शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

कहानी


 मेमोरी कार्ड


यह कहानी उच्चवर्गीय अति संभ्रांत लोगों की एक कालोनी से संबंधित है, जिसे अत्याधुनिक ढंग से शहर की परिधि में सुरम्य और प्रदूषण रहित वातावरण में बसाया गया है। आधुनिक जीवन की हर  सुख-सुविधा और दैनिक जरूरतों को ध्यान में रख कर विकसित किया गया यह कालोनी आधुनिक वास्तुशास्त्र का अनुपम उदाहरण है। सममित आकृति के होने के कारण यहाँ की सड़कें स्ट्रीट्स, बंगले और फ्लैट्स केवल नंबरो के द्वारा ही पहचाने जा सकते हैं। इन बंगलों और फ्लैट्स में रहने वाले साहब लोग भी अमूमन इन्हीं नंबरो से ही जाने-पहचाने जाते हैं - जैसे अमेरिका और भारत में हुए आतंकी हमलों को हम नाइन इलेवन और छब्बीस ग्यारह के नाम से जानते हैं।

विज्ञान की नवीनतम तकनिकी युक्त सुख-सुविधाओं और आधुनिक जीवन-शैली जीने वालों की पहचान अलग तो होनी ही चहिये।
यहाँ की दुनिया आम लोगों की दुनिया से दूर बसी हुई एक अलग ही दुनिया है। जरूरी काम से बुलाये गये कारीगरों और कामगारों के सिवाय यहाँ कोई भी आसानी से प्रवेश नहीं कर सकता।

इस कालोनी के वेस्ट विंग के नाइन इलेवन बंगले में किसी साहब का परिवार रहता है। इस परिवार में पति-पत्नी के अलावा एक पुत्री है जो अभी स्कूल में पढ़ रही है, नाम है श्रुति। नाइन इलेवन दंपति अर्थात श्रुति के माॅम एण्ड डैड, अलग-अलग मल्टी नेशनल कंपनियों में उच्च पदों पर आसीन हैं और सप्ताह के पूरे दिन अपने-अपने काम में व्यस्त रहते हैं। अपनी व्यस्तता में से कभी-कभी थोडा़ बहुत समय वे पुत्री के लिये भी निकाल लेते हैं, पूछ लेते हैं कि पढ़ाई कैसे चल रही है, किसी चीज की कमी तो नहीं है? आदि, आदि ....।

श्रुति इस तरह के औपचारिक वार्तालापों का अभ्यस्त हो चुकी है और यह औपचारिकता अब उसके अनुभव की सहजता भी बन गई है। श्रुति के माॅम-डैड श्रुति की हर सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं। श्रुति को माँ-बाप से वे सभी सुख सुविधाएँ बिन मांगे मिलती हैं, जो उन्हें चाहिये; पर वह प्यार, वह परवरिश और वह देखभाल कभी नहीं मिली, जो जवान होती किसी किशोरी के लिये बहुत जरूरी होती है। कभी-कभी माँ-बाप जब अनौपचारिक होने का प्रयास करते हैं, श्रुति असहज हो जाती है और तब माँ-बाप का यह अनौपचारिक रूप उसे बिलकुल किसी अजनबी के समान लगने लगता है।

इसके विपरीत जे. डी. साहब के परिवार से उनका रिश्ता अधिक अनौपचारिक हो गया है। जे. डी. साहब की पत्नी, जो हाउस-वाइफ है, से वह काफी घुली-मिली है और उसके घर उनका रोज आना-जाना लगा रहता है। श्रुति के माॅम-डैड इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं, और इसमें शायद उनकी मौन सहमति भी है, क्योंकि जे.डी. दंपति श्रुति का होमवर्क करने में मदद जो करती है। 
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जे. डी. साहब का परिवार इसी स्ट्रीट पर, नाइन इलेवन के एकदम अपोजिट साइड पर, बंगला नंबर छब्बीस अपाॅन ग्यारह में रहती  हैं। जे.डी. साहब विज्ञान के अध्यापक  हैं। परिवार में पत्नी के अलावा जवान होता हुआ एक पुत्र है। माँ-बाप अपने इस इकलौते पुत्र को हर कीमत पर आई. ए. एस. में देखना चाहते हैं। पिछले लगभग एक साल से वह इसी का कोचिंग लेने बाहर गया हुआ है और इसी वजह से जे.डी. साहब को एक बार फिर नव विवाहित दंपति की तरह का सुख भोगने का मौका मिला हुआ है। आधी उम्र में भी जे. डी. साहब जवान ही लगते हैं। अभी दो दिनों के लिये पत्नी मायके गई हुई है और पत्नी बिछोह के गम में जे. डी. साहब पागल हुए जा रहे हैं।

आज रविवार है, पता नहीं दिन कैसे बीतेगा? वह कंप्यूटर में व्यस्त होने का प्रयास कर रहा है, पर उद्देश्य कुछ भी नहीं है। एकाकीपन और मन की व्यग्रता ने उसे और अधिक उद्देश्यहीन बना दिया है।

जे. डी. साहब को अपने उस मेमोरी कार्ड का ध्यान हो आया जिसमें मनोरंजन की बहुत सारी सामग्रियाँ रिकार्ड करके रखी गई है पर बदकिस्मती ही कहिये, हर संभावित जगह पऱ, पिछले आधे घंटे से लगातार तलाश जारी है, और फिर भी वह मिल नहीं रहा है।

कंप्यूटर के स्क्रीन सेवर पर इस समय बहुत ही सुंदर और बहुत ही मासूम एक किशोरी का चित्र बार-बार उभर रहा है। यह श्रुति की तस्वीर है जिसे श्रुति ने ही सवयं कुछ दिन पहले लोड किया था।

उस दिन जे. डी. साहब ड्यूटी के लिये निकल ही रहे थे कि आती हुई श्रुति से गेट पर मुलाकात हो गई। देखकर जे. डी. साहब ठिठक गये। श्रुति ने नया ड्रेस पहना हुआ था, सफेद रंग का, बिलकुल परियों वाला, और इस ड्रेस में वह परियों की ही तरह गजब की सुंदर दिख भी रही थी। जे. डी. साहब की जबान से अनायास ही निकल पडा़ - ’’ओह! श्रुति मेडम? आज तो आप बिलकुल राज कपूर की हिरोइन लग रही हो। काश, वे जिंदा होते।’’

जे.डी. साहब का यह कमेंट बिलकुल ही अनायास और निष्प्रयोजन था; शायद इसीलिये वह श्रुति की प्रतिक्रिया देखे बगैर ही अपने काम पर तेजी से निकल गया। देखे होते तो पता चलता कि हृदय का सारा रक्त श्रुति के चेहरे पर किस तरह एकाएक दौड़ने लगा है और अनायास ही वे सब भाव भी आ गये हैं, जो एक योद्धा के चेहरे पर आ जाता है, दुश्मन को परास्त करने के बाद; उत्साह और गर्व के। क्यों न हो; पहली बार उसने किसी मर्द को अपनी ओर आकर्षित जो किया था; या यह कि पहली बार किसी मर्द से अपनी सुंदरता की तारीफ जो सुनी थी, या फिर यह कि पहली बार उसके हुस्न ने किसी मर्द को परास्त जो किया था?

श्रुति का वही चेहरा और चेहरे पर वही, विजेताओं वाला भाव आज कंप्यूटर माॅनिटर के स्क्रीन सेवर पर देखकर जे. डी. साहब चमत्कृत हुए जा रहे हैं। श्रुति के इस शरारत पर उन्हें प्यार भी आ रहा है।

कमरे की हवा में अलग ही परफ्यूम की महक से जे.डी. साहब को लगा, शायद कोई आया हो? पलट कर दरवाजे की ओर देखा। दरवाजे की चैखट पर श्रुति खड़ी हुई थी; जिसे देखकर वह एकबारगी झेप-सा गया, मानो चोरी करते हुए पकड़ लिया गया हो। पता नही ये लड़की कब से यहाँ खड़ी है? सीने पर दोनों हाथों से किसी किताब को दबाये; ठीक उस दिन वाले सफेद ड्रेस में, जिस दिन उन्होंने उसे राजकपूर की हिरोइन कहा था, और जिसमें वह किसी परी से कम नहीं लग रही थी, और अपनी जिस छवि को उन्होंने कंप्यूटर पर लोड कर रखा है, जो अभी भी कंप्यूटर माॅनिटर के स्क्रीन पर आ रहा है।
जे.डी. साहब से कुछ कहते नहीं बना। पर उनकी निगाहें पूछ रही थी - ’’कैसे?’’

जवाब में श्रुति ने भी कुछ नहीं कहा, पर निगाहों ने ही, निगाहों से शायद पूछ लिया था - ’’क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?’’ और इजाजत की प्रतीक्षा में वह निगाहें झुकाकर दाएँ पैर की अंगूठे की नाखून से फर्स को कुरेंदने लगी।
जे.डी. साहब को श्रुति के चेहरे पर आज किसी किशोरी की मासूमियत नजर नहीं आ रहा था, बल्कि वहाँ उसे किसी नव-यौवना की उमड़ती हुई जवानी दिख रही थी; बिलकुल अषाड़ की उस नदी की तरह की जवानी, जो बाढ़ से उमड़ रही हो, उफन रही हो, और जो किसी भी मर्यादा को मानने से इन्कार कर रही हो।

जे.डी. साहब इस स्थिति के लिये तैयार नहीं थे, और शायद इसी कारण वे एकदम असहज हो गये थे; पर दूसरे ही पल उन्होंने अपने आप को किसी तरह संयत करते हुए कहा - ’’श्रुति मैम, तुम्हें पता है, तुम्हारी आंटी आज घर पर नहीं है?’’
जे.डी. साहब की इस सूचना का;  जिसका आशय शायद यह भी था कि आज वह लौट जाय और तब आये जब आंटी घर पर मौजूद हो; श्रुति के चेहरे पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। अपनी जगह पर वह उसी दृढ़ भाव से खड़ी रही। उनकी दृढ़ता शायद कह रही थी - ’’हाँ! मुझे पता है कि घर पर आज दिन भर आप अकेले हैं।’’ और लौटने के बजाय यह कहते हुए कि - ’’अंकल प्लीज! जरूरी होम वकर््स हैं, करा दीजिये न ... ’’आकर जे.डी. साहब के बगल में बैठ गई, जो अब तक कंप्यूटर टेबल से उठ कर सोफे पर बैठ चुके थे।

श्रुति की निगाहें अपलक जे.डी. साहब के चेहरे पर जमी हुई थी ऐसी निगाहें जिसके अंदर वासना की वह भयंकर आग सुलग रही थी जिसे भभकने के लिये बस एक चिंगारी की जरूरत थी; और इसीलिये उसे श्रुति की इस ढिठाई पर आश्चर्य भी नहीं हुआ। जे.डी. साहब नहीं चाहते थे कि कहीं से कोई चिंगारी फूटे और वासना की वह आग भड़क उठे, जिसकी लपटों से नैतिकता और मर्यादा के सारे बंधन जल कर खाक हो जाते हैं।

जे.डी. साहब ने समझाते हुए कहा - ’’बेबी! तुम्हें पता है? शास्त्रों में लिखा है कि रिश्तों की पवित्रता और मर्यादाओं की रक्षा के लिये जवान स्त्री और जवान पुरूष को एकांत से हमेशा बचना चाहिये, चाहे रिश्ता बाप-बेटी का हो, माँ-बेटे का हो या भाई-बहन का हो। एकांत में रिश्तों की सारी पवित्रता और मर्यादाओं के सारे बंधन टूटने लगते हैं और तब मर्द सिर्फ मर्द रह जाता है और औरत सिर्फ औरत, विपरीत आवेश से आवेशित किसी भौतिक वस्तु की तरह, जिसे मिलने से फिर कोई नहीं रोक सकता। इसीलिये कहता  हूँ कि अभी तुम चली जाओ।’’ 

श्रुति न तो कुछ सुन रही थी और न ही कुछ सुनना चाहती थी। कटे वृक्ष की तरह वह जे.डी. साहब की गोद में लुड़क गई। वह होश में नहीं थी।

जे.डी. साहब ने फिर कहा - ’’बेबी! जानती हो, जो हो रहा है वह न तो नैतिकता की दृष्टि से सही है और न ही कानून की दृष्टि से, इसीलिये कहता हूँ, गो टु योर रियल ड्वेल, घर चली जाओ।’’

जवाब में वह जे.डी. साहब से और लिपटती चली गई, बस लिपटती ही चली गई।

अब वह जी खोलकर, रह रह कर, अपने कौमार्य का धन जे.डी. साहब पर न्यौछावर किये जा रही थी, और अब जिसे जे.डी. साहब भी दिल खोलकर अपने दोनों हाथों से लूटे जा रहे थे, बस लूटे जा रहे थे। अपनी चढ़ती जवानी की उद्दाम वासना की तेज लपटों से रह- रह कर वह जे.डी. साहब को झुलसाए जा रही थी और जे.डी. साहब भी जिसे अपने अनुभवी पुरूषत्व की शक्तिशाली झोकों से लगातार भड़काये भी जा रहा था और बुझाये भी जा रहा था, बस बुझाये जा रहा था।
और धीरे-धीरे वह क्षण भी आया जब आग पूरी तरह से बुझ गया, और फिर न तो वहाँ कोई लपट ही बची और न ही कोई धुआँ ही।
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कमरे को व्यवस्थित करके और खुद भी व्यवस्थित होकर जब श्रुति बाथरूम से बाहर आई तो उसके सौम्य चेहरे पर संतुष्टि की अथाह गहराई झलक रही थी, जिसमें सिर्फ सुख की छोटी-छोटी असंख्य लहरें ही हिलोरें मार रही थी।

जे.डी. साहब अभी भी इस बात पर कायम थे कि जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ। अपराध बोध से वह दबे जा रहा था। उन्होंने कहा - ’’साॅरी श्रुति मेम, तुम्हारे साथ अच्छा नहीं हुआ।’’

जवाब में श्रुति मुस्कुराई, उसके कदमों पर झुकी, पैरों की धूल माथे पर लगाई और चली गई। जाते-जाते जैसे कह रही हो - ’’आप नहीं जानते अंकल, आपने मुझे कितनी बड़ी खुशी दी है। ऐसी खुशी, जिसे भूल पाना मेरे लिए जीवन भर संभव नहीं है।’’
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जी.टी. साहब भी सरकारी मुलाजिम है और जे.डी. साहब के घनिष्ठ मित्र हैं। वे बाहर रहते हैं और इस समय मित्र से मिलने आये हुए हैं। शाम होने को है, और दोनों मित्र बिलकुल ही अनौपचारिक ढंग से हँसी-मजाक में व्यस्त हैं।

कल ही की बात है, जी.टी. साहब किसीं काम से बाहर गये हुए थे, और ट्रेन से लौट रहे थे। डिब्बा शहर के किसी पब्लिक स्कूल की छा़त्राओं से भरा हुआ था, जो शायद एजुकेशनल ट्रिप से लौट रही थी। सामने वाली सीट पर निहायत ही खूबसूरत एक छात्रा बैठी हुई थी जो अपनी हम उम्र सहेलियों से कुछ बड़ी और मैच्योर लग रही थी। जाहिर है, अपने दल की वह नेता थी और सारी सहेलियाँ उनका आदेश मान रही थी। इस समय वह सहेलियों से घिरी हुई थी। उस सुंदर लड़की के हाथ में सुंदर सा एक मोबाइल था और सभी लड़कियाँ उसमें चल रहे किसी रिकार्डिंग को देखने में व्यस्त थी।

दूर दूसरे सीट पर बैठी टीचर को इन छात्राओं की यह अनुशासन हीनता बर्दास्त नहीं हो रहा था और वहीं से वह कई बार इन लड़कियों को डाट चुकी थी। उसे इन लड़कियों की हरकतों पर रह-रह कर गुस्सा आ रहा था। आदेश का पालन नहीं होता देखकर अंततः वह तमतमाये हुए आ धमकी। डाटते हुए उन्होंने कहा - ’’क्या है? क्यों भीड़ लगाये हो? मोबाइल में क्या देख रही हो? लाओ इधर।’’

टीचर ने सभी लड़कियों की तलाशी ली लेकिन मोबाइल किसी के पास नहीं था। थक-हार कर वह अपने सीट पर लौट गई।
उस लड़की ने बड़ी चतुराई से टीचर की निगाहें बचा कर सीट के नीचे से मोबाइल उठाया, तब जिसे टीचर की निगाहों से बचाने के लिये बड़ी सफाई से उसने वहाँ सरका दिया था, मेमोरी कार्ड निकाला और छोटे से एक लिफाफे में उसे रख लिया। स्टेशन नजदीक आ रहा था और उन लोगों को शायद यहीं उतरना था।

उतरते वक्त वह लिफाफा सीट पर ही छूट रहा था।

जी.टी. साहब को लड़कियों की तमाम शरारतें बड़ी प्यारी और मासूम लग रही थी, और पूरे समय वह मन ही मन मुस्कुराये भी जा रहा था। उस छोटे से लिफाफे को सीट पर छूटता देख जी.टी. साहब ने कहा - ’’बेबी, लिफाफा छोड़े जा रही हो?’’

और उतनी ही लापरवाही पूर्वक उस लड़की का जवाब भी मिला - ’’अंकल! आप रख लीजिये न।’’

और तेजी से उतर कर वह आँखों से ओझल हो गई।

जी.टी. साहब ने उस लिफाफे को खोलकर देखा। उसमें एक मेमोरी कार्ड रखा हुआ था। उसे समझते देर नहीं लगी कि यह वही मेमोरी कार्ड है, जिसमें रिकार्डेड प्रोग्राम का आनंद मोबाइल के स्क्रीन पर कुछ देर पहले वह लड़की अपने सहेलियों के साथ ले रही थी; और जिसे वह बड़ी चतुराई के साथ, भूलने का अभिनय करते हुए, जानबूझ कर इस लिफाफे के साथ छोड़ गई थी।

घर आकर जी.टी. साहब ने उस मेमोरी कार्ड में कैद फिल्मों का जी भर कर आनंद लिया और अब उसी आनंद को मित्र के साथ शेयर करने के लिये यहाँ आया हुआ है।

जी. टी. साहब से ट्रेन वाली इस यात्रा वृत्तान्त को सुनने के बाद जे.डी. साहब ने कंप्यूटर आॅन करके वह मेमोरी कार्ड चला दिया। खुलते ही उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। यह वही मेमोरी कार्ड था जिसे आज सुबह से ढ़ूढ-ढ़ूढ़ कर वह परेशान हुए जा रहा था, और जिसमें केवल वयस्कों की फिल्में लोड थी।

कंप्यूटर से कार्ड रीडर को अलग करते हुए और नकली गुस्से का इजहार करते हुए उन्होंने जी. टी को डाट लगाई - ’’वाह बेटा, अब तूने चोरी करना भी शुरू कर दिया है ...।’’

आश्चर्यचकित होने की बारी अब जी.टी. की थी। कंप्यूटर माॅनीटर के स्क्रीन सेवर की ओर इशारा करते हुए उसने पूछा - ’’अबे! ये लड़की यहाँ कैसे? कौन है यह?’’

’’क्यों?’’

’’यही तो है, कल की ट्रेन वाली वह लड़की। कल इसी ने तो यह कार्ड ट्रेन में छोड़ा था।’’
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सोमवार, 27 जुलाई 2015

आलेख

डाॅ. कलाम के रूप में देश ने एक नेक इन्सान, एक सपूत, एक महान विभूति, एक महान वैज्ञानिक को खोया है। ऐसे लोग मरते नहीं हैं, अमर हो जाते हैं। नमन, विनम्र श्रद्धांजलि।
बहुत दिनों की बेचैनी दूर हुई। ’माइक्रो कविता और दसवाँ रस’ अब घर में है। छपाई आदि संतोषप्रद है। दसवें रस का आनंद लेने के लिए 9407685557 पर संपर्क करें। धन्यवाद।

सोमवार, 20 जुलाई 2015

व्यंग्य

रचनात्मक भ्रष्टाचार


एक श्रद्धेय जी हैं।

लोगों का मानना है कि श्रद्धेय जी अनेकमुखी प्रतिभा के धनी हैं। राजनीति, युद्धनीति, धर्मनीति, समाजनीति, अर्थनीति, खेलनीति, शिक्षानीति, दीक्षानीति, जुगाड़नीति, सुधारनीति सहित समस्त नीतियों; चिकित्सा, विज्ञान, अंतरिक्ष, ज्योतिष सहित समस्त शास्त्रों; हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख सहित समस्त धर्मों; चारों वेदों सहित सभी धर्मशास्त्रों; साहित्य, संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला सहित समस्त कलाओं और उन समस्त विद्याओं के, जिनका उल्लेख मेरी अज्ञानता की वजह से यहाँ नहीं हो पाया है, के वे ज्ञाता हैं। मेधा के शिखर पर विराजित प्रखर ज्ञान प्रदाता हैं।

श्रद्धेय जी की विलक्षण मेधा ने विश्व को ’बैंकशास्त्र’ नामक एक नया शास्त्र दिया है। उनके अनुसार इस शास्त्र में - ’’बैंकों को मानवसमाज का सर्वोच्च नियंता सिद्ध करते हुए, बैंकिंग प्रणाली और मानव-जीवन के बीच के अंतरसंबंधों को सार्वभौमिक परिप्रेक्ष्य में नितांत मौलिक ढंग से परिभाषित और प्रस्तुत किया गया है। इसमें दी गई समस्त स्थापनाएँ नितांत मौलिक और क्रांतिकारी हैं।’’ 

श्रद्धेय जी कहते हैं - ’’आज बैंको की वजह से समाज का हर एंगल करप्ट हो चुका है। बैंक्स आर द अल्टीमेट सोर्सेज आॅफ आल टाईप आफ द करपशन्स। पोलिटिकल करप्शन, शोसल करप्शन, रिलीजियस करप्शन, आॅफिसियल करप्शन, नाॅन-आॅफिशियल करप्शन, फाइनेन्शियल करप्शन, फाइल करप्शन, प्रोफाइल करप्शन, हाई प्रोफाइल करप्शन, काॅमर्सियल करप्शन, कारपोरेट करप्शन, कोआपरेट करप्शन, इंडिविजुअल करप्शन, इण्डस्ट्रियल करपश्न, इनवायरेनमेंटल करप्शन, इन्फरमेशनल करप्शन, कम्युनिकेशनल करप्शन, इंटलेक्चुअल करप्शन, नान-इंटलेक्चुअल करप्शन, सेक्चुअल करप्शन, विजुअल एण्ड नान विजुअल करप्शन्ंस आदि सब बैंको की ही देन हैं।’’

इतने सारे करप्शन के नामों की सूची सुनकर बेहोश न होने वाला अहोभागी होगा।

श्रद्धेय जी को पूर्ण विश्वास है कि - ’उनके इस ग्रेट क्रिएशन, महान आविष्कार ’बैंकशास्त्र’ को दुनिया एक न एक दिन अवश्य रिकग्नाइज करेगी, एप्रिसियेट करेगी। इस महान रचना पर एक न एक दिन उन्हें नोबल प्राईज जरूर मिलेगा।’ 

फिलहाल अभी उनका यह ग्रेट क्रिएशन, पाण्डुलिपि स्तर से आगे नहीं सरक पाया है। मुझे पता चला है कि बैंकों के साथ श्रद्धेय जी की रिश्तेदारी बड़ी पुरानी और दुखदायी है। इस निर्मम ने कर्ज वसूल करने के लिए उनकी सारी संपत्तियाँ नीलाम करवा दी है। बेचारे को सड़कों की खाक छानने के लिए मजबूर कर दिया है। मुझे तो श्रद्धेय जी का यह ग्रेट क्रिएशन इसी की प्रतिक्रिया जान पड़ती है। श्रद्धेय जी जब भी मिलते हैं, जिस किसी से मिलते हैं, बैंकों द्वारा उत्पन्न भ्रष्टाचारों की पूर्व वर्णित सूची का वर्णन जरूर करने लगते हैं।

श्रद्धेय जी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वे सदा अंग्रेजी में ही हमला करते हैं। श्रद्धेय जी के अनुसार इसकी दो वजहें हैं - पहला, अंग्रेजी के आयुध अपराजेय होते हैं। दूसरा, वर्तमान पीढ़ी उन्हें अपढ़-गँवार न समझ बैठे, इस संभावना का उन्मूलन करने में यही सबसे अधिक कारगर हथियार है। श्रद्धेय जी को देखकर मुझे एक कबीरपंथी साधु की याद आ जाती है। प्रवचन के दौरान श्रोता समूह में, उनकी समझ के अनुसार, जब भी कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति दिखाई देता है, अंग्रेजी के दो-चार सुनहरे वाक्य वे जबरन घसीट देते हैं। ये वाक्य जरूर उनके गुरू के अंतिम उपदेश होंगे। उनके इन दो-चार सुनहरे वाक्यों के किसी भी शब्द को आज तक मैं समझ नहीं सका हूँ। वैसे भी उपदेश मुझे समझ में आते ही कहाँ हैं?

श्रद्धेय जी बड़े अध्ययनशील व्यक्ति हैं। अब तक वे बाईस हजार से अधिक पुस्तकें पढ़ चुके हैं। (मेरे अल्प गणितीय ज्ञान के अनुसार यह संख्या श्रद्धेय जी के जन्मदिन से अब तक औसत रूप से प्रतिदिन एक किताब बैठता है।) प्रमाण के तौर पर; कौन सी पुस्तक किस तारीख को पढ़ी गई, किस समय पढ़ी गई, दिन में पढ़ी गई या रात में, घर के अंदर पढ़ी गई या घर के बाहर, आदि विवरणों सहित पुस्तक के लेखक-प्रकाशक-मूल्य आदि का उनके पास लिखित विवरण मौजूद है। उनके अनुसार, ’यह विवरण एक अमूल्य दस्तावेज है।’ 
समय-समय पर वे अपने इस अमूल्य दस्तावेज की प्रदर्शनी भी लगाते रहते हैं। एक दिन वे सुबह मेरे पास से दस किताबें ले गये थे। शाम को वे लौटाने पहुँच गये। मैंने पूछा - ’’इतनी जल्दी पढ़ लिये?’’

उन्होंने कहा - ’’हाँ, हाँ।

’’कैसे?’’

’’फ्लाईंग वीव से।’’

अंग्रेजी मेरी जन्मजात कमजोरी है। उनके फ्लाईंग वीव को मैं समझ नहीं पाया। मेरी मनोदशा को भांपते हुए उन्होंने बेचारी हिन्दी में इसका अनुवाद करते हुए कहा - ’’सरसरी निगाह से।’’

जवाब देते वक्त उनकी हिकारत भरी निगाहें मुझे लगातार अधमरा बना रही थी; जैसे कह रही हों - ’’साला मूर्ख! तुझे किताब पढ़ने की भी तमीज नहीं है। जरा सी अंग्रेजी भी नहीं जानता। चुल्लू भर पानी में डूबकर मर क्यों नहीं जाता।’’

मेरे मन में जिज्ञासा हुई; सरसरी निगाहों से तो देखा जाता है; पढ़ा कैसे जायेगा? परन्तु अपनी इस जिज्ञासा को प्रगट करने का परिणाम मैं जानता था।   एक प्रश्न पूछकर उनकी निगाहों में मैं दुनिया का सबसे बड़ा बेवकूफ सिद्ध हो चुका था; अब निहायत अपढ़-अज्ञानी सिद्ध होने के लिए मैं तैयार नहीं था। श्रद्धेय जी वाक्कला के प्रकाण्ड विद्वान हैं। दूसरों को चूँ करने की मोहलत वे कभी नहीं देते हैं। चुप रहना ही बेहतर समझा। परन्तु एक बात है। किताब लौटाने में श्रद्धेय जी लिंकन महोदय से भी दो कदम आगे हैं। जमाने वाले आज के इस जमाने में उनकी यह ईमानदारी अनुकरणीय भी है और पूजनीय भी।

अगली बार जब उन्होंने अपने अमूल्य दस्तावेजों की प्रदर्शनी लगाई तो मैंने देखा कि उन दस किताबों का पूरा विवरण बकायदा उसमें दर्ज है।
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एक दिन शाम ढले श्रद्धेय जी मेरे पास आये। उनके चेहरे पर उलझनों के सदाबहार जंगल की वीरानियाँ छाई हुई थी। दुनियादारी की उलझन भरी गलियों में कुछ देर इधर-उधर घूमने-भटकने के बाद लाइन में आते हुए उन्होंने पूछा - ’’मा’साब! नहीं चलना है क्या?’’

मुझे श्रद्धेय जी के शब्दों से दहशत होने लगती है। दिल थामते हुए मैंने  कहा - ’’कहाँ सर?’’

’’आपकोे पता नहीं? आज पेट्रिओटिक सौन्ग्स कंपीटीशन है।’’

’’पता तो है, पर ........।’’

’’आपको इनवीटेशन नही मिला क्या? ........ सोचा था आपके साथ मैं भी चला जाता।’’

’’सर! आपने सोचा तो ठीक था, पर .....  ।’’

’’अपने ही औरगेनाजेशन का प्रोग्राम है। कंपेयरिंग मुझे ही करना है। पर नहीं चलना है तो कोई बात नहीं, कैंसिल कर देते हैं।’’

’’यदि जाना जरूरी है तो जरूर चलेंगे सर, आदेश भर दीजिए।’’

’’नहीं, नहीं! अदेश नहीं। अगर आप इजी वे आॅफ गोइंग में चल सके तो ठीक है। वरना कोई बात नहीं, कैंसिल कर देते हैं।’’

मेरे सामने उस मुजरिम की स्थिति पैदा हो गई, जिसे ’क्या तुमने चोरी करना छोड़ दिया है?’ प्रश्न का उत्तर केवल हाँ या नहीं में देने कहा जाय। मैंने कहा - ’’चलने पर ही पता चलेगा सर, कि वे आॅफ गोइंग इजी होगा कि अनइजी होगा।’’

उन्होंने जोरदार ठहाका लगाया। कहा - ’’भेरी नाइस जोक।’’

श्रद्धेय जी रास्ते भर बैंकों द्वारा उत्पन्न भ्रष्टाचारों की पूर्व वर्णित सूची का वर्णन करते रहे और मैं तमाम समय इस सूची के वायुरोधी वातावरण में अकबकाता रहा। वहाँ पहुँचने पर ताजी हवा में सांस लेने का मौका मिल पाता इससे पहले ही उनके जान-पहचान वाला कोई मिल गया। उस सज्जन ने श्रद्धेय जी से कहा - ’’ओहो! श्रद्धेय जी आप भी पधारे हुए हैं?’’

श्रद्धेय जी ने उस सज्जन से मेरा परिचय कराते हुए कहा - ’’मैं तो नहीं आ रहा था, मा’साब ने काफी रिक्वेस्ट किया तो उनकी बात रखने के लिए उनके साथ चला आया।’’

मेरे मन ने कहा कि गटर के पानी में डुबा-डुबाकर इस दुष्ट श्रद्धेय जी की जान ले लूँ। परन्तु ’हो, हो .....’ करने के सिवा मैं और कुछ न कर सका।

मेरे लिए यह अनुभव नया नहीं है। श्रद्धेय जी की ही कोटि के मेरे दो परम श्रद्धेय और हैं - महान साहित्यकार शास्त्री जी और महान शिक्षाविद् श्री बलिहारी जी। मेरी इस तरह की गत बनाने में ये दोनों सिद्धहस्त हो चुके हैं।   मेरा मन हर बार कहता कि गटर के पानी में डुबा-डुबाकर इन दुष्टों की जान ले लूँ। परन्तु हर बार ’हो, हो .....’ करने के सिवा मैं इन दुष्टों का और कुछ भी नहीं कर पाता हूँ। इन श्रद्धेयजनों का यह कृत्य मुझे दुनिया का सबसे महान भ्रष्टाचार जान पड़ता है। श्रद्धेय जी ने बैंक भ्रष्टाचारों की जो सूची बनाई है वह इसके सामने एकदम तुच्छ जान पड़ता है। हमारे एक प्रतिभाशाली समीक्षक मित्र हैं, उन्होंने इसे और इस प्रकार के अन्य भ्रष्टाचारों को भावनात्मक भ्रष्टाचार नाम दिया हुआ है।

आज मेरे दिमाग में बस एक ही प्रश्न रह-रहकर कुलांचे मार रहा है कि श्रद्धेय जी कृत बैंक भ्रष्टाचारों की सूची में शामिल भ्रष्टाचारों को (जिसे सुनकर मुझे बेहोशी आने लगती है,) किस कोटि में रखा जाय? मुझे समीक्षक मित्र का स्मरण हो आया। हनुमान जी की तरह छलांग लगाकर मैं उनकी शरण में जा पहुँचा। पहुँचते ही कृतज्ञ-शिष्यभाव से यह प्रश्न मैंने समीक्षक महोदय के श्री चरणों में समर्पित कर दिया।

मित्र महोदय ने बड़े ही तार्किक ढंग से मुझे समझाते हुए कहा - ’’मित्र! आज देश के निर्माण में, समाज के निर्माण में, परिवार के निर्माण और व्यक्ति के निर्माण में इन भ्रष्टाचारों का महती योगदान है। जाहिर है, ये सब रचनात्मक भ्रष्टाचार हैं।’’
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Kuber
Mo. 9407685557
Dt. 20 July 2015

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

व्यंग्य

व्यंग्य

चोचं चरित्र


एक सहकर्मी मित्र हैं, चोचं जी।

चोचं जी बड़े सत्कर्मी, सद्धर्मी और संस्कृतिधर्मी हैं। उनका व्यक्तित्व आकर्षक है। उनकी बातें बड़ी मीठी लगती हैं। जिन चीजों में धर्म और संस्कृति की महक न हो, उन्हें वे हाथ भी नहीं लगाते हैं। जहाँ धर्म और संस्कृति की छाँव न हो, वहाँ वे रुकना तो क्या, थूकना भी पसंद नहीं करते हैं। धर्म और संस्कृति की बातों के अलावा वे और कुछ भी बोलना, सुनना, पढ़ना-लिखना पसंद नहीं करते हैं। उनका हर आचरण धर्म के अनुकूल होता है। जाहिर है, वेशभूषा भी वे धर्म और संस्कृति के अनुरूप ही धारण करते हैं। माथे पर सिंदूरी तिलक और सिर पर लंबी चुटैया उनकी खास पहचान हैं। विश्वप्रसिद्ध संत ’जी महराज’ उनके गुरू और आदर्श हैं।

एक दिन उन्होंने तिलक और चुटैया की महिमा का वर्णन कुछ इस प्रकार किया था - ’पूज्य गुरूवर कहते हैं कि हिन्दू संस्कृति और हिन्दू धर्म मानने वालों को तिलक और चुटैया अवश्य धारण करना चहिए। इससे चेहरे पर तेज आती है। यश और संपत्ति की प्राप्ति होती है। परिवार में सुख और शांति आती है। चुटैया के संबंध में वे बताते हैं कि यह ज्ञान और सूचनाएँ एकत्रित-अर्जित करने का केन्द्र होती है। इसी के रास्ते ब्रह्माण्ड की दिव्य ईश्वरीय ऊर्जाएँ मस्तिष्क में प्रवेश करती हैं। पूज्य गुरूवर का कहना है कि आजकल के इलेक्ट्रानिक उपकरणों के एन्टिना इसी की प्रेरणा से विकसित किये गये हैं।’

आगे वे कहते हैं - ’पूज्य गुरूवर के अनुसार तिलक और चुटैया को शक्तिक्षम बनाने के लिए इसे विभिन्न मंत्रों से सिद्ध करना आवश्यक है। यह प्रक्रिया इलेक्ट्रानिक यंत्रों में बैटरी डालने अथवा बैटरी को रिचार्ज करने के समान है।’

गुरू के विधानों और आदेशों की अवहेलना भला कोई कैसे कर सकता है? रौरव नर्क में जाना है क्या? लिहाजा अपना तिलक और अपनी चुटैया सिद्ध किये बिना वे घर से कदापि नहीं निकलते हैं। तिलक और चुटैया जब तक शक्तिक्षम न हो जायें, चेहरे पर दिव्यता और तेज जब तक न आ जायें, ईश्वरीय सत्ता से सीधा संपर्क जब तक न स्थापित हो जाय घर से भला कोई कैसे बाहर निकले? तिलक और चुटैया को सिद्ध करने की उनकी प्रक्रिया कुछ लंबी है, समय लेती है। उनका समय पर स्कूल नहीं पहुँच पाने का यही एकमात्र कारण है।
वे कहते हैं - ’धर्म के कार्यों में लगा समय व्यर्थ नहीं जाता। यह समय अगले जन्म में हमारे उम्र का निर्धारण करता है अतः इस प्रक्रिया में जितना अधिक समय लगे उतना ही अच्छा है।’

समय पर स्कूल नहीं पहुँच पाने का उन्हें कोई मलाल नहीं है। स्वयं को सही सिद्ध करने के लिए वे तर्क देते हैं - ’देश की संविधान ने सभी नागरिकों को अपना धर्म पालन और तदनुरूप धार्मिक आचरण करने की स्वतंत्रता और अधिकार दिया है। सरकार पूजा-पाठ के समय में स्कूल लगाती है। यह हमारे संविधानिक अधिकारों का हनन है। हम तो अपना धार्मिक क्रियाकलाप करेंगे ही। गलती सरकार की है, हमारी नहीं। हम तो अपना धर्म निभायेंगे ही, कोई माई का लाल हमें अपने संविधानिक अधिकारों के उपयोग करने से नहीं रोक सकता; स्कूल जाय भांड़ में।’

हमारे एक मित्र और हैं। वे भी देर से स्कूल आते हैं। स्कूल देर से पहुँचने का उनका कारण नितांत मानवीय है। उन्हें प्रातःकालीन नित्यक्रिया से निपटनें के लिए सार्वजनिक सुविधाओं पर आश्रित रहना पड़ता है। वे कहते हैं - ’’ऐसे में है कोई माई का लाल तो सात बजे स्कूल पहुँच कर बता दे? सरकार को अकल नहीं है तो हम क्या करें। स्कूल जाय भांड़ में।’’

सूची कुछ लंबी है।

चोचं जी एक दिन काफी देर से स्कूल आये। अन्य दिनों की अपेक्षा उसके चेहरे पर अधिक तेज थी। वाणी में अधिक ओज था। मैं समझ गया कि महोदय जी को उनकी संस्था ने कुछ अधिक महत्वपूर्ण और भारी-भरकम जिम्मेदारी सौंपा  होगा। मेरा अनुमान सही निकला। आते ही उन्होंने हमें एक-एक प्रपत्र दिया।

मैंने पूछा - ’’क्या है?’’

उन्होंने आदेश वाले लहजे में कहा - ’’नीचे साईन कीजिए और लौटाइए।’’

मेरे विवेक ने कहा, हस्ताक्षर करने से पहले पढ़ लिया जाय। पता चला, देश भर में गौ-हत्याएँ बन्द करने के लिए देश के राष्ट्रपति के नाम यह ज्ञापन है। इसे उनके गुरू विश्वप्रसिद्ध संत ’जी महराज’ की सत्प्रेरणा सह आदेश के परिपालन में एक अभियान के रूप में उनके संगठन द्वारा देश भर में चलाया जा रहा था। देश में हिन्दुओं की आबादी के अनुपात में उनके गुरू विश्वप्रसिद्ध संत ’जी महराज’ ने एक अरब ज्ञापनों का लक्ष्य निर्धारित किया था। ज्ञापन पत्र में गो वंश महात्मय के अलावा भी अनेक दिव्यवाणियाँ और अमृतवाणियाँ लिखी हुई थी। यदि आप सच्चे हिन्दू हैं और भारतीय संस्कृति को सच्चे मन से मानते हैं तो इस ज्ञापन में लिखी हुई समस्त दिव्यवाणियों और अमृतवाणियों का सहजतापूर्वक अनुमान लगा सकते हैं।

मुझे इस बात की कोई उलझन नहीं थी कि इनके संगठन द्वारा प्रेषित एक अरब ज्ञापन पत्रों को राष्ट्रपति भवन में किस तरह सहेजा जायेगा। मुझे इस बात की भी कोई उलझन नहीं थी कि अपने कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व माननीय राष्ट्रपति महोदय इन्हें पढ भी पायेंगे? मेरी उलझन अलग थी। मैंने चोचं जी से कहा - ’’महोदय जी! सड़कों पर घूम रहे आवारा मवेशियों के लिए आपकी संस्था की कोई योजना नहीं है क्या?’’

’’क्यों, इससे आपको क्या परेशानी है?’’ चोचं जी ने धमकी वाले अंदाज में जवाब दिया। ’नेकु कही बैननि, अनेक कही नैनन सौं। रही-सही सोऊ कही दीन्हीं हिचकीनि सौं।’ रत्नाकर की इन पँक्तियों की तर्ज पर बाकी जवाब उनके तमतमाये हुए चेहरे ने दे दिया था।

सड़कों पर घूम रहे आवारा मवेशियों से उत्पन्न परेशानियों वाले सारे दृश्य मेरी नजरों के आगे साकार होने लगे। यदि मेरी तरह आप भी भ्रष्ट हिन्दू होंगे तो ये सारे दृश्य आप भी साकार रूप में देख सकते हैं।

उस दिन अखबार में एक समाचार छपा था। इस समाचार ने मेरी हिम्मत को तार-तार कर दिया। समाचार का सार कुछ इस प्रकार था - ’सरकार ने एक विश्व प्रसिद्ध संत को बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार कर लिया है। किसी अज्ञानी और मूढ़ व्यक्ति ने इस पर कोई टिप्पणी कर दिया था। उसे क्या पता था कि उस विश्व प्रसिद्ध संत के दो परम भक्त पास ही खड़े हैं। उस संत के अनुयायिओं से यह टिप्पणी सुनी नहीं गई। अचानक उनके अंदर से विकराल क्रोधाग्नि प्रगट होने लगी। इस क्रोधाग्नि से झुलसकर टिप्पणी करने वाला वह बेचारा मूढ़ अब अस्पताल में अपनी अज्ञानता और मूढ़ता को कोसते हुए तड़प रहा है।’

इस समाचार को पढ़कर मेरे मस्तिष्क में जो दृश्य बना वह मुझे बुरी तरह डराने लगा था। सड़क पर घूम रहे आवारा मवेशियों से होने वाली परेशानियों का बखान करने का परिणाम इससे भी भयंकर हो सकता था। लिहाजा मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा।

सभी साथी ज्ञापन पत्र में हस्ताक्षर करके लौटा चुके थे। चोचं जी ने मुझे घुड़काते हुए कहा - ’’क्या सोच रहे हो साहब, हमें और भी जगह जाना है। साइन कीजिए और दीजिए।’’

मैंने कहा - ’’क्षमा करे महोदय जी! मुझसे साइन नहीं हो सकेगा।’’

सुनते ही चोचं जी के अंदर छिपकर बैठा धर्म-संस्कृति उत्पादित बम फट पड़ा। मेरा चीथड़ा उड़ाते हुए उन्होंने कहा - ’’वाह! क्या भारतीय संस्कृति है आपकी? धर्म पर आपकी आस्था कितनी महान है? मान गये।’’
उन्होंने मेरे हाथ से वह ज्ञापन छीन लिया।

उन्होंने मेरी धार्मिकता और संस्कृति पर चोट किया था। मेरे लिए आत्मावलोकन जरूरी था। मैंने अपनी धार्मिकता और सांस्कृतिक आस्था पर गहन सोच-विचार किया। मुझे भी अपनी धार्मिकता और सांस्कृतिक आस्था को सिद्ध करना चाहिए। इसके लिए मुझे चोचं जी का मार्ग ही उपयुक्त लगा। गो वंश की रक्षा के लिए मुझे भी कोई नेक काम करना ही चाहिए। लौटते वक्त मैंने फूटपाथ पर सजी बाजार से रोली चंदन खरीदा। रुद्राक्ष की माला खरीदी। एक फर्जी संस्था बनाया। महामहीम के नाम एक ज्ञापन पत्र तैयार किया। ज्ञापन की विषय वस्तु कुछ इस प्रकार थी -

माननीय महाहीम,
हमारी महान सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए आवश्यक है कि देश में गो वंश की सुरक्षा और संवर्धन हो। सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर स्थायी रूप से निवास करने वाली इनकी पीढ़ियाँ आये दिन किसी न किसी दुर्घटना का शिकार होती रहती हैं। ये पूर्णतः असुरक्षित और उपेक्षित हैं। निवेदन है कि सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर इनके स्थायी निवास स्थलों पर केटल शेड का निर्माण हो ताकि इन्हें सुरक्षा और संरक्षण प्राप्त हो सके।
निवेदक
अध्यक्ष
अखिल विश्व गो वंश संरक्षण-संवर्धन मंच
भरतगाँव (ध. प्र.)

अपने इस पवित्र अभियान के प्रति मेरे अतिउत्साह ने निंदिया रानी को रात भर मेरे नजदीक फटकने नहीं दिया। ब्रह्ममुहूर्त में मैंने अपने इस अधम शरीर को पवित्र किया। माथे पर टीका लगाया। गले में रूद्राक्ष की माला धारण किया। चोटी वाले स्थान के बालों में गांठ लगाई ताकि उसे चुटैया का स्वरूप मिल सके। इन्हें चार्जिंग करने के लिए घंटे भर का ध्यान लगाया। अपनी महान संस्कृति के अनुरूप वस्त्र धारण किया और स्कूल के लिए निकल पड़ा। मेरे अंदर प्रगट हुए महान धार्मिक और सांस्कृतिक आस्था की दिव्य तरंगों ने मुझे चेतावनी दिया कि समय पर स्कूल पहुँचना हमारी महान धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों के विरूद्ध है। आपने जिस पवित्र अभियान का जिम्मा लिया है यह उसके प्रति विश्वासघात है। सावधान।

मैंने सोचा, इस पवित्र अभियान की शुरुआत क्यों न ठेलू राम के पान ठेले से किया जाय। वहाँ पर एकत्रित धर्मप्रेमियों को मैंने अपने महान धर्म और संस्कृति की कुछ अनमोल बातें बताई और हस्ताक्षर की प्रत्याशा में वह ज्ञापन  पत्र उन्हें सौंप दिया। पढ़कर लोगों ने मुझ पर व्यंग्य किया - ’’आपको भी व्यंग्य लेखक बनने का चस्का लग गया है क्या सर?’’

ठेलू राम बार-बार घड़ी की ओर देख रहा था। कहा - ’’सर! आज सण्डे है क्या?’’

रास्ते में एक मंदिर पड़ता है। मैंने सोचा, क्यों न अपने इस पवित्र अभियान की सूचना प्रभु को भी देते चलूँ। प्रभु के समक्ष ध्यानस्थ हुए कुछ ही पल बीते होंगे। मुझे लगा, प्रभु प्रगट होकर मुझसे कह रहे हैं - ’’मूर्ख! तेरे मंदिर के पट तो कब के खुल चुके हैं। तेरे पाँच सौ प्रगट ईश्वर कब से तेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। तू यहाँ स्वांग किये खड़ा है। दूर हो जा मेरी नजरों से।’’
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(टीप:- चोचं जी का यह नाम उनकी चोटी और चंदन से प्रेरित होने वाले विद्यार्थियों का दिया हुआ है। ’चोटी-चंदन’ नाम ही सिंकुड़कर अब ’चोचं’ हो गया है।)
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KUBER
Mo.- 9407685557
Email - kubersinghsahu@gmail.com

शनिवार, 11 जुलाई 2015

समीक्षा

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली की पाठकीय समस्या

(कुबेर की चर्चित कृति ’छत्तीसगढ़ी कथाकंथली’ की राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरते हुए समीक्षक श्री यशवंत ने विस्तारपूर्वक चर्चा किया है। यहाँ उनकी समीक्षा का एक अंश दिया जा रहा है।)

1 उपन्यास क्यों नहीं

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली में कुबेर ने किस्सागोई की जो शैली अपनायी है, वह नितांत मौलिक और अनोखी है। इससे इसके उपन्यास होने का भ्रम पैदा होता है। क्या यह उपन्यास नहीं है? इसमें संकलित पुराकथाओं (लोककथाओं) को सुनने-सुनाने के लिए पहले वातावरण तैयार किया गया है, जिसकी चर्चा हम छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली भाग-1 में कर चुके हैं। तत्पश्चात् लोककथाएँ अपने मर्म, कर्म धर्म और धम्म में कही गई हैं, सुनी और गुनी भी गई हैं। कुबेर ने चाहे यह शैली लोक से ही प्राप्त किया होगा, परन्तु वाचिक परम्परा के आख्यानों को लिपिबद्ध करने के पहले वातावरण का जो निर्माण किया गया है, जिस प्रकार से किया गया है वह साधरणतः किसी उपन्यास का फलक तैयार करता ही है; जो प्रस्तुतीकरण में जहाँ अवश्यक हुआ है, कहानी के अंदर कहानी उपस्थित करता चला जाता है। यहाँ यह बता देना उचित ही होगा कि कहानी के अंदर कहानी उपस्थित करने की शैली हिन्दी साहित्य में तोता-मैना और सिंहासन बत्तीसी से चली आ रही है। परन्तु तोता-मैना और सिंहासन बत्तीसी में यह सप्रयास और अनिवार्यतः हुआ है। यहाँ न तो लोक की उपस्थिति है, न लोक की चेतना है, न लोक की दुनिया है, न लोक की परंपरा है, न लोकधर्म है, और न ही लोक का विमर्श ही है। छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली में इन सभी तत्वों की उपस्थिति के अलावा लेखक की लोकपक्षीय विचारधारा भी सतत रूप से मौजूद है। इन तत्वों की मौजदगी ही छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली और इसकी शैली को विशिष्ट बनाता है।

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली के प्रत्येक कथानक का अपना पृथक वातावरणीय भाग है। सभी कथानकों के इस वातावरणीय भाग को पृथक संकलित कर देने से जो स्वरूप उभरकर आता है, वह एक संपूर्ण औपन्यासिक कलेवर का आभास देता है क्योंकि छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली के इस वातावरणीय भाग का अपना पृथक देशकाल और परिस्थितियाँ है, कथानक है, कथोपकथन हैं, पात्र हैं, चरित्र चित्रण है, उद्देश्य है और उपसंहार भी है। यहाँ डेरहा बबा नायक की तथा अन्य पात्र सहनायक की भूमिका निभाते हुए लगते हैं। ये नायक और सहनायक प्रत्येक वातावरणीय भाग के विषयवस्तु को एकसूत्रता प्रदान करते हुए आगे बढ़ते हैं।  तब इसे कहानी संग्रह ही क्यों कहा जाय?

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली के वातावरणीय भाग के अंदर के दूसरे भाग में, जिसकी चर्चा हमने छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली भाग-2 में किया है, संकलित लोककथाओं में भिन्ननता के बावजूद सभी लोककथाओं में लोकजीवन, लोक परंपराएँ और लोकचेतना समान रूप से उपस्थित है और न केवल उपस्थित है  बल्कि वातावरण्ीय भाग से पूरी तरह से गुंफित भी है, तब क्यों न इसे एक औपन्यासिक कृति ही माना जाय? कुबेर की यह कलाकारी उसके ’भोलापुर के कहानी’ में भी देखी जा सकती है। ’टू इन वन’ अथवा ’बाई वन गेट वन फ्री’ वाली इस बाजारवादी व्यवस्था के अभ्यस्त हो चुके पाठकों के लिए यह एक शुभ समाचार तो है ही।

2  कथा-कंथलियों का लोक

संग्रह की कथा-कंथलियों में लोक के रूप में डेरहा बबा, नंदगहिन दाई, गनेसियो भौजी, मनसुख भैया, रतनू, देवकी, राजेश, अशोक गुरूजी और अन्य तो उपस्थित है ही ढेला, पत्ता, बड़ोरा, हुंडरा, कँउवा तोता, चिरई-चिरगुन, बेंदरा, बघवा, हाथी, कुकुर, सांप, मेचका परेतिन भी हैं। ये सभी मानवेत्तर प्राणी कभी लोक के रूप में, तो कभी उसकी चेतना के रूप में और कभी उसके सहायक की भूमिका में, तो कभी शोषक की भूमिका में, अपनी जीवंत उपस्थिति दर्ज कराते हैं। यहाँ राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी और दीवान भी हैं पर ये सभी या तो लोकरूप में हैं अथवा लोक के अनुगामी के रूप में। यहाँ महादेव और पर्वती भी हैं पर पूर्णतः आपनी लौकिकता के साथ लोकरूप में ही। लोक के अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग के रूप में बाम्हन, नाई और पहटिया तो हैं ही। यहाँ लोक और उसकी चेतना ही सर्वथा सर्वोपरि है।

3  कथापच्ची, माथापच्ची, और धोखापच्चियों का गुन्थाड़ा

लोक साहित्य वाचिक परंपरा का साहित्य है। ये वाचिक परंपरा में ही जीवित, पुनर्जीवित और नवीकृत होते रहते हैं। आधुनिकता की आँधी और सुनामी के थपेड़ों के कारण विलुप्ति की कगार पर खड़े लोकसाहित्य की इस महत्वपूर्ण विधा, लोककथा, को कुबेर ने लिखित साहित्य का स्वरूप देकर इसे भविष्य के लिए संरक्षित कर दिया है। ऐसा करते हुए संग्रहित लोककथाओं में भाषा, शैली और विचार के स्तर पर कुबेर ने पर्याप्त प्रयोग किया है। परंतु सारे प्रयोगों के बावजूद संग्रहित लोककथाओं का मूलस्वरूप न तो कहीं छिन्न-भिन्न हुआ है और न ही उसकी आत्मा आहत हुई है। भविष्य में, जब भी कोई चाहेगा, इसमें से किसी को भी चुनकर उसके आदि स्वरूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। यह एक तरह की कीमियागिरी है, जिसमें कुबेर माहिर हैं। यही कुबेर की कथापच्ची, माथापच्ची, और धोखापच्चियों का गुन्थाड़ा भी है।

4  कुबेर की बिंब योजना

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली का प्रथम, पर्यावरणीय भाग रूपकात्मक शैली में है। यह इसके दूसरे, आंतरिक भाग में अतिक्रमित करके वहाँ अतिक्रमणता भी लाता है और परंपराओं का निर्वहन भी करता है। दशाएँ भी निर्मित करता है, गुन्थाड़ा यही है। यह नये, मिथकीय बिंब योजना से संभव हो पाया है। इस नयी बिंब योजना में ताकत भी है और चाहत भी है; चुनने की, चुराने की, पकड़ने की और अपने प्रवाह में पाठकों को बहा ले जाने की। कुबेर की यही माथापच्ची उसकी प्रयोगधर्मिता है जो नवीन बिंबों का सृजन करती है और कथा-कंथली के वास्तविक चित्रण, प्रत्यक्ष कथन, परोक्ष कथन या अभिप्राय कथन के सदन का निर्माण करती है। कहीं पात्र बिंब बनते हैं तो कहीं बिंब ही पात्र बन जाते हैं। यही जादूगरी सोलहवें अध्याय तक पाठक को सम्मोहित करके बांधे रहती है।
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यशवंत

शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

आलेख

लोक साहित्य में प्रतिरोध के स्वर

वीरेन्द्र ‘सरल‘


‘समरथ को नहीं दोश गोसाई‘‘ यह वाक्यांश मानस के चैपाई की केवल अर्धाली भर नहीं बल्कि युग की पीड़ा है। हर युग में रसूखदार और सबल लोग गंभीर से गंभीर अपराध करके भी साम, दाम, दंड, भेद की नीतियों का प्रयोग करके अपने आप को व्यवस्था के शिकंजे से बचा लेते है और व्यवस्था का उपहास उड़ाते हैं; पर गरीब, लाचार और सामथ्यर््ाहीन व्यक्ति छोटे-छोटे अपराध के लए भी दंड भुगतते हैं। तभी तो ऐसी परिस्थति में फंसे हुए मनुष्य की दुर्दशा पर विवेकवान लोग उक्त अर्धाली का आश्रय लेकर पीड़ित मनुष्य को सांत्वना प्रदान करते हैं। आज भी समाज में यदा-कदा हमारे सामने ऐसी परिस्थितियाँ दिखाई देती है तब पुराने समय में सामथ्र्यहीन व्यक्ति की दशा का अंदाजा सहज रूप से लगाया जा सकता है। मगर मन की पीड़ा तो पीड़ा है। परिस्थतिवश ऐसी घटनाओं से समझौता कर लेना अलग बात है पर मन में आक्रोश के बने रहना को अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता।

बस इन्हीं परिस्थतियों में उपजे हुए आक्रोश को व्यंग्य, उलाहना, वक्रोक्ति, ताना या प्रतिरोध के स्वर को हम लोक साहित्य में पाते हैं। दूसरे शब्दों में हम इसे पीड़ा की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी कह सकते हैं। आज हमारे पास अपना विरोध प्रकट करने के लिए कई प्रकार के नवीनतम साधन उपलब्ध हैं मगर प्राचीन काल में तो अपना विरोध दर्ज कराने का केवल एक ही माध्यम था, वह है साहित्य और वह भी केवल मौखिक जिसे आज हम लोकसाहित्य कहते हैं।

यदि हम अपने छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहाँ तो लोकसाहित्य का विपुल भंडार है। लोकगीत, लोककथा, लोकोक्तियाँ इत्यादि। लोकसाहित्य को ध्यान से पढ़ने-सुनने और उसका विश्लेषण करने पर प्रतिरोध के रूप में कई स्वर मुखरित होते हुए महसूस होते हैं।

लोकसाहित्य में प्रतिरोध के स्वर सर्वाधिक रूप से लोकोक्तियों में दिखाई देता है। यथा - घर में नांग देव भिंभोरा पूजे ला जाय। कोरा म लइका अउ गांव भर गोहार। जोग म साख नहीं भभूत म आँखी फोड़य। कुकुर ह गंगा जाही तब पतरी ला कोन चाँटही। सहराय बहुरिया डोम घर जाय। नवा बइला के नवा सींग, चल रे बइला टिंगेटिंग। पइधे गाय कछारे जाय। हिजगा के खेती ला भलवा खाय। पोसे देव गोसइंया खाय। टेटका के पहिचान बखरी तक, इत्यादि। खाय बर लरकु, कमाय बर टरकु। हरियर खेती गाभिन गाय, जभे बियाय तभे पतियाय। इन सभी का प्रयोग अलग-अलग संदर्भों में बहुतायत में किया जाता है। इस छोटे से आलेख में सभी का सदंर्भ सहित विश्लेषण करना संभव नहीं है।

इसके बाद यदि हम लोकगीतों की बात करें तो यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। इसलिए लोकगीतों का प्रभाव व्यापक है। लोकगीतों में जीवन के विविध रंग समाहित हैं। चूँकि हम धर्मप्रधान देश के निवासी हैं; ईश्वर पर हमारी अटूट आस्था है, जैसी करनी वैसी भरनी की भावना को जनमानस आत्मसात किया हुआ है, इसलिए समाज विरोधी कार्य करके दूसरों को परेशान करने वालों का विरोध धार्मिक मान्यताओं के आधार पर गौरिया गीत के माध्यम से इस प्रकार किया गया है-

‘‘बने-बने जिवरा बर, डांडी अउ डोंडवा।
मूरख जिवरा बर कांटा के बिछवना।
जेमे चुरूमुरू ले जाके डार,
यम के मोदगर के मार बरसायेगा।
हमारा तन जग में बाज।
जग में बाज रहा बांसुरी राम के,
जग में बाजत हावे बांसुरी गिरधर के।‘‘

इसी तरह पंथी गीत में हम पाते हैं कि ईश्वर प्राप्ति के लिए धार्मिक आंडबर करने वालों के लिए प्रतिरोध के स्वर इन शब्दों के साथ मुखर हुआ है।

‘‘घट-घट म बसे हे सतनाम,
खोजे ला हंसा कहाँ जाबे रे।
ऐ! मूरख मन पापी चोला,
सुन ले गुरू के वाणी ला।
अंतस म सतनाम बसा ले,
झन हो तै अज्ञानी गा।
ये माया नगरी म सत्पुरूष कहाँ पाबे ना।
घट-घट म बसे हे---।‘‘

विवाह में एक गीत को भड़ौनी गीत कहते हैं। प्रथम दृष्टया इसे देखने पर यह विवाह के उल्लासमय वातावरण में हास-परिहास का गीत लगता है पर इसकी रचना के आधार पर चिन्तन करने पर स्पष्टतया यह लगता है कि इसमें समधन के द्वारा समधी के लिए प्रयुक्त वक्रोक्ति में प्रतिरोध का स्वर समाया हुआ है। इसकी एक बानगी देखिए-

‘‘बने-बने तोला जानेव समधी, मड़वा में डारेंव बांस रे।
पाला-पाला लुगरा लानेस, जरय तुंहर नाक रे।
दार कर,े चँउर करे, लगिन ला धराय रे।
बेटा के बिहाव करे, बाजा ला डर्राय रे।
मेछा हावय लाम-लाम, मुँहू हावय करिया रे।
समधी बिचारा काय करे, पहिरे हावे फरिया रे।
मेछा हावे कर्रा-कर्रा, गाल ह तुँहर खोधरा रे।
जादा झन अटियावव समधी, होगे हावव डोकरा रे।‘‘

हमारी संस्कृति में सूर्य और चन्द्रमा को भी देवतुल्य माना गया है। इसीलिए सुवा गीत में माताएँ सुआ को गवाह मानकर अपनी स्थिति से अवगत कराते हुए सूर्य-चन्द्रमा से विनती करती हुई इन पँक्तियों में अपने नारी जन्म देने पर प्रतिरोध करती हुई दिखाई पड़ती है -

‘‘पइँया पड़व मैं हा चंदा-सूरूज के,
ना रे सुवना! कि तिरिया जनम झन देय।
तिरिया जनम हावे गउ के बरोबर
रे सुवना! कि जिहाँ पठोये तिहाँ जाय।‘‘

इस प्रकार लोक कथाओं में भी प्रतिरोध के स्वर मुखरित हुए हैं, मगर इस लेख के माध्यम से इसका उद्धरण देने से आलेख बहुत विस्तृत हो जायेगा। इसलिए संक्षेप में यही कहना उचित होगा कि लोकसाहित्य में प्रतिरोध के स्वर से हम भी अनुचित कार्यों का विशिष्टतापूर्वक विरोध करने की सीख लें और स्वस्थ समाज के निर्माण में अपनी सहभागिता निभाएँ। साथ ही साथ सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित व्यक्तिव भी अपनी आलोचना सुनकर आक्रोशित होने के बजाय आत्मचिन्तन कर अपने विचारों एवं कार्यों को परिष्कृत करे तो यह भी स्वस्थ समाज के निर्माण की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम होगा। इसलिए तो कबीर ने कहा है कि-
‘‘निदंक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाय।
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।।‘‘
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बोड़रा (मगरलोड़), पोस्ट-भोथीडीह, जिला-धमतरी ( छत्तीसगढ़)
    ई मेल - saralvirendra@rediffmail.com

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

समीक्षा

छत्तीसगढ़ में कुबेर का खजाना-‘‘कथा-कंथली‘‘ (समीक्षा)

चर्चित व्यंग्य संग्रह ’कार्यालय तेरी अकथ कहानी’ से राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरने वाले व्यंग्यकार का नाम है - वीरेन्द्र ‘सरल‘। यहाँ प्रस्तुत है, श्री कुबेर की ’छत्तीसगढ़ी कथा-कथली’ पर उनकी समीक्षात्मक टिप्पणी।
वीरेन्द्र ‘सरल‘
महानदी की चैड़ी छाती और विशाल हृदय के समान ही छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति समृद्ध और इतिहास वैभवशाली है। ऋषि संस्कृति से कृषि संस्कृति तक की यात्रा की साक्षी छत्तीसगढ़ की धरती में लोक साहित्य का विपुल भंडार भरा है। यहाँ लोक गीतो की मधुर तान, लोक पर्वो की लम्बी श्रृंखला और लोक कथा तथा लोक-गाथाओं का अक्षय कोश है। लोक साहित्य ही किसी राज्य के संस्कृति की रीढ़ होती है। लोक संस्कृति से कटने का मतलब अपनी जड़ों से कटना होता है और इतिहास गवाह है कि जड़ों से कटने के बाद किसी भी विशालकाय पेड़ को धराशायी होने में ज्यादा समय नहीं लगता। आज आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल होकर हम अपनी जड़ों से कटने लगे हैं। ऐसे समय में यह बहुत आवश्यक है कि हम अपनी जड़ों को सुरक्षित रखने के लिए सदैव सजग और तत्पर रहें।

लोक साहित्य के महत्व को भली-भांति जानने और समझने वाले विद्वानों के द्वारा इस दिशा में पहले भी स्तुत्य प्रयास किया जाता रहा है पर अपेक्षित महत्व और समग्र मूल्यांकन नहीं होने के कारण इस कार्य की गति धीमी रही है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद विद्वानों की सजगता और सरकार की गंभीरता के कारण इस कार्य में तेजी आई है। अब लोक साहित्य को संकलित और संग्रहित करने का कार्य तेज गति से होने लगा है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर यहाँ की धानी धरती के रत्नों की चमक से निवेशक आकर्षित हुए है वहीं दूसरी ओर यहाँ की कला, साहित्य और संस्कृति से देश-दुनिया के विद्वत और कला प्रेमी लोग सम्मोहित भी हो रहे हैं।

अपने पूर्वजों से विरासत में मिले  लोक साहित्य के अनमोल धरोहर को सहेज कर नई पीढ़ी को हस्तांरित करने का महत्वपूर्ण काम भाई कुबेर ने भी कथा कंथली के माध्यम से किया है। प्रयोग धर्मी रचनाकार भाई कुबरे ने लोक कथाओं को कथा-कथन की सामान्य शैली से अलग एक विशिष्ट शैली ओर मनमोहक अंदाज में पाठकों तक पहुँचाने का विनम्र प्रयास किया है। लोक कथाओं में निहित संदेशों को अधिक प्रभावी और ग्राह्य बनाने के लिए उन्होंने एक अनुपम शैली का आश्रय लेते हुए कथाक्रम को खलिहान में रखे धान के खरही की उपमा दी है। अपने श्रमसीकर से धरती को सींचकर अन्न उपजाने वाला छत्तीसगढ़िया श्रमवीर अपने परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त धान के फसल को अपने खलिहान में देवप्रतिमा की तरह खरही के रूप में स्थापित कर क्रमशः उसकी मिसाई का कार्य करता है। इस कार्य में पूरे परिवार की सहभागिता होती है। परिवार के छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े बुजुर्ग लोग भी तन-मन-धन से इस कार्य में कमर कसकर जुटे होते हैं और अपने सामथ्र्य अनुसार सहयोग प्रदान करते रहते हैं। ज्यादा कुछ नहीं तो श्रम करने वालों को मानसिक संबल प्रदान करते रहते हैं। ग्राम्य सहकारिता के इस पवित्र भाव के साथ डेरहा बबा, नंदगंहिन और राजेश के माध्यम से भाई कुबेर जब लोक कथाओं को कहना शुरू करते हैं तब कथोपकथन की इस शैली से कथाओं की प्रभावोत्पादकता और सम्प्रेषणीयता देखते ही बनती है।

इस संकलन में कथा में समाहित जीवन संदेश तो है ही साथ-ही-साथ राजेश और डेरहा बबा, नंदगहिन तथा कथा रस में भींगते हुए अन्य बड़े बुजुर्गो के संवाद में जीवन के विविध रंगों यथा सुख-दुख, आशा-निराशा, हास-परिहास के माध्यम से लोक जीवन की झांकी जीवन्त हो उठती है और अपनी भाषा की मिठास कानों में रस घोलने लगती है। कथा के बीच-बीच में उद्धृत छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियाँ सोने में सुहागा का काम करती हैं। भाई कुबेर ने लोक कथाओं को संग्रहित करते हुए इस बात का पर्याप्त ध्यान रखा है कि इस संकलन में बच्चों से बूढ़ों तथा युवक से युवतियों तक के लिए कथा समाहित हो तभी तो संकलन में लधु लोक कथाओं से लेकर शिव और नाथ की अमर प्रेम कथा को सम्मानपूर्वक रखा गया है। आज झूठे प्रेमपाश में जकड़कर बर्बाद होते युवाओं के लिए शिव और नाथ के अमर प्रेम की भावपूर्ण कथा एक प्रकाशस्तंभ की तरह दिशा देती है कि प्रेम दैहिक आकर्षण नहीं बल्कि प्रेमी आत्माओं के लिए पूजा, इबादत, अरदास जैसी पवित्र भावना है। सामाजिक, पारिवारिक, आघ्यात्मिक एवं ऐतिहासिक संदर्भो को स्पर्श करती हुई लोक कथाएँ निःसंदेह नई पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक साबित होंगी, ऐसा विश्वास है। इसके संकलन और प्रकाशन के लिए भाई कुबेर साहू को हार्दिक बधाई।

बोड़रा (मगरलोड़), पोस्ट-भोथीडीह, जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)
ई मेल - saralvirendra@rediffmail.com
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शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

व्यंग्य

कुत्तों के भूत


अपनी यह व्यथाकथा एक सत्संग स्थल पर मुझे एक अतिसज्जन और परम धार्मिक कुत्ते ने सुनई थी। कुकुआते-गरियाते हुए उसने जो कहानी सुनाई थी वह उन्हीं की जबानी इस प्रकार है - 

’बहुत दिनों बाद आज मेरी मुलाकात एक मनुष्य मित्र से हुई। उसके माथे पर रोली-चंदन का टीका लगा हुआ था। तमाम प्रारंभिक औपचारिकताओं के बाद मैंने पूछा - ’’कहो मित्र! कहाँ से आ रहे हो?’’

मित्र महोदय को शायद मेरे इसी प्रश्न की प्रतीक्षा थी। बिना समय गँवाये उसने कहा - ’’दरबार से आ रहा हूँ। और कहाँ से? कभी तुम भी चलना।’’

’’दिल्ली दरबार से?’’
मित्र ने सिर हिलाकर कहा, नहीं।
इसके पहले कि वे कुछ बता पाते, मैंने फिर पूछ लिया - ’’राम दरबार से?’’
अब की बार वे झल्लाये; लेकिन उसे मौका दिये बगैर मैंने फिर पूछ लिया - ’’मंत्री दरबार से?’’

अब तो मेरे कुत्तेपन से बुरी तरह झल्लाते हुए उसने कहा - ’’अरे साले, कुत्ता! कुछ सुनेगा भी? बाबाजी की दरबार से आ रहा हूँ। समझे? पहले भी नहीं बताया था तुझे? अब की बार तुझे भी ले जाऊँगा। बहुत भौकने लगा है।’’

’’कुत्ता हूँ, आदमी नहीं। मेरा भौकना कैसे बंद कर पायेंगे बाबाजी?’’
’’सब हो जाता है वहाँ, समझे? तेरा भौंकना भी बंद हो जायेगा।’’
’’मतलब, बाबाजी कुतों को आदमी बना देते हैं?’’

अब की बार मित्र महोदय ने गुर्राकर अपनी लात मेरी ओर उठाई; जैसे कह रहे हों - ’’लात पड़ेगी साले, कुत्ता।’’ 

हम कुत्तों को तो लात खाने की आदत ही होती है, बुरा क्या मानता? कहा - ’’मित्र! सदियाँ बीत गईं। सारे बाबा लोग यहाँ आदमी को जानवर बनाने में लगे हुए हैं। आपके बाबाजी दरबार लगाकर कृुत्तों को आदमी बना रहे हैं? बड़े पुण्य का काम कर रहंे हैं। अच्छी बात है। पर मित्र! मुझे तो अपना यह कुत्तापा ही अच्छा लगता है। हरगिज नहीं जाऊँगा मैं वहाँ। फिर, आजकल तो आदमी लोग कुत्ता बनने के लिए तरस रहे हैं। मैं क्यों आदमी बनूँ। आदमी बनकर जीना भी कोई जीना है, हाँ।’’

मित्र ने कहा - ’’अबे साले कुत्ता! मजाक बंद कर। बड़े पहुँचे हुए बाबा हैं वे। बड़ी भीड़ रहती है वहाँ। तुझे तो बांधकर ले जाऊँगा। समझे?’’

उसके समझाने से मेरी नासमझी और बढ़ती गई। मैंने नासमझी भरा एक और प्रश्न उसकी ओर उछाल दिया - ’’अच्छा! तो लोग कुत्तों को वहाँ बांधकर ले जाते हैं? ऐसे कितने कुत्ते जुटते होंगे वहाँ रोजाना?’’

मित्र ने धमकाते हुए कहा - ’’अबे चुप कर, नहीं तो लात पड़ेगी, समझे।’’ और फिर वे अपने बाबा का गौरवगान करने लगे - ’’सेठ धनीराम को ही देख लो, सड़क पर आ गया था, बाबा की कृपा से आज नगर सेठ बना बैठा है। बाबा की कृपा से कितनों की नौकरी लगी, कितनों की शादियाँ लगी। हारी-बीमारी, भूत-प्रेत और टोना-जादू के मारों की तो वहाँ मेला लगा रहता है। निःसंतानों को तो संतान की गारंटी है। जिद्दी से जिद्दी भूत भी बाबा की छाया पड़ते ही थरथर काँपने लगता है। मुझे ही देख लो। जुकाम जो था, पंद्रह दिन से छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा था। बड़ा जिद्दी था, छोड़ता भी कैसे? सब किया-कराया तो पड़ोस की उस डायन का था। बाबाजी ने हाथ लगाया और ठीक हो गया। सुबह से गया था। दोपहर बाद नंबर लगा। अब लौट रहा हूँ।’’

मैंने कहा - ’’वह डायन कहीं आपकी हूर जैसी वही पड़ोसन तो नहीं है, साल भर से आप जिसके पीछे पड़े हो?’’
मित्र ने फिर गुर्राया - ’’चुप, साले कुत्ता! तुम कुत्तों को तो सब कुत्ते ही नजर आते हैं। मैं क्यों उसके पीछे पड़ने लगा? पीछे तो वह पड़ी थी, मेरे। उसी  का यह नतीजा है। पर बात सही है। अब समझ में आ रहा है, उसी डायन का सब करा-धरा था। तू भी माजरा समझ जायेगा, जब तेरे को वहाँ बांधकर ले जाऊँगा, समझे?’’

मन ही मन मैंने कहा - माजरा तो मैं खूब समझता हूँ। सौ चूहे हजम करने वाले इस बिलार ने तो अब उस बेचारी पर ही सारा दोष मढ़ दिया है। पर मुझे मालूम है, उस पड़ोसन ने उस दिन इसकी क्या गत बनाई थी। मैंने तो उसी दिन समझ लिया था। इस बेचारी पर अब डायन का ठप्पा लगने से कोई नहीं रोक सकता। दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती। खैर! दुनियादारी पर आते हुए मैंने कहा - ’’मित्र! आप तो जानते ही हो, समाज में अपनी भी कुछ हैसियत है, वरना शहर के सबसे सभ्रान्त काॅलोनी में ऐसे ही अपनी जगह नहीं बनती? एस. डी. ओ, इंजीनियर, और न जाने कितने बड़े-बड़े साहब लोगों के बीच अपना अड्डा है। हम तो, इन्हीं साहब लोगों के तलवे चाँटते हैं और ऐश करते हैं। बाबा-वाबा से हमें क्या लेना-देना?’’
’’कुत्ते हो, तलवे तो चाँटोगे ही।’’

’’मित्र! तलवे चाँटने का मजा आप इन्सान लोग भला क्या जानों? मेम लोगों के तलुए तो और भी आनंददायी होते हैं। जिस दिन साहब लोग दौरे पर होते हैं, उस दिन तो अपने मजे ही मजे होते हैं। अब आपसे भी क्या छिपाना, पर किसी से कहना नहीं। उस दिन मेम लोगों के बेडरूम अपने लिए फ्री रहता है। मेम लोगों के मुलायम गद्दों में सोने का आनंद आप भला क्या जानोगे। और जब मेमें कभी मायके चली जाती हैं तो आपकी भाभी के भाग खुल जाते हैं। तब पता चलता है, हमसे बड़े और असली कुत्ते तो ये ही होते हैं। सच कहता हूँ, इस दुनिया में कुत्ता बनकर तलवे चाँटने में जो आनंद है, वह आदमी बनने में कहाँ? कुत्ता बनकर जीने का अपना ही आनंद है, मित्र।’’

मित्र महोदय का चेहरा अजीब तरह के मनोभावों से भर गया। उसके मन की जलन का धुआँ उनकी आँखों से निकलने लगा था। अपने इस मित्र को मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ। कुत्तों से भी गया-बीता है। उसके मनोभावों को भाँपते हुए मैंने कहा - ’’मित्र! मेरी बात मान, मैं तो कहता हूँ, आप भी एकाध दिन कुत्ता बनकर देख लो। दरबार लगाने वाले उस बाबा को भूल ही जाओगे।’’

मित्रजी भी अब शायद मेरे मनोभावों को समझने लगे थे। उस पर भारी न पड़ने लगूँ, इसलिए बात बदलते हुए उसने कहा - ’’अबे कुत्ता! आजकल तेरे अड्डे के पास तेरे जमात वालों की खूब भीड़ लगी रहती है, क्या बात है?’’

मैंने कहा - ’’मित्र! अब आपसे भी क्या छिपाना। याद है, पिछली बार भी आपने बाबा की बात बताई थी? तभी मैंने ठान लिया था कि मुझे भी बाबा बन जाना चाहिए। दरबार लगाना चाहिए। अपनी इस स्टेटस को भुनाने का इससे अच्छा मौका और कब मिलने वाला था? मैंने भी दरबार लगाना शुरू कर दिया है। आजकल मेरे अड्डे पर जो भीड़ आप देखते हो, सब मुसीबत के मारों की होती है। कोई बीमार होता है। पागल तो बहुत होते हैं। 

मित्र! क्या बताऊँ, सारे कुत्ते बेचारे आदमियों के भूत से ग्रसित होते हैं। आदमी बनने के चक्कर में पगला गये होते हैं। और सुन! आदमी के ये भूत बड़े जिद्दी होते हैं। छुड़ाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती ....।’’

मुझे बीच में ही टोकते-डपटते हुए मित्र ने कहा - ’’अरे साले कुत्ता! बस भी कर। कुत्तों को भी कभी भूत पकड़ते हैं? और वह भी आदमी के भूत?’’

मैंने कहा - ’’मित्र! इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है। जब आदमियों को कुत्तों के भूत पकड़ सकते हैं, तब कुत्तों को आदमियों के भूत क्यों नहीं पकड़ सकते? एक बात बताना तो मैं भूल ही रहा हूँ। हमारे यहाँ निःसंतानों का इलाज गारंटीपूर्वक किया जाता है। देखते नहीं हो, यहाँ से वहाँ तक, गलियों में खेल रहे बच्चों को। सब पर अपनी ही कंपनी के छाप पड़े हुए हैं।’’

मित्र महोदय को भी बाबा की कृपा से संतान-सुख मिला हुआ है। उसेे मेरी बातें चुभ गई होगी। मुझ पर लात जमाते हुए उसने कहा - ’’साले! बाबाओं को बदनाम करता है। कहता है, आदमियों को कुत्तों के भूत पकड़ते हैं। कुत्तों के भी कभी भूत होते हैं?’’

मित्र की लात खाकर मुझे बड़ी संतुष्टि मिली। मैंने कहा - ’’मित्र! ईश्वर करे, आदमी को आदमी के ही भूत पकड़े और सारे आदमी आदमी बन जायें। पर ऐसा होता नहीं है। सच मानों मित्र! आज के आदमी कुत्तों के भूत से ग्रस्त हैं। इसीलिए तो वे कुत्तों के समान व्यवहार कर रहे हैं। कुत्ता बनने की होड़ में लगे हुए हैं। रह गई कुत्तों के भूत की बात। आत्माएँ क्या अलग-अलग होती हैं? कुत्ते की आत्मा आदमी की आत्मा से भिन्न होती है क्या?’’
मेरी बातें सुनकर मित्र महोदय बौखला गये। जाते-जाते उसने मुझे मेरी माँ के साथ शारीरिक संबंध बनाने वाला आशीर्वचन कहा, लातों का उपहार दिया।

जाते-जाते उसके अंदर बैठे कुत्ते की भूत ने मेरी ओर देखा और एक जोरदार ठहाका लगाया।
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Mo 9407685557