सोमवार, 20 जुलाई 2015

व्यंग्य

रचनात्मक भ्रष्टाचार


एक श्रद्धेय जी हैं।

लोगों का मानना है कि श्रद्धेय जी अनेकमुखी प्रतिभा के धनी हैं। राजनीति, युद्धनीति, धर्मनीति, समाजनीति, अर्थनीति, खेलनीति, शिक्षानीति, दीक्षानीति, जुगाड़नीति, सुधारनीति सहित समस्त नीतियों; चिकित्सा, विज्ञान, अंतरिक्ष, ज्योतिष सहित समस्त शास्त्रों; हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख सहित समस्त धर्मों; चारों वेदों सहित सभी धर्मशास्त्रों; साहित्य, संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला सहित समस्त कलाओं और उन समस्त विद्याओं के, जिनका उल्लेख मेरी अज्ञानता की वजह से यहाँ नहीं हो पाया है, के वे ज्ञाता हैं। मेधा के शिखर पर विराजित प्रखर ज्ञान प्रदाता हैं।

श्रद्धेय जी की विलक्षण मेधा ने विश्व को ’बैंकशास्त्र’ नामक एक नया शास्त्र दिया है। उनके अनुसार इस शास्त्र में - ’’बैंकों को मानवसमाज का सर्वोच्च नियंता सिद्ध करते हुए, बैंकिंग प्रणाली और मानव-जीवन के बीच के अंतरसंबंधों को सार्वभौमिक परिप्रेक्ष्य में नितांत मौलिक ढंग से परिभाषित और प्रस्तुत किया गया है। इसमें दी गई समस्त स्थापनाएँ नितांत मौलिक और क्रांतिकारी हैं।’’ 

श्रद्धेय जी कहते हैं - ’’आज बैंको की वजह से समाज का हर एंगल करप्ट हो चुका है। बैंक्स आर द अल्टीमेट सोर्सेज आॅफ आल टाईप आफ द करपशन्स। पोलिटिकल करप्शन, शोसल करप्शन, रिलीजियस करप्शन, आॅफिसियल करप्शन, नाॅन-आॅफिशियल करप्शन, फाइनेन्शियल करप्शन, फाइल करप्शन, प्रोफाइल करप्शन, हाई प्रोफाइल करप्शन, काॅमर्सियल करप्शन, कारपोरेट करप्शन, कोआपरेट करप्शन, इंडिविजुअल करप्शन, इण्डस्ट्रियल करपश्न, इनवायरेनमेंटल करप्शन, इन्फरमेशनल करप्शन, कम्युनिकेशनल करप्शन, इंटलेक्चुअल करप्शन, नान-इंटलेक्चुअल करप्शन, सेक्चुअल करप्शन, विजुअल एण्ड नान विजुअल करप्शन्ंस आदि सब बैंको की ही देन हैं।’’

इतने सारे करप्शन के नामों की सूची सुनकर बेहोश न होने वाला अहोभागी होगा।

श्रद्धेय जी को पूर्ण विश्वास है कि - ’उनके इस ग्रेट क्रिएशन, महान आविष्कार ’बैंकशास्त्र’ को दुनिया एक न एक दिन अवश्य रिकग्नाइज करेगी, एप्रिसियेट करेगी। इस महान रचना पर एक न एक दिन उन्हें नोबल प्राईज जरूर मिलेगा।’ 

फिलहाल अभी उनका यह ग्रेट क्रिएशन, पाण्डुलिपि स्तर से आगे नहीं सरक पाया है। मुझे पता चला है कि बैंकों के साथ श्रद्धेय जी की रिश्तेदारी बड़ी पुरानी और दुखदायी है। इस निर्मम ने कर्ज वसूल करने के लिए उनकी सारी संपत्तियाँ नीलाम करवा दी है। बेचारे को सड़कों की खाक छानने के लिए मजबूर कर दिया है। मुझे तो श्रद्धेय जी का यह ग्रेट क्रिएशन इसी की प्रतिक्रिया जान पड़ती है। श्रद्धेय जी जब भी मिलते हैं, जिस किसी से मिलते हैं, बैंकों द्वारा उत्पन्न भ्रष्टाचारों की पूर्व वर्णित सूची का वर्णन जरूर करने लगते हैं।

श्रद्धेय जी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वे सदा अंग्रेजी में ही हमला करते हैं। श्रद्धेय जी के अनुसार इसकी दो वजहें हैं - पहला, अंग्रेजी के आयुध अपराजेय होते हैं। दूसरा, वर्तमान पीढ़ी उन्हें अपढ़-गँवार न समझ बैठे, इस संभावना का उन्मूलन करने में यही सबसे अधिक कारगर हथियार है। श्रद्धेय जी को देखकर मुझे एक कबीरपंथी साधु की याद आ जाती है। प्रवचन के दौरान श्रोता समूह में, उनकी समझ के अनुसार, जब भी कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति दिखाई देता है, अंग्रेजी के दो-चार सुनहरे वाक्य वे जबरन घसीट देते हैं। ये वाक्य जरूर उनके गुरू के अंतिम उपदेश होंगे। उनके इन दो-चार सुनहरे वाक्यों के किसी भी शब्द को आज तक मैं समझ नहीं सका हूँ। वैसे भी उपदेश मुझे समझ में आते ही कहाँ हैं?

श्रद्धेय जी बड़े अध्ययनशील व्यक्ति हैं। अब तक वे बाईस हजार से अधिक पुस्तकें पढ़ चुके हैं। (मेरे अल्प गणितीय ज्ञान के अनुसार यह संख्या श्रद्धेय जी के जन्मदिन से अब तक औसत रूप से प्रतिदिन एक किताब बैठता है।) प्रमाण के तौर पर; कौन सी पुस्तक किस तारीख को पढ़ी गई, किस समय पढ़ी गई, दिन में पढ़ी गई या रात में, घर के अंदर पढ़ी गई या घर के बाहर, आदि विवरणों सहित पुस्तक के लेखक-प्रकाशक-मूल्य आदि का उनके पास लिखित विवरण मौजूद है। उनके अनुसार, ’यह विवरण एक अमूल्य दस्तावेज है।’ 
समय-समय पर वे अपने इस अमूल्य दस्तावेज की प्रदर्शनी भी लगाते रहते हैं। एक दिन वे सुबह मेरे पास से दस किताबें ले गये थे। शाम को वे लौटाने पहुँच गये। मैंने पूछा - ’’इतनी जल्दी पढ़ लिये?’’

उन्होंने कहा - ’’हाँ, हाँ।

’’कैसे?’’

’’फ्लाईंग वीव से।’’

अंग्रेजी मेरी जन्मजात कमजोरी है। उनके फ्लाईंग वीव को मैं समझ नहीं पाया। मेरी मनोदशा को भांपते हुए उन्होंने बेचारी हिन्दी में इसका अनुवाद करते हुए कहा - ’’सरसरी निगाह से।’’

जवाब देते वक्त उनकी हिकारत भरी निगाहें मुझे लगातार अधमरा बना रही थी; जैसे कह रही हों - ’’साला मूर्ख! तुझे किताब पढ़ने की भी तमीज नहीं है। जरा सी अंग्रेजी भी नहीं जानता। चुल्लू भर पानी में डूबकर मर क्यों नहीं जाता।’’

मेरे मन में जिज्ञासा हुई; सरसरी निगाहों से तो देखा जाता है; पढ़ा कैसे जायेगा? परन्तु अपनी इस जिज्ञासा को प्रगट करने का परिणाम मैं जानता था।   एक प्रश्न पूछकर उनकी निगाहों में मैं दुनिया का सबसे बड़ा बेवकूफ सिद्ध हो चुका था; अब निहायत अपढ़-अज्ञानी सिद्ध होने के लिए मैं तैयार नहीं था। श्रद्धेय जी वाक्कला के प्रकाण्ड विद्वान हैं। दूसरों को चूँ करने की मोहलत वे कभी नहीं देते हैं। चुप रहना ही बेहतर समझा। परन्तु एक बात है। किताब लौटाने में श्रद्धेय जी लिंकन महोदय से भी दो कदम आगे हैं। जमाने वाले आज के इस जमाने में उनकी यह ईमानदारी अनुकरणीय भी है और पूजनीय भी।

अगली बार जब उन्होंने अपने अमूल्य दस्तावेजों की प्रदर्शनी लगाई तो मैंने देखा कि उन दस किताबों का पूरा विवरण बकायदा उसमें दर्ज है।
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एक दिन शाम ढले श्रद्धेय जी मेरे पास आये। उनके चेहरे पर उलझनों के सदाबहार जंगल की वीरानियाँ छाई हुई थी। दुनियादारी की उलझन भरी गलियों में कुछ देर इधर-उधर घूमने-भटकने के बाद लाइन में आते हुए उन्होंने पूछा - ’’मा’साब! नहीं चलना है क्या?’’

मुझे श्रद्धेय जी के शब्दों से दहशत होने लगती है। दिल थामते हुए मैंने  कहा - ’’कहाँ सर?’’

’’आपकोे पता नहीं? आज पेट्रिओटिक सौन्ग्स कंपीटीशन है।’’

’’पता तो है, पर ........।’’

’’आपको इनवीटेशन नही मिला क्या? ........ सोचा था आपके साथ मैं भी चला जाता।’’

’’सर! आपने सोचा तो ठीक था, पर .....  ।’’

’’अपने ही औरगेनाजेशन का प्रोग्राम है। कंपेयरिंग मुझे ही करना है। पर नहीं चलना है तो कोई बात नहीं, कैंसिल कर देते हैं।’’

’’यदि जाना जरूरी है तो जरूर चलेंगे सर, आदेश भर दीजिए।’’

’’नहीं, नहीं! अदेश नहीं। अगर आप इजी वे आॅफ गोइंग में चल सके तो ठीक है। वरना कोई बात नहीं, कैंसिल कर देते हैं।’’

मेरे सामने उस मुजरिम की स्थिति पैदा हो गई, जिसे ’क्या तुमने चोरी करना छोड़ दिया है?’ प्रश्न का उत्तर केवल हाँ या नहीं में देने कहा जाय। मैंने कहा - ’’चलने पर ही पता चलेगा सर, कि वे आॅफ गोइंग इजी होगा कि अनइजी होगा।’’

उन्होंने जोरदार ठहाका लगाया। कहा - ’’भेरी नाइस जोक।’’

श्रद्धेय जी रास्ते भर बैंकों द्वारा उत्पन्न भ्रष्टाचारों की पूर्व वर्णित सूची का वर्णन करते रहे और मैं तमाम समय इस सूची के वायुरोधी वातावरण में अकबकाता रहा। वहाँ पहुँचने पर ताजी हवा में सांस लेने का मौका मिल पाता इससे पहले ही उनके जान-पहचान वाला कोई मिल गया। उस सज्जन ने श्रद्धेय जी से कहा - ’’ओहो! श्रद्धेय जी आप भी पधारे हुए हैं?’’

श्रद्धेय जी ने उस सज्जन से मेरा परिचय कराते हुए कहा - ’’मैं तो नहीं आ रहा था, मा’साब ने काफी रिक्वेस्ट किया तो उनकी बात रखने के लिए उनके साथ चला आया।’’

मेरे मन ने कहा कि गटर के पानी में डुबा-डुबाकर इस दुष्ट श्रद्धेय जी की जान ले लूँ। परन्तु ’हो, हो .....’ करने के सिवा मैं और कुछ न कर सका।

मेरे लिए यह अनुभव नया नहीं है। श्रद्धेय जी की ही कोटि के मेरे दो परम श्रद्धेय और हैं - महान साहित्यकार शास्त्री जी और महान शिक्षाविद् श्री बलिहारी जी। मेरी इस तरह की गत बनाने में ये दोनों सिद्धहस्त हो चुके हैं।   मेरा मन हर बार कहता कि गटर के पानी में डुबा-डुबाकर इन दुष्टों की जान ले लूँ। परन्तु हर बार ’हो, हो .....’ करने के सिवा मैं इन दुष्टों का और कुछ भी नहीं कर पाता हूँ। इन श्रद्धेयजनों का यह कृत्य मुझे दुनिया का सबसे महान भ्रष्टाचार जान पड़ता है। श्रद्धेय जी ने बैंक भ्रष्टाचारों की जो सूची बनाई है वह इसके सामने एकदम तुच्छ जान पड़ता है। हमारे एक प्रतिभाशाली समीक्षक मित्र हैं, उन्होंने इसे और इस प्रकार के अन्य भ्रष्टाचारों को भावनात्मक भ्रष्टाचार नाम दिया हुआ है।

आज मेरे दिमाग में बस एक ही प्रश्न रह-रहकर कुलांचे मार रहा है कि श्रद्धेय जी कृत बैंक भ्रष्टाचारों की सूची में शामिल भ्रष्टाचारों को (जिसे सुनकर मुझे बेहोशी आने लगती है,) किस कोटि में रखा जाय? मुझे समीक्षक मित्र का स्मरण हो आया। हनुमान जी की तरह छलांग लगाकर मैं उनकी शरण में जा पहुँचा। पहुँचते ही कृतज्ञ-शिष्यभाव से यह प्रश्न मैंने समीक्षक महोदय के श्री चरणों में समर्पित कर दिया।

मित्र महोदय ने बड़े ही तार्किक ढंग से मुझे समझाते हुए कहा - ’’मित्र! आज देश के निर्माण में, समाज के निर्माण में, परिवार के निर्माण और व्यक्ति के निर्माण में इन भ्रष्टाचारों का महती योगदान है। जाहिर है, ये सब रचनात्मक भ्रष्टाचार हैं।’’
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Kuber
Mo. 9407685557
Dt. 20 July 2015

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