मंगलवार, 10 सितंबर 2013

अप्राप्य



पहले बहुत सारी चीजें
अपने समस्त वैभव
अपनी समस्त निश्छलता और समस्त औदार्यता के साथ
आस पास
बहुत ही निकट
आंगन में, पड़ोस में, मंोहल्ले के किसी भी मोड़ पर
पगडंडियो और सड़कों के किनारे
हर मौसम में
सहज प्राप्य थी
जैसे,
गर्मियों का मौसम शुरू होते ही
बौराए, अलमस्त आम के पेड़
अपने ही नन्हंे अंबियों को
अपने ही हाथों
अंजुलि भर-भर कर परोसते हुए
रस-पगे मन से
मनुहार करते, आमंत्रित करते हुए।

इसी तरह
पावस की पहली बूंदों के साथ
पश्चिमी क्षितिज पर उमड़ आए
काले घने मेघों को चुनौती देते हुए
काले-काले जामुन
ठंड के मौसम में बेर, बिही और शरीफा।

और इसी तरह
ताउ-ताई, काका-काकी, भैया-भौजी, मित्रों-हमजोलियों
और परिचित-अपरिचितों का परिवार
स्नेह,दुलार और अपनापन
हर कहीं
गांव, गली, मोहल्ले में।

बचपन भी सहज प्राप्य था
बच्चों, बड़ों और बूढ़ों में हर कहीं।

अब दुर्लभ और अप्राप्य है।
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