रविवार, 27 दिसंबर 2015

समीक्षा

 समीक्षा
माइक्रो कविता और दसवाँ रंग
-  डाॅ. सुरेश कांत
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दोस्तो, शुभ दिवस|

क्या आप कुबेर को जानते हैं?

मैं यक्षराज कुबेर की बात नहीं कर रहा और न कवि, चित्रकार और दूरदर्शन के मशहूर प्रोड्यूसर स्व. कुबेर दत्त की बात कर रहा हूँ|

मैं युवा व्यंग्यकार कुबेर की बात कर रहा हूँ—ग्राम भोड़िया, डाकघर सिंघोला, जिला राजनांदगाँव—491441 (छतीसगढ़) के निवासी और वहीं आसपास के एक सरकारी स्कूल में व्याख्याता के रूप में कार्यरत कुबेर की| बेशक आपमें से ज्यादातर लोग उन्हें नहीं जानते होंगे|

जानेंगे भी कैसे? वे दिल्ली में जो नहीं रहते| वह दिल्ली, जिसने व्यंग्य-लेखकों को पुष्पित-पल्लवित-पुरस्कृत होने का मुंबई जैसी मायानगरी से भी ज्यादा मौका दिया| मुंबई अमिताभ जैसों को अमिताभ बच्चन बनने का मौका भले देती हो, पर यज्ञ शर्मा जैसा उद्भट और सतत लेखनरत व्यंग्यकार भी वहाँ नौसिखिये व्यंग्यकार की तरह गुमनाम मर गया| जबकि इधर दिल्ली में औसत दर्जे के व्यंग्यकार भी लिखने से ज्यादा दिखने के बल पर पहले धन्य और फिर मूर्धन्य होकर शीर्ष पर पहुंच गए तथा सारे इनामों-इकरामों पर हाथ साफ करते रहे| दिल्ली से बाहर का केवल वही व्यंग्यकार उभर सका, जिसने अपने ही शब्दों में इन्हें मैले की तरह ढोकर अपने चतुर, ज्ञानी होने का परिचय दिया और इनके जरिये भगीरथ की तरह दिल्ली को अपने यहाँ ले गया| ‘अहो रूपं अहो ध्वनि’ के इस निकृष्ट षड्यंत्र से अच्छा लिखने वाले हतोत्साहित हुए और आने वाली पीढ़ी के समक्ष गलत संदेश गया| परिणाम यह हुआ कि लिखने-पढने पर ध्यान देने के बजाय आगे बढ़ने के लिए उन्होंने भी अपने छोटे-मोटे मठ अलग बना लिए और वहां भी वही ऊँट की शादी में गधों के गीत गाने और उन गीतों में एक-दूसरे की प्रशंसा करने की परंपरा शुरू कर दी| अफसोस कि यह परंपरा पूरी निर्लज्जता से जारी है|

कुबेर का पहला व्यंग्य-संग्रह ‘माइक्रो कविता और दसवाँ रंग’ (प्रकाशक : अनुभव प्रकाशन, ई-28, लाजपतनगर, साहिबाबाद, गाजियाबाद—201005 (उत्तर प्रदेश), संस्करण : 2015, पृष्ठ : 160, मूल्य : रु.200) पढ़ने के बाद से मेरे मन में यह सवाल कौंधता रहा है कि दिल्ली की तुलना में छोटी जगह पर रहकर लिखने वाले व्यक्ति के लिए उसकी यह स्थिति किस कदर अभिशाप है!

छोटी-बड़ी 60 व्यंग्य-रचनाओं का यह संकलन काफी अच्छा है, जिसमें उन्होंने धर्म, राजनीति, साहित्य, समाज, अर्थव्यवस्था, भाषा आदि विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त कुरीतियों और विसंगतियों पर प्रहार किया है| इसमें चुनाव जीतने की 'योग्यता' रखने वाले उम्मीदवार हैं, सत्ता में पहुँचाने वाले सिद्धांत और उन्हें लेकर होने वाली लड़ाई है, दाँत निपोरने को कला का दर्जा प्रदान करते कलाकार हैं, पेट में भी दाँत रखने वाले अवतारी पुरुष हैं, पूंछ के ऊपर से बिंदी हटाकर पूछ विकसित करने के तरीके हैं, धर्मनिरपेक्षता की रोटी खाते लोग हैं, भ्रष्टाचार का अवलेह पाक है, पड़ोसी की भूमि पर अतिक्रमण करने के लिए विशिष्ट बनने की प्रक्रिया है और माइक्रो कविता और दसवाँ रस तो है ही| हरिशंकर परसाई की प्रसिद्ध व्यंग्य-रचना ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ जैसी एक व्यंग्य-रचना ‘मास्टर चोखे लाल भिड़ाऊ चाँद पर’ भी इसमें है, जिसमें चाँद पर शिक्षा-व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए वहाँ की सरकार के अनुरोध पर आर्यावर्त सरकार द्वारा एक कथित शिक्षाविद को भेजने पर वहाँ फैल जाने वाली अराजकता का वैसा ही जिक्र है।

कुबेर ने पात्रों के सांकेतिक नाम रखकर उनसे व्यंग्य पैदा करने की पुरानी शैली का जमकर उपयोग किया है। तिकड़म जी भाई, दलाल जी भाई, पीटो सिंह, जनता प्रसाद भारतीय उर्फ जेपीबी, चोखेलाल भिड़ाऊ जैसे पात्र अपनी विशेषताएँ खुद बताते हैं| ये नाम अयथार्थ होते हुए भी पाठक को आकर्षित कर लेते हैं| विसंगतियों पर उनकी अच्छी पकड़ है और उन्हें उजागर करने की ललक भी। कुछ कमियाँ भी हैं, पर वे तो उनसे ज्यादा वरिष्ठ व्यंग्यकारों में हैं|

कुबेर को पढ़कर मुझे लगता है कि उन्हें छोटी जगह में रहने का नुकसान तो है, पर वे चाहें तो इसे अपने लाभ में बदल सकते हैं| इस अभिशाप को वे अपने लिए वरदान बना सकते हैं| उन्हें दिल्ली के औसत किंतु सुविधाप्राप्त व्यंग्यकारों से अधिक और बेहतर लिखते रहकर मुकाबले में बने रहना होगा और अंतत: यही उनका संबल बनेगा, यही उन्हें आगे ले जाएगा| मेरी शुभकामनाएँ कुबेर जी और उन जैसे हर संघर्षरत व्यंग्यकार के साथ हैं।

डाॅ. सुरेश कांत 7 एच हिमालय लिजेंड न्याय खण्ड इंदिरा पुरम गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश201014

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