गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

व्यंग्य

मित्रों के बोल नमूने 

नमूना - 13

दिव्य सत्संगी का दिव्य सत्संग


एक दिव्य सत्संगी की यह दिव्य कथा किसी मित्र ने सुनाई थी।
गाँव में एक बार एक सत्प्रचारक दिव्य सत्संगी आये थे। वेशभूषा से पहुँचे हुए महात्मा और परम ज्ञानी लगनेवाला वह दिव्य सत्संगी मुझे तो किसी विलायती मिशनरीज का सनातन देशी संस्करण लग रहा था। पता चला कि गाँव-गाँव, गली-गली घूमकर वह अपने पूज्य बापूजी के उपदेशों का प्रचार करते हैं। धर्मच्युत लोगों को बापूजी द्वारा प्रवर्तित मानवधर्म में दीक्षित करते है; उन्हें सत्धर्म की ओर प्रवृत्त करते हैं। माया-मोह के अंधकार में भूले-भटके लोगों के मन में सन्मति का प्रकाश फैलाकर उन्हें सन्मार्ग की ओर ले जाते हैं। बापू आश्रम से उत्पादित दिव्य बापू औषधियों और बापूजी के वचन सुधारस से सराबोर सत्साहित्य को जन-जन तक पहुँचाते हैं और स्वस्थ तथा नैतिक समाज का निर्माण करने का सद्प्रयास करते हैं।
मित्र का कहना था कि सत्संग और सत्साहित्य पर वे बहुत सुंदर प्रवचन कर लेते थे। वे कहते थे - ’’सत्संग का अर्थ होता है सत् का संग करना। ‘सत्’ का अर्थ है - ईश्वर। ईश्वर ही परम सत्य है। इस तरह सत्संग का अर्थ हुआ - ईश्वर का संग करना। ईश्वर के संग रहना। यूँ तो सत् और संत में स के ऊपर लगी बिंदी का ही फर्क है, पर यह फर्क ब्रह्म और माया का फर्क है। स से सत्य बनता है। सत्य निराकार होता है। सं से संसार बनता है। संसार साकार होता है। इस तरह संतगण इस संसार में सत्य रूपी निराकार ईश्वर का साकार रूप होते हैं। अतः संतों का संग प्राप्त करना ही सत्संग करना है। संतों की अनुपस्थिति में उनके अमृतवचनों से युक्त सत्साहित्य और धर्मग्रंथों का अध्ययन करना भी सत्संग करना ही कहलाता है।’’
स्कूल के दिनों में किसी सवाल के समझ में न आने पर गुरूजी मुझसे कहा करते थे - ’’मूर्ख! तेरे दिमाग में तो गोबर भरा हुआ है; कैसे समझ में आयेगा।’’
पढ़ाई के दिनों का, मेरे दिमाग में भरा हुआ गोबर, आज तक कंपोस्ट में नहीं बदल सका है। इसीलिए उस दिव्य सत्संगी की उपर्युक्त दिव्य व्याख्या मेरे दिमाग में जरा भी नहीं समा पाई। इस गोबर के अप्रिय गंध से विकर्षित होकर वह व्याख्या सत्य की दिशा में मुड़ गई होगी। मतलब मेरे दिमाग की ओर न आकर वह निराकार सत् में समाहित होती चली गई होगी। मैंने पूछा - ’’इस साकार संसार में अनेक साहित्यकारों ने भी अच्छी-अच्छी किताबें लिखी हैं - अनेक उपन्यास हैं, महाकाव्य हैं, कहानियाँ हैं; इन किताबों का अध्ययन करना भी तो सतसंग करना ही होगा न?’’
’’नहीं, बिलकुल नहीं।’’ उन्होंने कहा था - ’’इनको पढ़ने से मन भटकता है। भटका हुआ मन अटकता है। अटका हुआ मन खटकता है। खटका हुआ मन आत्मा को पुनः इसी नश्वर संसार में बार-बार लाकर पटकता है।’’
मेरे दिमाग का गोबर उसके इस स्पष्टीकरण के मार्ग में पुनः बाधक बन गया होगा। तमाम समय मैं केवल चेथी ही खुजलाता रहा।
फिलहाल वह दिव्य पुरुष सप्ताहभर से गाँव के एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार में अटका हुआ था। वह परिवार संतानहीनता नामक रोगा से ग्रसित था। पता चला कि वह दिव्य सत्संगी उस निःसंतान दंपत्ति की संतानहीनता का दिव्य इलाज कर रहे हैं। इसके लिए उस दंपत्ति को अपने दिव्य बापू औषधि का दिव्य सेवन करा रहे हैं। संतानहीन स्त्री की कायिक शुद्धता के बिना इस असाध्य रोग का पूर्ण उपचार संभव नहीं था। इसके लिए उस स्त्री को गुप्त रूप से दिव्य आलिंगन का भी उपचार दिया जा रहा था। कायिक शुद्धिकरण के लिए दिव्य आलिंगन का वह उपचार दिव्य सत्संग का ही एक रूप था।
एक दिन शाम के समय उस दंपत्ति के घर में बड़ा तमाशा हुआ। पता चला कि एकांत पाकर वह दिव्य सत्संगी, अपने दिव्य आलिंगन के द्वारा, उस निःसंतान सज्जन की बांझ पत्नी का कायिक शुद्धिकरण करने में लगे हुए थे। बांझपन का दिव्य सत्संग विधि द्वारा ऐसा दिव्य उपचार उस बांझ स्त्री के नासमझ पति की समझ में नहीं आई होगी। उसे भ्रम हुआ होगा कि पत्नी की पतिव्रता धर्म को नष्ट किया जा रहा है। और बात का बतंगड़ बन गया था।
अंत में पुलिसवाले उस दिव्य सत्संगी को हथकड़ी पहनाकर ले गये थे।
उस दिव्य सत्संगी का क्या हुआ, पता नहीं; परंतु इस घटना के दसवाँ महीना पूरा होते-होते, उस निःसंतान दंपत्ति की गोद में एक दिव्य शिशु का अवतरण जरूर हो गया था।
000kuber000

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें