गुरुवार, 12 सितंबर 2013

पता-ठिकाना

राजा महलों में रहता है
नेता, अफसर, मंत्री बंगलों में रहते हैं
लोग घरों में
और गरीब बस्तियों में रहते हैं
गटर और गंदे नालों के किनारे,
झोपडपट्टियों में-
तपते-ंिसंकते अभावों की भट्ठियों में।

आदमी का पता मैं नहीं जानता,
मिला नहीं कभी उससे,
कि इसीलिये नहीं पहचानता।

मिला तो ईश्वर से भी नहीं हूॅ,
पर लोग कहते हैं-
’’वह रहता है आसमान की उँंचाईयों में कहीं;
स्वर्ग नामक स्थान पर।’’

आदमी का पता कोई नहीं बताता;
आदमी के विषय में कोई अभिलेख
कोई शिलालेख,
कोई ग्रंथ, कोइ पंथ
कोई भी जानकारी शायद उपलब्ध नहीं है आज
पृथ्वी नामक इस ग्रह पर आज।
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बचपन


जगह-जगह बिखरे कचरे के ढेर में
भविष्य तलाशता बचपन
उलझा जीवन के सवालों के फेर में।

उसकी दुनिया में
न रायपुर है, न दिल्ली है,
न वाशिंगटन , न हेग है
सिर्फ वह है, कचरे का ढेर है
और कचरे के ढेर में पलता
उसका बीते भर का पेट है।

तन पर मैल की परतें हैं
और परतों की मोटाई बढाता धूल है
आंखें उनकी,
जैसे शून्य में खिला
इस ब्रह्मांड का कोई अनोखा फूल है
जिसकी महक और रंग
अब तक अचिन्हा है
उपमा और अलंकार के बिना है।

कचरे ने सिरजा उसे
अब वह कचरे को सिरज रहा है
दुनिया उसे कचरे की तरह
और दुनिया को वह कचरे की तरह निरख रहा है।
गली में कचरा, घर में कचरा
बाजार में कचरा, दफ्तर में कचरा
सड़क और सदन में भी कचरा है
पता नहीं किसका, कैसा यह लफड़ा है।
पीठ पर सवार टाट का यह थैला
थैला नहीं बेताल है
गूढ जिसका हर सवाल है
जिससे सदियों से वह अकेला जूझ रहा है
अब आपको भी जूझना होगा
दुनिया को कचरा होने से बचाने की लड़ाई में
अब आपको भी कूदना होगा।

दुनिया ने छीन कर उसकी खुशियां कचरे में फेंक दी है
एक-एक कर टुकड़ों में,किश्तों में
जिसे वह चुन रहा है,
सपनों की दुनिया नई बुन रहा है
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खाद्य-श्रृंखला

ईश्वर सबको देता है
सब उन्हीं का दिया खाते हैं।

मनुष्य का जूठा कुत्ते खाते हैं,
उससे बचा सूअर खाते हैं।

कुछ नंगे-अधनंगे बच्चों को भी देखा है मैंने
जूठे पत्तनों को चाटते हुए,
कुत्तों और सूअरों से संघर्ष करते हुए।

सारे ग्रंथ और सारे पंथ भी यही कहते हैं
ईश्वर सबको देता है,
सब उन्हीं का दिया खाते हंै।
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