हकीकत से मुँह मोड़ने वाले
(समाज के बदी पक्ष की नग्न सच्चाई - फूलो)
कुबेर की चर्चित कहानी ’फूलो’ की समीक्षा
समीक्षक - यशवंत
कफन पर डाॅ. धर्मवीर भारती (आई. ए. एस.) की विवादित टिप्पणी है - ’बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा था।’ जबकि प्रेमचंद की कथा में ऐसा कहीं उल्लेख नहीं है, किसे आंशिक सहमति हो सकती है? मनुष्य के पास दो भूख प्रबल होते हैं, पेट की और पेट के नीचे की। पैसे वालों के अंदर पेट की भूख नहीं, पेट के नीचे की भूख उफनती है। भूख से बिलबिलाते व्यक्ति के लिए धर्म और ईमान की बातें गौण हो जाती हैं। घीसू-माधव ठहरे अकामी व्यक्ति। जीवित रहकर बुधिया ने परिवार चलाया। इसे घीसू-माधव का अत्याचार कहें? गरीबों की विवशता का लाभ उठाने, कृपालु और सम्मानित मालिक टपकते लार के साथ ताक पर बैठे ही रहते हैं। घीसू-माधव यहाँ ठहर पाते हैं? शरण कुमार लिंबाले को पिता का नाम नहीं मिला। पाटेल (गाँव का संभ्रान्त मुखिया) अपने बच्चे को समाज के सामने अपना नहीं सका। लिंबाले की माँ उसी पाटेल के यहाँ काम करती थी। माँ सब जानती थी; जाति, समाज और धर्म, इन्सान और इन्सानियत से उच्च होकर, मनुष्य को गैरबराबरी की गहराई में पटक देते हैं। तमिल लेखक पेरुमल मुरगन के उपन्यास ’माधोरूभगन’ में ’’माँ की प्रेरणा से पोन्ना पहाड़ी पर जाती है। वह उस पुरुष का चेहरा देखने के लिए मुड़ती है, जिसने उसकी बाँह पकड़ी थी। वह एक मुस्कान के साथ तैयार खड़ा एक युवक था। उसने ध्यान से देखा, वह एक युवक था, ईश्वर नहीं।’’83 गरीब पेट के लिए और अमीर शरीर के लिए अपने-अपने भूख मेें बराबर होते हैं। चंपा की कहानी (कहा नहीं) में बाबू पात्र का चरित्र स्मरण करें। इसीलिए खलील जिब्रान ने कहा है - ’’अमीर और गरीब का फर्क कितना नगण्य है। एक ही दिन की भूख और एक ही घंटे की प्यास, दानों को समान बना देती है।’’ ऐसा बुधिया और लिंबाले की माँ के साथ हुआ होगा? इसीलिए शायद कुबेर जी ’फूलो’ की कथा में जनश्रुति मिथक का समावेश कर कथा बुनते हैं, जैसा कि पेरुमल मुरगन के उपन्यासों में भी होता है। जनश्रुति तो यहाँ तक है कि डोली उठने से पहले उसकी नथ पटेल, संभ्रान्त, मुखिया, मालगुजार, राजा उतार लेते थे। जनश्रुति ईश्वर लीला नहीं होती और मिथकों के सच, किंवदंतियों के सच बहुआयामी और कालजयी होते हैं। एक ही कहानी का चेतना पक्ष (भौतिक रूप) अलग होगा। अवचेतन (अप्रत्यक्ष) उपमान स्वरूप कथा का अलग पक्ष होगा। कथाकार का कमाल अप्रत्यक्ष का परदा खोलकर समझ-संकेत को प्रत्यक्ष करना होता है। ’फूलो’ ऐसे ही सामूहिक अवचेतन की प्रतीकात्मक कथा है; जहाँ कल्पना में यथार्थ और जनश्रुति के महत्व को तर्कदर्शन से गुंजायित किया गया है, जिससे मिथक-कल्पना में यथार्थ अपने शिखर तक पहुँच जाता है और परम्परागत शोषण की अन्तर्वस्तु उत्सर्ग कर गई। उत्तरभोगवादी आधुनिक समय में विकृत स्वच्छन्दता को रोकने की नैतिक मदद भी मिली जब फूलो का पिता विवाह पर नाचने लगता है। हमप्याला-हमनिवाला की खाल भी दिखाई गई। बिना रंग के रंग गई। सीधे नहीं पर मिथकीय छाया में ’फूलो’ कथा चलती है, जैसे कामायनी का रूपकात्मक काव्य चलता है। जीवनयापन के संसाधनों पर मालिकों, माक्र्सवादी भाषा में पूजीपतियों का कब्जा होने पर नौकरों, कर्मशील श्रमिकों का नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक परिशोषण निश्चित हो जाता है। जब ’पथरा के देवता, हाले नहीं डोले वो, हाले नहीं डोले’ तब लाचारी मनुष्य की होगी? या शारीरिक बल-बुद्धि वालों की? दोनों ताकतें फगनू के पास है पर धन नहीं - ’’जहाज के पंछी आखिर जाही कहाँ?’’84 इसीलिए फगनू पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने के दिनों में मालिक का चरवाहा बन गया। आक्रोश तेवर में कमी नहीं थी। छत्तीसगढ़ी कहावत है - ’’हावय कोदई हावय सगा, नइ हे कोदई नइ हे सगा,’’ धन के महत्व को चरितार्थ करती है। कोदई नहीं रहने से मालिक मुताबिक फगनू को अपना ब्याह करना पड़ा। एक पंथ दो काज, एक तीर में अनेक निशाना साधा मालिक ने। चरवाहा के साथ चरवाहिन मिल गई।
फगनू की बेटी जन्म आई। नाम रखा गया ’फूलो’। फकफक ले पंडरी। मालिक ने फगनू का विवाह अपनी रखैल से ही तो नहीं कर दिया था? वह असंवैधानिक संबंधों वाली लड़़की नहीं थी। ’’जनम के अँखफुट्टा आय हरामी ह, गाँव म काकर बहू-बेटी के इज्जत ल बचाय होही?’’85 फगनू की मालिक के प्रति यह टिप्पणी कथा की संपूर्ण अन्तर्वस्तु समझा देती है। तो डाॅ. धर्मवीर ने क्या गलत कहा - बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा था? आक्रोश से विद्रोह की चेतना। ’’इज्ज्त बेच के जीना घला कोई जीना ये,’’86 अतिसंवेदनशीलता को कथाकार ने सामने लाया है। फगनू फूलो को देखता नहीं। हिम्मत से बेटी का लालन-पालन करता है। फूलो को माली जैसा तोड़ता नहीं, खिलाता है। ये हौसला सामंतों में नहीं। सामन्तशाही मालिकों का नैतिक पतन भी है।
अट्ठारह वर्ष पश्चात फूलो की शादी, फगनू के बहनोई, फूलो के फूफा-फूफी तथा गाँव वालों के सहयोग से निपट जाती है। कथा में यहाँ ग्राम्य संस्कृति की एकता दिखाई तो देती है परन्तु ऐसी ही एकता-सहयोग शोषण के विरुद्ध कर्मयोगी स्वरूप में क्यों नहीं होता? गाँव समाज में कहीं न कहीं कमजोरी है। अमीर घर की बेटी लाओ और गरीब घर बेटी ब्याह करो, में ही भारतीयता की ग्रामीयता से उज्ज्वल पहचान निखरती-खिलती है। समानता में भेद नहीं करती? ’’बनिहार के घर काला देखे बर जाबों सगा, हमूँ बनिहार, तहँू बनिहार।’’87 में उच्चस्तरीय समता है।
फूलो की अप्रत्यक्ष कथा अपने अप्रत्यक्ष पक्ष में अनेक अन्तरविषयों की इन्द्रधनुषी छटा बिखेरती है। कथा इसलिए अपनी लोक बुनावट कथा की दशा में गुंफिंत होकर भी अलग महत्व प्रदान करती है। विवाह प्रथा नैतिक जिम्मेदारी से जीवन भर पति-पत्नी को जीवन चलाने-निभाने का उत्तम संस्कार है। पर बेटी की बिदाई का दुख, गहरे दुख में तब बदलता है जब प्रथा में बेटी को श्रृँगार का मंहगा सामान देना पड़ता है; जो आज ’दहेज प्रथा’ में रूढ़ हो गई है। उच्चवर्गीय विचार-व्यवहार से श्रमशील परिवारों पर प्रभाव पड़ेगा ही। यहाँ पर ग्रामीयता की एकता नदारत है। सब कुछ बेटी के दाई-ददा को हाड़-मांस बेचकर भी पूरा करना पड़ता है; मेहनत की कमाई तो जाती ही है।
फूलो की दाई ने फगुआ से जब कहा - ’’बेटी ल बिदा करबे त एकठन लुगरा-पोलखा घला नइ देबे। एक ठन संदूक ल नइ लेबे। नाक-कान म कुछू नइ पहिराबे। सोना-चांदी ल बनिहार आदमी का ले सकबोन, बजरहू ल तो घला दे, लइका ह काली ले रटन धरे हे।’’88
जिसे उच्च-सभ्य कहा जाता है, वह बनावटी, दिखावटी, बाजारू समेटू, लूट-खसूट करने वालों का ऐसा जमावड़ा है जो लोक समाज को शक्तिहीन, गतिहीन बनाये रखता है। फलतः परलोक गृह प्रवेश में गमन करता है। बजरहू अर्थात नकली सोना-चांदी या गोटा चांदी से जब श्रमिकों का काम चल जाता है तो सभ्य समाज जो धनपति, मध्यवर्ग हे, इससे कुछ सीख पाता है?
गरीबों को लोग पतियाते नहीं, रहन हेतु फगनू के पास कुछ था नहीं। करे भी तो क्या करे? थक-हार कर मालिक का भरोसा कर उसके पाय गया। मालिक ने कहा - ’’जा! अउ जेकर बर लुगरा-कपड़ा लेना है, वोला भेज देबे। मिल जाही पइसा।’’89 इसे फगनू ने घरवाली को बताकर सिर पकड़कर बैठ गया। मालिक के एक-एक शब्द कामुकता दर्शाता है।
तब मालिक ने अपनी बेटी बराबर फूलो से दुष्कर्म किया? तभी पैसा मिला। छिपा तथ्य और प्रश्न फगनू की पत्नी से भी कुकर्म किया? बेटी को छोड़ा होगा? यह अनैतिकता की चरम सीमा है। ब्रह्मा से सरस्वती-कर्म क्या था?
फगनू में बगावत का रस नहीं जागा, परन्तु होगी; भविष्य में जरूर होगी, कथा में इसका संकेत अवश्य है - ’संभाषण-वार्तालाप फूलो में समाज के प्रच्छन्न, रूढ़ घृणात्मक संस्कृति को समझने में महत्वपूर्ण योगदान करता है। मालिक का उपर्युक्त कथन विवादपूर्ण है? जहाँ लेखकीय ईमानदारी में कोई समझौता नहीं की गई है। सनातन संस्कृति का परम्परागत सौन्दर्य तोड़ा गया है, जिसका माला निरंतर जपने की क्रिया अब तक निभाया गया है। कुबेर जी ने जो देखा, परखा, सुना, जाना उस विषयवस्तु को फूलो में पल्लवित किया। समाज क्या कहेगा? बेपरवाह कौन हाथियार उठायेगा? उठाये तो भी पत्थर का जवाब गोली से दागा और मुक्तिबोध के ’पार्टनर तुम किस ओर हो’ को भी झिंझोड़ दिया जो अक्सर उत्प्रेक्षा की लहरों में लहराता है। तो कहें, ग्रामीयता को उज्ज्वल पहचान मिलती है। समानता में भेद नहीं करती। डाॅ. अरुण प्रकाश के शब्दों पर ध्यान दें - ’’कलाकार की चेतना समाज का दर्पण है।’’90 फूलो में सामाजिक चेतना को मुस्तैदी से रखा गया है। दबंगों का चाहे साहित्य में या समाज में, उनकी दखल दबाने की रही है। ’’सादा, सजावट मृृत्यु है। सदाचार मृत्यु, दुराचार मृत्यु है। फाँसी पर टंगे रहती है।’’91
लोक-जगत में विवाह का नेग-जोग एक दिन पूर्व होता है। दूसरे दिन लगन। फूलो और उसकी दाई नेग के दिन ही बाजार चले गये हैं। फूलों के लिए श्रृँगार का सामान जो खरीदना है। इधर मंडप में आश्चर्य का साम्राज्य पसरा हुआ है - ’’अइ! बड़ बिचित्र हे दाई, फूलो के दाई ह, नेंग-जोग ल त होवन देतिस; बजार ह भागे जावत रिहिस? नोनी ल धर के बजार चल दिस।’’92 कहा जाता है, सम्राट अकबर औरतों के लिए चूड़ियों का बाजार लगवाता था? दाई, फूलो को किस बाजार में, किस मेले में लेकर गई होगी? अप्रत्यक्ष का वास्तविक तथ्य स्वयं प्रकाशित हो रहा है। इसे पूर्व के नथ उतारने के संदर्भ-प्रसंग लेकर समझ बनाई जा सकती है। मालिक ने ही फूलो की नथ उतारी होगी? इसी ने तो उसकी दाई को भी गोभा लिया था। ’’सारे कलजुग ह सिरतोन खरा गे हे,’’93 (कहा नहीं) से जान सकते हैं, जहाँ वासना चरम पर है। पेट की भूख और उसके नीचे की भूख का अंतर दूसरे तथ्य में भूख न होने पर भी उसे भुखर्रा करना पड़ता है। दाई मन मार कर गई होगी तो उसके मन में भी कुछ रहा होगा, क्या इस सड़ी-गली, विकृत संस्कृति के प्रति विरोध-प्रतिरोध नहीं रहा होगा? पतझड़ में पत्ते गिरते हैं, गिरकर सड़ते हैं। सड़कर खाद बनते हैं, जहाँ श्रमवीर उत्पादन करते हैं, उसी खाद का रस सौन्दर्यशास्त्र के वैशिष्ट्य में आनंदवाद को मालिक भोगते हैं; जबकि सौन्दर्य; सत्ता, धर्म, अर्थ, काम में निमजज्जित नहीं होता; जिसे मालिक पूर्ण दबंगता, निर्भीकता और निर्लज्जता के साथ करता है। यहाँ पुरूष देह मुक्त है? या नारी देह? विचार तो करना ही होगा। गाय होना; स्त्री, दलित, या धार्मिक पहचान होने से कही अधिक सुरभित है। मनुष्य रूप स्त्री होना कोई गुनाह तो नहीं है? गरीबी को पैरों तले रौंदने से रोकने का कोई उपकरण 1971 से आज तक तैयार नहीं हो सका। और आज हम मंगल ग्रह पर बस्ती बसाने जा रहे हैं। अमांगलिक कार्य से अमांगलिक प्रसंग-प्रयोजन में धन बरस गये। नथ गई? जो नथ गई, वही नये रंग-रोगन के साथ नाक में चढ़ गई और हिलने लगी; कान में झूलने लगी, पैरों में झनकने लगी और फूलो सरग (स धन रग) की परी लगने लगी। रग-रग का रक्त मैला होकर सरग मिले तो किस काम का? किसके काम का?
फगनू सब समझता है। सुबह सरग की परी सी बेटी को देख कर उसका मन, असकी आत्मा, उसका हृदय क्षोभ से भर जाता है। गम गलत करने के लिए वह पी लेता है। पीकर खूब नाचता है, बेसुध हो जाता है। लोग उसका दुख क्या जानें, कह रहे हैं - ’’बेटी ल बिदा करे म कतका दुख होथे तेला बापेच् ह जानथे; का होइस आज थोकुन पी ले हे बिचारा ह ते? जतका मुँहू वोतका गोठ।94 कफन में भी घीसू-माधव नाच-नाचकर बेसुध हो जाते हैं। कफन 1935-36 की कहानी है और फूलो 2011 की। बीते हुए इन 75 सालों में क्या बदला, कितना बदला? डाॅ. धर्मवीर की मानें तो घीसू-माधव का बेसुध होना और कुबेर की मानें तो देर नहीं करें, फगनू भी बेसुध। बुधिया मरणासन्न अवस्था में है। फगनू की पत्नी होश में है पर उसकी आत्मा क्या बची होगी? कफन में एक नारी और दो पुरुष पात्र हैं, फूलो में एक पुरुष और दो नारी पात्र हैं। दोनों में 75 साल के समय अन्तराल के बाद भी, समय अन्तराल के अलावा है और कुछ भी अंतर? शोषण का निरंतर प्रवाह, और देहभोग-भूखभोग का यथार्थ जहाँ का तहाँ है। फगनू के बेसुध होने का सुध ले तो क्या कबीर के शब्दों में सुख है? -
’’कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठग्याँ सुख उपजै, और ठग्याँ दुख होय।’’95
स्वयं के ठगे जाने में सुख है, दूसरों को ठगने से दुख मिलता है।95 बिलकुल नहीं। फगनू को ठगे जाने की गहरी चोट लगी है। जितने मुँह, उतनी बातें में कौए के कान ले जाने वाली बात नहीं है। कानोकान किसी को खबर नहीं हुई और फगनू ठग लिया गया। फूलो के चंदा जैसे चेहरे में चांद का मुँह तो टेढ़ा नजर आयेगा ही; दागदार चांद का समना करने की हिम्मत किसे है?
चेतना संपन्न इस प्रतीकात्मक कथा में फूलो को माँ-बाप का नाम मिला मालिक के कूटनीतिक परिशोषण से। लिंबाले को पिता का नाम शोषण नीति के तहत नहीं मिलता। चरम स्तर पर भीष्म पितामह को मातृसत्ता से ’गंगापुत्र’ नाम मिला, पिता महत्वहीन रहा। कर्ण सूतपुत्र ही रहा; सूर्यपुत्र होकर समाज में प्रकाशित तो रहा, माता का नाम नहीं मिला, तड़पता रहा। माता कुन्ती गंगा जैसी निर्मलता कर्ण को प्रदान नहीं कर सकीं। द्वारिका प्रसाद चारुमित्र लिखते हैं - ’’मर्मवादी समाज में स्त्रियाँ पग-पग पर पीड़ित, अपमानित होने के लिए अभिशप्त हैं, और जहाँ हर मिनट कहीं न कहीं किसी स्त्री का बलात्कार होता है। हमारे यहाँ शास्त्रों में संतान के लिए नियोग प्रथा का विधान है। सभी पाण्डव और कौरव नियोग प्रथा से ही जन्में थे। वेदों से लेकर रामायण, महाभारत तक ऐसी प्रथाओं का उल्लेख मिलता है जो आज की मूल्य व्यवस्था से मेल नहीं खाती। बदलते समाज के साथ मूल्यमानों में भी परिवर्तन सवाभाविक है। यौन नैतिकता पर भी यही बात लागू होती है। आज की प्रचलित मूल्य व्यवस्था के साथ अगर धर्म शास्त्रों और प्राचीन महाकाव्यों का मेल नहीं बैठता तो क्या उन्हें जला देना चाहिए?’’96
लेकिन फूलो योग प्रथा से जन्मी। ’फूलो’ प्रश्न उठाती है - यौननैतिकता तो प्रचीनकाल से वर्तमान तक है? फूलो उद्वेग, जुगुप्सा और नफरत पैदा करती है तो वह गहरे काव्य की कहानी है। इसे जलाओगे या खारिज करोगे, कैसे? आनंदवर्धन के अनुसार महाभारत, युद्ध के खिलाफ कविता है तो ’फूलो’ समाज के दर्पण में एक खौफनाक और वीभत्स कालिख है, जहाँ रमाने-लुभाने वाले रसबोध के अवसान में मोहभंग हो रहा है। जिससे बगावत की चिंगारी धीरे-धीरे ही सही, धुआँ तो फैला रही है। आग लगने की देरी है, फिर तो ढेर ....। इसी समस्या पर कुबेर का कलम चेतना संपन्न होकर लिखती है - ’’जा, अउ जेकर बर लुगरा-कपड़ा लेना हे वोला भेज देबे; मिल जाही पइसा।’’97 इसे बेईमान कैसे जान पायेंगे? ’फूलो’ में गरीबों का शोषण करने वाले कृपालु मालिक को विडम्बना स्वरूप रखते हैं जबकि यह हकीकत है। विडम्बना स्वरूप को डाॅ. पाठक एवं उसकी मित्र मंडली भले ही समर्थन दे, हम कैसे सहमत हो सकते हैं। हकीकत से मुँह मोड़ना विद्वता नहीं, न जाने पाठक जी हकीकत के पास कब विराजमान होंगे? अस्तु! आमीन!
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फगनू की बेटी जन्म आई। नाम रखा गया ’फूलो’। फकफक ले पंडरी। मालिक ने फगनू का विवाह अपनी रखैल से ही तो नहीं कर दिया था? वह असंवैधानिक संबंधों वाली लड़़की नहीं थी। ’’जनम के अँखफुट्टा आय हरामी ह, गाँव म काकर बहू-बेटी के इज्जत ल बचाय होही?’’85 फगनू की मालिक के प्रति यह टिप्पणी कथा की संपूर्ण अन्तर्वस्तु समझा देती है। तो डाॅ. धर्मवीर ने क्या गलत कहा - बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा था? आक्रोश से विद्रोह की चेतना। ’’इज्ज्त बेच के जीना घला कोई जीना ये,’’86 अतिसंवेदनशीलता को कथाकार ने सामने लाया है। फगनू फूलो को देखता नहीं। हिम्मत से बेटी का लालन-पालन करता है। फूलो को माली जैसा तोड़ता नहीं, खिलाता है। ये हौसला सामंतों में नहीं। सामन्तशाही मालिकों का नैतिक पतन भी है।
अट्ठारह वर्ष पश्चात फूलो की शादी, फगनू के बहनोई, फूलो के फूफा-फूफी तथा गाँव वालों के सहयोग से निपट जाती है। कथा में यहाँ ग्राम्य संस्कृति की एकता दिखाई तो देती है परन्तु ऐसी ही एकता-सहयोग शोषण के विरुद्ध कर्मयोगी स्वरूप में क्यों नहीं होता? गाँव समाज में कहीं न कहीं कमजोरी है। अमीर घर की बेटी लाओ और गरीब घर बेटी ब्याह करो, में ही भारतीयता की ग्रामीयता से उज्ज्वल पहचान निखरती-खिलती है। समानता में भेद नहीं करती? ’’बनिहार के घर काला देखे बर जाबों सगा, हमूँ बनिहार, तहँू बनिहार।’’87 में उच्चस्तरीय समता है।
फूलो की अप्रत्यक्ष कथा अपने अप्रत्यक्ष पक्ष में अनेक अन्तरविषयों की इन्द्रधनुषी छटा बिखेरती है। कथा इसलिए अपनी लोक बुनावट कथा की दशा में गुंफिंत होकर भी अलग महत्व प्रदान करती है। विवाह प्रथा नैतिक जिम्मेदारी से जीवन भर पति-पत्नी को जीवन चलाने-निभाने का उत्तम संस्कार है। पर बेटी की बिदाई का दुख, गहरे दुख में तब बदलता है जब प्रथा में बेटी को श्रृँगार का मंहगा सामान देना पड़ता है; जो आज ’दहेज प्रथा’ में रूढ़ हो गई है। उच्चवर्गीय विचार-व्यवहार से श्रमशील परिवारों पर प्रभाव पड़ेगा ही। यहाँ पर ग्रामीयता की एकता नदारत है। सब कुछ बेटी के दाई-ददा को हाड़-मांस बेचकर भी पूरा करना पड़ता है; मेहनत की कमाई तो जाती ही है।
फूलो की दाई ने फगुआ से जब कहा - ’’बेटी ल बिदा करबे त एकठन लुगरा-पोलखा घला नइ देबे। एक ठन संदूक ल नइ लेबे। नाक-कान म कुछू नइ पहिराबे। सोना-चांदी ल बनिहार आदमी का ले सकबोन, बजरहू ल तो घला दे, लइका ह काली ले रटन धरे हे।’’88
जिसे उच्च-सभ्य कहा जाता है, वह बनावटी, दिखावटी, बाजारू समेटू, लूट-खसूट करने वालों का ऐसा जमावड़ा है जो लोक समाज को शक्तिहीन, गतिहीन बनाये रखता है। फलतः परलोक गृह प्रवेश में गमन करता है। बजरहू अर्थात नकली सोना-चांदी या गोटा चांदी से जब श्रमिकों का काम चल जाता है तो सभ्य समाज जो धनपति, मध्यवर्ग हे, इससे कुछ सीख पाता है?
गरीबों को लोग पतियाते नहीं, रहन हेतु फगनू के पास कुछ था नहीं। करे भी तो क्या करे? थक-हार कर मालिक का भरोसा कर उसके पाय गया। मालिक ने कहा - ’’जा! अउ जेकर बर लुगरा-कपड़ा लेना है, वोला भेज देबे। मिल जाही पइसा।’’89 इसे फगनू ने घरवाली को बताकर सिर पकड़कर बैठ गया। मालिक के एक-एक शब्द कामुकता दर्शाता है।
तब मालिक ने अपनी बेटी बराबर फूलो से दुष्कर्म किया? तभी पैसा मिला। छिपा तथ्य और प्रश्न फगनू की पत्नी से भी कुकर्म किया? बेटी को छोड़ा होगा? यह अनैतिकता की चरम सीमा है। ब्रह्मा से सरस्वती-कर्म क्या था?
फगनू में बगावत का रस नहीं जागा, परन्तु होगी; भविष्य में जरूर होगी, कथा में इसका संकेत अवश्य है - ’संभाषण-वार्तालाप फूलो में समाज के प्रच्छन्न, रूढ़ घृणात्मक संस्कृति को समझने में महत्वपूर्ण योगदान करता है। मालिक का उपर्युक्त कथन विवादपूर्ण है? जहाँ लेखकीय ईमानदारी में कोई समझौता नहीं की गई है। सनातन संस्कृति का परम्परागत सौन्दर्य तोड़ा गया है, जिसका माला निरंतर जपने की क्रिया अब तक निभाया गया है। कुबेर जी ने जो देखा, परखा, सुना, जाना उस विषयवस्तु को फूलो में पल्लवित किया। समाज क्या कहेगा? बेपरवाह कौन हाथियार उठायेगा? उठाये तो भी पत्थर का जवाब गोली से दागा और मुक्तिबोध के ’पार्टनर तुम किस ओर हो’ को भी झिंझोड़ दिया जो अक्सर उत्प्रेक्षा की लहरों में लहराता है। तो कहें, ग्रामीयता को उज्ज्वल पहचान मिलती है। समानता में भेद नहीं करती। डाॅ. अरुण प्रकाश के शब्दों पर ध्यान दें - ’’कलाकार की चेतना समाज का दर्पण है।’’90 फूलो में सामाजिक चेतना को मुस्तैदी से रखा गया है। दबंगों का चाहे साहित्य में या समाज में, उनकी दखल दबाने की रही है। ’’सादा, सजावट मृृत्यु है। सदाचार मृत्यु, दुराचार मृत्यु है। फाँसी पर टंगे रहती है।’’91
लोक-जगत में विवाह का नेग-जोग एक दिन पूर्व होता है। दूसरे दिन लगन। फूलो और उसकी दाई नेग के दिन ही बाजार चले गये हैं। फूलों के लिए श्रृँगार का सामान जो खरीदना है। इधर मंडप में आश्चर्य का साम्राज्य पसरा हुआ है - ’’अइ! बड़ बिचित्र हे दाई, फूलो के दाई ह, नेंग-जोग ल त होवन देतिस; बजार ह भागे जावत रिहिस? नोनी ल धर के बजार चल दिस।’’92 कहा जाता है, सम्राट अकबर औरतों के लिए चूड़ियों का बाजार लगवाता था? दाई, फूलो को किस बाजार में, किस मेले में लेकर गई होगी? अप्रत्यक्ष का वास्तविक तथ्य स्वयं प्रकाशित हो रहा है। इसे पूर्व के नथ उतारने के संदर्भ-प्रसंग लेकर समझ बनाई जा सकती है। मालिक ने ही फूलो की नथ उतारी होगी? इसी ने तो उसकी दाई को भी गोभा लिया था। ’’सारे कलजुग ह सिरतोन खरा गे हे,’’93 (कहा नहीं) से जान सकते हैं, जहाँ वासना चरम पर है। पेट की भूख और उसके नीचे की भूख का अंतर दूसरे तथ्य में भूख न होने पर भी उसे भुखर्रा करना पड़ता है। दाई मन मार कर गई होगी तो उसके मन में भी कुछ रहा होगा, क्या इस सड़ी-गली, विकृत संस्कृति के प्रति विरोध-प्रतिरोध नहीं रहा होगा? पतझड़ में पत्ते गिरते हैं, गिरकर सड़ते हैं। सड़कर खाद बनते हैं, जहाँ श्रमवीर उत्पादन करते हैं, उसी खाद का रस सौन्दर्यशास्त्र के वैशिष्ट्य में आनंदवाद को मालिक भोगते हैं; जबकि सौन्दर्य; सत्ता, धर्म, अर्थ, काम में निमजज्जित नहीं होता; जिसे मालिक पूर्ण दबंगता, निर्भीकता और निर्लज्जता के साथ करता है। यहाँ पुरूष देह मुक्त है? या नारी देह? विचार तो करना ही होगा। गाय होना; स्त्री, दलित, या धार्मिक पहचान होने से कही अधिक सुरभित है। मनुष्य रूप स्त्री होना कोई गुनाह तो नहीं है? गरीबी को पैरों तले रौंदने से रोकने का कोई उपकरण 1971 से आज तक तैयार नहीं हो सका। और आज हम मंगल ग्रह पर बस्ती बसाने जा रहे हैं। अमांगलिक कार्य से अमांगलिक प्रसंग-प्रयोजन में धन बरस गये। नथ गई? जो नथ गई, वही नये रंग-रोगन के साथ नाक में चढ़ गई और हिलने लगी; कान में झूलने लगी, पैरों में झनकने लगी और फूलो सरग (स धन रग) की परी लगने लगी। रग-रग का रक्त मैला होकर सरग मिले तो किस काम का? किसके काम का?
फगनू सब समझता है। सुबह सरग की परी सी बेटी को देख कर उसका मन, असकी आत्मा, उसका हृदय क्षोभ से भर जाता है। गम गलत करने के लिए वह पी लेता है। पीकर खूब नाचता है, बेसुध हो जाता है। लोग उसका दुख क्या जानें, कह रहे हैं - ’’बेटी ल बिदा करे म कतका दुख होथे तेला बापेच् ह जानथे; का होइस आज थोकुन पी ले हे बिचारा ह ते? जतका मुँहू वोतका गोठ।94 कफन में भी घीसू-माधव नाच-नाचकर बेसुध हो जाते हैं। कफन 1935-36 की कहानी है और फूलो 2011 की। बीते हुए इन 75 सालों में क्या बदला, कितना बदला? डाॅ. धर्मवीर की मानें तो घीसू-माधव का बेसुध होना और कुबेर की मानें तो देर नहीं करें, फगनू भी बेसुध। बुधिया मरणासन्न अवस्था में है। फगनू की पत्नी होश में है पर उसकी आत्मा क्या बची होगी? कफन में एक नारी और दो पुरुष पात्र हैं, फूलो में एक पुरुष और दो नारी पात्र हैं। दोनों में 75 साल के समय अन्तराल के बाद भी, समय अन्तराल के अलावा है और कुछ भी अंतर? शोषण का निरंतर प्रवाह, और देहभोग-भूखभोग का यथार्थ जहाँ का तहाँ है। फगनू के बेसुध होने का सुध ले तो क्या कबीर के शब्दों में सुख है? -
’’कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठग्याँ सुख उपजै, और ठग्याँ दुख होय।’’95
स्वयं के ठगे जाने में सुख है, दूसरों को ठगने से दुख मिलता है।95 बिलकुल नहीं। फगनू को ठगे जाने की गहरी चोट लगी है। जितने मुँह, उतनी बातें में कौए के कान ले जाने वाली बात नहीं है। कानोकान किसी को खबर नहीं हुई और फगनू ठग लिया गया। फूलो के चंदा जैसे चेहरे में चांद का मुँह तो टेढ़ा नजर आयेगा ही; दागदार चांद का समना करने की हिम्मत किसे है?
चेतना संपन्न इस प्रतीकात्मक कथा में फूलो को माँ-बाप का नाम मिला मालिक के कूटनीतिक परिशोषण से। लिंबाले को पिता का नाम शोषण नीति के तहत नहीं मिलता। चरम स्तर पर भीष्म पितामह को मातृसत्ता से ’गंगापुत्र’ नाम मिला, पिता महत्वहीन रहा। कर्ण सूतपुत्र ही रहा; सूर्यपुत्र होकर समाज में प्रकाशित तो रहा, माता का नाम नहीं मिला, तड़पता रहा। माता कुन्ती गंगा जैसी निर्मलता कर्ण को प्रदान नहीं कर सकीं। द्वारिका प्रसाद चारुमित्र लिखते हैं - ’’मर्मवादी समाज में स्त्रियाँ पग-पग पर पीड़ित, अपमानित होने के लिए अभिशप्त हैं, और जहाँ हर मिनट कहीं न कहीं किसी स्त्री का बलात्कार होता है। हमारे यहाँ शास्त्रों में संतान के लिए नियोग प्रथा का विधान है। सभी पाण्डव और कौरव नियोग प्रथा से ही जन्में थे। वेदों से लेकर रामायण, महाभारत तक ऐसी प्रथाओं का उल्लेख मिलता है जो आज की मूल्य व्यवस्था से मेल नहीं खाती। बदलते समाज के साथ मूल्यमानों में भी परिवर्तन सवाभाविक है। यौन नैतिकता पर भी यही बात लागू होती है। आज की प्रचलित मूल्य व्यवस्था के साथ अगर धर्म शास्त्रों और प्राचीन महाकाव्यों का मेल नहीं बैठता तो क्या उन्हें जला देना चाहिए?’’96
लेकिन फूलो योग प्रथा से जन्मी। ’फूलो’ प्रश्न उठाती है - यौननैतिकता तो प्रचीनकाल से वर्तमान तक है? फूलो उद्वेग, जुगुप्सा और नफरत पैदा करती है तो वह गहरे काव्य की कहानी है। इसे जलाओगे या खारिज करोगे, कैसे? आनंदवर्धन के अनुसार महाभारत, युद्ध के खिलाफ कविता है तो ’फूलो’ समाज के दर्पण में एक खौफनाक और वीभत्स कालिख है, जहाँ रमाने-लुभाने वाले रसबोध के अवसान में मोहभंग हो रहा है। जिससे बगावत की चिंगारी धीरे-धीरे ही सही, धुआँ तो फैला रही है। आग लगने की देरी है, फिर तो ढेर ....। इसी समस्या पर कुबेर का कलम चेतना संपन्न होकर लिखती है - ’’जा, अउ जेकर बर लुगरा-कपड़ा लेना हे वोला भेज देबे; मिल जाही पइसा।’’97 इसे बेईमान कैसे जान पायेंगे? ’फूलो’ में गरीबों का शोषण करने वाले कृपालु मालिक को विडम्बना स्वरूप रखते हैं जबकि यह हकीकत है। विडम्बना स्वरूप को डाॅ. पाठक एवं उसकी मित्र मंडली भले ही समर्थन दे, हम कैसे सहमत हो सकते हैं। हकीकत से मुँह मोड़ना विद्वता नहीं, न जाने पाठक जी हकीकत के पास कब विराजमान होंगे? अस्तु! आमीन!
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