गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

संस्मरण

संस्मरण

आत्मा की दैनिक यात्राएँ


जाहिर है, पांच-छः दशक पूर्व मैं भी बच्चा रहा होऊँगा। उस समय के बच्चे आजकल के बच्चों की तरह नहीं होते होंगे। मैं भी आजकल के बच्चों की तरह नहीं रहा होऊँगा, यह तय है। कारण साफ है - तब न तो कंप्यूटर देवता होते थे और न ही इंटरनेट मुनि। बडों से सवाल पूछने में झिझक होती थी, डर लगता था। हम लोग सारा समय खेल और मस्ती में जाया करते थे। गाँव के खेत-खलिहानों में, आम-अमरइया और चैपालों में समय बीतता था। आजकल के बच्चे दिन भर अपने कंप्यूटर देवता से चिपके रहते हैं। अपना हर सवाल कंप्यूटर देवता से पूछ लिया करते हैं। इंटरनेट मुनि के पास इनकी हर जिज्ञासा, हर शंका और इनके सारे प्रश्नों के जवाब मौजूद रहते हैं। इनके सवालों की बौछारों से इंटरनेट मुनि कभी झल्लाते भी नहीं हैं। इसीलिए किसी सवाल के लिए आजकल के बच्चों को न तो माँ-बाप की जरूरत होती और न ही बड़े-बुजुर्गों की। 

हमारा जमाना अलग था। कंप्यूटर देवता प्रचलन में नहीं आये थे। बड़े-बुजुर्ग ही हमारे कंप्यूटर देवता हुआ करते थे। वे भी आज के कंप्यूटरों की तरह ही होते थे। इंटरनेट मुनि के बिना कंप्यूटर देवता भला किसी प्रश्न का जवाब दे सकेगें? इसी तरह मर्जी और मूड हमारे जमाने के बड़े-बुजुर्ग रूपी कंप्यूटर देवताओं के इंटरनेट मुनि हुआ करते थे। उनका मूड न हाने पर उनसे कुछ भी पूछ पाना संभव नहीं होता था। डाट अलग पड़ती थी। 
कई मामलों में हमारे ये बुजुर्ग कंप्यूटर देवता आज के कंप्यूटर देवताओं से बहुत बेहतर होते थे। वे हमेें प्यार करते थे। सिर में हाथ फेरकर आशीर्वाद और दुआएँ देते थे। हमारे भले-बुरे और सुख-दुख का खयाल रखते थे। अच्छा काम करने पर शाबासी और गलत-सलत करने पर झिड़की मिलती थी। 

मेरा कंप्यूटर देवता मेरे पड़ोस में ही रहते थे। मैं उन्हें ’बबा’ कहता था। हमारे घर में उनका आना-जाना था; सभी उनका सम्मान करते थे। आदमी की अवस्था के बारे में तब मुझे समझ तो थी नहीं कि उनकी अवस्था के बारे में कुछ बताऊँ, पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि मेरे जवान होने से पहले ही वे इस दुनिया को छोड़ चुके थे। टेरीकाॅट और फैंसी कपड़े तब नहीं बनते थे। वे कोष्टउहाँ धोती पहनते थे। लाठी लेकर चलते थे। दांत झड़ जाने के कारण गाल पिचक गये थे। अब बापू का लाठीवाला चित्र देखता हूँ तो मस्तिष्क में उनकी ही छबि बनती है। 
बबा के पास बैठना मुझे अच्छा लगता था। वे मुझे बहुत स्नेह करते थे। मेरे सारे प्रश्नों का उत्तर देते थे। दिमाग में इंटरनेट मुनि के अवतरित होने अर्थात् मूड होने पर वे खुद ही ज्ञान-विज्ञान का पिटारा खोलकर बैठ जाते थे। कुछ नहीं पूछने पर भी बहुत सारी बातें बताया करते थे। वे मुझे चांद-सूरज, धरती-आकाश और ग्रहों और तारों के बारे में बताते थे। चाँद पर दिखनेवाला धब्बा धान कूटती हुई किसी बुढि़या का है, ऐसा उसी ने बताया था। यह उनका पारंपरिक ज्ञान था। आदमी अपनी परंपराओं और संस्कारों से बहुत कुछ अर्जित करता है। गाँवों में तब ढेंकी और मूसल ही धान कुटाई का साधन हुआ करते थे। यह काम महिलाएँ ही करती थी। वे रामायण और महाभारत की कहानियाँ भी सुनाते थे। तोता-मैना, बेंदरा-भालू, बघवा-सियार, डोकरा-डोकरी और बाम्हन-बम्हनिन के किस्से सुनाते थे। भूत-प्रेतों के बारे में बताते थे। अपने राज के राजा और गाँव के मालगुजार के कारनामों और उनके द्वारा ढाये गये जुल्मों के बारे में बताते थे। अंग्रेजों के अत्याचारों की घटनाएँ सुनाते थे। परंतु इंटरनेट मुनि के रूठ जाने पर अर्थात् मूड न होने पर वे झिड़क भी देते थे। कहते थे - ’’मनवा! बहुत सवाल पूछता है तू। स्कूल में मास्टरजी से पूछता है?’’ 

तारों के बारे में वे बताते थे - ’’ये तारे और कुछ नहीं हैं, आदमी की आत्माएँ हैं। आदमी के मरने के बाद उनकी आत्माएँ आसमान में जाकर तारे बन जाया करते हैं। तारे बनकर रात में चमकने लगते हैं।’’ 
’’मरने के बाद आत्माएँ तारे बन जाते हैं?’’
’’हाँ।’’
’’सबकी आत्माएँ?’’
’’नहीं, जो पुण्य का काम करते हैं, उन्हीं की आत्माएँ तारे बनते हैं।’’
’’पापी लोगों की आत्माएँ तारे नहीं बनते हैं?’’
’’नहीं।’’
’’मरने के बाद आप भी तारे बन जाओंगे?’’
’’पता नहीं। शायद नहीं। हमने कहाँ कोई पुण्य का काम किया है।’’
’’और पेटला महराज की आत्मा?’’
’’पता नहीं।’’
’’हमेशा माला फेरते रहते हैं न। सुबह भगवान जी की आरती करते हैं। घंटियाँ बजाते हैं। शंख बजाते है। दिन में कीर्तन करते हैं। क्यों नहीं बनेंगे?’’

’’और? और क्या जानते हो पेटला महराज के बारे में? यह सब तो दिखावा है, मनवा! तुम उसे नहीं जानते।’’
’’और मैं?’’
’’मेहनत करके खाना। लोगों को मत सताना। किसी प्राणी को मत दुखाना। झूठ मत बोलना। माँ-बाप की सेवा करना। जरूर तारे बनोगे। जुग-जुग चमकोगे।’’

अब, जबकि जान गया हूँ कि तारों के निर्माण की प्रक्रिया अलग है। आत्मा का इससे कोई लेना-देना नहीं है, तब भी बबा की कही बातें मुझे गलत नहीं लगती हैं। और फिर पूर्व में प्रमाणित अनेक वैज्ञानिक सिद्धांत भी तो आगे चलकर गलत साबित होते हैं। विज्ञान का यह कहना अभी भी सत्य है कि - ब्रह्माण्ड में द्रव्य और ऊर्जा में आपसी रूपान्तरण की प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं। तब? 

तारा बनकर आसमान में कोई चमके, न चमके; बबा जरूर चमकते होंगे। आज भी बबा मेरी यादों में तारों की तरह चमकते रहते हैं।

एक बार मेरे इसी बुजुर्ग कुप्यूटर देवता ने बताया था - ’’मनवा! सुन रहा है न तू। आदमी जब गहरी नींद में होता है तब उसकी आत्मा शरीर छोड़कर बाहर घूमने निकल जाती है। नींद खुलने के पहले परिवार में, सगे-संबंधियों में, देश-विदेश में, आकाश-पाताल में, स्वर्ग-नरक में, कहीं भी स्वतंत्रतापूर्वक घूमकर लौट आती है।’’

’’आत्मा कैसी होती है?’’
’’इसे कोई नहीं देख सकता। सबके सो जाने पर निकलती है।’’
’’हाथ-पैर होते हैं कि नहीं?’’
’’नहीं’’ 
’’फिर चलती कैसे है?’’

’’यह दीये की लौ तरह होती है। शरीर के बाहर आते ही लौ चारों ओर फैल जाती है। और पलभर में ही कहीं भी पहुँच जाती है।’’ 

’’देश-विदेश और स्वर्ग-नरक तो बहुत दूर होते हैं, कभी लौटने में विलंब नहीं होता होगा?’’ मैं पूछता था।

वे बताते थे - ’’कभी नहीं। आत्मा की गति मन की गति से भी अधिक होती है। आने-जाने में समय नहीं लगता। हाँ! आदमी की आयु जब पूरी हो जाती है, तभी वह लौटकर नहीं आती।’’ 

’’इस दौरान वह लोगों से बातचीत, मुलाकात वगैरह भी कर लेती होगी?’’ 
’’जरूर। पर आत्माओं के साथ ही।’’
’’मैं तो खूब सपने देखता हूँ। आत्माएँ बाहर जो देखती होंगी, वही सब हमारे सपनों में आते होंगे?’’
’’धत्। मनवा! सपने तो सपने हैं। आत्मा का इससे संबंध होता होगा?
’’आपकी आत्मा भी जाती होगी?’’
’’जरूर जाती होगी।’’ 
’’आपको पता नहीं?’’
’’नहीं।’’
’’किसे पता होता है?’’
’’साधकों को। इसके लिए बड़ी साधना की जरूरत होती है।’’
’’मैं भी नहीं जान पाऊँगा?’’
’’ज्ञानियों की संगति करना। खूब साधना करना। जरूर जान पाओगे।’’

बबा की बातों पर मुझे विश्वास था। मैं रात में आत्माओं को शरीर से निकलकर बाहर घूमते हुए देखना चाहता था और हमेशा इसकी विधि तलाशता रहता था। 

कल ही अखबार में मैंने पढ़ा - कुछ साल पहले वैज्ञानिकों ने क्लोनिंग तकनीक से डाॅली नामक भेड़ पैदा किया था। अब इसी तकनीक से बंदर के जुड़वा बच्चों को पैदा करने में वे सफल हो गये हैं। जल्द ही यह विधि मनुष्यों पर सफल हो सकेगी। 

विलुप्त हो चुके जीवों को फिर से पैदा करने के लिए या विलुप्ति के कगार पर खड़े जीवों के रक्षण के लिए यह तकनीक जरूर किसी वरदान से कम नहीं है। परंतु मनुष्य के मामले में? जनसंख्या जब इतनी तेजी से बढ रही है, तब आदमी पैदा करने के लिए क्लोनिंग तकनीक की क्या आवश्यकता है? सवाल मुझे महत्वपूर्ण और सामयिक लगा। पर इसका जवाब कौन देगा। सोचा, क्लोनिंग तकनीक से बंदर के जुड़वा बच्चों को पैदा करनेवाले वैज्ञानिकों से ही मिलकर इसका उत्तर पूछना चाहिए। पर कैसे? यह सवाल मुझे मथने लगा। दिनभर मथता रहा। रात में भी पीछा नहीं छोड़ा। 

पता नहीं, कैसे। पर अंततः क्लोंनिंग तकनीक पर अनुसंधानरत एक वैज्ञानिक से मिलने में मैं सफल हो ही गया। रात काफी हो चुकी थी पर वह अपनी प्रयोगशाला में अपने अनुसंधान और प्रयोगों में व्यस्त था। मैं उनसे अपना सवाल पूछना चाहता था। पर उन्हें व्यवधान पहुँचाना उचित नहीं था। और फिर वैज्ञानिक आपने शोध कार्यों को गुप्त रखते हैं। किसी नतीजे पर पहुँचे बिना किसी भी जानकारी को वे सार्वजनिक नहीं करते हैं। सरकार के नियंत्रण में काम करते हैं। खुफिया विभाग के अधिकारियों की सख्त निगरानी रहती है। ऐसे में मुझे दुश्मन देश का भेदिया होने के शक में गिरफ्तार भी किया जा सकता था। और फिर वैज्ञानिक भी तो आखिर मनुष्य ही होते हैं। वह सच को छिपा सकता था। मुझे टाल सकता था। अतः मैं उनके सोने की और उनकी आत्मा के बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगा। 

धीरज का भी फल मीठा होता है। आखिर मेरी प्रतीक्षा पूरी हुई। उस वैज्ञानिक की आत्मा से मैंने सम्मानपूर्वक हाथ मिलाया और झटपट आपना ऊपरवाला सवाल दुहरा दिया। 

उसने कहा - ’’आपका सवाल बहुत ही उचित है। पर हमारा प्रयोग न तो जनसंख्या नियंत्रण के लिए है और न ही जनसंख्या विस्तार के लिए ही। ये सब तो आप लोगों के हाथों में हैं। इस प्रयोग के अनेक मानवीय पहलू हैं। क्लोनिंग तकनीक से बच्चे पैदा करना तो बाद की बात है। सबसे पहले हम बीमारियों पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं। आप जानते ही होंगे, मनुष्य में अनेक बीमारियाँ आनुवांशिक होती हैं। केंसर, मधुमेह और एड्स जैसी अनेक असाध्य बीमारियाँ भी हैं जिनका कोई उपचार नहीं है। इन बीमारियों को पैदा करने के जीन्स मनुष्य के गुणसूत्रों में ही पाये जाते हैं और संतानों में स्थानांतरित होते रहते हैं। इस तकनीक से ऐसे सभी रोगों के जीन्स को हम गुणसूत्रों से अलग कर देंगे और उनकी जगह मनुष्य की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ानेवाले जीन्सों को स्थापित कर देंगे। तब मनुष्य कभी बीमार ही नहीं होगा। इस तरह हम बीमारियों पर विजय पा लेंगे। पौधों पर इसी तरह के प्रयोग द्वारा कीटनाशकों और ऊर्वरकों के बगैर ही फसलों का उत्पादन हम कई गुना बढ़ाने में सक्षम हो सकेंगे।’’

’’निश्चित ही यह एक महान कार्य है। इसके लिए आपको बधाई।’’
’’सो तो ठीक है। परंतु हमें शंका है कि इस प्रयोग का लाभ आम जनता को मिल सकेगा।’’ 
’’क्यों?’’
’’क्योंकि दवा बनानेवाली कंपनियाँ ऐसा नहीं चाहती।’’

’’ओह! दुर्भाग्य। एक सवाल और पूछना चाहता हूँ - मानवता की राह में सबसे बड़ी बीमारी तो लोगों में पनप रहा भ्रष्ट आचरण है। कामुकता और हिंसा की वृत्ति है। मनुष्य के गुणसूत्रों में इनके भी जीन्स होते होंगे। क्या इन जीन्सों को निकालकर इनकी जगह सदाचरण और अहिंसा के जीन्स प्रतिरोपित करके अच्छा इन्सान विकसित करने के लिए आप लोग कोई प्रयोग नहीं कर रहे हैं?’’

मेरे इस सवाल से वह कुछ विचलित हुआ। दुखी मन से उसने बताया - ’’हम भी ऐसा ही चाहते हैं। पर आप तो जानते ही हैं। इस तरह के अनुसंधान कार्य में काफी धन खर्च होता है। इस अनुसंधान में जिन धनपतियों का धन लग रहा है वे ऐसा नहीं चाहते। वे तो भ्रष्ट आचरण, कामुकता और हिंसा की वृत्तियाँ पैदा करनेवाले जिंन्सों को अधिक से अधिक फैलाना चाहते हैं ताकि हथियारों का उनका कारोबार अधिक से अधिक फल-फूल सके, बढ़ सके।’’

’’सरकार कुछ नहीं करती?’’ मैंने पूछा।
शून्य में देखते हुए उसने बुझे मन से कहा - ’’सरकार?’’

बात पूरी हो पाती, इसके पहले ही उसके शयनकक्ष में लगी घड़ी का अलार्म बजने लगा और वह वैज्ञानिक आत्मा तुरंत अपने शरीर में लौट गई। 

इधर मेरे भी बेडरूम में बेड-टी का प्याला लेकर खड़ी मेरी पत्नी का अलार्म बजने लगा था। 
000 kuber000
  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें