रविवार, 8 अक्तूबर 2017

व्यंग्य

असहमत रस के रसरसे रसाचार्य 

हमारे यहाँ द्रोण-अर्जुन की तरह गुरू-शिष्य की एक जोड़ी पायी जाती है। इन दोनों की जोड़ी यहाँ असहमत द्वय की जोड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। फिलहाल, इस जोड़ी के गुरू को असहमत ’अ’ और शिष्य को असहमत ’ब’ कहकर काम चलाना पड़ेगा। यह जोड़ी साहित्यिक कार्यक्रमों के आमंत्रण को पूरी गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ लेती है। परंतु किसी कार्यक्रम में समय पर पहुँचने के मामले में वे सदा एक मत से असहमत रहते हैं। 

संभव है, ’असहमत’ शब्द का अर्थ व्याकरणाचार्य इस प्रकार बतायें - ’अ $ सह $ मत = असहमत’। किसी मत के ’साथ न होना’ असहमत होना है। इसके विपरीत, अर्थात् ’साथ होना’ सहमत होना है। मैं इस विष्लेशण से पूरी तरह सहमत हूँ। परंतु असहमत द्वय की पे्ररणाओं से मुझे इसकी एक नयी व्याख्या सूझ रही है - ’असह $ मत = असहमत’, अर्थात् - किसी की बात या किसी के द्वारा प्रतिपादित मत का किसी के लिए ’असह’ हो जाना। असहमत होना एक चमत्कारी गुण है। अपने आप को प्रकाशित और विज्ञापित करने का यह सबसे आसान तरीका है।  किसी सभा में किसी से असहमत होकर असहमत होनेवाले लोग अपने आप को अच्छी तरह से प्रकाशित और विज्ञापित कर लेते हैं।

रसरसे व्यक्तित्व के धनी असहमत द्वय स्वयं को बहुत बड़े रसाचार्य मानते हैं। उनका कहना है कि रसों की संख्या को नौ तक सीमित करके भरत मुनि ने रसिकों के साथ घोर अन्याय किया है। असहमत द्वय का दावा है कि अब तक उन लोगों ने सौ से अधिक नवीन रसों का अनुसंधान कर लिया है। उन लोगों के अनुसार असहमत होना भी एक तरह का रस है। इसे वे ’असहमत रस’ कहते हैं।  

मित्रों! यह एकदम सही है, असहमत द्वय से मैं भी सहमत हूँ। देखिए - ’किसी सहृदय के हृदय में किसी मत को या किसी बात को सुनकर, पढ़कर या देखकर जब असह पीड़ा देनेवाली असह भाव जाग्रत होता है तब उस असह पीड़ा-भाव  को असहमत रस का स्थायी भाव समझना चाहिए। वक्ता विभाव, उसके द्वारा प्रतिपादित मत आलंबन विभाव और उसके द्वारा अपनी विद्वता प्रदर्शन का प्रयास आदि कार्य उद्दीपन विभाव माने जायेंगे। प्रतिपादित मत के प्रति विरोध प्रदर्शन और इससे उत्पन्न नोक-झोक, वाद-विवाद आदि असहमत रस के अनुभाव माने जायेंगे। सामनेवाले को नीचा दिखाने और स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के भाव आदि इसके संचारी भाव माने जायेंगे। असहमति-भाव के साथ इन सब भावों के संयोग से उत्पन्न रस को ’असहमत रस; कहा जाना चाहिए।’’ 

इसे चखने वाले सहृदय जानते हैं - यह रस अत्यंत मीठा, स्वादिष्ट और प्रतिष्ठा प्रदान करनेवाला होता है। 
कार्यक्रमों में असहमत द्वय की उपस्थिति से असहमत रस की तीव्र बौछारें शुरू हो जाती हैं। सुननेवाले इस रस के स्वाद से आह्लादित होते रहते हैं। एक कार्यक्रम में वर्तमान में बापू के विचारों की प्रासंगिकता पर चर्चा हो रही थी। दो शब्द बोलने के लिए मुझे मंच पर बुलाया गया था। मुझ जैसा निपट गंवार व्यक्ति दो शब्द का महत्व भला क्या जाने? परंतु उस दिन असहमति के हमले झेलने के बाद बात अब कुछ-कुछ समझ में आने लगी है। दो शब्द कहकर वक्तव्य समाप्त कर लेने के फिलहाल तीन फायदे तो हो ही सकते हैं। पहला - दो शब्द कहने के लिए पूर्व तैयारी की कवायद और कष्ट से शत-प्रतिशत बचा जा सकता है। दूसरा - दो शब्द कहकर चुप हो जाने से कहे गये दो शब्दों के भाव या अर्थ अधिकांश लोग समझ ही नहीं पायेगें। समझने की इच्छा रखनेवाले श्रोताओं को इसे समझने की पूरी-पूरी स्वतंत्रता मिल जायेगी। स्पष्ट है, इससे असहमत होने के अवसर या तो पैदा ही नहीं होंगे या कम से कम हो जायेंगे। इससे मत प्रतिपादक को असहमति के हमलों से राहत मिलेगी। तीसरा - कहते हैं, ’बंद मुटठी लाख की, खुल जाये तो खाक की।’ दो शब्दों में वक्तव्य समाप्त करने से बंद मुट्ठी को खोलने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। इस तरह मुझ जैसा निपट गंवार वक्ता भी अपनी मूर्खता की रक्षा कर सकता है। इससे किसी भी गंवार और मूर्ख वक्ता की प्रायोजित गरिमा और विद्वता श्रोता समाज में अक्षुण्ण बनी रहेगी।

अपनी गरिमामय आदत के अनुसार इस दिन भी असहमत द्वय का आगमन काफी विलंब से हुआ। कार्यक्रम स्थल के स्वागत द्वार पर असहमत द्वय की उपस्थिति की गंध पाते ही समस्त आयोजक और श्रोतागण उधर ही दौड़ पड़े। सभा स्थल से समस्त श्रोतागण अस्त हो गये। तब, अपना वक्तव्य रोककर स्वागत द्वार की ओर हाथ जोड़कर, अपनी जगह पर खड़े रहने के अलावा मैं और क्या कर सकता था। 

असहमत द्वय का स्वागत-सत्कार जब तक संपन्न हो, आइए अपने अब तक के वक्तव्य का सारांश मैं आपको निवेदित कर दूँ। बापू स्वच्छता के हिमायती थे। अब हमारी सरकार देश भर में इसे स्वच्छता अभियान के रूप में चला रही है। हर घर, हर परिवार में शौचालय निर्माण का काम चलाया जा रहा है। वर्तमान में बापू के विचारों की यह सबसे बड़ी प्रासंगिकता है। अपने वक्तव्य में मैं खुले में शौच करने से होनेवाले नुकसानों के बारे में बता रहा था। 

असहमत द्वय के असहमति के भाव उन्हें बेचैन कर रखा होगा। उनके स्वगत के बाद जैसे ही मैंने अपना वक्तव्य शुरू किया असहमत ’ब’ जी ने अपनी असहमति का भोंपू बजाना शुरू कर दिया - ’’कुबेरजी, इससे मैं सहमत नहीं हूँ।’’

असहमत ’ब’ जी की दिव्य दृष्टि और दिव्य श्रवणशक्ति से मुझे आश्चर्य हुआ। अपने वक्तव्य में मैंने अब तक क्या कहा है और आगे क्या कहनेवाला हूँ, इससे वे अब तक अवगत नहीं हुए थे। फिर भी उनका असहमति का भोंपू बजना शुरू हो गया था। उनकी अनुपस्थिति में अब तक मेरे द्वारा निवेदित बातें उनके द्वारा दिव्य श्रव्यशक्ति के बिना कैसे सुनी जा सकती थी। मैंने पूछा - ’’किस बात से?’’

’’यही, घर-घर शौचालय बनाने के कार्यक्रम से।’’

’’क्यों भला?’’

इस प्रतिप्रश्न के उत्तर में वे शौचालय बनाने और उससे संबंधित आर्थिक भ्रष्टाचार की बातें तथा शौचालय के उपयोग के दुष्परिणामों के बारे में एक-एककर बताने लगे। कहने लगे - ’’क्योंकि इससे भूमिगत जलस्रोत प्रदूषित होंगे। और अंततः लोग बीमार पड़ने लगेंगे। इससे तो खुले में शौच जाने की परंपरा ही ठीक है।’’ इस दौरान असहमत ’अ’ जी अपने शिष्य की बातों को ध्यान लगाकर सुनते रहे। बीच-बीच में वे अपने दिव्य सूत्र वाक्यों के द्वारा असहमत ’ब’ जी को प्रोत्साहन देकर अपना गुरुधर्म भी निभाते रहे। 

असहमत ’ब’ जी द्वारा खुले में शौच करने के महत्व को समझाये जाने से मेरी सोचने की धारा एकदम बदल गयी। उसके द्वारा शौचालय बनाने और उसके प्रयोग के दुष्परिणामों के बारे में विस्तार पूर्वक डाले गये दिव्य प्रकाश से मेरी ज्ञानेन्द्रियों के भीतर के कोने-कोने में वर्षों से समाया हुआ अज्ञानता का अंधकार पलभर में दूर हो गया। मेरी चेतना ज्ञान के आलोक से दीप्त हो उठी। असहमत ’ब’ जी के समक्ष नतमस्तक होते हुए मैंने कहा - ’’मित्रों! असहमत ’ब’ जी की बातों से अब मैं पूरी तरह सहमत हो चुका हूँ। इसमें कोई संदेह नहीं है कि शौचालयों का प्रयोग करने से हमारे देश की धर्मपारायण, सुसंस्कृत आम जनता खुले में शौच करने से होनेवाले अनेकानेक फायदों से वंचित हो जायेगी। खुले में शौच करने के कुछ फायदे इस प्रकार हैं - 
देश की लगभग सौ करोड़ जनता द्वारा खुले में शौच करने से शौच के भीनी-भीनी, दिव्य, नैसर्गिक और अलौकिक गंध से संपूर्ण वतावरण गमकने लगता है। भारत भ्रमण के लिए आनेवाले विदेशी नागरिक इस देश की धरती पर पैर रखते ही इस अलौकिक गंध से अभिभूत हो उठते हैं। शौचलयों का प्रयोग करने से इस अलौकिक गंध से हम सब वंचित हो जायेंगे।

देश की लगभग सौ करोड़ जनता द्वारा खुले में किया गया शौच विभिन्न माध्यमों से हमारे तालाबों, पोखरों, कुओं, नदी-नालों आदि जल स्रोतों के जल में जाकर विलीन हो जाते हैं। इससे इन जलस्रोतों के जल की गुणवत्ता में वृद्धि हो जाती है। जल अधिक सुस्वादु और पौष्टिक हो जाता है। इससे देश की करोड़ों कुपोषित जनता के पोषण स्तर और स्वास्थ्य में सुधार होता है।

खुले में किया गया शौच सूखकर धूल के कणों के रूप में हवा में तैरते रहते हैं। हवा के साथ हमारे फेफड़ों में पहुँचकर ये कण फेफड़ों को मजबूत और निरोग बनाते हैं। खुले में रखे हुए खाद्य वस्तुओं पर निःक्षेपित होकर ये उनका वजन और उनकी पौष्टिकता में वृद्धि करते हैं। इसके अलावा शौच में पैदा होने और पलनेवाली  मक्खियाँ भी अपने पैरों से इसे ढो-ढोकर हमारी खाद्य वस्तुओं तक पहुँचाती हैं और खाद्य वस्तुओं के भार को बढ़ाती हैं। 

शोधकर्ता वैज्ञानिकों का मत है कि इस तरह देश का प्रत्येक नागरिक प्रतिदिन अनजाने ही औसतन चार ग्राम मल खा लेता है। शौचालयों के प्रयोग करने से देश की जनता इस सौभाग्य से वंचित हो जायेगी। देश की भूखी-नंगी जनता के साथ ऐसा छल करना महा पाप होगा।

 शोधकर्ता वैज्ञानिकों की गणना के अनुसार देश की सौ करोड़ जनता द्वारा उत्पादित मल को संग्रहित करने से हर साल एक हिमालय पहाड़ बन सकता है। ऐसा संग्रहण देश की सीमाओं में करने से कुछ ही सालों में देश के चारों और कृत्रिम हिमालय पहाड़ का निर्माण किया जा सकता है। इस तरह देश के अंदर घुसपैठ करनेवाले आतंकवादियों से, और विदेशी आक्रमणकारियों से देश को पूरी तरह सुरक्षित बनाया जा सकता है। देशी, कबाड़ से जुगाड़ तकनीक और सहज-सुलभ संसाधन से ऐसा महान् कार्य मुफ्त में और सरलता पूर्वक संपन्न कर लेने से दुनियाभर में हमारे देश का गौरव बढ़ेगा।’’

इतना कहकर मैंने अपना वक्तव्य समाप्त कर लिया। किसी श्रोता ने ताली नहीं बजाई। सभी  अपना-अपना नाक-भौं बनाते-सिंकोड़ते हुए बैठे रहे। दरअसल असहमत जी की असहमति के साथ मेरे सहमत हो जाने के कारण सभा में एक भी संचारी भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकी। संचारी भाव के अभाव में असहमत रस की उत्पत्ति कैसे हो सकती थी। इससे असहमत ’अ’ जी और ’ब’ जी के साथ-साथ श्रोताओं को भी असहमत रस से वंचित होना पड़ा। 

मुझे इसका दुख है।
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