साक्षात्कार
(हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान रूप से लेखनी चलाने वाले कुबेर जी की अब तक पाँच पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। कुबेर जी एक प्रयोगधर्मी कथाकार हैं। इनकी भाषा और शैली पाठकों को बांधकर रखने में पूर्णतः सक्षम है। इनकी कहानियों में कथ्य की विविधता इनकी प्रयोगधर्मिता के प्रमाण हैं। समीक्षकों ने इन्हें ’संभावनाओं के कवि’ और ’संभावनाओं के साहित्यकार’ कहा है। प्रस्तुत साक्षात्कार में भी इन्होंने कुछ मौलिक प्रश्न उठाए हैं। यह साक्षातकार संस्कारधानी, राजनांदगाँव के उभरते हुए समीक्षक श्री यशवंत द्वारा लिया गया है - संपादक)
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प्रश्न 1. अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि पर कुछ प्रकाश डालेंगे?
उत्तर - मेरा जन्म पाँच भाइयों के संयुक्त कृषक-परिवार में हुआ। परिवार बहुत अधिक संपन्न नहीं था फिर भी उस समय जो सबसे अच्छा हो सकता था वैसा हमने खाया और पहना। हमने न तो कभी सूखी रोटी खायी और न ही कभी फटे वस्त्र पहने। बचपन के जमाने में दो या तीन बार अनावृष्टि की वजह से भयानक दुर्भिक्ष पड़े थे। लोग दाने-दाने को मोहताज हुए थे। हमारे परिवार ने जरूरतमंदों की मदद की थी। तब के बचेखुचे लोग आज भी इस परिवार की गौरवगाथा सुनाते हैं। पर अब सिर्फ अतीत बचा है।
हमारे पिताजी पाँच भाइयों में तीसरे नंबर के थे। सबसे बड़े पिता जी और दोनों चाचा प्रायमरी तक पढ़े थे। बड़े पिता जी गाँव में सरकार की ओर से लगान वसूल करने का काम करते थे। मेरे पिताजी पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे। पाँच भाइयों के परिवार में पहिली संतान मैं था, इसीलिए परिवार में; और पड़ोसियों में भी मैं सबका दुलारा था। मेरा लालन-पालन बड़े पिताजी और बड़ी माँ जिसे परिवार में हम सब भाई-बहन ’बड़की दाई’ बुलाया करते थे, ने किया। वे ही मेरे असली माता-पिता थे। आज मैं जहाँ हूँ, जहाँ बैठा हूँ, वह सब उन्हीं का दिया हुआ है। जन्म देने वाले माता-पिता को तो मैंने नौ-दस साल की अवस्था में पहचाना। इसका परिणाम हुआ कि; संयुक्त परिवार में, एक साथ रहते हुए भी, इस दौरान उनसे जो अजनबीपन पैदा हुआ था, वह अंत तक बना रहा।
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प्रश्न 2. साहित्य की ओर आप कैसे प्रवृत्त हुए?
उत्तर - जब मैं छोटा था, मेरे पिताजी का फुफेरा भाई महीने में दो-तीन बार हमारे घर जरूर आया करते थे। जरूरत पड़ने पर उन्हे संदेश भेजकर बुला लिया जाता था। वे वैद्य थे और हमारे परिवार की चिकित्सा का दायित्व वे ही निभाते थे। वे हमेशा कहा करते थे कि कुबेर को डाॅक्टर बनाना है। उन्हीं की प्रेरणा से मैंने जीव विज्ञान विषय का चयन किया था। परन्तु महाविद्यालय तक आते-आते हमारे परिवार का बिखराव शुरू हो चुका था। परिस्थितियाँ इतनी खराब हुई कि मैं पी. एम. टी. की परीक्षा नहीं दे पाया और आगे चलकर एम. एस-सी. भी मुझे बीच में ही छोड़ना पड़ गया। इसका मलाल मुझे आज भी है। परन्तु हिन्दी विषय में जब मैं साकेत और कामायनी जैसी कृतियों के अंशों को पढ़ता था; हमारे महान् साहित्यकारों की जीवनी पढ़ता था तो मेरे मन में भी उन्हीं के जैसा बनने की इच्छा होती थी, यही इच्छा अब मैं पूरी कर रहा हूँ।
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प्रश्न 3. आपने विज्ञान में स्नातक किया और साहित्य में स्नातकोत्तर; दोनों भिन्न विषय हैं। आप दोनों में सामंजस्य कैसे बिठा पाये?
उत्तर - यदि मैं केवल समकालीन साहित्य तक ही सीमित रहूँ, जिससे कि मेरा नाता है, तो मैं कहूँगा; दोनों विषयों में अंतर तो है पर विरोध कहीं भी नहीं है, सहमति ही सहमति है, फिर सामंजस्य बिठाने की बात कहाँ? धर्म और साहित्य, दोनों को ही समझने के लिए वैज्ञानिक दृष्टि चाहिए। कुछ ही समय पहले तक, बल्कि कहूँ तो बहुत कुछ अभी तक हमारे यहाँ साहित्य धर्म से ही जुड़ा हुआ है। दुनिया के प्राचीनतम् साहित्य वेदों में विज्ञान बहुत है। परन्तु आज तक यह धार्मिकों की बपौती बनी हुई है इसीलिए यहाँ पर मैंने धर्म को लाया। वैदिक गणित के बारे में अब हम जानते हैं क्योंकि पाठ्यक्रमों में अब यह आया है। साहित्य में भी हमने धार्मिक तत्वों को प्रतिष्ठित किया। साहित्य से विज्ञान को हमने हमेशा दूर रखा इसीलिए इसके अंदर अंध आस्था की जड़ें इतनी मजबूत हुई। विज्ञान हमें अंध आस्था से बचाता है क्योंकि चीजों को स्वीकारने से पहले यह उसकी सत्यता की पहचान करता है। विज्ञान में अविश्वास भी है और विश्वास भी। दोनों के बीच में तर्क और अन्वेषण है जो हमें प्रगतिगामी बनाता है। यहाँ मस्तिष्क है तो हृदय भी है जिसके समन्वय से दुनिया सुंदर बनती है। आप मेरा विरोध करेंगे कि विज्ञान में हृदय कहाँ? पर यह गलत है। दुनिया को सबसे अधिक प्रेम विज्ञान ने ही किया है। दुनिया को सबसे अधिक प्रेम विज्ञान ने ही दिया है और इसीलिए यहाँ न तो किसी प्रकार का बंधन है और न ही किसी प्रकार का मोक्ष है। जहाँ बंधन ही न हो, वहाँ मोक्ष कैसी? और यही प्रवृत्ति समकालीन साहित्य की भी है। इसीलिए मैं कहता हूँ, साहित्य और विज्ञान में विरोध कहीं भी नहीं है। धर्म में केवल विश्वास है, केवल हृदय है जो समानांतर तौर पर, जाने-अनजाने एक पक्षीय विश्व की रचना करता चला जाता है। और यही बातें मनुष्य को प्रतिगामी बनाती हैं। ध्यान रहे, प्रकृति द्विपक्षीय है जिसका एक पक्ष सृजन का है तो दूसरा पक्ष विध्वंश का। सृजन और विध्वंश के बीच का विस्तार ही जीवन है। बहुत पहले यह बात हमें श्रीकृष्ण ने बताई थी परन्तु इस वैज्ञानिक सत्य के ऊपर हमने धार्मिक आस्था का मोटा आवरण चढ़ाकर इसे आचरण में ढलने नहीं दिया और इसे केवल पूजा की वस्तु में बदल कर रख दिया। यही बात कबीर ने कही, परन्तु कबीर को आज तक किसी ने न तो कवि माना और न ही संत; फिर उनकी बातों को महत्व क्यों मिलना था? धर्म पहले तरह-तरह के काल्पनिक भय पैदा करके बंधनों का सृजन करता है और फिर स्वंय ही, अपने ही बनाये बंधनों से मोक्ष की बात करता है। यहीं से अड़चनें और बाधाएँ पैदा होना शुरू हो जाती हैं, जो शोषण और शोषकों के संसार का सृजन करती है। विश्व में जो भी, जिस रूप में भी है, चाहे जड़ हो या चेतन, चाहे सूक्ष्म हो या स्थूल, चाहे दृश्य हो या अदृश्य सब एक व्यवस्था के अंतर्गत हैं। एक ही व्यवस्था के अंतर्गत सभी मर्यादित रूप से अपनी-अपनी जगह पर क्रियाशील हैं। प्रकृति की यही व्यवस्था विज्ञान है। विश्व में जो भी है, सब उसी के अंग हैं। सभी उस व्यवस्था का पालन करते हैं। परन्तु मनुष्य ने इस व्यवस्था का अतिक्रमण किया है। यह प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह है। लेकिन हमें समझ लेना चाहिए कि प्रकृति की शक्तियाँ अपराजेय है। प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह का नुकसान हमें ही होना है। आज लोग ’सेव द अर्थ’ का नारा देने लगे हैं। प्रकृति से खिलवाड़ बंद हो, प्रकृति के विरुद्ध चलना बंद करें, इसके पीछे शायद यही भावना हो। परन्तु इस नारे में छिपी हुई दो बातें - पहला हमारा दंभ और दूसरा हमारी घबराहट, बहुत स्पष्टता के साथ उभरकर कर आती है। हमें माल्थस की बातें याद करनी चाहिये।
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प्रश्न 4. हिन्दी साहित्य के विकास को आप किस तरह व्याख्यायित करेंगे?
उत्तर - हिन्दी साहित्य के काल विभाजन में मैं राहुल सांकृत्यायन के मतों का पक्षधर हूँ। राहुल सांकृत्यायन ने जो हमें दिया है, जितना दिया है, उसका मूल्यांकन अभी तक नहीं हो पाया है। हिन्दी साहित्य में उनके जैसा विराट व्यक्तित्व अभी तक नहीं हुआ है। उन्होंने पालि और प्राकृत के कई विलुप्त-दुर्लभ साहित्य को ढूँढ कर हमें दिया है। अपभ्रंश के स्वयंभू और पुष्पदंत जैसे महान् कवियों का पता लगाया है। उनके अनुसार अपभ्रंश भाषा जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने प्राकृताभास कहा है, सातवीं शताब्दि तक प्रचलित थी और हिन्दी का विकास इसी भाषा से हुआ है। सिद्धों की भाषा अपभ्रंश ही थी। राहुल ने स्वयंभू रचित ’रामायण’ की भाषा अपभ्रंश और इसकी रचना काल 1464 ई. माना है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के प्रथम काल अपभ्रंश काल को ’सिद्ध सामंत काल’ कहा है और इसका प्रारंभ उन्होंने सातवीं शताब्दि माना है। हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक काल को ’सिद्ध सामंत काल’ नाम देने के पीछे राहुल के पास पर्याप्त कारण और तर्क हैं। अपभ्रंश के कवि सिद्ध होते थे। समाज में राजाओं और सामंतों का दबदबा था। सामंतों की संख्या अधिक थी। वे अपने स्वार्थों के लिए लड़ाइयाँ लड़ते थे। शेष समय भोग-विलास में व्यतीत करते थे। वे अत्यंत क्रूरता और निर्ममतापूर्वक जनता से कर वसूलते थे परन्तु जनता के दुख-दर्द से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता था। रासो काव्यों में अतिरंजनापूर्ण युद्ध वर्णनों का ही बाहुल्य है।
भक्तिकाल में, सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से हो चाहे काव्य के तत्वों की दृष्टि से, किसी भी दृष्टि से देख लें; प्रेममार्गी सूफी कवियों और कबीर जैसे ज्ञानमार्गी कवियों की रचनाएँ जिनमें वैचारिक प्रतिबद्धता का बीजारोपण हुआ है, कहीं अधिक मूल्यवान हैं परन्तु वे अब तक गौण बने हुए हैं। लोगों को तुलसी और सूर के अलावा और कोई दूसरा नजर नहीं आया, क्योंकि धर्म को शोषण का हथियार बनाने वालों को यहाँ अधिक सुविधा मिलती है। यहाँ मानवीय मूल्यों से संबंधित संदेशों और उपदेशों की कोई कमी नहीं हैं जिससे समाज का कल्याण हो सकता था; परन्तु धार्मिक आस्था और रूढ़ मान्यताओं की अतिवृष्टि से आई प्रलय में ये सारे डूब गये, बह गये। धार्मिक आडंबरकारों का दावा है कि रामचरितमानस पढ़ने अथवा सुनने मात्र ही से जीव को भवसागर से मुक्ति मिल जाती है; तब फिर इसमें निहित सामाजिक और नैतिक मूल्यों की परवाह भला कौन मूर्ख करेगा?
भक्तिकाल को ’हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल’ कहने में लोगों ने बहुत जल्दबाजी की है। ऐसा कहने वालों ने रीतिकाल के बाद शायद हिन्दी साहित्य के इतिहास को समाप्त मान लिया था। पर यह गलत है। हिन्दी साहित्य रूपी सरिता का प्रवाह आज भी निर्बाध गति से जारी है। नदी ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती जाती है, उसका स्वरूप विराट होता जाता है; वह अधिक कल्याणकारी होती जाती है। आधुनिक काल में हिन्दी साहित्य का स्वरूप पहले से विराट हुआ है। आधुनिक काल ने ही हिन्दी साहित्य को कोरे नैतिक उपदेशों, संदेशों, कल्पनाओं और आदर्शों की मायावी दुनिया से निकालकर इसे यथार्थ का ठोस वैचारिक धरातल दिया है। आधुनिककाल ने ही यह बताया कि संसार में केवल राजे-महाराजे, ईश्वर और भगवान ही नहीं होते हैं; केवल काल्पनिक स्वर्ग और नरक ही नहीं होते हैं; अपितु करोड़ों-अरबों की संख्या में यहाँ ऐसे लोग भी रहते है जिनके पास न तो रोटी है, न मकान है और न ही कपड़े हैं। नरक कल्पना नहीं वास्तविकता है और इसी धरती पर मौजूद है। रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित किये गये सारे शोषित लोग इसी नरक में रहते है। ईश्वर भी है और उनका स्वर्ग भी है; और इसी धरती पर है, और ये सारे के सारे लोग शोषक हैं। इस धरती पर मौजूद स्वर्ग और नरक, दोनों ही, धरती के इन्हीं ईश्वरों की निर्मितियाँ है।
भविष्य भूत की तुलना में हमेशा बेहतर होता है, यह प्रकृति का नियम है। काव्य में काल्पनिक कलात्मकता, आदर्शों की स्थापना अथवा काव्य तत्वों की प्रधानता को ही पर्याप्त नहीं मान लेना चाहिए। काव्य अथवा साहित्य का मूल उद्देश्य ईश्वर की स्थापना करना नहीं बल्कि मानवता और बेहतर समाज की स्थापना करना होना चाहिए और इसके लिए काल्पनिक आदर्शों की नहीं बल्कि विचारों की ठोस जमीन की आवश्यकता होती है। समकालीन साहित्य ईश्वरत्व की नहीं, मनुष्यत्व की सर्वोच्चता का उद्घोष करता है और मानवता की स्थापना का प्रयास करता है; इसलिये यह मुझे पिछले सभी कालों से बेहतर प्रतीत होता है।
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प्रश्न 5. आपने समकालीन साहित्य की बात की है। बहुत सारे विद्वानों ने इसकी व्याख्या की है और इसकी विशेषताओं को रेखांकित भी किया है। आप इसे किस प्रकार परिभाषित करना चाहेंगे?
उत्तर - न तो काल को परिभाषित किया जा सकता है और न ही काल के किसी खण्ड को। परन्तु प्रयोजन-विशेष के लिए लक्षणों के आधार पर काल को हम विभिन्न खण्डों में वर्गीकृत अवश्य कर सकते हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास जिस समय लिखा गया, और जब आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल का निर्धारण किया गया, ये तीनों काल बीत चुके थे। यह नामकरण इतिहास के इन कालखण्डों में लिखे गए साहित्य के लक्षणों और विशेषताओं के आधार पर किया गया है। अर्थात् आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल - ये सारे नाम लाक्षणिक हैं। परन्तु इतिहासकार को उसके समय में अर्थात् वर्तमान में लिखे जा रहे साहित्य के कालखण्ड को कोई लाक्षणिक नाम देना संभव नहीं हुआ होगा और उसने इसे आधुनिककाल का नाम दिया। आधुनिक काल के प्रारंभ में छायावादी कविताएँ लिखी गई। गद्य का विकास इसी काल में हुआ। साहित्य का कायाकल्प हुआ। कला, भाव, भाषा, शैली, छंद और विषय की दृष्टि से साहित्य का सर्वथा नया स्वरूप सामने आया जिसमें न तो कोरे उपदेश हैं, न तो आत्मा-परमात्मा का चिंतन है और न जीव और ब्रह्म की खोज का झंझट है। यहाँ तो केवल बेहतर मानव समाज की खोज है, मानव जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास है, मानव और मानवतावाद की स्थापना करने वाले विचारों की प्रधानता है। यहाँ पर ’मैं कौन हूँ’ की जगह ’हम कौन हैं’ पर चिंतन है। ’भवसागर से मुक्ति’ के स्थान पर ’सारे रूढ़ विचारों और अंध मान्यताओं से मुक्ति’ का प्रयास है। यहाँ किसी काल्पनिक ईश्वर के स्वर्ग की तलाश नहीं है, बल्कि इसी दुनिया में मौजूद गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा, सामाजिक असमानता आदि से बजबजाती हुई वास्तविक नरक से मुक्ति के मार्गों की खोज है। यहाँ शब्दों को पाण्डित्य का लेप चढ़ाकर ममी बनाने का प्रयास नहीं किया जाता, बल्कि उपेक्षित, त्याज्य और मृतप्राय शब्दों को लाक्षणिक उपचार देकर जीवंत और शक्तिसंपन्न बनाया जाता है। क्या नाम दिया जाय ऐसे साहित्य को और ऐसे साहित्य के इस कालखण्ड को? प्रथमतः इसे ’छायावादेत्तर काव्य’ कहा गया परन्तु इस नाम को व्यापक समर्थन नहीं मिल सका। शायद साहित्यिकों में छायावाद और उससे पहले के सारे वादों के प्रति सम्मान-भाव का लोप हो चुका था। और फिर गद्य का विकास भी तो इसी काल में हुआ, और साहित्य के उपर्युक्त सारे लक्षण गद्य में भी तो मौजूद हैं। मुझे नहीं पता, ’समकालीन साहित्य’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया। अनायास ही किया या ग्रह-नक्षत्रों का मिलान करके किया। परन्तु मुझे तो यह शब्द पूर्णतः यादृच्छिक लगता है। यादृच्छिक वे शब्द होते है जो लक्षणों या तर्कों के आधार पर नहीं होते हैं। समकालीन साहित्य के जिन लक्षणों की हमने चर्चा की उनमें से कोई भी लक्षण इस शब्द में ध्वनित नहीं होते है। ’समकालीन साहित्य’ के काल को ’समकाल’ मानेंगे। ’समकाल’ वर्तमानकाल तो नहीं हो सकता न। ’समकाल’ की कल्पना सर्वथा नई कल्पना है। पहले हमें यह समझना होगा कि ’समकालीन साहित्य’ और ’समकालीन’ दोनों दो भिन्न-भिन्न शब्द हैं। समकालीन होने का जो अर्थ है, उसे आप ’समकालीन साहित्य’ के साथ नहीं जोड़ सकते। यह केवल एक नाम है, जो ’समकाल’ में लिखे जा रहे साहित्य के लिए तय किया गया है।
अब! समकाल को कैसे समझें?
समकालीन साहित्य के जितने लक्षण हमने पहले देखा है, जैसे - यह मानवतावादी है, बेहतर और समतामूलक-शोषणविहीन समाज की स्थापना का प्रयास करता है, यह सारे सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों-अंधविश्वासों का विरोध करता है, यह शोषितों का पक्षधर है और शोषकों का विरोध करता है, यह व्यवस्था विरोधी है, यह शब्दों के द्वारा पाण्डित्य का प्रदर्शन नहीं करता, यह बिंबों और प्रतीकों के द्वारा नये सौन्दर्यशास्त्र की स्थापना करता है, आदि .....। आप पीछे मुड़कर देखेंगे तो पायेंगे कि ये लक्षण तो कबीर के साहित्य में भी मौजूद है। आप और पीछे देखेंगे तो ये लक्षण आदिकवि बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद (सरहपा) में भी मौजूद हैं। आदिकवि बाल्मीकि ने अपने विश्व प्रसिद्ध ’रामायण’ में जावालि जैसे तेजस्वी पात्र के माध्यम से कहा - ’’राम, राजा को जहाँ जाना था, चले गये। तुम चलो और राज्य संभालो। श्राद्ध आदि व्यर्थ है, अन्न का अपव्यय है। देखो, मरा हुआ व्यक्ति क्या खाता है? यदि दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे व्यक्ति के शरीर में चला जाता हो तो, परदेश गये व्यक्ति के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए। उन्हें मार्ग के लिए भोजन की आवश्यकता नहीं होगी।’’
केशकम्बली और सरहपाद (सरहपा) दोनों ही भिक्खु थे। केशकम्बली की भाषा पालि थी। सरहपाद अपभं्रश काल से संबंधित हैं। यज्ञ में बलि दिये गये पशु की आत्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है; ऐसा दावा करने वाले ब्रह्मर्षियों को लक्ष्य करते हुए केशकम्बली पूछता है - ’’अग्निष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु यदि स्वर्ग चला जाता है, तो यजमान अपने बाप का वध क्यों नहीं करता?’’
इसी तरह सरहपाद कहते हैं - ’’यदि नग्न रहने से मुक्ति हो जाय, तो कुत्ते और सियार भी मुक्त हो जायेंगे। मोरपंख धारण करने से मुक्ति यदि संभव है तो मोर और चँवर भी मुक्त हो जायेंगे। शिला चुगकर खाने से यदि ज्ञान प्राप्त हो जाय तो कीटंे और तुरंग भी ज्ञानी हो जायेंगे।’’
तो कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमान में लिखे जा रहे समकालीन साहित्य की विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ भूत में रचित साहित्यों में भी विद्यमान हैं; और आगे भी रहेंगी। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं - वर्तमानकाल, जो बहुत ही क्षणिक होता है, स्वयं को भूत और भविष्य, दोनों ही कालों में विस्तारित करने की क्षमता रखता है। वर्तमान का यही विस्तार तो समकाल है।
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प्रश्न 6. आपने कहा - समकालीन साहित्य में ’मैं कौन हूँ’ की जगह ’हम कौन हैं’ पर चिंतन होता है। इसे समझायेंगे?
उत्तर - बिलकुल! ’मैं कौन हूँ’ का चिंतन भारतीय दर्शन का केन्द्रबिन्दु रहा है। इसकी अवधारण नितांत वैयक्तिक है जो हमें अध्यात्म की ओर ले जाता है। जीवन के यथार्थ से या यथार्थ की दुनिया से इसका क्या संबंध है? अथवा इसका सामाजिक सरोकार क्या है? ’’मैं नीर भरी दुख की बदली,’’ में ’मैं’ की अभिव्क्ति नितांत निजता की अभिव्यक्ति है। क्या इसका कोई सामाजिक सरोकार बनता है? लेकिन निराला जब कहता है - ’’ठहरो, अहो! मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा। अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम, तुम्हारे दुख, मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।’’ तब निराला का ’मैं’ दुनिया के उन तमाम विचारवान लोगों का ’मैं’ बन जाता है जो ’तुम’ अर्थात् दुनिया के सारे शोषितों और वंचितों के प्रति सक्रिय सहानुभूति रखते हैं। उनकी दुनिया बदलने के लिए कुछ करना चाहते हैं। उनकी पीड़ा को आत्मा की गहराई से अनुभव करना चाहते हैं। और इसी तरह जब मुक्तिबोध कहता है - ’’मैं तुम लोगों से दूर हूँ, तुम्हारी प्रेरणओं से मेरी प्रेरणाएँ इतनी भिन्न है, कि जो तुम्हारे लिए विष है, वह मेरे लिए अन्न है।’’ तब मुक्तिबोध का, तेलिया लिबास में काम करता हुआ मैकेनिक ’मैं’ दुनिया भर के गरीब-मजदूरों और शोषितों का प्रतिनिधि बन जाता है और उसका ’तुम’ दुनिया भर के शोषकों-वंचकों का प्रतीक बन जाता है। इसीलिए मैं कहता हूँ, समकालीन साहित्य ’मैं’ का साहित्य नहीं है, ’हम’ का साहित्य है और इसीलिए मुक्तिबोध यहाँ पर मुक्ति ’मैं’ में नहीं ’हम’ में तलाशते हैं। समकालीन साहित्य आपको स्वर्ग और नरक के भूल-भुलइया में नहीं उलझाता। यदि आपका जीवन दुखों से भरा हुआ है तो उसका कारण भी इसी दुनिया में मौजूद है, और सुखमय जीवन के लिए आपको किसी स्वर्ग की जरूरत नहीं है। स्वर्ग भी इसी दुनिया में मौजूद है।
आपको वह बोध-कथा याद ही होगा? नाव से नदी पार करते हुए पंडितजी नाविक से कहता है कि अरे मूर्ख! वेद शास्त्र नहीं पढ़ने से तो तेरा आधा जीवन बेकार चला गया। तभी आँधी और बरसात के कारण नाव डूबने लगती है। पंडितजी को तैरना नहीं आता था। नाविक ने कहा - ’’पंडितजी, क्या आपके पोथी-पुराणों ने आपको तैरना नहीं सिखाया? तब तो आपका पूरा जीवन ही व्यर्थ चला गया।’’
जिस किताबी ज्ञान से नदी पार न किया जा सके, उससे भवसागर पार किया जा सकता है? जो किताबी ज्ञान प्राणों की रक्षा न कर सके, वह हमें मोक्ष देगा? कितना भद्दा मजाक है।
समकालीन साहित्य एक बेहतर समाज की बात तो करता है।
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प्रश्न 7. क्या लेखक संघ-समूह के लेखक एक दूसरे से मतभेद रखते हैं? इतना क्यों रखते हैं कि एक-दूसरे के लेखन-अभिव्यक्ति को अपनी प्रतिभा में प्रकाशित करने से इन्कार कर देते हैं?
उत्तर - मतभेद से ही असहमति और विरोध का जन्म होता है। असहमति और विरोध, दोनों ही रचनात्मकता के लिए अनिवार्य हैं। जहाँ असहमति और विरोध नहीं होगा वहाँ नव-सृजन किस प्रकार होगा? इसीलिए मैं तो मतभेद, असहमति और विरोध को सकारात्मक दृष्टि से देखता हूँ। कबीर ने क्यों कहा - ’निंदक नियरे राखिए’?
पहले लोगों ने कहा कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य उसके चारों ओर घूमता है। कुछ लोग इस सिद्धांत से असहमत हुए और एक नया तथ्य सामने आया। भविष्य में इससे भी कोई असहमत होगा और एक नया तथ्य फिर सामने आयेगा। ब्रह्मांड के रहस्य अनंत हैं। अभी तो हमने समुद्र के एक बँूद के बारे में जाना है। बाकी के बारे में जानना तो अभी बाकी है।
आपने पूछा है - क्या लेखक संघ-समूह के लेखक एक दूसरे से मतभेद रखते हैं? समकालीन साहित्य का मूलाधार एक सुदृढ़ और सुस्थापित विचारधारा है तो समकालीन साहित्य से जुड़े लेखकों और उनके समूहों में मतभेद किस बात पर होगी? पर नहीं! यह तो नये विचारधाराओं के सृजन का विचार मंच भी है। प्रकृति ने हर व्यक्ति को अपने आप में बेजोड़ बनाया है। सबकी अपनी अलग बुद्धि है, अपनी अलग सोच और सबके अपने अलग विचार हैं और इसीलिए सबके दृष्टिकोण भी अलग-अलग होंगे। विस्तार की दृष्टि से इनमें से कुछ सीमित सरोकारों वाले अर्थात निजी मान्यताओं से संबंधित विचार, संकुचित विचार और कुछ व्यापक अर्थात सामाजिक सरोकारों वाले विचार होते हैं। कोई समूह या संघ तब अस्तित्व में आता है जब व्यापक रूप से समान विचार और दृष्टिकोण वाले लोग आपस में जुड़ते है। तो उनमें मतभेद क्यों होंगे? यदि व्यक्तिगत संकुचित विचारों को जरा भी जगह मिली तो मतभेद भी होंगे और टकराहट भी होगी। इनमें वर्चस्व की लड़ाईयाँ जरूर हो सकती है।
और यदि दो भिन्न-भिन्न विचारधारा वाले समूह होंगे तो उनके विचार आपस में टकरायेंगे और उनमें मतभेद भी जरूर होंगे। हम देखते हैं, बहुत सारे साहित्यकार मित्र हैं जो आज भी भक्तिकालीन प्रवृति वाले साहित्य के सृजन में लीन हैं। तो इनसे तो वैचारिक मतभेद होंगे ही। अभी कुछ दिन पहले की बात है, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक, दोनों ही माध्यमों में एक साहित्यकार महोदय की एकाएक खूब चर्चा होने लगी क्योंकि उन्होंने गीता के श्लोकों का हिन्दी के माध्यम से छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया है। अनुवाद जरूर एक महत्वपूर्ण विधा है। पर हिन्दी में उपलब्ध कृतियों का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद तो बहुत महान् कार्य नहीं हुआ। फिर भी इनका एक बड़ा समर्थक वर्ग है। पर मैं समझता हूँ, समकालीन साहित्यकारों का इस तरह के कार्यों से शायद ही सहमति होगी।
आपने कहा है - लेखक संघ-समूह के लेखक एक दूसरे से इतना मतभेद रखते हैं कि वे एक-दूसरे के लेखन-अभिव्यक्ति को अपनी प्रतिभा में प्रकाशित करने से इन्कार कर देते हैं।
हर लेखक के पास अपनी प्रतिभा होती है। आपके पास भी है और मेरे पास भी है। मैं आपकी प्रतिभा का अनुसरण करूँ, या आप मेरी प्रतिभा का अनुसरण करें, क्या यह उचित होगा? पर प्रतिभा में मौलिकता हो तो दुनिया उसे स्वीकारती है, उसकी सराहना करती है। मैं पूछता हूँ, आज ऐसा कौन सा व्यंग्यकार होगा जिसके लेखन में परसाई या जोशी प्रकाशित नहीं होते होंगे? मुक्तिबोध और प्रेमचंद आज सिर चढ़कर क्यों बोल रहे हैं। क्या हमारे अंदर इनकी प्रतिभाएँ प्रकाशित नहीं हो रही हैं? क्या हम एक दूसरे की अच्छी रचनाओं की प्रशंसा नहीं करते हैं?
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प्रश्न 8. तो क्या परजीवी रचनाकार जन्म लेकर फलते-फूलते हैं?
उत्तर - परजीवी साहित्यकार किसे कहा जायेगा? इसे पहले स्पष्ट करना होगा। आज दुनिया का हर समकालीन साहित्यकार किसी एक सुस्थापित विचारधारा का अनुसरण कर रहा है। मुक्तिबोध ने कहा है कि आपको स्पष्ट करना होगा कि आप किस ओर खड़े हैं। वह विचारधारा जो साहित्यकार को दुनिया भर के शोषितों के पक्ष में खड़ा कर देता है, तो उस विचाधारा का अनुसरण करना परजीवी होना तो नहीं होगा न।
देखिये! आज बाजार जीवन के हर क्षेत्र में हावी है। बाजार के दबाव के चलते ही, मैं समझता हूँ, एक समानान्तर साहित्य विकसित हो चुका है। आप मनोरंजन परोसने वाले टी. व्ही. चैनलों पर प्रसारित हो रहे कार्यक्रमों को देखिये। इन धारावहिकों का कथानक तैयार करने वाले और इसका स्क्रिप्ट लिखने वाले लोग भी तो अंततः साहित्यकार ही हैं। वे तो वही लिखते होंगे जो उनका निर्माता और निर्देशक सुझाता होगा। क्या वहाँ पर शोषण के खिलाफ कुछ कहा जा रहा है? वहाँ तो केवल कल्पना की एक झूठी दुनिया है, पूँजी की सत्ता केन्द्र के चारों ओर की भूल-भलैया में दर्शकों को भटका कर उन्हें उनके वर्तमान जीवन की सच्चाइयों से कोसों दूर ले जाता है। तो अगर परजीवी साहित्यकार कोई होगा तो सबसे पहले मैं इस वर्ग में इन्हीं साहित्यकारों को देखना पसंद करूँगा। ये फलेंगे भी और फूलेंगे भी, पर इनके फूल और इनके फल दुनिया के लिए कभी सेहतमंद नहीं होंगे। इससे न तो दुनिया का पेट भरेगा और न ही दुनिया सुंदर बनेगी।
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प्रश्न 9. सात्यिकार अंततः किसके साथ खड़ा रहता है?
उत्तर - मुक्तिबोध ने जिस मेहतर की कल्पना की है, मैं तो उसी ओर खड़ा होना पसंद करूँगा।
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प्रश्न 10. आपने एक प्रश्न खड़ा किया है, ’भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल’ मान लेने से इसके पूर्व और इसके बाद के साहित्य खारिज ही हो जाते है। इस संबंध में मेरा एक प्रश्न है। जो विभाजन भक्तिकाल का आचार्य शुक्ल ने किया वह तो संप्रदायवाद की ओर नहीं जाता? जैसे - भक्ति तो भक्ति ही है। विधिवत् शिक्षा कबीर की नहीं हुई उसे आचार्य ज्ञानमार्ग में डाल देते हैं। यह एक साजिश तो नहीं है? आपके विचार जानना चाहूँगा।
उत्तर - मैंने कहा है - भक्तिकाल को ’हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल’ कहने में लोगों ने बहुत जल्दबाजी की है। ऐसा कहने वालों ने पूर्व के वीरगाथाकाल और बाद के रीतिकाल से जरूर इसकी तुलना की होगी। चाहे जैसा भी किया हो, पर एक बात तय है, इस तरह की घोषणा करके इन लोगों ने संभावनाओं को जरूर खारिज कर दिया है। यह मूर्खतापूर्ण है। इसीलिए मैंने कहा कि इस प्रकार की घोषणा करके इन लोगों ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को समाप्त मान लिया था। आज के समीक्षकों-साहित्यकारों को इस बात पर जरूर गौर करना चाहिए। आप देख रहे हैं, आधुनिक साहित्य का अपना अलग ही सौन्दर्य है। आपने कबीर की बात की है। कबीर को किसी मार्ग में डालने या बांधने की क्षमता किसी में नहीं है। वे तो मुक्त आत्मस्वरूप हैं। उनकी इच्छा, वे चाहे जहाँ खड़े हो जायें। वैसे कबीर को बाजार में खड़ा होना जयादा अच्छा लगता है। बाजार का संबंध लोक से है। कबीर लोक के आदमी हैं, वे लोक में ही जिन्दा हैं, और लोक के कारण ही जिन्दा हैं। पुराणवादियों ने तो उनके अवसान के अनेक अपाय कर लिए थे।
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प्रश्न 11. आपकी भोलापुर की कहानियाँ विसंरचनावाद में वर्चस्ववादियों का खात्मा करने का प्रश्न खड़ा करती है?
उत्तर - मैंने किसी के खात्मे की बात नहीं की है। प्रकृति में एक पहलू वाला कुछ भी नहीं है, सारे द्विपक्षीय हैं। एक पक्ष अच्छाई का है तो दूसरा पक्ष बुराई का है। जीवित समाज में ये दोनों बातें रहेगी ही, दोनों के बीच निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। दोनों के बीच विचलन होता रहता है। पर यदि बुराई के पक्ष में अधिक विचलन हो तो पलड़े को सम पर लाने के लिए बड़े संघर्ष की जरूरत होती है, जनआन्दोलन की जरूरत होती है। मैंने इसी संघर्ष की बात की है। छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संपदाओं से संपन्न है। यहाँ के लोगों ने इसका संरक्षण किया है, दोहन कभी नहीं किया। अब इस संपदा को लूटने की होड़ मची हुई है। यहाँ के लोग तो किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में हैं। वे अपनी संपदा की रक्षा करें, या अपने स्वाभिमान की रक्षा करें या अपने अस्तित्व की रक्षा करें, उन्हें तो कुछ सूझ नहीं रहा है। यही तो भोलापुर की और उसके संघर्ष की कहानी है।
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प्रश्न 12. छत्तीसगढ़वासी वर्तमान में वर्चस्व संकट से गुजर रहे हैं; भोलापुर के कहानी में सुस्पष्ट है - तो आप किस-किस प्रकार के लेखन की अपेक्षा करते हैं? विशेषकर नये लेखकों से।
उत्तर - आप देख रहे होगें। छत्तीसगढ़ में आज कवियों और लेखकों की बाढ़-सी आई हुई है। छत्तीसगढ के लिए यह बड़ा शुभ संकेत है। यह बाढ़ इस बात का संकेत है कि आज के हमारे कवि और लेखक अपनी संपदा की रक्षा के लिए, अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जाग चुके हैं। वे अपनी-अपनी कलम से अपने-अपने स्तर पर लड़ रहे हैं। अपने कवियों और लेखकों से मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ। आवश्यकता संगठित होने का हैं। शासन ने राजभाषा आयोग बनाया है। क्या कर रहा है आयोग? उसके पास छत्तीसगढ़ के कवियो और लेखकों की सूची है? उसके पास छत्तीसगढ़ के साहित्य समितियों और उसके पदाधिकारियो-सदस्यों की सूची है। इनकी गतिविधियों के साथ उनका समन्वय है? आयोग आखिर किस लिए है? अपेक्षा मेरी इसी स्तर पर है।
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प्रश्न 13. किसी कृति की समीक्षा में कृति के अंदर परखना चाहिए या उसके आरपार देखकर?
उत्तर - किसी कला की समीक्षा में दो पक्ष होते हैं - पहला पक्ष कला और दूसरा पक्ष समीक्षक। किसी एक ही कला की समीक्षा में अलग-अलग समीक्षकों के निष्कर्ष अलग-अलग हो सकते हैं। सबकी आपनी दृष्टि और अपने दृष्टिकोण होते हैं। रचना के भी अनेक आयाम और अनेक पहलू होते हैं। सभी समीक्षक सभी आयामों और सभी पहलुओं तक नहीं पहुँच पाते हैं। इसीलिए मेरा मानना है कि कोई भी समीक्षा कभी भी पूर्ण नहीं होती। रह गई बात आरपार देखने की, तो आरपार देखना पारदर्शी वस्तुओं में ही संभव हो सकता है। इस तरह तो वस्तु के अंदर की बनावट और बुनावट को देखना कभी संभव नहीं हो सकता। वस्तु के अंदर की बनावट और बुनावट को देखने के लिए तो उसकी शल्यक्रिया करने की आवश्यकता होती है। तो समीक्षक के लिए यही काम जरूरी और महत्वपूर्ण है।
किसी भी समीक्षक के लिए जरूरी है, यदि वह रचना और रचनाकार के साथ न्याय करना चाहता है, सबसे पहले वह अपने सभी तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्त हो ले। समीक्षक एक साथ परीक्षक भी होता है और परीक्षार्थी भी। हर सवाल के लिए उसकी तैयारी पूरी होना चाहिए। हर रचना के पीछे रचनाकार का एक खास उद्देश्य होता है। समीक्षक का दूसरा काम हो जाता है, रचनाकार के इस उद्देश्य को वह पकड़े, समझे और अपने तर्कों के द्वारा सिद्ध करे कि रचनाकार अपने उद्देश्य में कितना और कहाँ तक सफल रहा। रचना और रचनाकार की कसौटी उद्देश्य प्राप्ति की सफलता होना चाहिए। किसी संयंत्र की स्थापना एक वस्तु विशेष का उत्पादन करना होता है। इस प्रक्रिया में कुछ सहउत्पाद भी बनते है। संयंत्र की सफलता उसके मुख्य उत्पाद की गुणवत्ता द्वारा निर्धारित होती है। उस रचना में रचनाकार की नई खोज क्या है जिसे वह समाज को देने जा रहा है, रचना की भाषा कितनी संप्रेषणीय है, पाठक के दिमागी कसरत के लिए उसमें कितनी गुंजाइश है, आदि बातें बाद में आती हैं।
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प्रश्न 14. क्या एक प्रतिबद्ध विचारधारा में किसी कृति को कसना एक प्रकार की तानाशाही होगी ही?
उत्तर - जरूर होगी। किसी लेखक या रचनाकार का एक प्रतिबद्ध विचारधारा से संबद्ध होना अच्छी बात है, पर बंधना अच्छी बात नहीं हो सकती। किसी प्रतिबद्ध विचारधारा से संबद्ध या बंधे हुए रचनाकार का दृश्यवितार और दृष्टिविस्तार उसी विचारधारा के दायरे में सिमटा हुआ होगा। इसके विपरीत यदि कोई रवनाकार किसी प्रतिबद्ध विचारधारा के अलावा भी, उसके दायरे से निकलकर, समाज के बीच जाता है और समाज के यथार्थ को भोगता है, देखता है तो यह अधिक महत्वपूर्ण होगा क्योंकि इसमें दृश्यवितार और दृष्टिविस्तार की अपार संभावनाएँ होगी। और इस तरह स्वचिंतन और स्वअनुभूति से लेखक का अपना स्वयं का कोई नया विचार प्रसूत होता हो तो यह रचनाकर्म के लिए और भी उपयोगी होगा। ऐसा होता ही है, इसलिए किसी एक प्रतिबद्ध विचारधारा में किसी कृति को कसना एक प्रकार की तानाशाही ही होगी?
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प्रश्न 15. तो धर्म-राजनीति समीक्षा में आदर्श क्यों नहीं माने जा सकते?
उत्तर -आज सारी चीजे यथार्थ केन्द्रित हो गई है। हमारे अतीत का यथार्थ क्या था, आज का यथार्थ क्या है-कैसा है और भविष्य का यथार्थ क्या होना चाहिए, आज का सारा चिंतन और लेखन इन्हीं पर आधृत हो गया है। हमारा भविष्य कैसा होना चाहिए, इस पर आज का हमारा चिंतन भी यथार्थ परक हो गया है, आदर्श परक नहीं। नैतिकता और आदर्श का उपदेश झाड़ते हुए ढाई हजार साल बीत गये। कितना लाभ हुआ? समाज में बुराइयों का स्तर कम हुआ, या बढ़ा? इसीलिए आज शिक्षाविदों का कहना है - बच्चों को नैतिकता और आदर्श का उपदेश देने के स्थान पर उन्हें यथार्थ का ज्ञान कराया जाना चहिए। व्यावहारिक तौर पर नैतिक-अनैतिक और अच्छे-बुरे का निर्णय उन्हें स्वयं करने देना चाहिए। लोगों को धर्म और राजनीति का भी यथार्थ आज समझ में आ जाना चाहिए। यह तो होना ही चाहिए।
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प्रश्न 16. परतंत्रता उपनिवेशवाद-स्वतंत्रता उपनिवेशवाद में सत्ताकेन्द्र अपने लिए लेखकों की फौज तैयार की है। इसमें लेखन को लकवा मार जाता है। आपके विचार जानना चाहूँगा।
उत्तर - आप ठीक कहते हैं। आज उपनिवेशवादी ताकतों की ही सरकारें काम कर रहीं है और सारे राष्ट्राध्यक्ष बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सी. ई. ओ. की भूमिका में आ गये हैं। भौतिक सुख की लालच में पड़कर लेखक भी उपनिवेशवाद की गुलामी करने के लिए आतुर हो गये हैं। टी. व्ही. के धारावाहिक क्या सिद्ध करते हैं? पर सभी लेखक ऐसे नहीं हैं। लेखकों के साथ यह नहीं होना चाहिए।
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