शुक्रवार, 6 जून 2014

आलेख

 कबीर और हम

अदरणीय सज्जनों,

आज इस विचार मंच पर कबीर और उसके कृतित्व तथा, उसके व्यक्तित्व पर चर्चाएँ हो रही हैं। एक विद्वान ने ऐसे ही प्रसंग पर कहा है - ’’आपने छोटे छोटे दीयों से कहा है, सूरज के विषय में लिखने के लिये। आपने नन्हीं-नन्हीं बूंदों से कहा है, सागर के विषय में लिखने के लिये। क्या ये संभव है?’’ मेरा भी यही मानना है, परंतु कुछ नहीं कहने या नहीं लिखने से, कुछ कहना या कुछ लिखना उचित ही होगा। उपस्थित समस्त श्रोताओं और वक्ताओं को मैं सादर नमन करता हूँ।

आजकल ’संत समागम’ और ’सतसंग’ जैसे आयोजनों की संख्या पहले की तुलना में बहुत बढ़ गये हैं। श्रोता भी इसी अनुपात में बढ़े हैं। ऐसे सारे आयोजनों का लक्ष्य सद्वृत्तियों का विकास और दुष्प्रवृत्तियों का शमन करना होता है। इसके बावजूद समाज में दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ी हैं।

ऐसे आयोजनों में प्रवचनकर्ता शब्दों की व्याख्या करने के लिए पूरी तरह से स्वच्छन्द होते हैं। ऐसे ही एक आयोजन की बात है, - प्रवचनकर्ता ने ’कपि श्रेष्ठ हनुमान जी प्रभु राम के भक्तों में सबसे ऊँचे हैं।’ इस वाक्य के प्रत्येक शब्द, प्रत्येक अक्षर की विशद् व्याख्या करते हुए कह रहे थे - ’कपि’! के ’क’ माने कष्ट, ’प’ माने पाप और ’इ’ माने इति; अर्थात मनुष्य के सारे कष्टों और पापों का नाश करने वाला।’ पंडाल बजरंगबली के जयकारी से गूंज उठा। मुझे लगा, पंडाल का वातावरण सकारात्मक ऊर्जा से भरने लगा है।

’भक्त’ शब्द को अनावृत्त करते हुए उन्होंने कहा - ’भ’ माने भागने वाला, ’क’ माने कमर कसकर और ’त’ माने पूरी ताकत से। अर्थात भगवान के कामों में कमर कसकर पूरी ताकत से भागने वाला।’ पंडाल पुनः बजरंगबली के जयकारी से गूंज उठा।

मेरा मानना है, शब्दों के इस तरह की व्याख्या  से न तो सद्वृत्तियों का विकास होगा और न ही दुष्प्रवृत्तियों का शमन। मेरा अनुभव कहता है, इस तरह के आयोजनों का मूल और केन्द्रीय लक्ष्य मनुष्य को संत और सतसंगी बनाना होता है, या सारांश में कहें तो मनुष्य को तथाकथित धार्मिक बनाना होता है। और भी बहुत सारे आयोजन होते हैं जहाँ मनुष्य को तथाकथित रूप से धार्मिक बनाए जाने के अनेकानेक प्रयास होते हैं, बनाये जाते हैं। हिन्दू बनाए जाते हैं, मुसलमान बनाए जाते हैं या ऐसे ही कुछ और हैं, जो बनाए जाते हैं। ऐसे ही कुछ और बनाए जाने के लिए हमारे पास विकल्पों की कोई कमी नहीं है। मैंने ऐसे सारे विकल्पों की पड़ताल की है, और दावे के साथ कह सकता हूँ कि उन सभी विकल्पों में मनुष्य बनने-बनाने का विकल्प मुझे कहीं दिखाई नहीं देता है। हम भी ऐसे आयोजनों के लिए जब घर से निकलते हैं तो पूर्ण संकल्प के साथ निकलते हैं कि आज वहाँ जाकर हमें कुछ और बनना है। संकल्प का यह क्षण बड़ा क्रांतिक होता है। क्योंकि जिस क्षण कुछ और बनने का हम संकल्प कर रहे होते है, मनुष्य के अलावा भी कुछ और बनने के लिये हम ठान चुके होते हैं, उसी क्षण हम अपनी नैसर्गिक पहचान को, ईश्वर प्रदत्त पहचान को त्याग रहे होते हैं, ईश्वरीय विधान के विपरीत जा रहे होते हैं। उस क्षण हम अपनी विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, अपना विवेक, प्रेम और करुणा जैसी तमाम अनमोल मानवीय अच्छाइयों को घर की दीवालों में लगी खूँटियों पर लटका रहे होते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात है, इतना सब कुछ कर लेने के बाद भी ऐसे आयोजनों में आकर जब हम बैठते हैं, हम विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, विवेक, प्रेम और करुणा की साक्षात मूर्ति दिखाई पड़ते हैं। ध्यान रहे, मूर्ति दिखाई पड़ते हैं। मैं बहुत विनम्रता पूर्वक स्पष्ट कर देना चाहता हू कि मुझे ऐसे मूर्तियों से कोई लेनादेन नहीं है। मुझे ऐसे मूर्तियों से कोई संवाद नहीं करना है, क्योंकि कोई अगर चाहे भी तो मूर्तियों से संवाद संभव ही नहीं है। संवाद केवल मनुष्यों के साथ ही संभव है। मुझे ऐसे आयोजनों की चाह होती है जहाँ जन्मजात मनुष्य को कर्मजात मनुष्य बनाने का उद्यम होता हो, जहाँ बैठे तमाम लोगों के अंदर विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, विवेक, प्रेम और करुणा की नैसर्गिक अविरल धारा प्रवाहित हो रही हो और जिससे संवाद किया जा सके। कबीर ने अपने जीवन में ऐसा ही उद्यम किया था। उन्होंने जन्मजात मनुष्य को कर्मजात मनुष्य बनाने का प्रयास किया था, इसीलिए मुझे कबीर पर श्रद्धा है और मैं उसका अनुयायी हूँ।

अदरणीय सज्जनों, तथागत ने अपने भिक्खुओं से कहा था -

’’कुल्लुपमं देसेस्सामि वो भिक्खवे,
 धम्मं तरणत्थाय नो गहणत्थाय।’’
(’’हे भिक्खुओं! यह धर्म छोटी सी नाव के समान उतरने के लिए है। पार उतर जाने के बाद सिर पर रखकर ढोने के लिए नहीं है।’’)  

मैं बहुत साफ शब्दों में स्वीकार करता हूँ कि मैं तथागत के इसी उपदेश का पालन करता हँू और उन सभी लोगों के लिए सर्वथा अनुपयोगी और अप्रासंगिक हूँ जो पार उतरने के बाद भी धर्म को सिर पर ढोते हुए चलते हैं। पेशे से मैं शिक्षक हूँ पर साहित्य का विद्यार्थी हूँ, जाहिर है, मैं साहित्य से बंबंधित बातें ही करूँगा। मनुष्य, मनुष्यता और समाज के हित की बातें ही करूँगा। कबीर के इस मंच पर मुझे यही बातें प्रासंगिक लगती हैं। ये बातें मुझे इसलिए भी प्रासंगिक लगती हैं क्योंकि कबीर न तो घोषित संत थे और न ही घोषित धर्माचार्य। कबीर धर्म को ढोने वालों में से नहीं थे; कबीर धर्म को जीने वालों में से थे। कबीर जन्म से, कर्म से, अंदर और बाहर से, हर तरह से केवल और केवल मनुष्य थे। वे मानवता और मानवकल्याण की बातें करते थे। कबीर ने जन्मजात मनुष्य को संत या प्रचलित अर्थों में धार्मिक बनाने का कभी कोई प्रयास नहीं किया, अपितु उन्होंनेे उसे केवल कर्मजात मनुष्य बनाने का प्रयास किया है। कबीर मनुष्य और समाज की तमाम तरह की बुराइयों को साफ करना चाहते थे। धर्म के नाम पर हो रहे तमाम तरह के पाखंण्डों और कर्मकाण्डों को, समाज में फैली हुई रूढ़ियों को समाप्त कर वे एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जहाँ प्रत्येक मनुष्य केवल मनुष्य हो। कबीर मानव और मानव समाज की समीक्षा करने वाले अद्वितीय, सर्वयुगीन, महान् समीक्षक-साहित्यकार थे, सत्य के प्रवक्ता थे। वे महामानव थे।

आदरणीय सज्जनों, अभी मैंने संत, सतसंगी और साहित्यकार जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों के बारे में चर्चा भी करूँगा। शब्द की शक्तियाँ और सामथ्र्य बहुत सीमित होते हैं, कई ऐसे क्षण आते हैं जिन्हें व्यक्त करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं होते हैं; या फिर जो शब्द हमारे पास होते हैं वो पर्याप्त नहीं होते हैं। शब्द की प्रकृति यायावरी होती है। यायावरों के साथ देश और समाज की सीमा को पार करते हुए ये कहीं भी पहुँच जाते हैं। वहाँ की भाषा में इस तरह घुलमिल जाते हैं कि उसकी पहचान कर पाना कठिन हो जाता है। ’राशन’ शब्द जनमानस में इस कदर रच-बस गया है कि यदि मैं कहूँ कि यह अंग्रेजी भाषा का शब्द है तो आप मेरा विरोध करेंगे। ’कबीर’ शब्द अरबी से आया है जिसका अर्थ होता है - महान। ’साहब’ शब्द भी अरबी से आया है जिसका अर्थ होता है - ’ईश्वर’। कबीर की महानता कभी अस्वीकार्य नहीं हो सकती; परंतु हमारी प्रवृत्ति है, जिस पर हम श्रद्धा करते हैं, जिसकी पर हमें आस्था होती है, उसे हम ईश्वर मान लेते हैं। जिस महामानव ने ताउम्र समाज को मानवता का पाठ पढ़या उसे हमने मानव मानने से इन्कार कर दिया। सदियों-सदियों के बाद ही कोई मनुष्य, मनुष्य बन पाता है। सदियों-सदियों के बाद कबीर जैसा कोई महामानव पैदा होता है। हमने एक महामानव को मानव मानने से इन्कार कर दिया, उसे हमने ईश्वर बना दिया। कठिनाइयाँ यहीं से शुरू होती हैं, शब्दों के द्वारा मनुष्य की तो व्याख्या की जा सकती, परंतु ईश्वर की नहीं। शब्दों के द्वारा मनुष्य के बारे जानकारियाँ और सूचनाएँ (प्रचलित अर्थों में ज्ञान) बटोरी जा सकती हैं, परंतु इससे हम ईश्वर की व्याख्या कैसे करें, वह तो शब्दातीत है, शब्द की सामथ्र्य से परे है। एक महामानव के रूप में तो कबीर पर कुछ कहा भी जा सकता है, कबीर को समझा भी जा सकता है; परंतु साहब कबीर को जानने के लिए शब्दों का सहारा लेना मूर्खता और बेईमानी के सिवा और कुछ भी नहीं है। ईश्वर को शब्दों के द्वारा नहीं, अनुभूतियों के द्वारा ही जाना औा समझा जा सकता है। कबीर को जानने के लिए यदि हम शब्दों का सहारा लेते हैं तो उसे हमें मनुष्य मानना पड़ेगा, और यदि कबीर ईश्वर है (जैसा कि हमारी मान्यता है) तो हमें शब्दों की सारी कसरतों- मशक्कतों को छोड़कर अपने अंतःकरण के कण-कण को प्रेमरस से सिक्त करना पड़ेंगा। ’मैं’ को भूलकर, छोड़कर, प्रेम की गली से गुजरान पड़ेगा। तभी हम साहब कबीर की अनुभूति कर सकते हैं। कबीर के ही शब्दों में -
’जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि मैं नाहि।
प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाहि।’

ओशो साहित्य में एक बोध कथा मैंने बहुत बार पढ़ी है। नमक के दो पुतले थे। एक पुतला धर्म और अध्यात्म का बड़ा ज्ञाता था। वह बहुत चालाक और तार्किक था। वह तर्कों के द्वारा अपनी बातें मनवा लेता था। पहले पुतले के इन्हीं गुणों के कारण दूसरा पुतला उस पर श्रद्धा करने लगा था। समुद्र के बारे में जानने की उनकी प्रबल इच्छाएँ थी। अक्सर वे दोनों समुद्र किनारे बैठकर समुद्र की विशालता, विराटता और गहराई के बारे में चर्चा किया करते थे। समुद्र की गहराई और विशालता को नापने की तरकीबें सोचा करते थे। एक दिन दोनों ने तय किया कि इसके लिए तो हमें समुद्र में ही उतरना पड़ेगा। पहले ने, जो तार्किक था, दूसरे से कहा कि समुद्र में उतरने के बड़े खतरे हो सकते हैं। हममें से किसी एक को ही समुद्र में उतरना चाहिए। आसन्न खतरे के समय एक को किनारे पर ही मदद के लिय तैयार रहना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि समुद्र में पहले तुम उतरो। तार्किक व्यक्ति के अंदर संकल्प शक्ति का अभाव होता है क्येंकि वह हमेशा संदेह और असमंजस से भरा होता है। समुद्र की विशालता, विराटता और गहराई को जानने की, दूसरे पुतले का संकल्प पक्का था। उसने उसी क्षण समुद्र में छलांग लगा दिया। पहला पुतला उसके लौटकर आने की प्रतीक्षा करता रहा पर वह लौटकर नहीं आया। वह लौटकर आता भी कैसे? क्योंकि छलांग लगाते ही वह तो समुद्र के साथ वह एकाकार हो गया था, स्वयं समुद्र हो गया था।

कबीर को जानने वाला कबीर में ही विलीन हो जाता है। कबीर को जानने के लिए हमें कबीर में ही विलीन होना पड़ेगा। परन्तु हम सब तो किनारे बैठे हुए पुतले है। कबीर के बारे में केवल शब्दों का आडंबर ही रच सकते हैं।
आदरणीय सज्जनों, पिछले नवंबर या दिसंबर की बात है। हमारे एक रिश्तेदार के घर बहुत बड़ा धार्मिक आयोजन हुआ था। कथा वाचन के लिए बाहर के किसी प्रसिद्ध मठ से बहुत बड़े आचार्य को बुलाया गया था। साथ में उनके साजिंदे भी थे। गीत-भजन और संगीत में सभी दक्ष थे; भक्तिरस और कथारस में खुद भी डूब जाते और श्रोताओं को भी बहा ले जाते थे। रिश्तेदारी निभाने के लिए एक दिन मैं भी वहाँ उपस्थित हुआ था। आचार्य जी की भाषा बहुत मीठी थी। उन्होंने संत की मजेदार परिभाषा बताई; कहा कि - ’संत वह, जो सदा मीठा ही खाये है और मीठा ही बोले। मीठा खाने का मतलब हैं मीठा सुनना।’

पूरा पंडाल तालियों की ताल से भर गया था।

मीठा बोलने वालों के संबंध में मेरा अनुभव अलग है। स्कूल के पाठ्यक्रम में ’परीक्षा’ नामक एक पाठ है। इसके लेखक ने कहा हैं कि - ’कपटी लोग बहुधा मिष्ठभाषी होते हैं।’ मेरा अनुभव भी यही कहता है। आचार्य जी की बाते  मुझे अटपटी लगीं। परंतु वहाँ पर, जहाँ निन्यान्बे लोग सहमत थे, सौवाँ, अर्थात मैं अकेला विरोध करने की स्थिति में नहीं था। कथासत्र की समाप्ति के बाद उचित अवसर मिलने पर मैंने आचार्य जी से कहा - ’’आचार्य जी, आपने संत की बहुत बढ़िया परिभाषा बताई। संत वह, जो सदा मीठा ही खाये है और मीठा ही बोले। भाषण करते वक्त हमारे देश के तमाम नेतागण भी बड़ी मीठी-मीठी बातें करते हैं; बेचारे, सभी संत ही तो होते हैं।’’

जहाँ तक मुझे जानकारी है, कबीर की मान्यता सत्य और कड़वी बातों के लिए है। संत की कड़ुवी बातें भी हितकर होती। संत समाज के चिकित्सक होते हैं। कबीर समाज के चिकित्सक थे, वे समाज की तमाम तरह की बीमारियों को ठीक करना चाहते थे।

 डाॅ. सी. एल. प्रभात एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। उन्होंने अपने एक लेख में आदिकवि बाल्मीकि रचित रामायण के राम-भरत मिलाप प्रसंग का उल्लेख किया है। आदिकवि बाल्मीकि ने अपने विश्व प्रसिद्ध ’रामायण’ में जावालि जैसे तेजस्वी पात्र का सृजन किया है। राम को वनवास से लौटा लाने के लिए भरत के साथ वे भी गये थे। जावालि ने राम से कहा - ’’राम, राजा को जहाँ जाना था, चले गये। तुम चलो और राज्य संभालो। श्राद्ध आदि व्यर्थ है, अन्न का अपव्यय है। देखो, मरा हुआ व्यक्ति क्या खाता है? यदि दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे व्यक्ति के शरीर में चला जाता हो तो, परदेश गये व्यक्ति के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए। उन्हें मार्ग के लिए भोजन की आवश्यकता नहीं होगी।
(यदि भूमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति,
तद्यात प्रसवतां श्राद्ध न तत् पश्यनं भवतः।
अयोध्याकाण्ड 108/15)

इसी लेख में डाॅ. प्रभात ने केशकम्बली और सरहपाद (सरहपा) की भी चर्चा की है। दोनों ही भिक्खु थे। केशकम्बली की भाषा पालि थी। सरहपाद अपभं्रश काल से संबंधित हैं। यज्ञ में बलि दिये गये पशु की आत्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है; ऐसा दावा करने वाले ब्रह्मर्षियों को लक्ष्य करते हुए केशकम्बली पूछता है - ’’अग्निष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु यदि स्वर्ग चला जाता है, तो यजमान अपने बाप का वध क्यों नहीं करता?’’

इसी तरह सरहपाद कहते हैं -

जइ णग्गाविअ होई, मुत्ति ता सुणह सिआलज।
लोभ उपाडण अत्थि सिद्धि, त जुवइ-णिअम्बह।
पिच्छी गहणे दिट्ठ भोक्ख, त मोरह चमरह।
उंछ-होअणें होई जाण, ता करिह तुरंगह।

’’यदि नग्न रहने से मुक्ति हो जाय, तो कुत्ते और सियार भी मुक्त हो जायेंगे। मोरपंख धारण करने से मुक्ति यदि संभव है तो मोर और चँवर भी मुक्त हो जायेंगे। शिला चुगकर खाने से यदि ज्ञान प्राप्त हो जाय तो कांटे और तुरंग भी ज्ञानी हो जायेंगे।’’

अदरणीय सज्जनों, कबीर इन्हीं बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद की परंपरा के साधक कवि है। आज हम न तो ेबाल्मिीकि के रामायण के बारे में ही जानते हैं और न ही केशकम्बली और सरहपाद को ही जानते हैं। कारण सिर्फ एक ही है, शास्त्र, धर्म और कर्मकाण्ड को हथियार बनाकर जनता का शोषण करने वाले परजीवी शोषकों ने बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद के विचारों की हत्या कर दी है, क्योंकि इनके विचार कर्मकाण्डियों के शोषण कर्म में बाधक थे। बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद के विचार जनता को मुक्ति की ओर ले जाने वाले विचार थे। शास्त्र, धर्म और कर्मकाण्ड को हथियार बनाकर जनता का शोषण करने वालों ने कबीर के  विचारों की हत्या करने के भी बहुतेरे प्रयास किये हैं; अब भी कर रहे हैं। परन्तु ऐसा कर पाना क्या संभव हो सकेगा। अल्लामा इकबाल के शब्दों में - ’’कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहाँ हमारा।’’

आदरणीय सज्जनों, कोई धर्म बुरा नहीं होता, पर यह भी सत्य है कि दुनिया में अधिकांश उपद्रव धर्म के नाम पर ही हुए  हैं, कयोंकि इसी से कर्मकाण्डियों का हित सधता है। जनता को सम्मोहित करके उसे शोषित करने में उन्हें सुविधा हो जाती है। कबीर ने उम्रभर धर्म के नाम पर होने वाले पाखण्डों और कर्मकाण्डों का विरोध किया। पाखण्डियों और कर्मकाण्डियों को लताड़ा है। आज इस मंच से मैं समस्त कबीर पंथियों से पूछना चाहता हूँ कि धार्मिक कर्मकाण्डों और धर्म के नाम पर किये जाने वाले पाखण्डों से क्या हम मुक्त हो सके हैं?
आदरणीय सज्जनों, आजकल धर्म, सम्प्रदाय और पंथों की कई नई धाराएँ प्रवाहित होने लगी है। संयोगवश एक दिन ऐसे ही किसी धारा से जुड़े हुए एक साधक की बैठक में मेरा जाना हो गया। साधक महोदय प्रभुनाम की प्याला पीकर मदमस्त बैठे थे। वहाँ की मौन और शांत वातावरण मुझे अच्छा लग रहा था। तभी बिना किसी भूमिका के साधक महोदय ने मुझसे प्रश्न कर दिया - ’’मृत्यु क्या है? इस संबंध में आपके क्या विचार हैं?’’

इस प्रश्न से मेरा चैकना स्वभाविक था। परन्तु संयत होते हुए मैंने कहा - ’’मृत्यु क्या है, मैं नहीं जानता, इसका मुझे कोई अनुभव नहीं है, क्योंकि आज तक मैं कभी मरा नहीं हूँ। जहाँ तक मुत्यु के संबंध में मेरे विचार की बात है, बड़ा स्पष्ट है, इस दुनिया में मृत्यु से अधिक अटल सत्य मुझे और कुछ नजर नहीं आता। यद्यपि मृत्यु का मुझे कोई अनुभव नहीं है, फिर भी सुनी सुनाई और पढ़ी हुई जानकारी के आधार पर इस विषय पर मैं घंटों भाषण बाजी कर सकता हॅँू। हम दोनों इस पर घंटों बहस कर सकते हैं। परन्तु बाहरी जानकारी के आधार पर स्वयं को ज्ञानी सिद्ध करते हुए मुझे शर्म आती है। इस काम में मुझे महाधूर्तता, चालाकी, बेईमानी और पाखण्ड की गंध आती है। मुझे क्षमा करें।’’

आदरणीय सज्जनों, जन्म से मृत्यु तक की अवधि जीवन है। जीवन का अनुभव हमें होना चाहिये। जीवन का ज्ञान हमें होना चाहिए। जीवन के बारे मंे हमें बहस और चर्चाएँ करनी चाहिए। जीवन की शुरूआत जीवन से ही होती है और मरने से पहले हम अपने पीछे जीवन की पौध छोड़ जाते हैं। जीवन सृष्टि के विकासक्रम की एक कड़ी है। इसी विकासक्रम  के हम भी एक कड़ी हैं। दुनिया को सुंदर बनाने के लिए अपने हिस्से की इस कड़ी को हमने कितना मजबूत और कितना सुंदर बना पाया है, इस पर चर्चा होनी चाहिए। कबीर ने जीवन भर इसी की चर्चा की है। कबीर ने जीवन भर जीवन की ही चर्चा की है, कबीर ने हमें जीने और जीवन को सुंदर बनाने के सुंदर सूत्र दिए हैं। कबीर मृत्यु का भय दिखाने वालों में से नहीं थे, वह तो जीवन के आनंद की सहायता से मृत्यु पर विजय पाने वालों में से थे। वे मृत्युंजय थे। तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ बोलना, जान की बाजी लगाना है। परन्तु कबीर ने ऐसा कर दिखाया। एक मृत्युंजय ही ऐसा कर सकता है। कबीर मृत्यंुजय थे।

किसी कवि की एक पंक्ति की बड़ी अद्भुत कविता है जो इस प्रकार है, -
’’जिंदा आदमी सोचता है, बोलता है;
नहीं सोचने,
नहीं बोलने से आदमी मर जाता है।’’

यह कविता अद्भुत इसलिए है कि हजारों-हजारों पृष्ठ के अनगिनत ग्रंथों ने जिस जीवन और मृत्यु के रहस्यों को आज तक उद्धाटित और परिभाषित नहीं कर पाया, उसी जीवन और मृत्यु के रहस्यों को इस एक पंक्ति की कविता ने बहुत सरल शब्दों में व्यक्त कर दिया है। ऐसा इसलिए संभव हो सका है कि इस कविता में कवि का अनुभव छिपा हुआ है। जो अनुभव से आता है वही ज्ञान है।
कबीर परम ज्ञानी थे।

मैं आपका आभारी हूँ, आपने मेरी बाते सुनी। धन्यवाद।
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कुबेर








































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