भाषा की प्रकृति
भाषा की प्रकृति विलक्षण है। यह स्वयं में सत्तासंपन्न होती है। यद्यपि यह समाज की निर्मिति है इसके बावजूद यह समाज और व्यक्ति का निर्माण करती है और उनकी योग्यताओं और चेतना के स्तरों को निर्धारित करती है, व्यक्त करती है। शायद इसीलिए कहा गया है - बंद मुट्ठी लाख की, खुल जाये तो खाक की। भाषा प्रवाहमान होती है अतः यह नित नया रूप भी धारण करती रहती है। इस प्रक्रिया में इसके शब्दों के पारंपरिक अर्थ भी बदलते रहते हैं। बहुत सारे शब्द प्रचलन से बाहर होकर विलुप्त भी हो जाते हैं। यह भाषा के शब्दों की मृत्यु है। बहुत सारी भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं और बहुत सारी भाषाएँ विलुप्ति के कगार पर हैं। इसके बहुत से कारक हो सकते हैं परंतु कुछ कारक ऐसे हें जिससे लगता है कि भाषा की हत्या हो रही है। इसके विपरीत, भाषाविज्ञानियों के अनुसार - भाषा परंपराओं के साथ मिलकर शोषण भी करती है। तो क्या भाषाएँ हत्या भी करती हैं? कहना न होगा कि भाषा का अपना बहुआयामी व्यक्तित्व भी होता है। इस मायने में यह स्यवं में किसी नागरिक से कम नहीं है। - kuber
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