बुधवार, 11 नवंबर 2015

व्यंग्य,

पश्चाताप की एक कहानी पढ़ लें?

एक जंगल था। वहाँ राजा का चुनाव हो रहा था। जंगल में एक सियार रहता था। वह वहाँ का राजा बनना चाहता था। परंतु यह आसान नहीं था। जंगल के जानवर-मतदाता सियार जैसे बदनाम प्राणी को भला अपना राजा कैसे चुन लेते?

सियार निराश नहीं हुआ। वह बहुत चालाक, धूर्त, लालची और धोखेबाज था। अपनी इन क्षमताओं पर उसे बड़ा अभिमान था। उसे एक तरकीब सूझी। उसने अपने आराध्य गुरू की खूब सेवा की। गुरू ने प्रसन्न होकर कहा - तुम्हारी इच्छाएँ मैं जानता हूँ। इस वन प्रदेश का राजा बनने के सारे गुण तुम्हारे अंदर विद्यमान हैं। मैं भी चाहता हूँ कि तुम यहाँ का राजा बनों। तुम ही मेरे सर्वाधिक प्रिय शिष्य हो। परन्तु तुम्हारे पास न तो शेर के समान दहाड़ है और न ही रूप और शरीर। मैं तुम्हें इन दोनों ही चीजें देना चाहता हूँ, पर विवश हूँ। दोनों में से मैं तुम्हें एक ही दे सकता हूँ, वह भी सशर्त। बोलो क्या चाहिए?

सियार की चतुर बुद्धि ने कहा - रूप बनाने के लिए बाजार में मुखौटों की कमी है क्या? शेर की दहाड़ ही मांग ले।

गुरू ने उसे उसकी इच्छा के अनुसार शेर की दहाड़ का वरदान देते हुए कहा - और शर्त भी सुन लो। मेरे इस मंदिर में प्रतिदिन सुबह-शाम की आरती होती है, उसके चढ़ावे का प्रबंध तुम्हें ही करना होगा। माह के अंत में हाजिरी देना अनिवार्य होगा। ध्यान रहे! शर्त का उलंघन करने पर वरदान स्वतः निष्प्रभावी हो जायेगा।

राजा बनकर सियार बड़ा प्रसन्न है। गुरू की खूब सेवा करता है। सेवा के बदले खूब मेवा झड़कता है। सभाओं में कभी-कभी वह दहाड़ भी लेता है। परन्तु रात-दिन उसे अपने मुखौटे की चिंता बनी रहती है। उसे गलतफहमी है कि इस जंगल के जानवर-मतदाता उसकी असलियत के बारे में नहीं जानते हैं। परन्तु सच्चाई कभी छुपती भी है?
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