शनिवार, 11 जुलाई 2015

समीक्षा

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली की पाठकीय समस्या

(कुबेर की चर्चित कृति ’छत्तीसगढ़ी कथाकंथली’ की राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरते हुए समीक्षक श्री यशवंत ने विस्तारपूर्वक चर्चा किया है। यहाँ उनकी समीक्षा का एक अंश दिया जा रहा है।)

1 उपन्यास क्यों नहीं

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली में कुबेर ने किस्सागोई की जो शैली अपनायी है, वह नितांत मौलिक और अनोखी है। इससे इसके उपन्यास होने का भ्रम पैदा होता है। क्या यह उपन्यास नहीं है? इसमें संकलित पुराकथाओं (लोककथाओं) को सुनने-सुनाने के लिए पहले वातावरण तैयार किया गया है, जिसकी चर्चा हम छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली भाग-1 में कर चुके हैं। तत्पश्चात् लोककथाएँ अपने मर्म, कर्म धर्म और धम्म में कही गई हैं, सुनी और गुनी भी गई हैं। कुबेर ने चाहे यह शैली लोक से ही प्राप्त किया होगा, परन्तु वाचिक परम्परा के आख्यानों को लिपिबद्ध करने के पहले वातावरण का जो निर्माण किया गया है, जिस प्रकार से किया गया है वह साधरणतः किसी उपन्यास का फलक तैयार करता ही है; जो प्रस्तुतीकरण में जहाँ अवश्यक हुआ है, कहानी के अंदर कहानी उपस्थित करता चला जाता है। यहाँ यह बता देना उचित ही होगा कि कहानी के अंदर कहानी उपस्थित करने की शैली हिन्दी साहित्य में तोता-मैना और सिंहासन बत्तीसी से चली आ रही है। परन्तु तोता-मैना और सिंहासन बत्तीसी में यह सप्रयास और अनिवार्यतः हुआ है। यहाँ न तो लोक की उपस्थिति है, न लोक की चेतना है, न लोक की दुनिया है, न लोक की परंपरा है, न लोकधर्म है, और न ही लोक का विमर्श ही है। छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली में इन सभी तत्वों की उपस्थिति के अलावा लेखक की लोकपक्षीय विचारधारा भी सतत रूप से मौजूद है। इन तत्वों की मौजदगी ही छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली और इसकी शैली को विशिष्ट बनाता है।

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली के प्रत्येक कथानक का अपना पृथक वातावरणीय भाग है। सभी कथानकों के इस वातावरणीय भाग को पृथक संकलित कर देने से जो स्वरूप उभरकर आता है, वह एक संपूर्ण औपन्यासिक कलेवर का आभास देता है क्योंकि छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली के इस वातावरणीय भाग का अपना पृथक देशकाल और परिस्थितियाँ है, कथानक है, कथोपकथन हैं, पात्र हैं, चरित्र चित्रण है, उद्देश्य है और उपसंहार भी है। यहाँ डेरहा बबा नायक की तथा अन्य पात्र सहनायक की भूमिका निभाते हुए लगते हैं। ये नायक और सहनायक प्रत्येक वातावरणीय भाग के विषयवस्तु को एकसूत्रता प्रदान करते हुए आगे बढ़ते हैं।  तब इसे कहानी संग्रह ही क्यों कहा जाय?

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली के वातावरणीय भाग के अंदर के दूसरे भाग में, जिसकी चर्चा हमने छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली भाग-2 में किया है, संकलित लोककथाओं में भिन्ननता के बावजूद सभी लोककथाओं में लोकजीवन, लोक परंपराएँ और लोकचेतना समान रूप से उपस्थित है और न केवल उपस्थित है  बल्कि वातावरण्ीय भाग से पूरी तरह से गुंफित भी है, तब क्यों न इसे एक औपन्यासिक कृति ही माना जाय? कुबेर की यह कलाकारी उसके ’भोलापुर के कहानी’ में भी देखी जा सकती है। ’टू इन वन’ अथवा ’बाई वन गेट वन फ्री’ वाली इस बाजारवादी व्यवस्था के अभ्यस्त हो चुके पाठकों के लिए यह एक शुभ समाचार तो है ही।

2  कथा-कंथलियों का लोक

संग्रह की कथा-कंथलियों में लोक के रूप में डेरहा बबा, नंदगहिन दाई, गनेसियो भौजी, मनसुख भैया, रतनू, देवकी, राजेश, अशोक गुरूजी और अन्य तो उपस्थित है ही ढेला, पत्ता, बड़ोरा, हुंडरा, कँउवा तोता, चिरई-चिरगुन, बेंदरा, बघवा, हाथी, कुकुर, सांप, मेचका परेतिन भी हैं। ये सभी मानवेत्तर प्राणी कभी लोक के रूप में, तो कभी उसकी चेतना के रूप में और कभी उसके सहायक की भूमिका में, तो कभी शोषक की भूमिका में, अपनी जीवंत उपस्थिति दर्ज कराते हैं। यहाँ राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी और दीवान भी हैं पर ये सभी या तो लोकरूप में हैं अथवा लोक के अनुगामी के रूप में। यहाँ महादेव और पर्वती भी हैं पर पूर्णतः आपनी लौकिकता के साथ लोकरूप में ही। लोक के अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग के रूप में बाम्हन, नाई और पहटिया तो हैं ही। यहाँ लोक और उसकी चेतना ही सर्वथा सर्वोपरि है।

3  कथापच्ची, माथापच्ची, और धोखापच्चियों का गुन्थाड़ा

लोक साहित्य वाचिक परंपरा का साहित्य है। ये वाचिक परंपरा में ही जीवित, पुनर्जीवित और नवीकृत होते रहते हैं। आधुनिकता की आँधी और सुनामी के थपेड़ों के कारण विलुप्ति की कगार पर खड़े लोकसाहित्य की इस महत्वपूर्ण विधा, लोककथा, को कुबेर ने लिखित साहित्य का स्वरूप देकर इसे भविष्य के लिए संरक्षित कर दिया है। ऐसा करते हुए संग्रहित लोककथाओं में भाषा, शैली और विचार के स्तर पर कुबेर ने पर्याप्त प्रयोग किया है। परंतु सारे प्रयोगों के बावजूद संग्रहित लोककथाओं का मूलस्वरूप न तो कहीं छिन्न-भिन्न हुआ है और न ही उसकी आत्मा आहत हुई है। भविष्य में, जब भी कोई चाहेगा, इसमें से किसी को भी चुनकर उसके आदि स्वरूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। यह एक तरह की कीमियागिरी है, जिसमें कुबेर माहिर हैं। यही कुबेर की कथापच्ची, माथापच्ची, और धोखापच्चियों का गुन्थाड़ा भी है।

4  कुबेर की बिंब योजना

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली का प्रथम, पर्यावरणीय भाग रूपकात्मक शैली में है। यह इसके दूसरे, आंतरिक भाग में अतिक्रमित करके वहाँ अतिक्रमणता भी लाता है और परंपराओं का निर्वहन भी करता है। दशाएँ भी निर्मित करता है, गुन्थाड़ा यही है। यह नये, मिथकीय बिंब योजना से संभव हो पाया है। इस नयी बिंब योजना में ताकत भी है और चाहत भी है; चुनने की, चुराने की, पकड़ने की और अपने प्रवाह में पाठकों को बहा ले जाने की। कुबेर की यही माथापच्ची उसकी प्रयोगधर्मिता है जो नवीन बिंबों का सृजन करती है और कथा-कंथली के वास्तविक चित्रण, प्रत्यक्ष कथन, परोक्ष कथन या अभिप्राय कथन के सदन का निर्माण करती है। कहीं पात्र बिंब बनते हैं तो कहीं बिंब ही पात्र बन जाते हैं। यही जादूगरी सोलहवें अध्याय तक पाठक को सम्मोहित करके बांधे रहती है।
000
यशवंत

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें