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लोकसाहित्य में लोक जीवन की अभिव्यक्ति
एक बहु प्रचलित बोध कथा है -
एक प्रकाण्ड पण्डित था। शास्त्रार्थ में वह कभी किसी से पराजित नहीं होता था। अपनी पंडिताई पर उसे बड़ा अभिमान था। यात्रा के दौरान वह सदैव अपनी किताबों और पोथियों को साथ लेकर चलता था। एक बार वह नाव से नदी पार कर रहा था। उसने नाविक से पूछा - ’’क्या तुम वेद-शास्त्रों के बारे में जानते हो?’’ नाविक ने कहा कि नाव और नदिया के अलावा वह और कुछ नहीं जानता। पंडित ने उस नाविक को लंबा-चैड़ा उपदेश दिया और कहा कि तुम्हारा आधा जीवन तो व्यर्थ चला गया।
तभी मौसम ने अचानक अपना मिजाज बदला। आसमान पर काले-काले बादल घिर आए। बड़ी तेज आँधियाँ चलने लगी। नाव का संतुलन बिगड़ने से वह बुरी तरह डगमगा रही थी और वह किसी भी झण डूब सकती थी। नाव को डूबते देख नाविक ने पंडित जी से पूछा - ’’महात्मन्! क्या आप तैरना जानते हैं, नाव डूब रही है।’’ पंडित जी मृत्यु भय से कांप रहा था, बोल भी नहीं निकल रहे थे। मुश्किल से उसने कहा ’’नहीं।’’
नाविक ने कहा - ’’महात्मन! तब तो आपकी पूरी जिंदगी बेकार चली गई।’’
मित्रों! इस छोटी सी बोधकथा में प्रकृति और प्राणियों के बीच के अंतर्संबंधों का रहस्य उद्घाटित होता है। प्रकृति अपनी असीम शक्तियों के द्वारा प्राणियों को जन्म देती है, पालन करती है और अंत में उसका संहार भी करती है। जो प्राणी स्वयं को प्रकृति की विभिन्न शक्तियों के अनुकूल समर्थ बना पाता है, वही अपने अस्तित्व की रक्षा करने में सक्षम हो पाता है। डार्विन ने इसे समर्थ का जीवत्व कहा है।
एक और लोककथा है जो सरगुजा अंचल में कही-सुनी जाती है। वह इस प्रकार है -
वृक्ष के कोटर में पक्षी ने एक अंडा दिया। समय आने पर उसमें से चूजा निकला। मां दाना चुगने गई थी तभी उस चूजे पर एक भयंकर सांप की नजर पड़ गई। वह चूजे को खाने के लिये लपका। चूजे ने कहा - ’’हे नागराज! अभी तो मैं बहुत छोटा हूँ। मुझे खाकर आपको तृप्ति नहीं मिलेगी। कुछ दिनों बाद जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, तब आप मुझे खा लेना।’’ सांप को चूजे की बात जंच गई।
सांप रोज आता और उस चूजे को खाने के लिये लपकता। चूजा रोज इसी तरह अपनी जान बचाता। एक दिन सांप ने फिर कहा - ’’अब तुम बड़े हो चुके हो। आज तो मैं तुम्हें खाकर ही रहूँगा।’’ चूजे ने कहा - ’’तो खा लो न, मैं कहाँ मना कर रहा हूँ।’’ इतना कहते ही वह फुर्र से उड़ गया। सांप हाथ मलते रह गया।
मित्रों, यह लोककथा कोई मामूली कथा नहीं है। जिस किसी भी लोक ने इसे सृजित किया होगा, उसे जीवन और जगत् के बीच के अंतर्संबंधों का सहज-अनुभवजन्य परंतु विशद् ज्ञान रहा होगा।
मित्रों! जिन दो कहानियों का उल्लेख मैंने आभी किया है, उनके अभिप्रायों पर गौर कीजिये। ये दोनों कहानियाँ कहीं न कहीं प्रकृति और प्राणियों के बीच चलने वाले जीवन संघर्षाें को, कार्यव्यवहारों को रेखांकित करती हैं। जीवन संघर्ष में जीत सदैव सबल व समर्थ की होती है। प्रकृति और प्राणियों के बीच का संघर्ष शास्वत है। सृष्टि के विकास की यह एक अनिवार्य तात्विक व रचनात्मक प्रक्रिया है। इसी से सृष्टि विकसित होती है, सुंदर और समरस बनती है। इसी संघर्ष में विश्व की विषमता की पीड़ाओं से मुक्ति का रहस्य भी छिपा है। छायावाद के महाकवि जयशंकर प्रसाद ने इसी ओर इशारा करते हुए कहा है -
विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुःख-सुख, विकास का सत्य यही, भूमा का मधुमय दान।
(श्रद्धा सर्ग)
स्पर्धा में जो उत्तम ठहरे, वे रह जावें।
संसृति का कल्याण करें, शुभ मार्ग बतावें।
(संघर्ष सर्ग)
समरस थे, जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था।
चेतनता एक विलसती, आनंद अखंड घना था।।
(आनंद सर्ग )
संघर्ष का सीधा संबंध शक्ति से है। प्रथम प्रस्तुत बोधकथा के अभिप्राय पर जरा गौर करें। यहाँ पर प्रकृति के साथ संघर्षों के लिये तीन बातें जरूरी बताई गई हैं -
1. प्रकृति के कार्यव्यवहारों का ज्ञान,
2. जीवन का व्यवहारिक ज्ञान, और
3. शारीरिक रूप से शक्तिशाली होना।
दूसरी लोककथा के अभिप्रायों पर गौर करें तो निम्न तथ्य सामने आते हैं -
1. मुसीबत से डरकर नहीं, निर्भयता से उसका सामना करने पर ही उससे छुटकारा मिल सकती है।
2. अपने से सबल के साथ शरीर बल से नहीं बल्कि बुद्धिबल से लड़ना चाहिये।
3 परिस्थितियाँ अनुकूल होने की प्रतीक्षा करें।
4 जहाँ शारीरिक बल काम न आये वहाँ चतुराई बरतना अति आवश्यक है।
शास्त्रों में अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष, ये चार प्रकार के पुरुषार्थों का वर्णन है। अर्थ, धर्म और काम से गुजरे बिना क्या मोक्ष संभव है? यह शास्त्रों की स्थापनाएँ हैं, इस पर शास्त्रार्थ होते रहे हैं, आगे भी होते रहेंगे। लोक की भी अपनी स्थापनाएँ हैं। उपर्युक्त कथाओं में इन स्थापनाओं को देखा जा सकता है। जीवन संघर्ष के लिये तीन तरह की शक्तियों की आवश्यकता होती है - तन की शक्ति, मन की शक्ति, और बुद्धिबल (मानसिक शक्ति)।
इन कथाओं के आलोक में हम समस्त छत्तीसगढ़िया अपनी क्षमताओं पर गौर करें, आंकलन करें। फिर अपनी स्थितियों का आंकलन करें कि वर्तमान में हमारी स्थिति क्या है, और यदि ऐसा ही रहा तो भविष्य में हमारी क्या स्थिति होने वाली है?
हमारे छत्तीसगढ़ को प्रकृति ने विपुल प्राकृतिक संसाधनों से नवाजा है, फिर भी संपूर्ण हिन्दुस्तान में हमसे ज्यादा गरीब और कोई नहीं है। हम अमीर धरती के गरीब लोग कहे जाते हैं। हमारी संसाधनों का दोहन हम नहीं करते, उस पर हमारा अधिकार नहीं हैं। परंतु दिगर जगह से आकर यहाँ बसने वाला पाँच साल में ही कार और बंगलों का मालिक बन जाता है।
राजनीति में हमारे बीच के लोगों की हमेशा उपेक्षा की गई है।
राज्य सेवाओं की, शासकीय नौकरियों की, प्रतिस्पर्धा में हमारे बच्चे टिक नहीं पाते हैं क्योंकि उच्चशिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षाकेन्द्रों से अब तक हमें वंचित रखा गया है। हमारे बच्चों में भी डाॅक्टर, कलेक्टर, एस.पी. और मजिस्ट्रेट बनने की योग्यता है, पर वे नहीं बन पाते।
हम अपने बच्चों के लिये क्या कर रहे हैं? रामचरितमानस की प्रतियोगिताओं में उन्हें पेन और कापी पकड़ा कर, और इन मंचों के लिये बच्चों की मंडलियाँ बनाकर हम उनमें कौन सी सेस्कार विकसित कर रहे है? क्या इससे वे कलेक्टर और डाॅक्टर बनेंगे?
हमें, हमारी संस्कृति और हमारी भाषा को इस हद तक हेय समझा गया है कि हमारे अंदर आज केवल हीन भावनाएँ ही भरी हुई है, और स्वयं को छत्तीसगढ़िया कहलाने में अथवा छत्तीसगढ़ी बोलने में हम हीनता का अनुभव करते हैं।
मुझे स्वामी विवेकानंद के उपदेश याद आते है। एक अंग्रेज सज्जन गीता के उपदेशों और गूढ़ रहस्यों को समझने के लिये काफी दिनों से उसके पीछे पड़ा हुआ था। एक दिन स्वामी जी ने कहा कि वे आज फुटबाॅल के मैदान पर मिलें, वही पर चर्चा होगी। अंग्रेज सज्जन जब नियत समय पर फुटबाॅल के मैदान पर पहुँचा तो स्वामी जी पूरे मनोयोग से फुटबाॅल खेलने में व्यस्त थे। अंग्रेज सज्जन ने कहा, ये क्या कर रहे हैं आप? स्वामी जी ने कहा - गीता के रहस्यों को समझ रहा हूँ। आओ आप भी समझो।
मित्रों, ध्यान रहे, सफलता का कोई विकल्प नहीं होता। जीत जीत है, और हार हार है। दुनिया उगते हुए सूरज को प्रणाम करती है। धर्म आचरण का विषय है, शास्त्रों का नहीं। निर्णय हमें करना है कि हम अपनी ऊर्जा को अपने राजनीतिक हकों को प्राप्त करनें में लगायें, हमारे प्रदेश में ही हमारे बच्चों के लिये आई. आई. टी और आई. आई. एम. जैसी उच्चशिक्षा के संस्थान खुलवाने में लगायें, उसमें अपने बच्चों को दाखिले के योग्य बनने में लगायें या पूरे साल रामायण प्रतियोगिताएँ और इसी तरह की प्रतियोगिताओं को संपन्न करने में लगायंे।
धन्यवाद।
कुबेर
9407685558
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लोक-साहित्य में मिथक
कुबेर
’’लोक साहित्य में मिथक’’। यहाँ पर तीन शब्द हैं। - लोक, साहित्य और मिथक, जिनके बारे में उपस्थित विद्वान विस्तार से हमें बताएँगे। वैसे भी, सुरगी वालों के लिए ये शब्द अपरिचित नहीं हैं। मिथक से तो सुरगी का सदियों पुराना रिस्ता है। नौ लाख ओड़िया और नौ लाख ओड़निनों के द्वारा एक ही रात में, इस गाँव में छः आगर छः कोरी तालाब खोदे जाने की कहानी यहाँ भला कौन नहीं जानता? विषय से संबंधित कुछ बातंे, जैसा मैं सोचता हूँ, संक्षेप में आपके समक्ष रखना चाहूँगा।
लोक का क्या अर्थ है?
यदि समष्टि में हम अपने समाज को देखें तो लगभग दो तिहाई लोग गाँवों में बसते है।, केवल एक तिहाई आबादी शहरों और कस्बों में निवास करती है। गाँवों में निवास करने वाले, और कुछ अंशों में शहरों में भी निवास करने वाले वे लोग जो अपढ़ या निक्षर होते हैं, परंपरागत व्यवसाय करने वाले मेहनतकश होते हैं और आधुनिक सभ्यता तथा आधुनिक सभ्यताजन्य मनोविकारों से अछूते होते हैं, लोक कहे जाते हैं। इसके विपरीत शहरों में निवास करने वाले पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी लोग जो आधुनिक सभ्यता के संपर्क में जीते हैं, शिष्ट वर्ग कहे जाते हैं।
यहाँ पर मैं स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि यद्यपि लोक पढ़ा-लिखा नहीं होता है, पर वह अज्ञानी या मूर्ख कदापि नहीं होता। लोक और शिष्ट का अपना-अपना ज्ञान-क्षेत्र होता है। लोक का ज्ञान उसके अनुभवों और परंपराओं से आता है जबकि शिष्ट का ज्ञान किताबी ज्ञान ही अधिक होता है। एक महापंडित और नाविक की कहानी आप सभी जानते है। नदी पार करते समय अचानक तूफान और फिर मूसलाधार बारिश होने से नाव पलट जाती है। नाविक तैर कर अपनी जान बचा लेता है, परन्तु महापंडित बाढ में बहकर मर जाता है क्योंकि उसे तैरना नहीं आता था। वह उस नाविक का अनुभवजन्य ज्ञान ही था जिसने उसकी जान बचाई।
एक दूसरी कहानी है - एक किसान गाँव के पुरोहित को नदी में नहाते वक्त गले तक पानी में खड़े होकर ध्यान लगाते रोज देखा करता था। उत्सुकतावश एक दिन वह पुरोहित से पूछ बैठा कि ऐसा करने से क्या होता है? पुरोहित ने बड़े ही उपेक्षापूर्वक ढंग कहा कि इससे भगवान मिलता है।
उस किसान के मन में भी भगवान को पाने की इच्छा हुई। दूसरे दिन वह भी नदी के बीच धार में ध्यान लगाकर खड़ा हो गया। तभी अचानक बरसात शुरू हो गई। बाढ़ आ जाती है। बाढ़ का पानी उस किसान के सिर के ऊपर से बहने की स्थिति में पहुँच जाता है, पर उसका ध्यान नहीं टूटता क्योंकि अभी तक भगवान का आगमन जो नहीं हुआ था। भगवान ने सोचा, मेरी वजह से बेचारा किसान अकाल मारा जायेगा, दर्शन तो देना ही पड़ेगा। भगवान प्रगट हुए। पुरोहित ने भगवान से पूछा कि भगवन! मैं तो रोज ही आपका ध्यान लगाता हूँ मुझे तो आपने कभी दर्शन नहीं दिया, और इस गँवार किसान के सामने प्रगट हो गये? भगवान ने कहा - पंडित जी! यह किसान गाँवार है, अपढ़ है, वेद-शास्त्र को नहीं जानता; पर इसके मन में किसी प्रकार का अहंकार, किसी प्रकार के विकार और किसी प्रकार के विचार भी नहीं हैं, इसका मन और इसका हृदय दोनों ही निर्मल है। आप में और इसमें यही अंतर है।
ज्ञानी और भक्तों, दोनों का ही अंतिम लक्ष्य होता है - निःअहंकार होना, निर्विकार होना और निर्विचार होना; लोक में यह विशेषता देखी जा सकती है।
साहित्य क्या है?
बहुत सरल शब्दों में कहें तो, गीत, कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास - यही तो साहित्य हैं। वे गीत और वे कहानियाँ जो लोक की वाचिक परंपरा में होते हैं लोक-साहित्य कहलाते हैं। विचार करें तो हमारे वेद, जिन्हंे हम ’श्रुति’ कहते हैं, आरंभ में वाचिक परंपरा के ही साहित्य रहे हैं। लिखा हुआ साहित्य शिष्ट साहित्य है। हर समाज का, हर देश का और हर बोली और भाषा का अपना-अपना लोक-साहित्य होता है।
मिथक क्या हैं?
किसी गाँव में रात में एक हाथी आया और गलियों से होता हुआ आगे जंगल की ओर चला गया। धूल में उसके पैरों के निशान पड़ गए। उस गाँव के किसी भी व्यक्ति ने अपने जीवन में कभी हाथी नहीं देखा था। सुबह हाथी के पैरों के निशान देख कर सबकी मति चकरा गई कि आखिर रात में यहाँ कौन सा जीव आया होगा। सबने खूब सोचा पर किसी को कुछ न सूझा। सबने कहा - लाल बुझक्कड़ को बुलाओ, हमारे गाँव में एक वही बुद्धिमान आदमी है। वही इस पहेली को सुलझा सकता है। लाल बुझक्कड़ को बुलाया गया। उसने खूब सोचा। उसे अपनी इज्जत जाती दिखी। इज्जत तो बचाना ही था, अंत में उसने कहा -
’’लाल बुझक्कड़ बूझ के, और न बूझो कोय।
पैर में चक्की बांध के, हिरना कूदो होय।’’
शुरू मे मैंने सवा लाख, कहीं-कहीं कुछ लोगों के अनुसार नौ लाख ओड़िया और नौ लाख ओड़निनों द्वारा सुरगी में एक ही रात में छः आगर छः कोरी तालाब निर्माण की कहानी की ओर इशारा किया था। बचपन में बुजुर्गों से हम सुनते आए हैं कि चन्द्रमा में दिखने वाला दाग मूसल से धान कूटती एक बुढ़िया का है या वह खरागोश का है। चन्द्र-ग्रहण और सूर्य ग्रहण धड़-हीन राहु-केतु द्वारा उन्हें निगल लिए लाने की वजह से होते हैं। पृथ्वी शेषनाग के सिर पर रखी हुई है, आदि-आदि ....। छत्तीसगढ़ी में एक लोक-कथा है - महादेव के भाई सहादेव। आप सभी जानते हैं। इसमें यह बताया गया है कि रात में सियार हुँआते क्यों हंै? एक चतुर सियार ने महादेव को खूब छकाया। अंत में पकड़ा गया। उसे सजा मिली। सजा से छुटकारा पाने के लिए उसने महादेव से वादा किया था कि रात में वह पहरा दिया करेगा। रात में चार बार हँुआ कर वह लोगों को सचेत किया करेगा। उस सियार के बाद भी उसके वंशज आज तक अपना वही वचन निभा रहे हैं।
झारखण्ड के आदिवासियों में भी इसी तरह की एक रोचक कथा प्रचलित है। सृष्टि के आरंभ में आसमान में सात सूरज हुआ करते थे। ये कभी अस्त न होते थे और खूब तपते थे। सारे जीव बहुत परेशान रहते थे। उसी समय जंगल में, किसी गाँव में सात आदिवासी भाई भी रहते थे। ये सातों बड़े तीरंदाज, बलिष्ठ और बड़े लडाके थे। इन लोगों ने सातों सूरज को मजा चखाने की ठानी। सातों ने अपनी-अपनी कमान पर तीर चढ़या। हरेक ने एक-एक सूरज पर निशाना साधा और एक साथ छोड़ दिये तीर। कुछ ही देर बाद पृथ्वी पर घुप अंधेरा छा गया। दूसरा दिन हुआ नहीं; एक भी सूरज नही निकला। सूरज का निकलना बंद हो गया। अब तो अंधेरे की वजह से लोगों पर आफत के पहाड़ टूटने लगे। मनुष्य सहित जंगल के सारे जीव-जंतुओं ने इस पर विचार किया कि अब क्या किया जाय? किसी ने कहा - सात सूरज में से केवल छः ही मरे हंै, मैंने देखा है कि एक भाई का निशाना चूक गया था और एक सूरज जिंदा बच गया था। लेकिन वह डरा हुआ है और पहाड़ के पीछे छिपा बैठा है। बुलाने पर वह आ सकता है। पर बुलाये कौन? मनुष्य से तो वह डरा हुआ था। राक्षसों और निशाचरों की तो बन आई थी। चिड़ियों ने कोशिश किया, खूब चहचहाये, पर वह सूरज नहीं निकला। तितलियों ने, भौरों ने, कौओं ने और अन्य प्राणियों ने भी कोशिश किया। छः दिनों तक लगातार कोशिशें जारी रही। सातवें दिन सब ने मुर्गे से कहा कि तुमने अब तक कोशिश नहींे किया है। तुम भी कोशिश करके देखो, शायद तुम्हारे बुलाने से सूरज निकल आए। मुर्गे ने कहा - कुकड़ू कूँ। और पूरब की ओर थोड़ा सा उजाला छा गया। सब के सब खुशी से झूम उठे। सब ने मुर्गे से फिर कहा - फिर से बुलाओ, वह आ रहा है। मुर्गे ने फिर कहा - कुकड़ू कूँ। सूरज ने पहाड़ के पीछे से सिर उठा कर झांका और उसकी किरणे धरती पर बिखरने लगी। सब ने मुर्गे से फिर कहा, देखो-देखो! पहाड़ के पीछे से वह लाल सूरज झांक रहा है, एक बार फिर बुलाओ। मुर्गे ने फिर कहा - कुकड़ू कूँ। तब तो छिपा हुआ वह सूरज पूरी तरह से निकल आया और आसमान में चढ़ने लगा। एक ही सूरज की तपन बड़ी प्यारी लग रही थी। लोग खुशी से झूम उठे। तभी से चलन हो गया है; मुर्गे की बांगने से ही सूरज निकलता है।
हमारे कई गाँवों में, भांठा में एक साथ, एक ही जगह पत्थर की ढेर सारी मूर्तियाँ पई जाती है। इनमें बहुत सारी मूर्तियाँ सैनिकों के होते हैं, कुछ घुड़सवार तो कुछ पैदल। कुछ तलवार लिए तो कुछ तीर-कमान लिए। लोग कहते हैं - एक राजा था। उसकी रानी बहुत सुंदर थी। उसी राज्य में एक जादूगर भी रहता था जो अपनी जादुई ताकत से कुछ भी कर सकता था। वह भी रानी की सुंदरता पर मुग्ध था। उसने एक दिन रानी का अपहरण कर लिया। गुप्तचरों से पता चलने पर राजा ने जादूगर से लड़ने की ठानी। उसने आक्रमण किया। जादूगर ने अपनी जादू से पूरी फौज को पत्थर का बना दिया।
ये ही मिथक हैं।
मिथकों की स्वीकार्यता।
मिथकों का निर्माण कैसे हुआ होगा? जाहिर है, ऊपर के उदाहरणों में जैसा कि हमने देखा, मिथकों का निर्माण समाज के बौद्धिक वर्ग ने ही किया होगा। परंतु बौद्धिक वर्ग द्वारा रची गई कोई भी कहानी लोक-स्वीकार्यता और लोक-मान्यता प्राप्त करने के पश्चात् ही मिथक बन पाया होगा। हर समाज, हर भाषा, हर जाति, हर देश का अपना-अपना मिथक होता है। मिथकों की रचना समाज की मान्यताओं और परिस्थितियों के अनुसार ही हुआ होगा।
एक ही विषय से संबंधित भिन्न-भिन्न मिथक हो सकते है। हिन्दुस्तान में धरती शेष नाग के सिर पर रखी हुई है। शेष नाग साल में एक बार फन (गंड़री) बदलता है। भूकंप इसी का नतीजा है। युरोप में यही धरती हरक्यूलिस नामक एक शक्तिशाली देवता के कंधे पर रखी हुई है, हरक्यूलिस कभी भी कंधा नहीं बदलता। दुनिया नष्ट हो जाएगी।
लोक-साहित्य के मिथक और शिष्ट साहित्य के मिथक में क्या अंतर होता है?
ऊपर लोक-साहित्य और शिष्ट साहित्य के बहुत सारे मिथकों की हमने चर्चा की है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण की कथा हो, शेषनाग की कथा हो या हरक्यूलिस की कथा, ये शिष्ट साहित्य के मिथक हैं और सभी धार्मिक आस्था से जुड़े हुए हैं। हमारे सारे अवतार प्रगट होते हैं, माँ की कोख से जन्म नहीं लेते। हमारे सभी धर्मग्रन्थ भी ईश्वरीय होते हैं और ये भी प्रगट होते हैं, साहित्यकार द्वारा लिखे नहीं होते। इस संबंध में कुछ भी बोलना फतवे को आमंत्रित करना ही होगा। चुप रहने में ही बुद्धिमानी है। इसके विपरीत लोक के मिथक बड़े लचीले होते हैं। अलग-अलग अंचल में नये-नये रूपों में प्रगट होते हैं, क्योंकि ये लोक की संपत्ति होते हैं, धर्म की नहीं। लोक के मिथक या तो विशुद्ध मनोरंजन करते हुए प्रतीत होते हैं अथवा लोक-शिक्षण करते हुए। ये प्रकृति के रहस्यों की लोक-व्याख्या के रूप में भी प्रगट होते हैं। इस पर कोई भी फतवा जारी नहीं कर सकता।
कुबेर
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