शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

व्यंग्य

कुत्तों के भूत


अपनी यह व्यथाकथा एक सत्संग स्थल पर मुझे एक अतिसज्जन और परम धार्मिक कुत्ते ने सुनई थी। कुकुआते-गरियाते हुए उसने जो कहानी सुनाई थी वह उन्हीं की जबानी इस प्रकार है - 

’बहुत दिनों बाद आज मेरी मुलाकात एक मनुष्य मित्र से हुई। उसके माथे पर रोली-चंदन का टीका लगा हुआ था। तमाम प्रारंभिक औपचारिकताओं के बाद मैंने पूछा - ’’कहो मित्र! कहाँ से आ रहे हो?’’

मित्र महोदय को शायद मेरे इसी प्रश्न की प्रतीक्षा थी। बिना समय गँवाये उसने कहा - ’’दरबार से आ रहा हूँ। और कहाँ से? कभी तुम भी चलना।’’

’’दिल्ली दरबार से?’’
मित्र ने सिर हिलाकर कहा, नहीं।
इसके पहले कि वे कुछ बता पाते, मैंने फिर पूछ लिया - ’’राम दरबार से?’’
अब की बार वे झल्लाये; लेकिन उसे मौका दिये बगैर मैंने फिर पूछ लिया - ’’मंत्री दरबार से?’’

अब तो मेरे कुत्तेपन से बुरी तरह झल्लाते हुए उसने कहा - ’’अरे साले, कुत्ता! कुछ सुनेगा भी? बाबाजी की दरबार से आ रहा हूँ। समझे? पहले भी नहीं बताया था तुझे? अब की बार तुझे भी ले जाऊँगा। बहुत भौकने लगा है।’’

’’कुत्ता हूँ, आदमी नहीं। मेरा भौकना कैसे बंद कर पायेंगे बाबाजी?’’
’’सब हो जाता है वहाँ, समझे? तेरा भौंकना भी बंद हो जायेगा।’’
’’मतलब, बाबाजी कुतों को आदमी बना देते हैं?’’

अब की बार मित्र महोदय ने गुर्राकर अपनी लात मेरी ओर उठाई; जैसे कह रहे हों - ’’लात पड़ेगी साले, कुत्ता।’’ 

हम कुत्तों को तो लात खाने की आदत ही होती है, बुरा क्या मानता? कहा - ’’मित्र! सदियाँ बीत गईं। सारे बाबा लोग यहाँ आदमी को जानवर बनाने में लगे हुए हैं। आपके बाबाजी दरबार लगाकर कृुत्तों को आदमी बना रहे हैं? बड़े पुण्य का काम कर रहंे हैं। अच्छी बात है। पर मित्र! मुझे तो अपना यह कुत्तापा ही अच्छा लगता है। हरगिज नहीं जाऊँगा मैं वहाँ। फिर, आजकल तो आदमी लोग कुत्ता बनने के लिए तरस रहे हैं। मैं क्यों आदमी बनूँ। आदमी बनकर जीना भी कोई जीना है, हाँ।’’

मित्र ने कहा - ’’अबे साले कुत्ता! मजाक बंद कर। बड़े पहुँचे हुए बाबा हैं वे। बड़ी भीड़ रहती है वहाँ। तुझे तो बांधकर ले जाऊँगा। समझे?’’

उसके समझाने से मेरी नासमझी और बढ़ती गई। मैंने नासमझी भरा एक और प्रश्न उसकी ओर उछाल दिया - ’’अच्छा! तो लोग कुत्तों को वहाँ बांधकर ले जाते हैं? ऐसे कितने कुत्ते जुटते होंगे वहाँ रोजाना?’’

मित्र ने धमकाते हुए कहा - ’’अबे चुप कर, नहीं तो लात पड़ेगी, समझे।’’ और फिर वे अपने बाबा का गौरवगान करने लगे - ’’सेठ धनीराम को ही देख लो, सड़क पर आ गया था, बाबा की कृपा से आज नगर सेठ बना बैठा है। बाबा की कृपा से कितनों की नौकरी लगी, कितनों की शादियाँ लगी। हारी-बीमारी, भूत-प्रेत और टोना-जादू के मारों की तो वहाँ मेला लगा रहता है। निःसंतानों को तो संतान की गारंटी है। जिद्दी से जिद्दी भूत भी बाबा की छाया पड़ते ही थरथर काँपने लगता है। मुझे ही देख लो। जुकाम जो था, पंद्रह दिन से छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा था। बड़ा जिद्दी था, छोड़ता भी कैसे? सब किया-कराया तो पड़ोस की उस डायन का था। बाबाजी ने हाथ लगाया और ठीक हो गया। सुबह से गया था। दोपहर बाद नंबर लगा। अब लौट रहा हूँ।’’

मैंने कहा - ’’वह डायन कहीं आपकी हूर जैसी वही पड़ोसन तो नहीं है, साल भर से आप जिसके पीछे पड़े हो?’’
मित्र ने फिर गुर्राया - ’’चुप, साले कुत्ता! तुम कुत्तों को तो सब कुत्ते ही नजर आते हैं। मैं क्यों उसके पीछे पड़ने लगा? पीछे तो वह पड़ी थी, मेरे। उसी  का यह नतीजा है। पर बात सही है। अब समझ में आ रहा है, उसी डायन का सब करा-धरा था। तू भी माजरा समझ जायेगा, जब तेरे को वहाँ बांधकर ले जाऊँगा, समझे?’’

मन ही मन मैंने कहा - माजरा तो मैं खूब समझता हूँ। सौ चूहे हजम करने वाले इस बिलार ने तो अब उस बेचारी पर ही सारा दोष मढ़ दिया है। पर मुझे मालूम है, उस पड़ोसन ने उस दिन इसकी क्या गत बनाई थी। मैंने तो उसी दिन समझ लिया था। इस बेचारी पर अब डायन का ठप्पा लगने से कोई नहीं रोक सकता। दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती। खैर! दुनियादारी पर आते हुए मैंने कहा - ’’मित्र! आप तो जानते ही हो, समाज में अपनी भी कुछ हैसियत है, वरना शहर के सबसे सभ्रान्त काॅलोनी में ऐसे ही अपनी जगह नहीं बनती? एस. डी. ओ, इंजीनियर, और न जाने कितने बड़े-बड़े साहब लोगों के बीच अपना अड्डा है। हम तो, इन्हीं साहब लोगों के तलवे चाँटते हैं और ऐश करते हैं। बाबा-वाबा से हमें क्या लेना-देना?’’
’’कुत्ते हो, तलवे तो चाँटोगे ही।’’

’’मित्र! तलवे चाँटने का मजा आप इन्सान लोग भला क्या जानों? मेम लोगों के तलुए तो और भी आनंददायी होते हैं। जिस दिन साहब लोग दौरे पर होते हैं, उस दिन तो अपने मजे ही मजे होते हैं। अब आपसे भी क्या छिपाना, पर किसी से कहना नहीं। उस दिन मेम लोगों के बेडरूम अपने लिए फ्री रहता है। मेम लोगों के मुलायम गद्दों में सोने का आनंद आप भला क्या जानोगे। और जब मेमें कभी मायके चली जाती हैं तो आपकी भाभी के भाग खुल जाते हैं। तब पता चलता है, हमसे बड़े और असली कुत्ते तो ये ही होते हैं। सच कहता हूँ, इस दुनिया में कुत्ता बनकर तलवे चाँटने में जो आनंद है, वह आदमी बनने में कहाँ? कुत्ता बनकर जीने का अपना ही आनंद है, मित्र।’’

मित्र महोदय का चेहरा अजीब तरह के मनोभावों से भर गया। उसके मन की जलन का धुआँ उनकी आँखों से निकलने लगा था। अपने इस मित्र को मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ। कुत्तों से भी गया-बीता है। उसके मनोभावों को भाँपते हुए मैंने कहा - ’’मित्र! मेरी बात मान, मैं तो कहता हूँ, आप भी एकाध दिन कुत्ता बनकर देख लो। दरबार लगाने वाले उस बाबा को भूल ही जाओगे।’’

मित्रजी भी अब शायद मेरे मनोभावों को समझने लगे थे। उस पर भारी न पड़ने लगूँ, इसलिए बात बदलते हुए उसने कहा - ’’अबे कुत्ता! आजकल तेरे अड्डे के पास तेरे जमात वालों की खूब भीड़ लगी रहती है, क्या बात है?’’

मैंने कहा - ’’मित्र! अब आपसे भी क्या छिपाना। याद है, पिछली बार भी आपने बाबा की बात बताई थी? तभी मैंने ठान लिया था कि मुझे भी बाबा बन जाना चाहिए। दरबार लगाना चाहिए। अपनी इस स्टेटस को भुनाने का इससे अच्छा मौका और कब मिलने वाला था? मैंने भी दरबार लगाना शुरू कर दिया है। आजकल मेरे अड्डे पर जो भीड़ आप देखते हो, सब मुसीबत के मारों की होती है। कोई बीमार होता है। पागल तो बहुत होते हैं। 

मित्र! क्या बताऊँ, सारे कुत्ते बेचारे आदमियों के भूत से ग्रसित होते हैं। आदमी बनने के चक्कर में पगला गये होते हैं। और सुन! आदमी के ये भूत बड़े जिद्दी होते हैं। छुड़ाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती ....।’’

मुझे बीच में ही टोकते-डपटते हुए मित्र ने कहा - ’’अरे साले कुत्ता! बस भी कर। कुत्तों को भी कभी भूत पकड़ते हैं? और वह भी आदमी के भूत?’’

मैंने कहा - ’’मित्र! इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है। जब आदमियों को कुत्तों के भूत पकड़ सकते हैं, तब कुत्तों को आदमियों के भूत क्यों नहीं पकड़ सकते? एक बात बताना तो मैं भूल ही रहा हूँ। हमारे यहाँ निःसंतानों का इलाज गारंटीपूर्वक किया जाता है। देखते नहीं हो, यहाँ से वहाँ तक, गलियों में खेल रहे बच्चों को। सब पर अपनी ही कंपनी के छाप पड़े हुए हैं।’’

मित्र महोदय को भी बाबा की कृपा से संतान-सुख मिला हुआ है। उसेे मेरी बातें चुभ गई होगी। मुझ पर लात जमाते हुए उसने कहा - ’’साले! बाबाओं को बदनाम करता है। कहता है, आदमियों को कुत्तों के भूत पकड़ते हैं। कुत्तों के भी कभी भूत होते हैं?’’

मित्र की लात खाकर मुझे बड़ी संतुष्टि मिली। मैंने कहा - ’’मित्र! ईश्वर करे, आदमी को आदमी के ही भूत पकड़े और सारे आदमी आदमी बन जायें। पर ऐसा होता नहीं है। सच मानों मित्र! आज के आदमी कुत्तों के भूत से ग्रस्त हैं। इसीलिए तो वे कुत्तों के समान व्यवहार कर रहे हैं। कुत्ता बनने की होड़ में लगे हुए हैं। रह गई कुत्तों के भूत की बात। आत्माएँ क्या अलग-अलग होती हैं? कुत्ते की आत्मा आदमी की आत्मा से भिन्न होती है क्या?’’
मेरी बातें सुनकर मित्र महोदय बौखला गये। जाते-जाते उसने मुझे मेरी माँ के साथ शारीरिक संबंध बनाने वाला आशीर्वचन कहा, लातों का उपहार दिया।

जाते-जाते उसके अंदर बैठे कुत्ते की भूत ने मेरी ओर देखा और एक जोरदार ठहाका लगाया।
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kuber
Mo 9407685557

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