शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

व्यंग्य

ये क्या कम  है

मरहा राम अपने साथियों के साथ बीते दिनों की नैतिकता की डीगें मार रहा था। कह रहा था - ’’भाइयों! अब तो अंधेर ही अंधेर है - जिधर भी देख लो। भ्रष्टाचार देश को खोखला किये जा रहा है। ये देखो, एक सौ साल पुरानी  सरकारी इमारत। भूरी चींटी के घुसने लायक भी कोई दरार हो इसमें, तो बता दे ढूँढकर, माई का लाल कोई हो तो। मजबूती से अब भी कैसे खड़ा है।’’

मरहा राम की इन ढींगों को पास ही बैठा मंत्री सुन रहा था। जब रहा नहीं गया तो मरहा राम को उसने ललकारा - ’’ओये! मरहा राम के बच्चे। और ये बिल्डिंग तुझे नहीं दिखता बे। एक ... साल्..से जादा हो गया है कि नहीं। खड़ा है कि नहीं अब भी? साला! बात करता है।’’

’एक ... साल्..से’, पर जिस तरीके से जोर देकर बोला गया था, उसी का असर होगा; बात मरहा राम के मर्म को छू गई। उसने हाथ जोड़कर कहा - ’हुजूर! ठीक कहते हैं आप, वरना यहाँ कई इमारतें तो बनते ही गायब हो जाती है।’’
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