रविवार, 1 जून 2014

समीक्षा

 ’मुर्दहिया’

(डाॅ. तुलसी राम पं. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्वान प्राध्यापक हैं। आपने ’अंगोला का मुक्ति संघर्ष’, ’पर्सिया टू ईरान’ जैसी अनेक ग्रंथों की रचना की है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराही गई हैं। आपने ’अश्वघोष’ नामक साहित्यिक-सामाजिक पत्रिका का संपादन भी किया है। ’मुर्दहिया’ आपकी आत्मकथा है। ’मुर्दहिया’ शून्य से शिखर तक पहुँचने के लिए किये गये आपके महान् संघर्षों की महागाथा है। ’मुर्दहिया’ न केवल धरमपुर और उसके आसपास के गाँवों की, बल्कि 1950 ई. से 1964 ई. तक के कालखण्ड का, जाति-वर्ण व्यवस्था, अंधविश्वासों और रूढ़ियों से ग्रसित भारतीय समाज की एक कड़ुवी परंतु प्रमाणिक सच्चाई और प्रमाणिक दस्तावेज भी है। ’मुर्दहिया’ संघर्षरत् अनेकानेक दलित और वंचित छात्र-छात्राओं के लिए प्रेरणाश्रोत भी है। प्रस्तुत है, डाॅ. तुलसी राम की आत्मकथा ’मुर्दहिया’, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2010, के कुछ अंश।)

........ दौलताबाद के बाद वाला पश्चिमी गाँव विश्वविख्यात बौद्ध तथा कम्युनिस्ट विद्वान महापंडित राहुल सांकृत्यायन का गाँव कनैला था। इन्हीं सीवानों से घिरे हमारे धरमपुर गाँव के सबसे उत्तर में अहीर बहुल बस्ती थी जसमें एक कुम्हार, एक घर नोनिया, एक घर गड़ेरिया तथा एक घर गोंड़ (भड़भूजा) का था। बीच में बभनौटी (ब्राह्मण टोला) तथा तमाम गाँव की परंपरा के अनुसार सबसे दक्षिण में हमारी दलित बस्ती। एक हिन्दू अंधविश्वास के अनुसार किसी गाँव में दक्षिण दिशा से ही कोई आपदा, बीमारी या महामारी आती है, इसलिए हमेशा गाँव के दक्षिण में दलितों को बसाया जाता था। अतः मेरे जैसे सभी लोग हमारे गाँव में इन्हीं महामारियों-आपदाओं का प्रथम शिकार होने के लिए ही दलित बस्ती में पैदा हुए थे। ...... (पृष्ठ 41)

........ गरीबी के चलते दलित बच्चे प्रायः दो मुट्ठी दाना लाते थे जिसे वे छिपा-छिपाकर खाते थे। मेरी तरह कुछ बच्चे ’लाटा’ लाते थे। जौ के सत्तू में महुए कीे फूल, जिसे गोदा कहते थे, को सुखाकर थोड़ा गुड़ डालकर सान लिया जाता था। इसे लाटा कहते थे। ..... किन्तु लाटा खाना एक तरह से दरिद्रता का प्रतीक था। इसलिए मैं अक्सर लाटा अंगोछे में बांधे स्कूल के पास वाले नाले के किनारे एकांत में चला जाता था, जहाँ अनेक कब्रें थी। वहीं एक खेत की मेड़ पर बैठकर लाटा खाने के बाद नाले का दो-चार घूँट पानी पीकर स्कूल आ जाता था। ..... (पृष्ठ 57)
 
...... संयोगवश हमारी कक्षा में कोई मुसलमान छात्र नहीं था। इसका कारण साफ था कि इस काॅलेज से मुसलमान बहुत डरते थे, इसलिए कोई इसमें पढ़ने नहीं आता था। उस समय आजमगढ़ शहर में शिबली नेशनल काॅलेज बहुत मशहूर था, जिसमें मुसलमानों के साथ बड़ी संख्या में हिन्दू छात्र भी पढ़ाई करते थे। यह काॅलेज मुस्लिम प्रबंधन के तहत था, किन्तु वहाँ अत्यंत धर्मनिरपेक्ष वातावरण हुआ करता था। अतः आजमगढ़ शहर में आकर पढ़ने वाले सारे मुस्लिम छात्र शिबली नेशनल काॅलेज में चले जाते थे। जहाँ तक डी.ए.वी. का सवाल है, शीघ्र ही मुझे पता चल गया कि यह काॅलेज साम्प्रदायिक तत्वों का गढ़ था। काॅलेज के प्रिंसिपल छबील चंद्र श्रीवास्तव भी आर.एस.एस. से जुड़े थे। इस काॅलेज के लगभग सारे अध्यापक आर.एस.एस. से ही जुड़े थे। ..... पृष्ठ 167

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