गुरुवार, 8 सितंबर 2016

कविता

वे बँटना नहीं जानते


समय में, सहूलियत में,
कल्पना और असलियत में
सब जगह, सब में,
लोग अपना हिस्सा तलाशते हैं।

समय को, समाज को
कल को, अब और आज को
कल्पनाओं और हकीकतों को
ईश्वर और अकीदतों को
संपत्ति की तरह हिस्सों में
तोड़कर-काँटकर बाँटते हैं।

हिस्सा बहुरूपिया होता है
अनेक-अनेक संभावित रूपों में
छद्म सुखों और सार्वत्रिक दुखों में
जैसे - स्वार्थ और सुविधा,
ये बहुप्रयोगित, बहुप्रचलित रूप होते हैं
हमारी पारंपरिक प्रतिष्ठा और समृद्धि के -
सर्वाधिक स्वाभाविक और अनुरूप होते हैं।

जिनको हम बाँटना चाहते हैं, वे बँटना जानते हैं?
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