गुरुवार, 9 मार्च 2017

आलेख

निर्वाचित प्रत्यसी को जनप्रतिनिधि कहना ही अपने आप में हास्यास्पद  है:- 

चुनावों में हमारे यहाँ मतदाता अपना मत किसी प्रत्यासी को नहीं बल्कि उसकी पार्टी को देता है। प्रत्यासी यहाँ पार्टी और मतदाता के बीच तीसरा प़क्ष होता है; दलाल या कमीशन एजेंट की तरह। मतदाताओं के समक्ष प्रत्यासी का न तो कोई घोषणापत्र होता है और न ही कोई वादा। जो कुछ होता है, पार्टी का होता है। मतदाता जिस प्रत्यसी को अपना मत देता है उसके बारे में या तो वह कुछ भी नहीं जानता अथवा नहीं के बराबर ही जानता है। प्रत्यासी का असली चरित्र और असली व्यक्तित्व उसके पार्टी के चरित्र के पीछे छिपा रह जाता है। इस प्रकार प्रत्यासी के असली चरित्र और असली व्यक्तित्व को या तो मतदाताओं से छिपाया जाता है, अथवा जानबूछक इसे सामने आने से रोका जाता है। यहाँ प्रत्यासी और मतदाताओं के बीच संवाद का कोई अवसर नहीं बनता; न तो चुनाव के दौरान और न ही निर्वाचित होने के बाद। और इस तरह यहाँ निर्वाचित प्रत्यासी का मतदाताओं के प्रति कोई जवादेही तय नहीं हो पाता। यहाँ सांसदों और विधायकों (अथवा किसी अन्य पद के लिए निर्वाचित प्रत्यसी) को जनप्रतिनिधि कहना ही अपने आप में हास्यास्पद है।  वास्तव में ये राजनीतिक पार्टियों के ही प्रतिनिधि होते हैं।


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