प्रेमचंद की नजर में आज की संस्कृति
’’सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसीलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जावरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। अब संसार में केवल एक ही संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति; मगर हम आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं।’’
(निबंध - ’’सांप्रदायिकता और संस्कृति’’, 1934)
(निबंध - ’’सांप्रदायिकता और संस्कृति’’, 1934)
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