मंगलवार, 27 सितंबर 2016

'वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परीक्षा एवं मूल्यांकन: सीमाएँ और चुनौतियाँ’ विषय पर छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल में 23 एवं 24 सितंबर 2016 को संगोष्ठी का आयेजन किया गया। संगोष्ठी में सहभागिता करते हुए मेरे द्वारा आलेख वाचन किया गया जो इस प्रकार है -


आज के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा लेना परीक्षा देने से अधिक चुनौतीपूर्ण काम है क्योंकि परीक्षार्थी अधिकार संपन्न हैं और परीक्षक सीमाओं से बंधा हुआ तथा चुनौतियों से घिरा हुआ है। छत्तीसगढ़ माध्य. शिक्षा मंडल जैसी संविधानिक संस्थाओं के लिए यह चुनौती तब और बढ़ जाती है जब यह राज्य की जनआकाक्षाओं के साथ जुड़ी हो, राज्य के लाखों बच्चों के भविष्य के साथ जुड़ी हो और अनेक चुनौतियों के साथ सीमाएँ भी तय कर दी गई हों क्योंकि व्यवस्था का अंग होने के नाते यह हमारी ही जिम्मेदारी है और हम अपनी जवाबदेही से इन्कार नहीं कर सकते। तमाम सीमाओं में बंधकर भी परीक्षा और मूल्यांकन से संबंधित सभी तरह की चुनौतियों को हमें स्वीकार करना ही होगा। सीमाएँ और चुनौतियाँ हमारे लिए परीक्षा की तरह हैं जो हमारी क्षमताओं, योग्यताओं और अनुभवों  का मूल्यांकन करती है। सफलता के अलाव हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है।
एक जनप्रचलित कहानी जो इस चर्चा के परिप्रेक्ष्य में मुझे प्रासंगिक लगती है, इस प्रकार है - 

अकबर ने बीरबल की चतुराई और बुद्धि को जाँचने के लिए उसे एक चुनौती दिया। एक बकरे को छः महीने तक पालना है। चारा-पानी में कटौती नहीं की जा सकती। छः महीने बाद बकरे को लौटाना होगा। परंतु शर्त यह है कि बकरे का वजन छः महीने पूर्व के वजन से जरा भी अधिक नहीं होना चाहिए। बीरबल ने चुनौती को सहर्ष स्वीकार किया और बादशाह की शर्तों को पूरा कर दिखाया। कहानीकार कहता है - इसके लिए बीरबल ने दो पृथक कक्षोंवाला बड़ा सा एक पिंजरा बनवाया। एक में उन्होंने बकरे को रखा और दूसरे में एक शेर को।

बीरबल का आत्मविश्वास, उसकी चतुराई और उसकी बुद्धि जब तक हमारे पास नहीं होगी, आज के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा एवं मूल्यांकन की सीमाओं और चुनौतियों से हम नहीं निपट सकते। 
 Dr. S.K. Pandey
The V.C., Pt. R.S.U.Raipur
As Chief Guest
Kuber Singh Sahu

सीमाएँ जो हमें बाँधती है चार तरह की हैं -
1. पाठ्यक्रम,
2. ब्लूपिंट,
3. पाठयक्रम में विषयवस्तु के साथ संलग्न अभ्यास के प्रश्न तथा
4. परीक्षा संचालन हेतु बनाये गये विभिन्न नियम व निर्देश।
ये हमारे द्वारा ही तय किये गये मानक हैं।
चुनौतियाँ अनेक हैं परन्तु दो प्रमुख चुनौतियों की मैं चर्चा करना चाहूँगा -

1. समय सीमा में गुणवत्तापूर्ण, निष्पक्ष, निर्विवाद तथा पारदर्शी, तरीके से परीक्षाएँ आयोजित करना, उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्याकन करना तथा परिणामों की घोषणा करना।

2. बेहतर परीक्षा परिणामों का नैतिक दबाव। बेहतर परीक्षा परिणामों के लिए नैतिक रूप से शिक्षा व्यवस्था, शिक्षक, छात्र तथा पालक; सभी समान रूप से जिम्मेदार हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल भी शिक्षा व्यवस्था के एक अंग के रूप में स्थापित संस्था है इसलिए अपने हिस्से की जिम्मेदारियाँ उसे उठाना ही पड़ेगा।
उपर्युक्त सीमाओं और चुनौतियों पर कल के दोनों सत्रों में विद्वान वक्ताओं तथा हमारे अनुभवी मित्रों के द्वारा विस्तारपूर्वक चर्चा की गई। प्रथम सत्र के मुख्यअतिथि आदरणीय प्रो. एस के पाण्डेय, कुलपति, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर ने इस विषय पर अपने संक्षिप्त पर सारगर्भित उद्बोधन में हमें कुछ मूल्यवान व महत्वपूर्ण सुझाव दिया है जो इस प्रकार है -

1. परीक्षा के लिए ऐसा वातावरण बनाया जाय जो छात्रों के मन से परीक्षा के भय को दूर करने में सहायक हो। बच्चे परीक्षा और उसकी चुनौतियों को भी अध्यापन कार्य की तरह सहज रूप में सवीकार कर सके। बच्चों में इस तरह की क्षमताओं का विकास और आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए हमें प्रयास करने होंगे।

2. हमारे द्वारा ली जानेवाली परीक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में मूल अंतर है। प्रतियोगी परीक्षाएँ यद्यपि चयन परीक्षाएँ कही जाती हैं, परन्तु उसकी प्रकृति छाँटनेवाली या रिजेक्ट करनेवाली होती है। कुछ ही अभ्यर्थी उत्तीर्ण हो पाते हैं, अधिकांश अनुत्तीर्ण अर्थात रिजेक्ट कर दिये जाते हैं। हमारी परीक्षा की प्रवृत्ति अनुत्तीर्ण करने की नहीं बल्कि उत्तीर्ण करने की होती है। हमारा उद्देश्य किसी बच्चे को छाँटकर उसे शि़क्षा से दूर करना या वंचित करना नहीं हो सकता। 

विद्वान साथी श्री दीपक सिंह ठाकुर, प्राचार्य शा. उ. मा. शाला टेड़ेसरा तथा विषय संयोजक हिन्दी द्वारा अपने लिखित वक्तव्य में चर्चा के लिए निर्धारित विषय ’आज के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा एवं मूल्यांकन: सीमाएँ एवं चुनौतियाँ’ के लगभग सभी पक्षों को स्पर्श करते हुए इस संबंध में; अपने अध्यापन तकनीक में शिक्षकों को व्यावसायिक वृत्ति अपनाये जाने तथा बोर्ड को समय-समय पर ब्लूप्रिंट में संशोधन करने जैसे कुछ और भी महत्वपूर्ण सुझाव दिये गये। इन सुझावों को सदन का समर्थन भी प्रप्त हुआ। श्री ठाकुर को इसके लिए बधाई दिया जाना चाहिए।

डाॅ. फ्रांसिस मैडम अपने पावर प्वाईट प्रेजेन्टेशन में चर्चा के लिए निर्धारित विषय से दूर जाती हुई प्रतीत हुई। इसके अलावा अन्य सभी साथियों के द्वारा अपने वक्तव्य में ’प्रश्नों की मौलिकता’ विषय पर विचार व्यक्त करते हुए लगभग एक ही बात को दुहराया गया कि भाषा अथवा वाक्य संरचना में परिवर्तन करके किसी भी प्रचलित प्रश्न को मौलिक रूप दिया जा सकता है। यह सुझाव उपयोगी कम और हास्यास्पद अधिक लगी। यह एक आम और प्रचलित तकनीक है। बच्चों में इस तकनीक के लिए एक जुमला प्रचलित है - प्रश्न को घुमा-फिराकर पूछा गया है।    संयोजकों-आयोजको द्वारा शायद वक्ताओं को चितन हेतु पर्याप्त समय नहीं दिया गया होगा अथवा उन्हें उनके लिए निर्घारित विषय की अवधारण स्पष्ट नहीं की गई होगी। 

फिर भी इस दो दिवसीय संगोष्ठी के आयोजन के लिए विद्योचत विभाग बधाई का पात्र है क्योंकि राज्य स्तर पर इस तरह का आयोजन होना ही अपने आप में एक महत्वपूर्ण और बड़ी घटना है। एक सार्थक पहल है।
धन्यवाद।
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दिनांक - 24. 09. 2016

कुबेर सिंह साहू
व्याखाता
शास. उ. मा. शाला
कन्हारपुरी, राजनांदगाँव
मो. 9407685557

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