(प्रंजॉय गुहा ठाकुरता इकोनमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW) पत्रिका के संपदक थे। उन्होंने पत्रिका में अडानी के विषय में आर्टिकल लिखा था उसके बाद उन्हें स्तीफा देना पड़ा। स्तीफै का कारण उन्होंने नहीं बताया। इसी मुद्दे पर आज के देशबंधु के संपादकीय पृष्ठ पर सुप्रसिद्ध पत्रकार चिन्मय मिश्र का एक लेख छपा है। लेख का शीर्षक है - खतरनाक होती पत्रकारिता। यह लेख अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके खतरों की पड़ताल करता है। इस लेख के कुछ अंश इस प्रकार हैं -)
...... ’’ठाकुराता ने पहली बार किसी बड़े उद्योगपति के खिलाफ लिखा हो या प्रकाशित किया हो, ऐसा नहीं है। ..... बात समझ से परे है कि आपके साथ अन्याय हुआ और आप सार्वजनिक तौर पर उसका प्रतिकार नहीं करना चाहते। ........... गौर तलब है, नाॅम चामस्की ने कहा है - ’वे (व्यापारी वर्ग) बहुत पहले ही समझ चुके हैं कि केवल जनमानस ही निजी नियमों के लिए एक गंभीर खतरा है।’ इसलिए उन्होंने अब तकरीबन पूरा मीडिया ही अपने कब्जे में कर लिया है। वहीं इसके ठीक विपरीत जनमानस भी हमारे साथ नहीं है। वजह हमसे बेहतर कौन जान सकता है। क्योंकि हम तो जनता की नब्ज़ जानने का खोखला दावा लगातार करते आये हैं। तीन लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद हम पूरे देश में तीस ऐसे पत्रकार नहीं छाँट पाते जो कि किसान व किसानी की समस्या को समझते हों और समझाने का माद्दा रखते हों।....... अधिकांश ऐसे अखबार जो कि अपने मास्ट हेड पर बड़ी-बड़ी बातें लिखते हैं और देश बदलने और सच के सबसे बड़े हिमायती होने के भ्रम से ग्रसित हैं, उन अखबारों में अब पार्षद के खिलाफ भी नहीं लिखा जाता तो वे प्रधानमंत्री पर क्या टिप्पणी करेंगे। ....... देश के प्रधानमंत्री तीन वर्षों में एक भी पत्रकार वार्ता नहीं करते परंतु दीवाली पर भोज देते हैं और....?
...... ’’ठाकुराता ने पहली बार किसी बड़े उद्योगपति के खिलाफ लिखा हो या प्रकाशित किया हो, ऐसा नहीं है। ..... बात समझ से परे है कि आपके साथ अन्याय हुआ और आप सार्वजनिक तौर पर उसका प्रतिकार नहीं करना चाहते। ........... गौर तलब है, नाॅम चामस्की ने कहा है - ’वे (व्यापारी वर्ग) बहुत पहले ही समझ चुके हैं कि केवल जनमानस ही निजी नियमों के लिए एक गंभीर खतरा है।’ इसलिए उन्होंने अब तकरीबन पूरा मीडिया ही अपने कब्जे में कर लिया है। वहीं इसके ठीक विपरीत जनमानस भी हमारे साथ नहीं है। वजह हमसे बेहतर कौन जान सकता है। क्योंकि हम तो जनता की नब्ज़ जानने का खोखला दावा लगातार करते आये हैं। तीन लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद हम पूरे देश में तीस ऐसे पत्रकार नहीं छाँट पाते जो कि किसान व किसानी की समस्या को समझते हों और समझाने का माद्दा रखते हों।....... अधिकांश ऐसे अखबार जो कि अपने मास्ट हेड पर बड़ी-बड़ी बातें लिखते हैं और देश बदलने और सच के सबसे बड़े हिमायती होने के भ्रम से ग्रसित हैं, उन अखबारों में अब पार्षद के खिलाफ भी नहीं लिखा जाता तो वे प्रधानमंत्री पर क्या टिप्पणी करेंगे। ....... देश के प्रधानमंत्री तीन वर्षों में एक भी पत्रकार वार्ता नहीं करते परंतु दीवाली पर भोज देते हैं और....?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें