शनिवार, 9 नवंबर 2013

छत्‍तीसगढ़ी कविता

देखव


संगी हो!
तइहा ले अब तक के इतिहास ल देखव
घर-गाँव, समाज अउ
अपन चारों मुड़ा के आज ल देखव
चिटिकुन गुनव, थोकुन सोंचव -

तुँहर सथरा के कँवरा ल झपटइया
बड़े-बड़े बटमार मन निशाना बाँधत हें
मेकरा के जाला कस चारो मुड़ा फांदा खेल के
बड़े-बड़े सिकारी मन लुका-लुका के पासत हें।

जिनगी के रस्ता म बड़े-बड़े बाधा हे
तुँहर अउ तुँहर लोग-लइका मन के
पेट काबर अब तक आधा हे?

तुँहर सथरा के कँवरा ल नंगइया
ये बटमार मन ल
तुंहर जिनगी के रस्ता मन म फांदा खेलइया,
खेदा करइया
ये सिकारी मन ल चिन्हव
चिटिकुन गुनव, थोकुन सोंचव ।

तुँहर हितू-पिरीतू ,
मीत-मितान
सगा-सोदर नो हे ये मन।

कब तक फँसे रहिहव
कोई तो जतन करव
कुछ तो कूदो-हड़बड़ावव
कुछ तो चीखो-चिल्लाव, रोव-गाव।

जीना हे,अउ
आवइया मन बर जिनगी ल गढ़ना हे
ते थोरको तो जोर लगाव
फांदा गजब तगड़ा हे
अकेल्ला म का होही
जुरमिल के ताकत लगाव।

संगी हो!
वोला प्रकृति ह खुदे मार देथे
जेकर तीर ताकत नइ होय
जउन ह ताकत नइ लगाय।
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kuber
9407685557

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