रविवार, 20 जुलाई 2014

लघु कथाएँ

दो लघुकथाएँ

1: नम्बर आफ मैक्जिमम रिटेल हन्ट


इनके मां-बाप ने इनका नाम बाजार चंद रखा था। तब उन्हें अपने इस यशस्वी पुत्र के, भविष्य में दुनिया के सर्वशक्तिमान हस्ती बन जाने की वास्तविकता का जरा भी अंदाजा नहीं रहा होगा।

कहा गया है, होनहार बिरावन के होत चीकने पात। बाजार चंद धीरे-धीरे अपनी योग्यता और चतुराई के बल पर विश्व बाजार नामक जंगल का एकछत्र राजा बन गया। अपार धन-शक्ति अर्जित कर वह बड़ा निरंकुश, क्रूर और निर्दयी हो गया। अपनी शारीरिक और मानसिक भूख मिटाने के लिए वह जंगल के सैकड़ों निर्दोष प्राणियों का रोज निर्ममता पूर्वक शिकार करता। जंगल में उसी का कानून चलता। सर्वत्र बाजार चंद का भय व्याप्त हो गया। सारे निरीह और निर्दोष प्राणी त्राहि-त्राहि करने लगे। उन्हें सर्वत्र, हर पल अपने प्राणों का संकट ही नजर आता; अपना अस्तित्व मिटता नजर आता। बाजार चंद की क्रूरता और निर्दयता से बचने का उन्हें कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। बाजार चंद से ऊपर आखिर और कौन था, जिसके सामने वे अपना दुखड़ा रोते? समस्या विकट थी।

कुछ पढ़े-लिखे प्राणियों ने इस समस्या के निदान के लिए एक समिति बनाई। समिति ने दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों और अन्य विद्वानों की किताबों और उनके सिद्धातों का गहन अध्ययन करना शुरू किया। कई दिनों तक विचार विमर्श चलता रहा। रोज कोई न कोई सैद्धांतिक हल प्रस्तुत किया जाता, पर बाजार चंद की निरंकुशता के आगे सारे विफल हो जाते। उन्हीं में एक बुजुर्ग प्राणी भी था जो कुछ व्यावहारिक और समझदार था। उसने कहा - ’’भाइयों! बचपन में मैंने शेर और खरगोश की एक कहानी सुनी थी। कहानी में हमारी इसी तरह की समस्या और उसके निदान का वर्णन है। शायद वही तरकीब इस समय हमारा काम आ जाय।’’

निराश-हताश प्राणियों और सारे बुद्धिजीवियों को उस बुजुर्ग की बातों में दम दिखाई दिया। मरता, सो क्या न करता?

भयाक्रांत प्रणियों का शिष्टमंडल हाथ जोड़े और सिर झुकाये बाजार चंद से मिला। शेर और खरगोश वाली तरकीब के मुताबिक उसने बाजार चंद से निवेदन किया कि हे महामहीम! आप अपने रोज के भोजन और मनोरंजन के लिए व्यर्थ ही सैकड़ों प्राणियों को मौत के घाट उतारते हैं। उचित होगा कि एक निश्चित संख्या तय कर लिया जाय। सोचिये हुजूर! आखिर हम ही नहीं रहेंगे तो आप शासन किस पर करेंगे?

तरकीब जांची-परखी थी, काम आ गई। प्रतिदिन के शिकार के लिए एक निश्चित संख्या तय कर लिया गया। इस संख्या को नाम दिया गया, नंबर आफ मैक्जिमम रिटेल हण्ट अर्थात् एम. आर. एच. नंबर।

कहते हैं, आज का एम. आ. पी. इसी संख्या का सुधरा और सुसंस्कृत रूप है।
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2: कबीर की बकरी


कबीर की कुटिया एक मंदिर के पास थी। उसने एक बकरी पाल रखी थी। कबीर बकरी को रोज यही उपदेश देता कि वह भूलकर भी, कभी मंदिर के अंदर न जाय।

बकरी को कबीर की बातों पर अचरज होता।

बकरी एक दिन मंदिर का आहाता लांघकर अंदर चली गई। कबीर को अपनी बकरी की इस नादानी पर दुख हुआ। उसकी सलामती को लेकर उसे चिंता होने लगी। पंडों के साथ झगड़े भी हो सकते थे।

शाम हो गई। अंधेरा घिरने लगा। बकरी नहीं लौटी। किसी अनहोनी की आशंका से घबराया हुआ कबीर बकरी को ढ़ूँढने निकला। बकरी मंदिर के आहाते के बाहर खून से लतपथ, मरणासन्न अवस्था में पड़ी मिली। कबीर ने बकरी से पूछा - ’’ऐ बकरी, तू तो मंदिर के भीतर गई थी। तेरी ऐसी हालत किसने की?’’

मरने से पहले बकरी कबीर से मिलकर अपनी गलती के लिए क्षमा मांग लेना चाहती थी। कबीर की आवाज सुनकर उसे असीम शांति मिली। उसने कहा - ’’कबीर! मुझे क्षमा कर देना। तू ठीक ही कहता था कि मंदिर के अंदर कभी न जाना। मैंने तुम्हारा उपदेश नहीं माना। यह उसी का नतीजा है। वहाँ के साधू के समान दिखने वाले बकरों पर विश्वास करके मैंने बड़ी भूल की।’’
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