मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

आलेख

जनसामान्य के हितों के विरुद्ध जाने वाले गीता के  श्लोक की आलोचना विवेकानंद ही कर सकते हैं।

हंस, अक्टूबर 2015 में सुधा चैधरी का लेख ’विवेकानंद की विरासत और मानव स्वात्रंत्य का सवाल’ का पहला भाग छपा है। (इस लेख का दूसरा भाग हंस, नचंबर 2015 में छपा है।) लेख में स्वामी विवेकानंद के प्रगतिशील विचारों का संदर्भ देते हुए प्रश्न उपस्थित किया गया है कि प्रगतिशील विचारों के बावजूद स्वामी विवेकानंद को भारतीय कम्युनिस्टों ने कोई महत्व नहीं दिया और यही कारण है कि वे दक्षिणपंथियों के हाथों में चले गये। लेख में भारत में माक्र्सवाद की विफलता के कारण भी स्पष्ट किये गये हैं। लेख में प्रस्तुत स्वामी विवेकानंद के विचारों के कुछ अंश इस प्रकार हैं - 

’’.... सभी प्राचीन राष्ट्रों में समाज को निर्देशित करने वाली श्रेष्ठ शक्ति, इनके इतिहास के प्रथम काल में ब्राह्मणों या पुरोहितों के हाथ में थी। .... दूसरे वर्गों के साथ संघर्षरत यह ’’अपने उच्च वर्ग की स्थिति से नरक में निम्न रसातल को घसीट लाया गया।’’ ..... सैनिकों (क्षत्रियों) का शासन जिसने पुरोहित के प्रभुत्व का स्थान लिया, निरंकुश व अत्याचारी था ...। व्यापारियों (वैश्यों) का शासन, जो बाद में आया, का यह लाभ था कि हर जगह घूमते हुए उन्होंने पुरोहितों व क्षत्रियों के के शासन के दौरान एकत्रित ज्ञान का  प्रसारण किया। .... परंतु वैश्यों की प्रभुता अब समाप्त हो गई है। भविष्य में शूद्रों की प्रभुता आनी चाहिए। इसके अंतर्गत भौतिक मूल्यों का सही वितरण प्राप्त होगा, समाज के सभी सदस्यों के अधिकारों में संपत्ति पर स्वामित्व पर समानता स्थापित होगी तथा जाति भेद का उन्मूलन हो जायेगा।’

........ विवेकानंद ने न केवल शिक्षा पर द्विज के विशेषाधिकार का युक्तियुक्त खंडन किया है जो जन को शिक्षा से वंचित करते हैं। विवेकानंद गीता के उस श्लोक की निंदा करते हैं जहाँ यह कहा गया है कि - ’’विषयासक्त अज्ञानी मनुष्यों को ज्ञान की शिक्षा देकर उनमें भ्रम न उत्पन्न करना चाहिए, बुद्धिमान मनुष्य को स्वयं कर्म में लगे रहकर अज्ञानी लोगों को सभी कार्यों में लगाये रखना चाहिए।’’ इस संबंध में विवेकानंद ने कहा - पुरातन के ऋषियों के प्रति मेरी असीम श्रद्धा होते हुए भी मैं उनकी लोक शिक्षा पद्धति की आलोचना किये बगैर नहीं रह सकता।’

जनसामान्य के हितों के विरुद्ध जाने वाले गीता के इस श्लोक की आलोचना करने और उसे नकारने की हिम्मत विवेकानंद के अलावा शायद और किसी ने नहीं किया है।
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