शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

कविता

बस


बस का अर्थ जानते हो?
तो बताओ -

किसी ने कहा -
’’वह, जो हमें पहुँचाती है
हमारे गंतव्य तक
पीं-पों, पीं-पों, घर्र-घर्र करती
(और बीच में जो कभी धपोड़ भी देती है।)’’

किसी ने कहा -
’’वह, जो हमारी सामथ्र्य है
और जिसके चलते
हम बहुतकुछ कर लेते हैं
बहुतकुछ कर लेने की चाह रखते है।’’

किसी ने कहा -
’’बस! माने पूर्ण विराम
जो लगा हुआ है बहुत दिनों से
हमारे विचारों पर,
लगा दी गई है जिसे हमारी अभिव्यक्ति पर
हमारे अधिकारों पर
गंतव्य तक पहुँचने के पहले ही
बहुतकुछ कर लेने के पहले ही।’’

किसी ने ऐसा भी कहा -
’’बस! माने वह भाव
जो ताकत और अधिकार बन हुआ है सदियों से
सवर्णों, शोषकों, सामंतों और दबंगों का
और जो बेबसी और किस्मत बना हुआ
दलितों, शोषितों, गुलामों और वंचितों का।’’

अंत में एक आवाज और आई -
’’बस का अर्थ ऐसे समझ में नहीं आयेगी
इसके लिए कुछ अलग करना होगा
सही देखने के लिए, इसे उलटना होगा
और इस तरह ’बस’ को ’सब’ बनाना होगा
ताकि सबको उनका सभी प्राप्य मिल सके
सब, सबमें, सबको, स्वयं को पा सके।’’
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