शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

आलेख

लोक साहित्य में प्रतिरोध के स्वर

वीरेन्द्र ‘सरल‘


‘समरथ को नहीं दोश गोसाई‘‘ यह वाक्यांश मानस के चैपाई की केवल अर्धाली भर नहीं बल्कि युग की पीड़ा है। हर युग में रसूखदार और सबल लोग गंभीर से गंभीर अपराध करके भी साम, दाम, दंड, भेद की नीतियों का प्रयोग करके अपने आप को व्यवस्था के शिकंजे से बचा लेते है और व्यवस्था का उपहास उड़ाते हैं; पर गरीब, लाचार और सामथ्यर््ाहीन व्यक्ति छोटे-छोटे अपराध के लए भी दंड भुगतते हैं। तभी तो ऐसी परिस्थति में फंसे हुए मनुष्य की दुर्दशा पर विवेकवान लोग उक्त अर्धाली का आश्रय लेकर पीड़ित मनुष्य को सांत्वना प्रदान करते हैं। आज भी समाज में यदा-कदा हमारे सामने ऐसी परिस्थितियाँ दिखाई देती है तब पुराने समय में सामथ्र्यहीन व्यक्ति की दशा का अंदाजा सहज रूप से लगाया जा सकता है। मगर मन की पीड़ा तो पीड़ा है। परिस्थतिवश ऐसी घटनाओं से समझौता कर लेना अलग बात है पर मन में आक्रोश के बने रहना को अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता।

बस इन्हीं परिस्थतियों में उपजे हुए आक्रोश को व्यंग्य, उलाहना, वक्रोक्ति, ताना या प्रतिरोध के स्वर को हम लोक साहित्य में पाते हैं। दूसरे शब्दों में हम इसे पीड़ा की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी कह सकते हैं। आज हमारे पास अपना विरोध प्रकट करने के लिए कई प्रकार के नवीनतम साधन उपलब्ध हैं मगर प्राचीन काल में तो अपना विरोध दर्ज कराने का केवल एक ही माध्यम था, वह है साहित्य और वह भी केवल मौखिक जिसे आज हम लोकसाहित्य कहते हैं।

यदि हम अपने छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहाँ तो लोकसाहित्य का विपुल भंडार है। लोकगीत, लोककथा, लोकोक्तियाँ इत्यादि। लोकसाहित्य को ध्यान से पढ़ने-सुनने और उसका विश्लेषण करने पर प्रतिरोध के रूप में कई स्वर मुखरित होते हुए महसूस होते हैं।

लोकसाहित्य में प्रतिरोध के स्वर सर्वाधिक रूप से लोकोक्तियों में दिखाई देता है। यथा - घर में नांग देव भिंभोरा पूजे ला जाय। कोरा म लइका अउ गांव भर गोहार। जोग म साख नहीं भभूत म आँखी फोड़य। कुकुर ह गंगा जाही तब पतरी ला कोन चाँटही। सहराय बहुरिया डोम घर जाय। नवा बइला के नवा सींग, चल रे बइला टिंगेटिंग। पइधे गाय कछारे जाय। हिजगा के खेती ला भलवा खाय। पोसे देव गोसइंया खाय। टेटका के पहिचान बखरी तक, इत्यादि। खाय बर लरकु, कमाय बर टरकु। हरियर खेती गाभिन गाय, जभे बियाय तभे पतियाय। इन सभी का प्रयोग अलग-अलग संदर्भों में बहुतायत में किया जाता है। इस छोटे से आलेख में सभी का सदंर्भ सहित विश्लेषण करना संभव नहीं है।

इसके बाद यदि हम लोकगीतों की बात करें तो यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। इसलिए लोकगीतों का प्रभाव व्यापक है। लोकगीतों में जीवन के विविध रंग समाहित हैं। चूँकि हम धर्मप्रधान देश के निवासी हैं; ईश्वर पर हमारी अटूट आस्था है, जैसी करनी वैसी भरनी की भावना को जनमानस आत्मसात किया हुआ है, इसलिए समाज विरोधी कार्य करके दूसरों को परेशान करने वालों का विरोध धार्मिक मान्यताओं के आधार पर गौरिया गीत के माध्यम से इस प्रकार किया गया है-

‘‘बने-बने जिवरा बर, डांडी अउ डोंडवा।
मूरख जिवरा बर कांटा के बिछवना।
जेमे चुरूमुरू ले जाके डार,
यम के मोदगर के मार बरसायेगा।
हमारा तन जग में बाज।
जग में बाज रहा बांसुरी राम के,
जग में बाजत हावे बांसुरी गिरधर के।‘‘

इसी तरह पंथी गीत में हम पाते हैं कि ईश्वर प्राप्ति के लिए धार्मिक आंडबर करने वालों के लिए प्रतिरोध के स्वर इन शब्दों के साथ मुखर हुआ है।

‘‘घट-घट म बसे हे सतनाम,
खोजे ला हंसा कहाँ जाबे रे।
ऐ! मूरख मन पापी चोला,
सुन ले गुरू के वाणी ला।
अंतस म सतनाम बसा ले,
झन हो तै अज्ञानी गा।
ये माया नगरी म सत्पुरूष कहाँ पाबे ना।
घट-घट म बसे हे---।‘‘

विवाह में एक गीत को भड़ौनी गीत कहते हैं। प्रथम दृष्टया इसे देखने पर यह विवाह के उल्लासमय वातावरण में हास-परिहास का गीत लगता है पर इसकी रचना के आधार पर चिन्तन करने पर स्पष्टतया यह लगता है कि इसमें समधन के द्वारा समधी के लिए प्रयुक्त वक्रोक्ति में प्रतिरोध का स्वर समाया हुआ है। इसकी एक बानगी देखिए-

‘‘बने-बने तोला जानेव समधी, मड़वा में डारेंव बांस रे।
पाला-पाला लुगरा लानेस, जरय तुंहर नाक रे।
दार कर,े चँउर करे, लगिन ला धराय रे।
बेटा के बिहाव करे, बाजा ला डर्राय रे।
मेछा हावय लाम-लाम, मुँहू हावय करिया रे।
समधी बिचारा काय करे, पहिरे हावे फरिया रे।
मेछा हावे कर्रा-कर्रा, गाल ह तुँहर खोधरा रे।
जादा झन अटियावव समधी, होगे हावव डोकरा रे।‘‘

हमारी संस्कृति में सूर्य और चन्द्रमा को भी देवतुल्य माना गया है। इसीलिए सुवा गीत में माताएँ सुआ को गवाह मानकर अपनी स्थिति से अवगत कराते हुए सूर्य-चन्द्रमा से विनती करती हुई इन पँक्तियों में अपने नारी जन्म देने पर प्रतिरोध करती हुई दिखाई पड़ती है -

‘‘पइँया पड़व मैं हा चंदा-सूरूज के,
ना रे सुवना! कि तिरिया जनम झन देय।
तिरिया जनम हावे गउ के बरोबर
रे सुवना! कि जिहाँ पठोये तिहाँ जाय।‘‘

इस प्रकार लोक कथाओं में भी प्रतिरोध के स्वर मुखरित हुए हैं, मगर इस लेख के माध्यम से इसका उद्धरण देने से आलेख बहुत विस्तृत हो जायेगा। इसलिए संक्षेप में यही कहना उचित होगा कि लोकसाहित्य में प्रतिरोध के स्वर से हम भी अनुचित कार्यों का विशिष्टतापूर्वक विरोध करने की सीख लें और स्वस्थ समाज के निर्माण में अपनी सहभागिता निभाएँ। साथ ही साथ सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित व्यक्तिव भी अपनी आलोचना सुनकर आक्रोशित होने के बजाय आत्मचिन्तन कर अपने विचारों एवं कार्यों को परिष्कृत करे तो यह भी स्वस्थ समाज के निर्माण की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम होगा। इसलिए तो कबीर ने कहा है कि-
‘‘निदंक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाय।
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।।‘‘
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बोड़रा (मगरलोड़), पोस्ट-भोथीडीह, जिला-धमतरी ( छत्तीसगढ़)
    ई मेल - saralvirendra@rediffmail.com

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