरे समय कुछ न कुछ बोलते रहोगे।’’ 


उसने कहा - ’’मुझे बोलना नहीं आता। आप पढ़े-लिखे हो, आपको बोलना आता होगा। आप बोलना, मैं हामी भरता रहूँगा।’’

मैंने कहा - ’’एक कवि ने कहा है - ’मरा हुआ आदमी नहीं बोलता, नहीं बोलने से आदमी मर जाता है।’ क्या तुम मर चुके हो? या मरना चाहते हो?’’

वह चेथी खुजलाने लगा।

मैंने कहा - ’’जरूरत पड़ने पर गूँगा भी चिल्लाकर अपना विरोध दर्ज करता है। क्या तुम्हें चिल्लान भी नहीं आता।’’

उसने कहा - ’’बेमतलब चिल्लाने पर लोग पागल समझेंगे, नहीं?’’

’’पर मरा हुआ तो नहीं, न?’’ मैंने कहा।

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